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रविवार, 27 सितंबर 2015

अजमेर।गुमनाम है जगह..नाथद्वारा जाते समय यहां रुके थे श्रीनाथजी



अजमेर।गुमनाम है जगह..नाथद्वारा जाते समय यहां रुके थे श्रीनाथजी


साभार। निखिल शर्मा
किशनगढ़ से लगभग 8 किलोमीटर दूर सिलोरा पर स्थित पर्यटन केंद्र पीताम्बर की गाल में श्रीनाथजी ने रात्रि विश्राम किया था। मुगल काल में मंदिरों की मूर्तियों पर किए जा रहे हमलों से श्रीनाथजी की प्रतिमा को बचाने के लिए पीताम्बर की गाल ने ही आश्रय दिया। धार्मिक और ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण यह पर्यटन स्थल आज सरकार व विभागीय उपेक्षा के चलते गुमनामी में है।

नाथद्वारा में स्थित श्रीनाथजी का मंदिर देश के करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का केन्द्र हैं। श्रीनाथजी की प्रतिमा के सुरक्षित मेवाड़ पहुंचने में अजमेर का बड़ा योगदान है। मुगलकाल में मथुरा में श्रीनाथजी की मूर्ति को नुकसान पहुंचने की आशंका के समाचार के बाद मेवाड़ के शासक ने अपने साम्राज्य में सुरक्षित रखने का आश्वासन देते हुए मूर्ति को अपने राज्य में पहुंचाने का आग्रह किया। इसके बाद भक्त लवाजमे के साथ ब्रज से श्रीनाथजी की प्रतिमा लेकर मेवाड रवाना हुए। अजमेर की सरहद में पहुंचने एवं रात्रि होने के चलते पहाड़ों के मध्य स्थित पीताम्बर की गाल में प्रतिमा के साथ भक्तों ने रात्रि विश्राम किया। अगले दिन प्रतिमा मेवाड़ सुरक्षित मेवाड़ के लिए रवाना करवाई गई।

साक्ष्य देता शिलापट्ट

प्रतिमा के पीताम्बर की गाल लाए जाने का उल्लेख यहां स्थित एक शिलापट्ट में वर्णित है। शिलापट्ट के अनुसार सन् 1483 में ब्रज से मेवाड़ जाते समय चैत्र माह की बसंत पंचमी को भक्त श्रीनाथ प्रतिमा के साथ यहां ठहरे थे। जयकिशन दास ने पीताम्बर की गाल में सन् 1914 में बैठक का निर्माण कराया था। यहां चित्रों के माध्यम से प्रतिमा को लेकर रवाना हुए भक्तों व मूर्ति को दर्शाया गया है। गौरतलब है कि पीले वस्त्र धारण करने वाले भगवान विष्णु को पीताम्बर भी कहा जाता है। इसलिए इस स्थान को पीताम्बर की गाल नाम दिया गया है।




विकसित किए जाने की दरकार

कांग्रेस शासनकाल में ग्रामीण पर्यटन विकास के तहत पीताम्बर की गाल के लिए 50 लाख रुपए स्वीकृत किए गए थे। पर्यटन विभाग ने पीताम्बर की गाल के जीर्णोद्धार के लिए 25 लाख रुपए का प्रस्ताव बनाया था। लेकिन सत्ता परिवर्तन होते ही भाजपा सरकार ने कांग्रेस के पिछले छह माह के कार्यों को रद्द कर दिया। उसके बाद से यह ऐतिहासिक स्थल उपेक्षा का शिकार है। जबकि पीताम्बर की गाल को एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है।

पीताम्बर की गाल का पौराणिक महत्व अद्भुत है। इसके महत्व को दुनिया को बताना आवश्यक है। इसके संरक्षण व पर्यटकों में प्रचार-प्रसार के लिए पर्यटन विभाग व अन्य संस्थाओं को आगे आना चाहिए। Ó

