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गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

घूंघट गुलामी का नहीं तहज़ीब का प्रतिक ,देश भर में घूंघट ट्रेंड फिर महिलाओं के विकास में बाधा कैसे


 घूंघट गुलामी का नहीं तहज़ीब का प्रतिक ,देश भर में घूंघट ट्रेंड फिर महिलाओं के विकास में बाधा कैसे 


जैसलमेर औरतें आज भी घूंघट से अपना मुंह ढकती हैं। विशेषकर ग्रामीण अंचलों में बड़ी संख्या में महिलाएं घूंघट में रहती है। घूँघट हिन्दू समाज की वो प्रथा रही है जिसे लाज का प्रतीक माना जाता है. हिन्दू धर्म में महिलाओं पर घूँघट के लिए दवाब नहीं डाला जाता बल्कि महिलायें स्वयं उस व्यक्ति से सम्मानस्वरुप पर्दा करती हैं जो रिश्ते में उनसे बड़ा होता है.घूंघट के पक्षधरों का मानना है घूंघट भारतीय परंपरा में तहज़ीब ,अनुशासन और सम्मान का प्रतीक माना जाता है। आज भी राजस्थान में यह प्रथा गाँव से लेकर शहर तक में जीवित है। यह भी कहा जाता है हिन्दू धर्म में महिलाओं पर घूँघट के लिए दवाब नहीं डाला जाता बल्कि महिलायें स्वयं उस व्यक्ति से सम्मानस्वरुप पर्दा करती हैं जो रिश्ते में उनसे बड़ा होता है।इसी घूंघट प्रथा ने देश विदेशो में राजस्थान की संस्कृति को नया  आयाम दिया,विदेशी महिलाएं घूंघट को पसंद करती हैं 

घूंघट न तो गुलामी का प्रतिक हे न दासता का,यह मान सम्मान और तहज़ीब का प्रतिक हैं ,परम्पराओ का सम्मान हमारी संस्कृति रही हैं ,वैसे भी आजकल परिवारों में दबाव की स्थतियाँ नहीं रही ,ऐसे सेकड़ो उदाहरण हे की घूंघट की संस्कृति में पली बड़ी कई महिलाएं शिखर पर पहुंची हैं ,आज सेकड़ो उदहारण हे की घूंघट की आड़ में महिलाऐं फर्राटेदार इंग्लिश बोलती नजर आती हैं ,घूंघट कोई कुप्रथा नहीं हे इसको समझने के लिए लोक जीवन की यात्रा से गुजरना होगा ,घूंघट ने राजस्थान की उत्कृष्ट लोक संस्कृति को विश्व में पहचान दिलाई ,राजस्थान की लोक ग्राम्य संस्कृति में से घूंघट और साफा (पगड़ी )निकाल दे तो हमारे पास संस्कृति के नाम पर बचता ही क्या हैं,घूंघट आज स्टेटस सिंबल बन गया हैं ,रात को टी वी पर चलने वाले सीरियलों को ही देख लीजिये,हाई प्रोफाइल शादियां देख लो,उन पर तो कोई दबाव नहीं हैं फिर भी घूंघट में मंडप तक युवतियां पहुंचती हैं ,राजस्थान के पश्चिमी हिस्से में आज भी घूंघट का प्रचलन मान सम्मान का प्रतिक हे न की दबाव या गुलामी का ,घूंघट को महिलाओं की तरक्की में बाधा  मानाने वालो की अपनी कोई सोच रही होगी जो वास्विकता से कोसों दूर हैं ,बेवजय संस्कृति और परम्पराओ पर ऊँगली उठाकर विवाद खड़े करना राजनेताओ की फितरत रही हैं ,

