dharm लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
dharm लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

श्रीकृष्ण के गांव में नहीं की जाती लड़कियों की शादी, हजारों वर्षो से है परम्परा -

भगवान श्रीकृष्ण के गांव में अगर किसी लड़की की शादी हो, तो उसके लिए इससे बढ़कर क्या होगा, लेकिन इसके उलट सदियों से श्रीकृष्ण के गांव नंदगांव में आज भी लड़कियों की शादी नहीं की जाती है। वर्षो पुरानी यह परम्परा अब नियम का रूप ले चुकी है और लोग अपनी लड़कियों की शादी यहां करने के बारे में सोचते भी नहीं है। इस परम्परा के पीछे श्रीकृष्ण ही कारण हैं। Barsana girls not married in Nandgaon from thousands years
मथुरा जाना, बना वजह

श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में गोपियों द्वारा उद्धव को उपलक्ष्य बनाकर कृष्ण को उपालंभ देने का वर्णन है। जब भगवान कृष्ण को मथुरा बुलाया गया तो बलराम सहित वे तैयार हो गए। कंस ने उद्घव जी से कहा था कि तुम ही उन्हें यहां ला सकते हो। जब राधा और गोपियों को मालूम चला कि उद्घव उनके चहेते कान्हा को ले जाने आए हैं, तो रास्ता रोक कर खड़ी हो गई। उनका ध्येय यह था कि वे जैसे-तैसे करके कृष्ण को मथुरा जाने से रोक लें और वादा करवालें कि वे कभी उन्हें छोड़कर नहीं जाएंगे। लेकिन हुआ वही जो होना था। कृष्ण मथुरा चले गए। कई दिन बीत गए। माता यशोदा, राधा, गोप, गोपियां सब अत्यंत दुखी थे। उसी समय उद्धव कृष्ण की ओर से गोपियों को समझाने-बुझाने आए। बरसाना वासी कहते हैं कि उन्हें छला गया, आगे से ऎसी नौबत नहीं आएगी। कहते हैं तब से यह परंपरा बरकार हैं, नंदगांव और बरसाना के बीच शादी नहीं होती।

खाने पड़ते हैं लट्ठ

राधा के जन्मदिन की बधाईयां देने के लिए भक्त बरसाना वासियों को बधाइयां आज भी देते हैं। इस अवसर पर नंदबाबा के गांव से भी भारी संख्या में लोग राधिका जन्म पर्व मनाने आते हैं। बधाइयां देते हैं, लेकिन अजब परंपरा यह है कि बरसाना से इस गांव में आज भी लड़कियों की शादी नहीं की जाती। भला ऎसा हो सकता है कि गांव से गांव सकुशल शादी न हों। लेकिन नंदगांव-बरसाने के बीच हजारों साल से यह परंपरा कायम है। शादी तो दूर की बात है, जब नंदगांव वासी फाल्गुन में यहां आते हैं तो बरसाना की गोरियां लाठियां बरसाती हैं। यहां उनका स्वागत डंडों से किया जाता है।

लडडू क्यों बरसते हैं

फाल्गुन में यहां विश्वप्रसिद्घ मेला लगता है। इस दौरान लट्ठमार होली का उत्सव चलता है। बरसाने की गोपियां होली के बहाने लाठी मारकर परंपरा निभाती हैं। नंदगांव वाले जवान बचने के लिए ढाल-ओढ़े रहते हैं। घी-बूंदी के लड्डूओं की भी बरसात की जाती है। यहां उपस्थित हजारों लोग इस महा-उल्लास का लुत्फ लेते हैं। माना जाता है कि डंड़ों की चोट खाने वाले नंदगांव के रहने वाले हैं और डंडे बरसाने वाली बरसाना की गोपियां। - 

बरसाना की नहीं थीं राधा, यहां हुआ था जन्म

बहुत कम लोगों का मालूम है कि श्रीराधे कहां अवतरित हुई थीं। मंदिरों की साज-सज्जा और हरे-भरे पर्वत पर महल में स्थापित प्रतिमाओं के कारण उनका जन्म स्थल बरसाना ही माना जाता है। श्री राधा के यहां जन्म लेने के पीछे कई पौराणिक कहानियां हैं। जिनमें से एक सबसे ज्यादा प्रचलित है। आईए जानते हैं बरसाना नहीं, तो किस जगह हुआ था श्रीराधा का जन्म।