महेन्द्र विक्रम सिंह, संयोजक, इन्टैक

शनिवार, 5 मई 2012

श्रीनाथजी का ब्रज से निष्क्रमण - मेवाड नाथद्वारा तक इतिहास

श्रीनाथजी का ब्रज से निष्क्रमण - मेवाड नाथद्वारा तक इतिहास







तत्कालिन मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा दमन :- मुगल सम्राट औरंगजेब का शासन काल (सं. १७०५-१७६४) ब्रज के हिन्दुओं के लिए बडे संकट का युग था। उस धर्मोन्ध बादशाह ने राज्याधिकार प्राप्त करते ही अपने मजहबी तास्मुब के कारण ब्रज के हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बानाने का भारी प्रयत्न किया, और उनके मन्दिर-देवालयों को नष्ट-भ्रष्ट करने का प्रबल अभियान चलाया था। ब्रज के धर्माचार्यों और भक्तजनों के लिए जीवन मरण की समस्या पैदा हो गई थी। पुष्टि संप्रदाय के वल्लभवंशीय गोस्वामियों को तो अपना सर्वनाश ही होता दिखलाई देने लगा, कारण था कि उनका मुगल बादशाहों से विशेष संबंध रहा था और वे उनसे लाभान्वित भी हुए थे तथा मन्दिर देवालयों में बड़े आनन्द और धूमधाम के धार्मिक आयोजन हुआ करते थे, अतः वे औरंगजेब की आँखों में सबसे अधिक खटक रहे थे।

ब्रज से निष्क्रमण :- उस विषम परिस्थति में व्रज के विविध धर्माचर्यागण अपनी पौराणिक देव मूर्तियों (स्वरूपों) और धार्मिक पोथियों की सुरक्षा के लिए व्रज को छोड़ कर अन्यत्र जाने को विवश हो गए । वल्लभवंशीय गोस्वमियों ने अपने सेवा स्वरूप, धार्मिक ग्रंथ तथा आवश्यक सामग्री के साथ व्रज से हटकर अन्यत्र चले जाने का निश्चय कर लिया। पुष्टि संप्रदाय से सर्वप्रधान सेवा स्वरूप श्रीनाथजी का गोवर्धन के जतीपुरा गोपालपुर से हटाया जाना वल्लभवंशीय गोस्वामियों के ब्रज से निष्क्रमण, व्रज के धार्मिक इतिहास की एक अत्यन्त दुःख घटना थी।



श्रीनाथजी तथा नवनीतप्रियजी की सेवा व्यवस्था का प्रमुख उत्तरदायित्व श्री गिरिधर जी के प्रथम गृह की टीकेत गादी को रहा है उस काल में श्री दामोदर जी इस धर के तिलकायत थे, किन्तु वे १५ वर्ष के बालक थें। इसलिए उनकी तरफ से उनके बड़े काका गोविन्द जी श्रीनाथजी की सेवा और प्रथम गृह की व्यवस्था सम्बंधी कार्यो का संचालन के लिए उन्हे गिरिराज के मन्दिर से हटाकर गुप्त रीति से अन्यत्र ले जाने का निश्चय किया।



एक दिन सायंकाल होते ही श्रीनाथजी को चुपचाप रथ में विराजमान किया गया। उनके साथ कुछ धार्मिकग्रन्थ और आवश्यक सामग्री रख अत्यन्त गुप्त रीति से आगरा की ओर हाक दिया गया। रथ के साथ श्री गोविन्दजी, उनके दोनों अनुज श्री बालकृष्णजी और श्रीवल्लभजी कुछ अन्य गोस्वामी बालक श्रीनाथजी की कृपापात्र एक व्रजवासिन गंगाबाई तथा कतिपय व्रजवासी थे। यह कार्यवाही ऐसी गुप्त रीति से की गई थी कि किसी को कानों-कान तक खबर भी नहीं हुई।

जिस दिन श्रीनाथजी ने गोवर्धन छोड़ा था उस दिन संवत् १७२६ की आश्विन शुक्ला १५ शुक्रवार था। यह तिथि ज्योतिष गणना से ठीक हुई थी । श्रीनाथजी के पधारने के पश्चात् औरंगजेब की सेना मन्दिर को नष्ट करने के लिए गिरिराज पर चढ दौडी थी। उस समय मन्दिर की रक्षा के लिए कुछ थोडे से ब्रजवासी सेवक ही वहाँ तैनात थे। उन्होने वीरता पूर्वक आक्रमणकारियों का सामना किया था किन्तु वे सब मारे गये। उस अवसर पर मन्दिर के दो जलघरियों ने जिस वीरता का परिचय दिया था उसका साम्प्रदायिक ढंग से अलौकिक वर्णन वार्ता में हुआ है। आक्रमणकारियों ने मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट कर मस्जिद बनवा दी थी।