घूंघट ट्रेंड देश भर में लोकप्रिय तो विकास में बाधक कहाँ
अब फिर एक बार घूंघट ट्रेंड में चल रहा है। आज इसे फैशन ट्रेंड के रूप में देखा जा रहा है। अगर आप भी दुल्हन बनने जा रही हैं, तो इस तरह से खुद को पर्दे में रख सकती हैं। इसमें आप घूंघट में होती हैं, लेकिन फेस आपका पूरा दिखता है। बाजार में आपको घूंघट वाले अटैच दुपट्टे आसानी से मिल जाएंगे।फेरे और वरमाला के दौरान घूंघट लेना अब ट्रेंड बनता जा रहा है। इसी के चलते इस समय मार्केट में दुपट्टे वाले घूंघट आ गए हैं। इसमें दुपट्टे के साथ ही घूंघट अटैच होकर आ रहा है। अगर आप भी प्लान कर रही हैं घूंघट, तो बहुत अधिक मोटे दुपट्टे की जगह पर झीने कपड़े वाले हल्के दुपट्टे के ऑप्शन पर जाएं।अगर आप अलग से अटैच किया हुआ दुपट्टा नहीं लेना चाहतीं, तो लहंगे के साथ सिंगल दुपट्टे को ही लंबे घूंघट की तरह कैरी कर सकती हैं। घूंघट के दुपट्टे इन दिनों नेट फैब्रिक में आ रहे हैं जिस पर खूबसूरत थ्रेड, तिल्ले, मोती, सिपी-सितारे, स्टोन वर्क किया होता है। अगर आप हैवी घूंघट नहीं निकालना चाहतीं, तो प्लेन नेट में हल्के स्टोन और गोटा पट्टी बॉर्डर में कुछ यूनीक स्टाइल अपना सकती हैं। फ्लोरल जाल दुपट्टा भी फैशन में चल रहा है। नेट दुपट्टे के आगे फ्लोरल जाल बुना होता है। जब घूंघट परम्परा और संस्कृति के दायरे से निकल फैशन बन गया हे तो इसे महिलाओं की उन्नति में बाधक कैसे मान सकते हैं,

प्राचीन ग्रंथो में भी घूंघट का हे उल्लेख 

जो लोग घूंघट को लेकर यह कह रहे की घूंघट कभी संस्कृति नहीं रही न इसका इतिहास हे ,घूंघट का उल्लेख प्राचीन ग्रंथो में नहीं हे तो यह बयान देने वाले अपना ज्ञान दुरुस्त कर ले ,कुछ उदाहरण प्राचीन ग्रंथो से प्रस्तुत हैं 


 प्राचीन भारत में पर्दा प्रथा और घूँघट प्रथा रही है , वहाँ घूँघट का अर्थ मुख ढँकना नहीं अपितु सिर को साड़ी या चुनरी से ढँकना था । ऐसा भी नहीं था कि सिर ढँकना स्त्रियों के लिये ही अनिवार्य था ,पुरुषों के लिये भी सिर ढँकना अनिवार्य था । स्त्रियाँ साड़ी-चुनरी से सिर को ढँककर रखती थीं ,तो पुरुष मुकुट-पगड़ी आदि से सिर को ढँकते थे । स्त्रियों का पहनावा कैसा हो ? इस विषय में स्वयं वेद प्रमाण है , ऋग्वेद १०/७१/४ में कहा है – ‘स्त्री को लज्जापूर्ण रहना चाहिये ,कि दूसरा पुरुष मनुष्य उसका रूप देखता हुआ भी न देख सके । वाणी सुनता हुआ भी पूरी तरह न सुन सके ।’ एक अन्य मन्त्र में –

अधः पश्यस्व मोपरि सन्तरां पादकौ हर ।

मा ते कशप्लकौ दृशन्त्स्त्री हि ब्रह्मा बभूविथ ।। (ऋग्वेद ८/४३/१९)

अर्थात् ‘साध्वी नारी ! तुम नीचे देखा करो (तुम्हारी दृष्टि विनय से झुकी रहे ) । ऊपर न देखो । पैरोंको परस्पर मिलाये रक्खो (टाँगों को फैलाओ मत ) । वस्त्र इस प्रकार पहनो ,जिससे तुम्हारे ओष्ठ तथा कटिके नीचेके भागपर किसी की दृष्टि न पड़े । ‘ इससे स्पष्ट है कि स्त्री सलज्ज और मुख पर घूँघट डाले रहे । पर्दा प्रथा के इतिहास पर भी अवलोकन करें ,तो सर्वप्रथम रामायण के प्रसङ्ग देखिये –