यहां हुआ श्री राधे का जन्म

गोप मुखिया वृषभानु के कोई संतान नहीं थीं। बताते हैं हरि-प्रार्थना के पश्चात एक संध्या उन्हें यमुना किनारे दिव्य प्रकाश दिखा। निकट जाने पर वहां एक बच्ची सफेद वस्त्रों में लिपटी मिली। उन्होने ईश्वरीय प्रभाव मान कर सहर्ष स्वीकार कर लिया। यह जगह गोकुल के पास यमुना के पूर्वी तट पर स्थित रावल गांव था जो बरसाना से करीब दस कोस पर है। वृषभानु गोप बरसाना लौट आए, श्री राधा का लालन-पालन यहीं हुआ। ब्रजभूमि के इतिहास पर वर्णित संपादक गोपाल प्रसाद, रामबाबू द्विवेदी की पुस्तकों में यह बताया गया है कि जिस समय भगवान कृष्ण का जन्म हुआ, उस समय नंद बाबा का निवास गोकुल में था और वृषभानु गोप रावल में थे। उसी स्मृति में कुछ सौ साल पहले यहां मंदिर बनवाया गया। मंदिर का शिखर मराठों ने बनवाया। राधाजी की मां कीर्ति रानी का पीहर भी रावल था।
Where was Radha born?
हजारों साल पहले निकली कृष्ण-राधा की प्रतिमा

इतना ही नहीं उनकी स्वयं भू प्रतिमा भी यहां आज भी मंदिर में विराजमान है। गोकुल से जुडे इस गांव के एक टीले पर करील के ऊंचे पेड़ के पास श्रीकृष्ण के साथ उनकी प्रतिमा कई हजार बरस पहले स्वंय भूमि से निकली बताई जाती हैं। आज भी वह पेड़ गर्भ गृह के ऊपर है। श्री हरि के मंदिर के अलौकिक नजारे और प्राचीनता का गवाह यह गांव है रावल। रावल यमुना किनारे स्थित है। वृषभानु गोप उन्हें बरसाना लाए। वे बरसाना में ही रहीं। कान्हा भी गोकुल से नंदगांव में गाय चराते थे।

श्रीकृष्ण की झलक पाकर ही नेत्र खोले थे

मान्यता है कि, राधा का जन्म कान्हा से साढ़े ग्यारह महीने पूर्व रावल में हुआ था। कन्हैया के नंदोत्सव में बधाई देने के लिए वृषभानु व माता कीर्ति करीब एक बरस की श्री जी को लेकर गोकुल आए। तब तक राधा ने अपने नेत्र नहीं खोले थे। दोनों पहली बार यहीं मिले थे। इसी अवसर पर श्रीराधा ने अपने नेत्र खोलकर श्री कृष्ण के दर्शन किए। यानी इस तरह श्रीकृष्ण से ग्यारह महीने पहले ही प्रगटी थी राधा जी। - 

शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

धार्मिक सौहार्द का प्रतीक काठमांडू का माला बाजार



नेपाल की राजधानी काठमांडू के ठीक बीचों-बीच स्थित बाजार में कृत्रिम मोतियों से बनी मालाएं तथा चूडिय़ां आदि बेचने वाली करीब 50 दुकानें हैं जिनमें से अधिकतर उन मुस्लिमों की हैं जिनके पूर्वज करीब 500 साल पूर्व कश्मीर से आकर नेपाल में बसे थे। वे लोग 1484 से 1520 के मध्य मिस्त्री तथा चूडिय़ों के व्यापारियों के तौर पर काठमांडू आए थे। उनमें से कुछ ने राज दरबार में संगीतकारों के तौर पर काम भी किया।
धार्मिक सौहार्द का प्रतीक काठमांडू का माला बाजार


अब ये माला विक्रेता काठमांडू के जन-जीवन का अभिन्न अंग बन चुके हैं और धार्मिक सौहार्द की एक उम्दा मिसाल भी पेश करते हैं। इन दुकानों पर अधिकतर हिन्दू खरीदार आते हैं जबकि इस बाजार की अधिकतर दुकानें कश्मीरी मुस्लिमों के वंशजों की हैं। श्रावण माह तथा राखी के त्यौहार के दौरान तो इस बाजार में व्यापार खासा बढ़ जाता है जब हिन्दू महिलाएं दोस्तों तथा परिवार वालों के लिए रंग-बिरंगे मोतियों की मालाएं, ब्रैसलेट तथा चूडिय़ां खरीदती हैं।