श्रीनाथजी की यात्रा और मेवाड़ की ओर प्रवास :- गेवर्धन से चलकर श्रीनाथजी का रथ रातो-रात ही आगरा पहुँच गया था। उस काल में आगरा में पुष्टि संप्रदाय के अनेक शिष्य सेवक थे। उनके सहयोग से वहाँ श्रीनाथजी को गुप्त रूप से कुछ काल तक रखा गया था। वहाँ उनकी नियमित सेवा-पूजा होती रही और यथा समय प्रभु का अन्नकूट भी किया गया। उसी काल में गोकुल का मुखिया विट्ठलदुबे श्री नवनीतप्रियजी के स्वरूप, बालतिलकायत, श्री दामोदर जी तथा प्रथम गृह की बहू-बेटियों को लेकर आगरा आ गया था। इस प्रकार सबके एकत्र हो जाने के उपरान्त आगरा छोड कर अन्यत्र जाने की तैयारी होने लगी। निष्कासित गोस्वामियो का वह दल आगरा से चलकर पर्याप्त समय तक विभिन्न हिन्दू राज्यों का चक्कर काटता रहा था। अंत में उन सबने मेवाड़ राज्य में प्रवेश किया और वहां उन्हे स्थायी रूप से आश्रय प्रदान किया। जब तक वे यात्रा में रहे श्रीनाथजी को बहुत छिपा कर रखा जाता था, और किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचकर ही अत्यन्त गुप्त रीति में उनकी सेवा-पूजा की जाती थी। जिन स्थानों पर श्रीनाथजी कुछ अधिककाल तक बिराजे थे, अथवा जहां उनका कोई विशेष उत्सव हुआ था, वहां उनकी चरण चौकियां बनाई गई। ऐसी अनेक 'चरण चोकिया' अभी तक विद्यमान है।आगरा से चलकर ग्वालियर राज्य में चंबल नदी के तटवर्ती दंडोतीघाट नामक स्थान में मुकाम किया गया। वहां कृष्णपुरी में श्रीनाथजी बिराजे थे। उस स्थान से चलकर वे कोटा गये, जहां कृष्णविलास की पद्यमशिला पर श्रीनाथजी चार महिने तक बिराजे रहे थे। कोटा से पुष्कर होते हुए कृष्णगढ़ पधराये गये थे। वहां नगर से दो मील दूर पहाडी पर पीताम्बरजी की नाल में श्रीनाथजी बिराजे थे। कृष्णगढ से चलकर जोधपुर राज्य में बंबाल और बीसलपुर स्थानों से होते हुए चाँपसनी पहुँचे थे, जहाँ श्रीनाथजी चार-पांच महिने तक बिराजमान रहे थे। उसी स्थान पर सन् १७२७ के कार्तिक मास में उनका अन्नकूट उत्सव किया गया था। अंत में मेवाड़ राज्य के सिंहाड़ नामक स्थान में पहुँचकर स्थायीरूप से बिराजमान हुए थे। उस काल में मेवाड का राजा राजसिंह (शासन-सं. १६८६ से सं. १७३७) सर्वाधिक शक्तिशाली हिन्दू नरेश था। उसने औरंगजेब की उपेक्षा कर पुष्टि संप्रदाय के गोस्वामियों को आश्रय और संरक्षण प्रदान किया था। सं. १७२८ कार्तिक में श्रीनाथजी सिंहाड़ पहुँचें थे वहा मन्दिर बन जाने पर फाल्गुन कृष्ण ७ शनिवार को उनका पाटोत्सव किया गया।



इस प्रकार श्रीनाथजी को गिरिराज के मन्दिर से हटाकर सिंहाड़ के मन्दिर में बिराजमान करने तक २ वर्ष, ४ महिने, ७ दिन का समय लगा था। उस काल में गोस्वामियों को और उनके परिवारों को नाना प्रकार के संकटों का सामना करना पडा, किन्तु वे अपने आराध्य देव श्रीनाथजी को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने में सफल हुए थे। श्रीनाथजी के कारण मेवाड़ का वह अप्रसिद्ध सिंहाड़ ग्राम श्रीनाथद्वारा के नाम से सम्पूर्ण भारत में सुविखयात हो गया। श्रीनाथजी का स्वरूप व्रज में १७७ वर्ष तक रहा था। श्रीनाथजी अपने प्राकट्य सं. १५४९ से लेकर सं. १७२६ तक व्रज में सेवा स्वीकारते रहे।