माता जानकी जी जब वनवास जा रही थीं ,तब उन्हें देखने वाली प्रजा कहती है


या न शक्या पुरा द्रष्टुं भूतैराकाशगैरपि ।

तामद्य सीतां पश्यति राजमार्गगता जना: ।। (वाल्मीकिरामायण २/३३/८)

अर्थात् -‘ओह ! पहले जिसे आकाशमें विचरने वाले प्राणी भी नहीं देख पाते थे ,उसी सीता को इस समय सड़कों पर खड़े हुए लोग देख रहे हैं । ‘

मन्दोदरी रावण के वध पर विलाप करते हुए कहती है –

दृष्ट्वा न खल्वभिक्रुद्धो मामिहान वगुष्ठिताम् ।

निर्गतां नगरद्वारात् पद्भ्यामेवागतां प्रभो ।। ( वाल्मीकिरामायण ६/१११/६१)

अर्थात् -‘प्रभो ! आज मेरे मुँह पर घूँघट नहीं है ,मैं नगर द्वार से पैदल ही चलकर यहाँ आयी हूँ । इस दशा में मुझे देखकर आप क्रोध क्यों नहीं करते हैं ?’

दूसरा प्रसङ्ग महाभारत से देखिये ,कुरु सभा में द्यूतक्रीड़ाके समय द्रौपदी कहती हैं –

यां न वायुर्न चादित्यो दृष्टवन्तौ पुरा गृहे ।

साहमद्य सभामध्ये दृश्यास्मि जनसंसदि ।। महाभारत सभापर्व ६९/५

अर्थात् -‘पहले राजभवन में रहते हुए जिसे वायु तथा सूर्य भी नहीं देख पाते थे ,वही आज इस सभा के भीतर महान् जनसमुदाय में आकर सबके नेत्रों की लक्ष्य बन गयी हूँ ।’

रामायण-महाभारतके प्रसङ्गों से ऐसा प्रतीत होता है ,पर्दा प्रथा सामान्य स्त्रियों के लिये न होकर राजवंशकी राजकुमारियों-रानियोंके लिये ही थी । राजवंश की ये रानी-राजकुमारियां बड़े सुखों से रहती थीं ,जैसे आधुनिक युग में ऐसी में रहने वाली । वे विशिष्ट अवसरों पर ही बाहर निकलती थीं ,वे अवसर थे –

व्यासनेषु न कृच्छ्रेषु न युद्धेषु स्वयंवरे ।

न कृतौ नो विवाहे वा दर्शनं दूष्यते स्त्रिया: ।। वाल्मीकिरामायण ६/११४/२८

अर्थात्-‘विपत्तिकाल में ,शारीरिक या मानसिक पीड़ा के अवसर पर ,युद्धमें ,यज्ञमें अथवा विवाह में स्त्री का दीखना दोष की बात नहीं है । ‘ अर्थात् इन अवसरों पर राजकुलकी स्त्रियाँ पुरुषों के मध्य जाती थीं ,उस समय उन्हें कोई दोष नहीं देता था ।

पर्दा प्रथा या घूँघट प्रथा पर भगवान् श्रीराम का यह वचन बहुत ही महत्त्वपूर्ण ,प्राचीन और आधुनिक परिवेश का समन्वय है –

न गृहाणि न वस्त्राणि न प्रकारस्त्रिरस्क्रिया ।

नेदृशा राजसत्कारा वृत्तयावरणं स्त्रिया: ।। वाल्मीकिरामायण ६/११४/२७

अर्थात् -‘घर ,वस्त्र और चहारदीवारी आदि वस्तुएँ स्त्रीके लिये परदा नहीं हुआ करतीं । इस तरह लोगों को दूर हटाने ( किसी स्त्रीके समाज में आने पर पुरुषों को वहाँ से हटा देना ,जिससे वे पुरुष उस स्त्री को न देख सकें ) से जो निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार है ,ये भी स्त्रीके लिये आवरण या पर्दे का काम नहीं देते हैं । पति से प्राप्त होने वाले सत्कार तथा नारी के अपने सदाचार — ये ही उसके लिये आवरण हैं ।’