ये दुकानें 7-8 पीढिय़ों से भी अधिक समय से मुस्लिम परिवारों द्वारा चलाई जाती रही हैं परंतु अब नई पीढ़ी नए कामों की तरफ रुख कर रही है। इस बाजार में अपनी दुकान चलाने वाले ख्वाजा असद शाह का बड़ा बेटा नेपाल के एक लोकप्रिय रैप बैंड का सदस्य तथा सफल फिल्म निर्माता है। उनका छोटा बेटा एक शिक्षक है जबकि उनकी बहू स्थानीय रेडियो स्टेशन में काम करती है।




पहले इस बाजार में मोती तथा चूडिय़ों के व्यवसाय पर एकाधिकार रखने वाले मुस्लिमों को अपनी अगली पीढ़ी के इस काम में कम रुचि लेने के साथ एक और चुनौती (चीन से आयात होने वाले सस्ते मोतियों) का सामना भी करना पड़ रहा है। गौरतलब है कि पहले काठमांडू के इस बाजार में चैक गणराज्य से ही इन्हें आयात किया जाता था।

रविवार, 22 दिसंबर 2013

कृष्णमय हुआ थार

कृष्णमय हुआ थार

बाड़मेंर  गोलेच्छा ग्राउण्ड में चल रही श्री भागवत कथा में वर्णन सुनाते हुए राजेन्द्र महाराज ने कहा की भगवान तो संसार को वेकुन्ठ में बैठे-बैठे चला सकते थे पर इस पृथ्वी पर आने के दो ही कारण थे एक मा का ममत्व पाना और दुसरा गौ सेवा करना गौ महिमा सुनाते उन्होने कहा की जिस प्राणी का मलमुत्र इतना पवित्र है वो प्राणी कितना पवित्र होगा जो परमात्मा भी वैकुन्ठ छोड़कर केवल गौ-सेवा करने के लिए इस पृथ्वी पर आते है हम तो बड़े भाग्यषाली है पहली बात भारत भूमि पे हमे जन्म मिला दूसरी कृपा गोपाल कृष्ण कथा सुनने को प्राप्त हो रही है गोवर्धन लीला को कथा सुनाते हुए उन्होने कहा इन्द्र का बहुत बड़ा अपराध लेकिन भगवान ने एक क्षण में इन्द्र को माफ कर दिया क्योंकि इन्द्र के अपराध से भगवान के जितने भी मित्र थे वो भगवान के नजदीक आ गये भगवान कहते है जो जीव मेरे भक्तों को मेरे नजीदक लाते है उसके ऊपर में बड़ा ही प्रसन्न होता हू। रास प्रसंग सुनाते हुए उन्होने कहा की भगवान जो कहते है वो करो न की जो भगवान करे क्यों की जो महिमा गंगा की है वो एक नहर की नही हो सकती। रविवार को कृष्ण जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया गया जन्मोत्सव में कान्हा की मटकिया फोड़ी गर्इ और कृष्ण भगवान की अनेक झाकिया सजार्इ गर्इ। सैकड़ो की तादाद में श्रद्धालुओं ने षिरकत की।

दुर्गाषंकर शर्मा ने बताया कि आज के मुख्य यजमान स्वर्णकार एवं जागिड़ महिला मण्डल थे। बाबुलाल माली ने बताया कि सोमवार को अमृतलाल खत्री भागवत कथा में प्रसाद का वितरण करेगें।






शनिवार, 7 दिसंबर 2013

बंसीवट में हुआ था श्रीराधा-कृष्ण का गंधर्व विवाह



मथुरा। पर्यटन निगम की अनदेखी और प्रशासन की लापरवाही से पौराणिक महत्व के भांडीरवन और बंसीवट अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। चुनिंदा श्रद्धालुओं की बदौलत ही इन मंदिरों में किसी तरह पूजा-अर्चना हो रही है।
Bnsivt
मांट मूला ग्राम पंचायत के भांडीरवन का गर्ग संहिता में उल्लेख मिलता है। लिखा है कि श्रीकृष्ण और राधा का गंधर्व विवाह इसी वन में हुआ था, जिसमें स्वयं बह्म ने ही यह विवाह कराया था। यूं तो यहां से चौरासी कोस की सभी यात्राएं निकलती हैं और कई यात्रा संचालक यहां राधारानी व श्रीकृष्ण के स्वरूपाें का विवाह रचाते हैं, परंतु इन मंदिरों का संचालन मुश्किल हो रहा है। भांडीरवन में राधारानी की मांग में सिंदूर भरते श्रीकृष्ण के विग्रह के मनोहारी दर्शन हैं।

