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रविवार, 9 दिसंबर 2012

साफा बांधने की कला कोई रमेशजी से सीखे

साफा बांधने की कला कोई रमेशजी से सीखे


बाड़मेर रणबांकुरों की धरा राजस्थान में सिर पर साफा बांधने की परंपरा प्राचीनकाल से चली आ रही है। खासकर मारवाड़ प्रांत में तो उस जमाने में साफे से लोगों की जाति की पहचान होती थी। उस जमाने में साफा आदमी की इज्जत के रूप में माना जाता था।मान सम्मान का प्रतीक साफा स्टेटस सिम्बल का रूप ले चुका हें ,थार नगरी बाड़मेर में शादी विवाह या अन्य समारोह में घर के लोग आज भी साफा बांधने के हामी हें ,मगर आज के युवाओ को साफा बंधने का हुनर नहीं आता ,थार  की जीवनशैली में साफे का बड़ा महत्त्व हें ,घर घर में सर पर साफा पहने बड़े बुजुर्ग मिल जाते थे मग आज सर से साफा लगभग गायब हो चूका हें ,ऐसे में घरो में साफा बंधने की कला लोग भूल चुके हें ,बाड़मेर में किसी ज़माने में कई शख्स थे जो साफा बंधने में पारंगत थे ,मगर आज शहर में इक्के दुक्के लोग ही बच्चे हें जो इस कला हुनर को बचाए हुए हें .इनमे रमेश दवे का नाम प्रमुखता से लिया जाता हें .शादी विवाह की सीजन में रमेशजी के घर के आगे साफा बंधवाने वालो की भरी भीड़ रहती हें .दो दो तीन तीन दिन एडवांस साफा बंधवाने के लिए देके जाते हें . मगर रमेश दवे के मुताबिक आजकल केवल सामाजिक व धार्मिक आयोजनों पर ही साफा पहना जा रहा है। चंद मिनटों में साफा बांधने वाले रमेश दवे एक दिन में आठ सौ साफे बाँध लेते हें .कई बार शादी की सीजन में एक हज़ार से ज्यादा सेफ बाँध लेते हें । खुद की शादी से साफे बांधने का क्रम शुरू करने वाले इस शख्स को याद भी नहीं है कि आज तक वे कितने साफे बांध चुके हैं। वे बताते है कि नौ मीटर लंबे कलप किए कपड़े से जोधपुरी व गोल साफा बनता है वहीं दूल्हे के साफे के शगुन के तौर पर नारियल और दुकानदारों से प्रति नग के पच्चीस रुपए लेते हैं।
साफा बांधने में पचपन साल के रमेश दवे जैसा सानी नहीं, पलक झपकते बांध देते हैं कई पेच का साफा।