सोमवार, 18 नवंबर 2019

राजस्थान की संस्कृति है भारत की सबसे खूबसूरत संस्कृति, पढ़ें

राजस्थान की संस्कृति है भारत की सबसे खूबसूरत संस्कृति, पढ़ें










 राजस्थान, भारत के सबसे खूबसूरत राज्यों में से एक है। यहां की संस्कृति दुनिया भर में मशहूर है। राजस्थान की संस्कृति विभिन्न समुदायों और शासकों का योगदान है। आज भी जब कभी राजस्थान का नाम लिया जाए तो हमारी आखों के आगे थार रेगिस्तान, ऊंट की सवारी, घूमर और कालबेलिया नृत्य और रंग-बिरंगे पारंपरिक परिधान आते हैं।अपने सभ्य स्वभाव और शालीन मेहमाननवाज़ी के लिए जाना जाता है ये राज्य। चाहे स्वदेशी हो या विदेशी, यहां की संस्कृति तो किसी का भी मन चुटकियों में मोह लेगी। आखिर किसका मन नहीं करेगा रात के वक्त रेगिस्तान में आग जलाकर कालबेलिया नृत्य देखने का। जिन्होनें राजस्थान की संस्कृति का अनुभव किया है वो बहुत खुश नसीब हैं। लेकिन जो इससे अंजान हैं उन्हें हम बताएंगे इस शाही शहर की सरल लेकिन आकर्षक संस्कृति के बारे में कुछ ऐसी दिलचस्प बातें जिन्हें जानने के बाद यहां आने के लिए खुद को रोक नहीं पाएंगे

राजस्थानी परिधान 

जहां बात सभ्यता और सुंदरता को एक ही साथ जोड़ने की हो तो राजस्थानी कपड़ों के आगे कुछ नहीं टिकता। महिलाओं के लिए पारंपरिक राजस्थानी कपड़े काफी सभ्य, सुंदर और आरामदायक होते हैं। यहां की महिलाएं पारंपरिक घागरा, चोली और ओढ़नी (दुपट्टा)ल पहनती हैं। महिलाओं के ये कपड़े चटक रंग के होते हैं, जिनमें गोटा (बॉर्डर) लगा होता है। अपने से बड़ों के सामने और बाहरी लोगों के आगे महिलाएं घूंघट निकाल कर रखती हैं। इस तरह से वो उस व्यति को अपने से सम्मान देती हैं। तो वहीं पुरुष धोती कुर्ता या कुर्ता पजामा पहनना पसंद करते हैं। इसके अलावा कुछ पुरुष सिर पर बंधेज के प्रिंट वाली सूती कपड़े की पगड़ी भी पहनते हैं। उनके लिए पगड़ी का सिर्फ सिर ढकने वली एक टोपी की तरह नहीं होती, बल्कि इज़्ज़त होती है।

राजस्थानी आभूषण 

कपड़ों के बाद अब बात करते हैं राजस्थानी आभूषणों की जो ना सिर्फ राजस्थान में बल्कि अब पूरे विश्व में मशहूर हो रहे हैं। ऐसा बिल्कुल नहीं है कि आभूषण केलव महिलाएं ही पहनती हैं। राजस्थान में आपको बहुत से ऐसे लोगों के गले में सोने की चेन, हाथ में पुरुषों वाली भारी सी चूड़ी और एक कान में सोने की बाली या लौंग। इधर महिलाओं के आभूषण लोक प्रसिद्ध है। राजस्थान का सबसे प्रसिद्ध और महिलाओं द्वारा सबसे ज़्यादा पसंद किया जाने वाला आभूषण है, बोरला। बोरला एक प्रकार का मांग टीका होता है जो दिखने में किसी लट्टू जैसा दिखता है। ये राजस्थान के पारंपरिक आभूषणों में से एक है। इसके अलावा महिलाएं, कमर बंद, बाजू बंद और लाख और सीप के कंगन भी पहनती हैं।