मंदिर के सेवायत ओम भारद्वाज बताते हैं कि पर्यटन निगम ने न तो भांडीरवन को किसी योजना में शामिल किया है और न ही अपने मानचित्र में दर्शाया है। यहां प्रत्येक सोमवती अमावस्या पर्वी के नाम से मेला लगता है, जहां स्नान करने से नि:संतान महिलाओं को संतान सुख मिलने की मान्यता है।

भांडीर कूप की किदवंती है कि प्रत्येक सोमवती अमावस्या को इसमें दूध की धार निकलती है। राजस्व अभिलेखों में बंसीवट के नाम काफी जंगल और कृषि भूमि दर्ज है, बंसीवट में भगवान श्रीकृष्ण गाय चराने आते थे। यहां श्रीकृष्ण द्वारा राधारानी का श्रृंगार करने की कथाएं प्रचलित हैं। मंदिर के वट वृक्ष के बारे में मान्यता है कि इसकी टहनियों से शांत मन से कान लगाने पर उनमें से बांसुरी की आवाज सुनाई देती है। पर्यटन निगम ने यहां भी कोई विकास नहीं कराया, न ही इस धार्मिक स्थल को अपने नक्शे में स्थान दिया। करीब दो साल पूर्व तत्कालीन सीओ वीपी सिंह ने बंसीवट की महत्ता से प्रभावित होकर वहां संत निवास का निर्माण कराया था, यह मंदिर भी अब अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है।

वंशीवट में हर साल बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। जन सुविधा बढ़ाने से यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं और पर्यटकों की संख्या में इजाफा हो सकता है। इसकी सत्यता देखने के लिए

गुरुवार, 5 दिसंबर 2013

हरि तक पहुंचने का द्वार है हरिद्वार









पवित्र धार्मिक स्थलों वाले भारत देश में जब कभी भी श्रद्धालु मोक्ष की तलाश में इधर-उधर भटकते हैं तो उन्हें धर्म की नगरी हरिद्वार याद आती है। 'हरिद्वार' का शाब्दिक अर्थ है, 'हरि तक पहुंचने का द्वार'। उत्तराखंड में पवित्र गंगा नदी के किनारे बसा हरिद्वार भारत के सात सबसे पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। हरिद्वार के अलावा इसमें अयोध्या, मथुरा, वाराणसी, कांचीपुरम, उज्जैन, द्वारका शामिल हैं। यह जगह सदियों से पर्यटकों और श्रद्धालुओं को आकर्षित करता आ रहा है।


पौराणिक इतिहास


हरिद्वार शिवालिक पहाड़ियों के कोड में बसा हुआ हिन्दू धर्म के अनुयायियों का प्रसिद्ध प्राचीन तीर्थ स्थान है। यहां पहाड़ियों से निकल कर भागीरथी गंगा पहली बार मैदानी क्षेत्र में आती है। हिंदू धर्मग्रंथों में हरिद्वार को कपिल्स्थान, मायापुरी, गंगाद्वार जैसे विभिन्न नामों से पुकारा गया है। हरिद्वार का प्राचीन पौराणिक नाम 'माया' या 'मायापुरी' है, जिसकी सप्त मोक्षदायिनी पुरियों में गणना की जाती थी। ऐसा कहा जाता है कि चीनी यात्री युवानच्वांग ने भारत यात्रा के दौरान इसी शब्द का 'मयूर' नाम से वर्णन किया था। महाभारत में इस स्थान को 'गंगाद्वार' कहा गया है। इस ग्रंथ में इस स्थान का प्रख्यात तीथरें के साथ उल्लेख है।


यह पवित्र स्थल चार धाम का प्रवेश द्वार भी है। गंगा के उत्तरी भाग में बसे हुए 'बदरीनारायण', 'केदारनाथ' नामक भगवान विष्णु और शिव के प्रसिद्ध तीथरें के लिये इसी स्थान से मार्ग जाता है। इसीलिए इसे 'हरिद्वार' तथा 'हरद्वार' दोनों ही नामों से अभीहित किया जाता है।


भारतीय पुराणों में ऐसी मान्यता है कि हरिद्वार में समुद्र मंथन से प्राप्त किया गया अमृत गिरा था। तभी से यहां बारह वर्ष में आयोजित होने वाले कुंभ के मेले का आयोजन किया जाता है। कुंभ मेले के दौरान यहां श्रद्धालुओं की भारी भीड़ उमड़ती है। विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में भी इस शहर की पवित्र नदी गंगा में डुबकी लगाने और अपने पापों का नाश करने के लिए वर्ष भर श्रद्धालुओं का आना-जाना यहां लगा रहता है।


महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल हर की पौड़ी


भारत के सबसे पवित्र घाटों में से एक हर की पौड़ी को ब्रह्मकुंड ने नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है कि यह घाट विक्रमादित्य ने अपने भाई भतृहरि की याद में बनवाया था। हर रोज संध्या के वक्त यहां महाआरती आयोजित की जाती है जिसे देखकर एक अलग ही अनुभूति होती है।


हर की पौड़ी के पीछे के बलवा पर्वत की चोटी पर मनसा देवी का मंदिर बना है। हरिद्वार जाने वाले श्रद्धालु इस मंदिर के दर्शन करना नहीं भूलते। मंदिर तक जाने के लिए पैदल रास्ता है।


चंडी देवी मंदिर


गंगा नदी के दूसरी ओर नील पर्वत पर चंडी देवी मंदिर बना हुआ है। कहा जाता है कि आदिशंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में चंडी देवी की मूल प्रतिमा यहां स्थापित करवाई थी। बाद में इस मंदिर को कश्मीर के राजा सुचेत सिंह द्वारा 1929 ई. में बनवाया गया था। चंडीघाट से 3 किलोमीटर की ट्रैकिंग के बाद यहां पहुंचा जा सकता है।


माया देवी मंदिर


माया देवी मंदिर को भारत के प्रमुख शक्तिपीठों में एक माना गया है। कहा जाता है कि शिव की पत्‍‌नी सती का हृदय और नाभि यहीं गिरा था। यह मंदिर हरिद्वार से कुछ ही दूरी पर स्थित है।


सप्तऋषि आश्रम


सप्तऋषि आश्रम की खूबसूरती की अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि इसके सामने गंगा नदी सात धाराओं में बहती है इसलिए इस स्थान को सप्त सागर भी कहा जाता है। इसके पीछे की मान्यता यह है कि जब गंगा नदी बहती हुई आ रही थी तो यहां सात ऋषि गहन तपस्या में लीन थे। गंगा ने उनकी तपस्या में विघ्न नहीं डाला और स्वयं को सात हिस्सों में विभाजित कर अपना मार्ग बदल लिया।


भारत माता मंदिर


भारत माता मंदिर सप्त सरोवर हरिद्वार में आश्रम के पास में स्थित अपनी ही तरह का एक पवित्र स्थान है। यह मंदिर भारत माता को समर्पित है। वर्ष 1983 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इस मंदिर का उद्घाटन किया था। इस मंदिर में आठ मंजिलें हैं एवं यह 180 फुट की उंचाई पर स्थित है।


अन्य स्थल दक्ष महादेव मंदिर, गुरुकुल कांगडी विश्वविद्यालय, चीला वन्य जीव अभ्यारण्य आदि हैं। हरिद्वार के मंदिरों में घूमने के बाद यदि आप कुछ खरीददारी करना चाहें तो बड़ा बाजार और मोती बाजार प्रमुख है। यहां से आप कई धार्मिक अनुष्ठान से संबधित चीजें ले सकते हैं। यहां से पूजा के बर्तन, पीतल और कांसे के बर्तन, कांच की चूड़ियां, कृत्रिम आभूषण आदि खरीदे जा सकते हैं।


कैसे पहुंचें वायुमार्ग से यहां पहुंचने के लिए देहरादून में स्थित जौली ग्रांन्ट एयरपोर्ट नजदीकी एयरपोर्ट है। एयरपोर्ट से हरिद्वार की दूरी लगभग 45 किमी. है। वहां पहुंचने के लिए बस या टैक्सी की सेवा ली जा सकती हैं।


हरिद्वार रेलवे स्टेशन भारत के अधिकांश हिस्से से जुड़ा हुआ है। हरिद्वार के लिए दिल्ली से देहरादून जाने वाली शताब्दी एक्सप्रेस एक उपयुक्त ट्रेन है।


हरिद्वार आप सड़क मार्ग से भी पहुंच सकते हैं। राष्ट्रीय राजमार्ग 45 हरिद्वार से होकर जाता है। यहां जाने के लिए राज्य परिवहन निगम की बसें अपनी सेवाएं मुहैया कराती हैं।

बुधवार, 4 दिसंबर 2013

foto... 'नानी का हज' हिंगलाज, 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ










हिंगलाज शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हिंगलाज, 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ है।
स्थिति

