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मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

चलो बुल्लेशाह को फिर से खोजें

 

बुल्ला की जाणा मैं कौन? थैया-थैया करके थक गए फकीर बुल्लेशाह ने सदियों पहले किसी दिन यह बात खुद से अकेले में कही होगी। योगवाशिष्ठ में ठीक यही सवाल राम अपने गुरु वशिष्ठ से करते हैं। किसी अंधियारी रात में वह गुरु के घर का दरवाजा खटखटाते हैं। भीतर से गुरु पूछते हैं- कौन? राम बाहर से बोलते हैं- यही तो जानने आया हूं कि मैं हूं कौन? यह कोई संयोग नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में पहचान के सवालों से खदबदा रहा दक्षिण एशिया कभी नुसरत फतेह अली खां, कभी वडाली बंधुओं, कभी रब्बी शेरगिल तो कभी ए. आर. रहमान के सुरों पर सवार बुल्लेशाह की रचनाओं में सुकून पा रहा है।

बुल्ला की जाणा मैं कौन को ही गौर से सुनें तो इस सूफी संत के क्रांतिकारी अध्यात्म तक पहुंच सकते हैं। ना मैं मोमिन विच्च मसीतां, ना मैं विच्च कुफर दिआं रीतां। ना मैं पाकां विच्च पलीतां, ना मैं मूसा ना फिरऔन। ना मैं अंदर बेद किताबां, ना विच भंगां होर शराबां। ना विच रिंदां मस्त खराबां, ना विच जागन ना विच सौन।.....अव्वल आखर आप नूं जाना, ना कोई दूजा होर पिछाना। मैथों होर न कोई सियाना, बुल्ला शाह खड़ा है कौन। न तो मस्जिद में रमने वाला मोमिन हूं, न कुफ्र की रीत से कोई लेना-देना है। न पवित्र लोगों के बीच गंदा हूं, न मूसा हूं, न फराओ। न वेद और दूसरी किताबों में हूं, न भांग और शराब में। न मस्त शराबियों के बीच खराब पड़ा हूं, न जागने वालों में हूं, न सोने वालों में। .....प्रारंभ और अंत मैं खुद को ही जानता हूं, किसी और की मुझे पहचान नहीं है। मुझसे सयाना कोई और नहीं है, बुल्लेशाह की शक्ल में यह कौन खड़ा है? बाबा बुल्लेशाह की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों अभी पाकिस्तानी पंजाब में है, लेकिन एक मजहबी मुल्क में ऐसे बागी सुर के लिए क्या कोई जगह निकाली जा सकेगी? बाबा का जीवनकाल 1680 से 1757 के बीच माना जाता है। एक ऐसा दौर, जिसकी पहचान औरंगजेब की मजहबी तानाशाही और गुरु गोविंद सिंह की बगावत से जुड़ी है। दिल्ली तख्त के सीधे निशाने पर होने के बावजूद नवें गुरु तेग बहादुर को इस फकीर ने खुलेआम गाजी (धर्मयोद्धा) करार दिया था। हिंसा और रक्तपात से भरे उस युग को ध्यान में रखें तो उनकी इस काफी (सूफी छंद) का एक अलग अर्थ निकलता है- वाह-वाह माटी दी गुलजार। माटी घोड़ा, माटी जोड़ा माटी दा असवार। माटी माटी नूं दौड़ावे, माटी दी खड़कार। माटी माटी नूं मारन लागी, माटी दे हथियार....। मिट्टी का घोड़ा, मिट्टी का जोड़ा, मिट्टी का ही सवार। मिट्टी मिट्टी को दौड़ावे, मिट्टी की झनकार। मिट्टी मिट्टी को मार रही है, मिट्टी के हथियार....।
बुल्लेशाह के बारे में किस्सा है कि एक बार रमजान के महीने में वह अपने डेरे में बैठे बंदगी कर रहे थे और उनकेचेले बाहर बैठे गाजर खा रहे थे। कुछ रोजादार मुसलमान उधर से गुजरे और फकीर के डेरे पर लोगों को रोजातोड़ते देख नाराज हो गए। पूछा - तुम लोग मुसलमान नहीं हो क्या ? जवाब हां में मिला तो उनकी कुटाई करदी। फिर उन्हें लगा कि कुछ सेवा उस उस्ताद की भी की जानी चाहिए , जिसके शागिर्द ऐसे हैं। भीतर जाकर पूछा- अरे तू कौन है ? बुल्लेशाह ने बाजू ऊपर करके एं - वें हाथ हिला दिए। मोमिनों को लगा , पागल है। बाद मेंचेलों ने पूछा , बाबा हमें बड़ी मार पड़ी , तुम बच कैसे गए ? उन्होंने कहा , तुमसे कुछ पूछा था ? वे बोले ,मजहब पूछा था , मुसलमान बताया तो मारने लगे। बुल्लेशाह ने कहा - बेटा , कुछ बने हो , तभी मार खाई है।हम कुछ नहीं बने तो बच गए।