 राजस्थानी लोक नृत्य

 जहां बात राजस्थानी नृत्य की आती है सबसे पहले नाम आता है घूमर का। हां वही घूमर डांस जो एक फिल्म में भी किया गया था। लेकिन हकीकत में घूमर डांस इससे काफी अलग होता है जो ज्यादातर यहां कि महिलाएं ही निपुनता से कर पाती हैं। ये नृत्य देखने में भले ही आसान लगे लेकिन करने के लिए पैरों में बहुत ताकत चाहिए होती है। इसके अलावा राजस्थान का दूसरा मशहूर लोक नृत्य है कालबेलिया डांस। पारंपरिक रूप से ये राजस्थान के बंजारनों द्वारा किया जाता है। कालबेलिया नृत्य आम लोगों द्वारा नहीं किया जा सकता क्योंकि इसमें लोगों के मनोरंजन के लिए कई खतरनाक कर्तब भी किए जाते हैं जैसे, कीलों पर खड़े होकर नाचना, आंखों से ब्लेड उठाना और एक उंगली पर थाल घुमाना। इन सब कर्तबों के लिए महीनों के अभ्यास की ज़रूरत होती है।

राजस्थान के पारंपरिक पकवान  

 खाने का शौंकीन तो हर कोई होता है और अगर आपने राजस्थान आकर यहां का पारंपरिक खाना नहीं खाया तो ये बहुत अफसोस की बात होगी। राजस्थान का दाल, बाटी और चूर्मा तो देश के कोने-कोने में मशहूर है। दाल के साथ घी में डूबी गर्मागर्म बाटी और मीठे के तौर पर घी वाला गर्मागर्म चूर्मा, सोचकर ही मुंह में पानी आने लगता है। वैसे तो ये आपको आपके शहर में भी मिल जाएगा लेकिन यकीनन यहां जैसी बात और कहीं नहीं होगी।

 राजस्थान के मशहूर त्योहार

 त्योहार तो हर राज्य, हर शहर और हर धर्म के अच्छे होते हैं। लेकिन राजस्थान के कुछ मशहूर त्योहार, जैसे डेजर्ट महोत्सव: जैसलमेर में होने वाला डेजर्ट महोत्सव जहां अतरंगी मुकाबले आयोजित किए जाते हैं। यहां पुरुषों के बीच मूंछों का मुकाबला होता है और ऊंटों के खेल दिखाए और खेले जाते हैं। ये महोत्सव फरवरी में आयोजित किया जाता है।

 राजस्थान के मशहूर  ऊंट मेला: 

राजस्थान के बीकानेर में आयोजित होने वाला ऊंट मेला हर साल रेगिस्तान के जहाज़ माने जाने वाले, ऊंट के सम्मान में लगता है। इस मेले में ऊंटों को किसी दुल्हन की तरह सजाया जाता है। इसके अलावा सभी ऊंटों के बीच दौड़ लगवाई जाती है। लोगों के मनोरंजन के लिए मेले मे राजस्थानी गीत भी चलाए जाते हैं। मेले के अंत में आतिशबाजियों से पूरे आसमान को रौशन किया जाता है। बीकानेर में आयोजित होने वाला ये ऊंट मेला हर साल जनवरी में आयोजित किया जाता है।बाड़मेर जिले का मल्लिनाथ पशु मेला तिलवाड़ा और पुष्कर मेला खास हे,

राजस्थान के मशहूर त्योहार पुष्कर मेला: 

पुष्कर मेला जो हर साल आयोजित किया जाता है और जिसमें तीन लाख से भी ज्यादा लोग और लगभग बीस हज़ार ऊंट, घोड़े, हाथ से बनी तरह-तरह की चीज़ें और घर सजाने की बहुत सी चीज़ों से भरी दुकानें देखने को मिलेगी। पुष्कर मेला हर साल नवंबर के महीने में पुष्कर में लगता है।


बुधवार, 24 अक्तूबर 2018

साफा दिवस राजस्थान आज भी कायम साफे की शान राजस्‍थान में ,समृद्धसंस्कृति और परंपरा का प्रतीक है साफा