यह शक्तिपीठ 25.3डिग्री. अक्षांश, 65.31डिग्री. देशांतर के पूर्वमध्य, सिंधु नदी के मुहाने पर (हिंगोल नदी के तट पर) पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के हिंगलाज नामक स्थान पर,कराची से 144 किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। कराची से फ़ारस की खाड़ी की ओर जाते हुए मकरान तक जलमार्ग तथा आगे पैदल जाने पर 7वें मुकाम पर चंद्रकूप तीर्थ है। अधिकांश यात्रा मरुस्थल से होकर तय करनी पड़ती है, जो अत्यंत दुष्कर है। आगे 13वें मुकाम पर हिंगलाज है। यहीं एक गुफा के अंदर जाने पर देवी का स्थान है। यहाँ शक्तिरूप ज्योति के दर्शन होते हैं। गुफा में हाथ व पैरों के बल जाना होता है। मुसलमान हिंगुला देवी को 'नानी' तथा वहाँ की यात्रा को 'नानी का हज' कहते हैं। पूरे बलूचिस्तान के मुसलमान भी इनकी उपासना व पूजा करते हैं।

हिंगलाज की यात्रा कराची से प्रारंभ होती है। कराची से लगभग 10 किलोमीटर दूर हॉव नदी है। वस्तुतः मुख्य यात्रा वहीं से होती है। हिंगलाज जाने के पहले लासबेला में माता की मूर्ति का दर्शन करना होता है। यह दर्शन छड़ीदार (पुरोहित) कराते हैं। वहाँ से शिवकुण्ड (चंद्रकूप) जाते हैं, जहाँ अपने पाप की घोषणा कर नारियल चढ़ाते हैं। जिनकी पाप मुक्ति हो गई और दरबार की आज्ञा मिल गई, उनका नारियल तथा भेंट स्वीकार हो जाती है वरना नारियल वापस लौट आता है।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार

पुराणों में हिंगलाज पीठ की अतिशय महिमा है। श्रीमद्भागवत के अनुसार यह हिंगुला देवी का प्रिय महास्थान है- हिंगुलाया महास्थानम्'। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि हिंगुला देवी के दर्शन से पुनर्जन्म कष्ट नहीं भोगना पड़ता है। बृहन्नील तंत्रानुसार यहाँ सती का "ब्रह्मरंध्र" गिरा था। यहाँ पर शक्ति "हिंगुला" तथा शिव "भीमलोचन" हैं-ब्रह्मरंध्रं हिंगुलायां भैरवो भीमलोचनः। कोट्टरी सा महामाया त्रिगुणा या दिगम्बरी॥ हिंगुलाज को 'आग्नेय शक्तिपीठ तीर्थ' भी कहते हैं, क्योंकि वहाँ जाने से पूर्व अग्नि उगलते चंद्रकूप पर यात्री को जोर-जोर से अपने गुप्त पापों का विवरण देना पड़ता है तथा भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न करने का वचन भी देना पड़ता है। इसके बाद चंद्रकूप दरबार की आज्ञा मिलती है।  चंद्रकूप तीर्थ पहाड़ियों के बीच में धूम्र उगलता एक ऊँचा पहाड़ है। वहाँ विशाल बुलबुले उठते रहते हैं। आग तो नहीं दिखती किंतु अंदर से यह खौलता, भाप उगलता ज्वालामुखी है।

देवी के शक्तिपीठों में कामाख्या, काँची, त्रिपुरा, हिंगुला प्रमुख शक्तिपीठ हैं। हिंगुला का अर्थ सिन्दूर है। हिंगलाज खत्री समाज की कुल देवी हैं। कहते हैं, जब 21 बार क्षत्रियों का संहार कर परशुराम आए, तब बचे राजागण माता हिंगुला की शरण में गए और अपनी रक्षा की याचना की। तब माँ के उन्हें ब्रह्मक्षत्रिय कहकर अभयदान दिया।

माँ के मंदिर के नीचे अघोर नदी है। कहते हैं कि रावण वध के पश्चात् ऋषियों ने राम से ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति हेतु हिंगलाज में यज्ञ करके कबूतरों को दाना चुगाने को कहा। श्रीराम ने वैसे ही किया। उन्होंने ग्वार के दाने हिंगोस नदी में डाले। वे दाने ठूमरा बनकर उभरे, तब उन्हें ब्रह्महत्यादोष से मुक्ति मिली। वे दाने आज भी यात्री वहाँ से जमा करके ले जाते हैं।
अंतिम पड़ाव

माँ की गुफा के अंतिम पड़ाव पर पहुँच कर यात्री विश्राम करते हैं। अगले दिन सूर्योदय से पूर्व अघोर नदी में स्नान करके पूजन सामग्री लेकर दर्शन हेतु जाते हैं। नदी के पार पहाड़ी पर माँ की गुफा है। गुफा के पास ही अतिमानवीय शिल्प-कौशल का नमूना माता हिंगलाज का महल है, जो यज्ञों द्वारा निर्मित माना जाता है। एक नितांत रहस्यमय नगर जो प्रतीत होता है, मानो पहाड़ को पिघलाकर बनाया गया हो। हवा नहीं, प्रकाश नही, परंतु रंगीन पत्थर लटकते हैं। वहाँ के फर्श भी रंग-बिरंगे हैं। दो पहाड़ियों के बीच रेतीली पगडण्डी। कहीं खजूर के वृक्ष, तो कही झाड़ियों के बीच पानी का सोता। उसके पार ही है माँ की गुफा। सचमुच माँ की अपरम्पार कृपा से भक्त वहाँ पहुँचते हैं। कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर, गुफा का द्वार आता है तथा विशालकाय गुफा के अंतिम छोर पर वेदी पर दिया जलता रहता है। वहाँ पिण्डी देखकर सहज ही वैष्णो देवी की स्मृति आ जाती है। गुफा के दो ओर दीवार बनाकर उसे एक संरक्षित रूप दे दिया गया है। माँ की गुफा के बाहर विशाल शिलाखण्ड पर, सूर्य-चंद्र की आकृतियाँ अंकित हैं। कहते हैं कि ये आकृतियाँ राम ने यहाँ यज्ञ के पश्चात स्वयं अंकित किया था।
द्वादश रूप

ऐसी मान्यता है कि वहाँ आसाम की कामाख्या, तमिलनाडु की कन्याकुमारी, काँची की कामाक्षी, गुजरात की अम्बाजी, प्रयाग की ललिता, विन्ध्याचल की विन्ध्यवासिनी, काँगड़ा की ज्वालामुखी, वाराणसी की विशालाक्षी, गया की मंगलादेवी, बंगाल की सुंदरी, नेपाल की गुह्येश्वरी और मालवा की कालिका इन द्वादश रूपों में आद्याशक्ति ही हिंगला देवी के रूप में सुशोभित हो रही हैं।
धार्मिक महोत्सव

वहाँ प्रतिवर्ष अप्रॅल में धार्मिक महोत्सव का आयोजन होता है, जिसमें दूरदराज के इलाके से लोग आते हैं। हिंगुला देवी की यात्रा के लिए पारपत्र तथा वीज़ा जरूरी है।

सोमवार, 2 दिसंबर 2013

सोमवती अमावस्या : अखंड सौभाग्य की प्राप्ति का व्रत



नई दिल्ली: सोमवती अमावस्या, यानी सोमवार के दिन पड़ने वाली अमावस्या का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है. इस दिन गंगा स्नान और दान आदि करने का विधान है. कई स्थानों पर विवाहित स्त्रियां इस दिन अपने पति की दीर्घायु की कामना के लिए व्रत भी रखती हैं. शास्त्रों में इसे अश्वत्थ प्रदक्षिणा व्रत भी कहा गया है. अश्वत्थ यानी पीपल का पेड़. कई प्रांतों में विवाहित स्त्रियां इस दिन पीपल के पेड़ की दूध, जल, फूल, अक्षत, चन्दन से पूजा करती हैं और उसके चारों ओर 108 बार धागा लपेट कर परिक्रमा करती हैं.
अमावस्या से जुड़े ये रहस्य बहुत कम ही लोग जानते हैं
कुछ अन्य जगहों पर पति-पत्नी के साथ प्रदक्षिणा करने का भी विधान होता है. इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी विशेष महत्व समझा जाता है. कहा जाता है कि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्व समझाते हुए कहा था कि, इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य समृद्ध, स्वस्थ्य और सभी दुखों से मुक्त होगा. ऐसा भी माना जाता है कि स्नान करने से पितरों कि आत्माओं को शांति मिलती है.

कुछ एक अन्य परम्पराओं में भँवरी देने का विधान है. धान, पान और खड़ी हल्दी को मिला कर उसे विधान पूर्वक तुलसी के पेड़ को चढाया जाता है. इस दिन पवित्र नदियों में स्नान का भी विशेष महत्व समझा जाता है. कहा जाता है कि महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर को इस दिन का महत्व समझाते हुए कहा था कि, इस दिन पवित्र नदियों में स्नान करने वाला मनुष्य समृध्द, स्वस्थ्य और सभी दुखों से मुक्त होगा. ऐसा भी माना जाता है कि स्नान करने से पितरों कि आत्माओं को शांति मिलती है.