साफा दिवस राजस्थान 
आज भी कायम साफे की शान राजस्‍थान में ,समृद्धसंस्कृति और परंपरा का प्रतीक है साफा


: राजस्थान की समृद्ध संस्कृति एवं रीति-रिवाज आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में खोते जा रहे हैं। आधुनिकता और पाश्चात्य सभ्यता के साथ आये बदलाव ने परम्परागत रीति-रिवाजों को न केवल बदलकर रख दिया, अपितु राजस्थान की समृद्ध संस्कृति अपना आकार खोती जा रही हैं।

रोजमर्रा की भागदौड़ और पहियों पर घूमती वातानुकूलित जिन्दगी के बीच समारोह के दौरान साफा उपलब्ध नहीं होने अथवा इस ओर किसी का ध्यान आकृष्‍ट नहीं होने पर ऐसे मौके पर इसका प्रबन्ध नहीं हो पाता है। चुनिन्दा स्थानों से साफा लाने की जहमत कोई नहीं करता, लेकिन साफे का स्थान बरकरार है। इस स्थान को बदला नहीं जा सकता। दुनिया के कानून, संविधान तो बदले जा सकते हैं। मगर ‘साफे’ का स्थान नहीं बदला जा सकता। इसका महत्व इसी कारण बरकरार हैं। विभिन्न समारोहों में अतिथियों का साफा पहनाकर स्वागत करने की परम्परा है। 

‘साफा’ राजस्थान की समृद्ध संस्कृति और परम्परा का अभिन्न हिस्सा हैं। लेकिन, राजपूती आन-बान-शान का प्रतीक साफा अब सिरों से सरकता जा रहा है। युवा पीढ़ी आधुनिक होकर ‘साफे’ का महत्व समझ नहीं पा रही है। इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी ‘पाग-पगड़ी-साफे’ को इज्जत और ओहदे का प्रतीक माना जाता है। साफे को आदमी के ओहदे व खानदान से जोड़कर देखा जाता हैं। साफा पहन कर बड़े-बुजुर्ग अपने आपको सम्पूर्ण व्यक्तित्व का मालिक समझते हैं। ‘साफा’ व्यक्ति के समाज का प्रतीक माना जाता हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग समाज में अलग-अलग तरह के साफे पहने जाते हैं। साफे से व्यक्ति की जाति व समाज का स्वतः पता चल जाता हैं। 

‘पगड़ी’ आदमी के व्यक्तित्व की निशानी समझी जाती है। ‘पगड़ी’ की खातिर आदमी स्वयं बरबाद हो जाता है, मगर उस पर आंच नहीं आने देता। ‘साफा’ ग्रामीण क्षेत्रों में सदा ही बांधा जाता है। खुशी और गम के अवसरों पर भी ‘साफे’ का रंग व आकार बदल जाता हैं। खुशी के समय रंगीन साफे पहने जाते हैं। जैसे शादी-विवाह, सगाई या अन्य उत्सवों, त्यौहारों पर विभिन्न रंगो के साफे पहने जाते हैं। मगर, गम के अवसर पर खाकी अथवा सफेद रंग के साफे पहने जाते हैं, ये शोक का प्रतीक होते हैं। हालांकि, मुस्लिम समाज (सिन्धी) में सफेद साफे शौक से पहने जाते हैं। सिन्धी मुसलमान सफेद ‘पाग’ का ही प्रयोग करते हैं।

ग्रामीण क्षेत्रों में आपसी मनमुटाव, लडाई-झगडों का निपटारा ‘साफा’ पहनकर किया जाता है। जैसलमेर व बाड़मेर जिलों के कई गांवो में आज भी अनजान व्यक्ति अथवा मेहमानों को ‘नंगे’ सिर आने की इजाजत नहीं हैं। राजपूत बहुल गांवों में साफे का अत्यधिक महत्व है। इन गांवो में सामंतशाहों के आगे अनुसूचित जाति, जनजाति (मेघवाल, भील आदि) के लोग साफा नहीं पहनते, अपितु सिर पर तेमल (लूंगी) अथवा टवाल बांधते हैं। इनके द्वारा सिर पर पगड़ी न बांधने का मुख्य कारण ‘ठाकुरों या सामन्त’ के बराबरी न करना है। विवाह, सगाई अथवा अन्य समारोह में साफे के प्रति परम्पराओं में तेजी से गिरावट आई है। अभिजात्य परिवारों में साफा आज भी ‘स्टेटस सिम्बल’ बना हुआ हैं। अभिजात्य वर्ग में साफे के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है। शादी विवाह या अन्य समारोह में ‘साफे’ के प्रति छोटे-बड़ों का लगाव आसानी से देखा जा सकता है।