सोमवती अमावस्या कथा

सोमवती अमावस्या से सम्बंधित अनेक कथाएँ प्रचलित हैं. एक गरीब ब्रह्मण परिवार था, जिसमे पति, पत्नी के अलावा एक पुत्री भी थी. पुत्री धीरे धीरे बड़ी होने लगी. उस लड़की में समय के साथ सभी स्त्रियोचित गुणों का विकास हो रहा था. लड़की सुन्दर, संस्कारवान एवं गुणवान भी थी, लेकिन गरीब होने के कारण उसका विवाह नहीं हो पा रहा था. एक दिन ब्रह्मण के घर एक साधू पधारे, जो कि कन्या के सेवाभाव से काफी प्रसन्न हुए. कन्या को लम्बी आयु का आशीर्वाद देते हुए साधू ने कहा की कन्या के हथेली में विवाह योग्य रेखा नहीं है.

ब्राह्मण दम्पति ने साधू से उपाय पूछा कि कन्या ऐसा क्या करे की उसके हाथ में विवाह योग बन जाए. साधू ने कुछ देर विचार करने के बाद अपनी अंतर्दृष्टि से ध्यान करके बताया कि कुछ दूरी पर एक गाँव में सोना नाम की धोबी जाती की एक महिला अपने बेटे और बहू के साथ रहती है, जो की बहुत ही आचार- विचार और संस्कार संपन्न तथा पति परायण है. यदि यह कन्या उसकी सेवा करे और वह महिला इसकी शादी में अपने मांग का सिन्दूर लगा दे, उसके बाद इस कन्या का विवाह हो तो इस कन्या का वैधव्य योग मिट सकता है.

साधू ने यह भी बताया कि वह महिला कहीं आती जाती नहीं है. यह बात सुनकर ब्रह्मणि ने अपनी बेटी से धोबिन कि सेवा करने कि बात कही. कन्या तडके ही उठ कर सोना धोबिन के घर जाकर, सफाई और अन्य सारे काम करके अपने घर वापस आ जाती. सोना धोबिन अपनी बहू से पूछती है कि तुम तो तडके ही उठकर सारे काम कर लेती हो और पता भी नहीं चलता. बहू ने कहा कि मांजी मैंने तो सोचा कि आप ही सुबह उठकर सारे काम ख़ुद ही ख़तम कर लेती हैं. मैं तो देर से उठती हूँ. इस पर दोनों सास बहू निगरानी करने करने लगी कि कौन है जो तडके ही घर का सारा काम करके चला जाता है. कई दिनों के बाद धोबिन ने देखा कि एक एक कन्या मुंह अंधेरे घर में आती है और सारे काम करने के बाद चली जाती है.


जब वह जाने लगी तो सोना धोबिन उसके पैरों पर गिर पड़ी, पूछने लगी कि आप कौन है और इस तरह छुपकर मेरे घर की चाकरी क्यों करती हैं. तब कन्या ने साधू द्बारा कही गई साड़ी बात बताई. सोना धोबिन पति परायण थी, उसमें तेज था. वह तैयार हो गई. सोना धोबिन का पति थोड़ा अस्वस्थ था. सोना धोबिन ने अपनी बहू से कहा कि उसके लौटने तक वो घर पर ही रहे. सोना धोबिन ने जैसे ही अपने मांग का सिन्दूर कन्या की मांग में लगाया, उसके पति का देहांत हो गया.

सोना धोबिन को इस बात का पता चल गया. वो घर से निराजल ही चली थी, उसने सोंचा था कि रास्ते में कहीं पीपल का पेड़ मिलेगा तो उसे भंवरी देकर और उसकी परिक्रमा करके ही जल ग्रहण करेगी.उस दिन सोमवती अमावस्या थी. ब्रह्मण कन्या के घर से मिले पूए-पकवान की जगह उसने ईंट के टुकडों से 108 बार भँवरी देकर 108 बार पीपल के पेड़ की परिक्रमा की, और उसके बाद जल ग्रहण किया. ऐसा करते ही उसके पति के मुर्दा शरीर में कम्पन होने लगा.

पीपल के पेड़ में सभी देवों का वास होता है. अत:, सोमवती अमावस्या के दिन से शुरू करके जो व्यक्ति हर अमावस्या के दिन भँवरी देता है, उसके सुख और सौभग्य में वृध्दि होती है. जो हर अमावस्या को न कर सके, वह सोमवार को पड़ने वाली अमावस्या के दिन 108 वस्तुओं कि भँवरी देकर सोना धोबिन और गौरी-गणेश की पूजा करता है, उसे अखंड सौभाग्य की प्राप्ति होती है.