हाथों से बांधने वाले ‘साफे’ का जवाब नहीं होता। हाथों से साफे को बांधना एक हुनर व कला है। इस कला को जिंदा रखने वाले कुछ लोग ही बचे हैं। आजकल चुनरी के साफों का अधिक प्रचलन है। लहरियां साफा भी प्रचलन में है। मलमल, जरी, तोता, परी कलर के साफे भी पसन्द किए जा रहे हैं। जोधपुरी साफा पहनना युवा पसन्द करते हैं, जबकि बड़े-बुजुर्ग जैसलमेरी साफा, जो गोल होता है, पहनना पसन्द करते हैं। केसरिया रंग का गोल साफा पहनने का प्रचलन अधिका हैं। बहरहाल, साफे का महत्व आज भी कायम हैं।

शुक्रवार, 31 जनवरी 2014

जानिए राजस्थान कि लोक कला संस्कृति संगीत

जानिए राजस्थान कि लोक कला संस्कृति संगीत 
राजस्थान : लोक कलाएँ, लोक नाट्य, लोक नृत्य, लोक गीत, लोक वाद्य एवं लोक चित्रकला

लोक कलाएँ

राजस्थान लोक कला के विविध आयामों का जनक रहा है। लोक कला के अन्तर्गत लोकगीत, लोकनाट्य, लोकनृत्य, लोकवाद्य और लोक चित्रकला आती है, इसका विकास मौखिक स्मरण और रूढ़ियों के आधार पर दीर्घ काल से चला आ रहा है। ये लोक कलाएँ हमारी संस्कृति के प्राण है। मनोंरजन का साधन है। लोक जीवन का सच्चा स्वरूप है।

लोक नाट्य मेवाड़, अलवर, भरतपुर, करौली और जयपुर में लोक कलाकारों द्वारा लोक भाषा में रामलीला तथा रासलीला बड़ी लोकप्रिय है। बीकानेर ओर जैसलमेर में लोक नाट्यों में ‘रम्मत’ प्रसिद्ध है। इसमें राजस्थान के सुविख्यात लोकनायकों एवं महापुरूषों की ऐतिहासिक एवं धार्मिक काव्य रचना का मंचन किया जाता है। इन रम्मतों के रचियता मनीराम व्यास, फागु महाराज, सुआ महाराज, तेज कवि आदि है। मारवाड़ में धर्म और वीर रस प्रधान कथानकों का मंचन ‘ख्याल’(खेलनाटक) परम्परागत चला आ रहा है, इनमें अमरसिंह का ख्याल, रूठिराणी रो ख्याल, राजा हरिशचन्द्र का ख्याल प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है। राजस्थान में ‘भवाईनाट्य’ अनूठा है जिसमें पात्र व्यंग वक्ता होते है। संवाद, गायन, हास्य और नृत्य इसकी प्रमुख विषेषताएँ है। मेवाड़ में प्रचलित ‘गवरी’ एक नृत्य नाटिका है जो रक्षाबन्धन से सवा माह तक खेली जाती है। गवरी वादन संवाद, प्रस्तुतिकरण आरै लोक-संस्कृति के प्रतीकों में मेवाड़ की ‘गवरी’ निराली है। गवरी का उद्भव षिव-भस्मासुर की कथा से माना जाता है। इसका आयोजन रक्षाबन्धन के दूसरे दिन से शुरू होता है। गवरी सवा महिने तक खेली जाती है। इसमें भील संस्कृति की प्रमुखता रहती है। यह पर्व आदिवासी जाति वर पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। गवरी में पुरूष पात्र होते है। इसके खेलों में गणपति कान-गुजरी, जोगी, लाखा, बणजारा इत्यादि के खेल होते है।

लोक नृत्य
राजस्थान में लाके नृत्य की परम्परा सदा से उन्नत रही है। यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में लोकनृत्यों का विकास हुआ जिससे जनजीवन में आनन्द, जीवट और शौर्य के भावों की अभिवृद्धि हुई है।

(अ) गैर नृत्य - आदिवासी क्षेत्रों में होली के अवसर पर ढोल, बांकिया तथा थाली की संगत में पुरूष अंगरखी, धोती, पगड़ी पहनें हाथ में छड़िया लेकर गोल घेरे में नृत्य में भीली संस्कृति के दर्षन होते हैं।

(ब) गीदड़ नृत्य - शेखावाटी क्षेत्र में लोग होली का डण्डा रोपने से सप्ताह भर तक नंगाडे की ताल पर पुरूष दो छोटे डंडे लके र गीतों के साथ सुन्दर परिधान पहन कर नृत्य करतें है जिसे ‘गीदड़नृत्य’ कहा जाता है।

(स) ढोल नृत्य - मरूस्थलीय प्रदेष जालारे में शादी के समय माली, ढ़ोली, सरगड़ा और भील जाति के लोग ‘थाकना’ शैली में ढोलनृत्य करते हैं।

(द) बम नृत्य - अलवर और भरतपुर में फागुन की मस्ती मंे बड़े नगाड़े को दो बड़े डण्डों से बजाया जाता है, जिसे ‘बम’ कहते है। इसी कारण इसे ‘बमनृत्य’ कहते हैं।

(य) घूमर नृत्य - यह राजस्थान का सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकनृत्य है, इसे मांगलिक पर्वों पर महिलाओं द्वारा हाथों के लचकदार संचालन से ढ़ोलनगाड़ा, शहनाई आदि संगत में किया जाता है।

(र) गरबा नृत्य - महिला नृत्य में गरबा भक्तिपूर्ण नृत्य कला का अच्छा उदाहरण है। यह नृत्य शक्ति की आराधना का दिव्य रूप है जिसे मुख्य रूप से गुजरात मंे देखा जाता है। राजस्थान में डूंगरपुर और बाँसवाड़ा में इसका व्यापक पच्र लन हैं।इस तरह गजु रात आरै राजस्थान की संस्कृति के समन्वय का सुन्दर रूप हमें ‘गरबा’ नृत्य में देखने को मिलता है।

अन्य लोक नृत्य
जसनाथी सिद्धों का अंगारा नृत्य, भीलों का ‘राईनृत्य’ गरासिया जाति का ‘वालरनृत्य’ कालबेलियाजाति का ‘कालबेलियानृत्य’ प्रमुख है। पेशेवर लोकनृत्यों में ‘भर्वाइ नृत्य’ 'तेरह ताली नृत्य ' चमत्कारी कलाओं के लिए विख्यात है।

लोक गीत

राजस्थानी लाके गीत मौखिक परम्परा पर आधारित मानस पटल की उपज हैं जो शेडस संस्कारों, रीतिरिवाजों, संयोगवियोग के अवसरों पर लोक भाषा में सुन्दर अभिव्यक्ति करते है। उदाहरणार्थ -‘खेलण दो गणगौर’, म्हारी घूमर छे नखराली एमाय, चिरमी आदि है।
लोक वाद्य
लोककला में राजस्थान के लाके वाद्यों का बड़ा महत्व है, इनके बिना नृत्य, संगीत भी अधूरा लगता है। यहाँ के प्रमुख लोक वाद्यों में ‘रावण हत्था’, तंदूरा, नंगाड़े, तीनतारा, जोगिया सारंगी, पूंगी और भपंग उल्लेखनीय हैं।

लोक चित्रकला
1. पथवारी - गांवो में पथरक्षक रूप में पूजा जाने वाला स्थल जिस पर विभिन्न प्रकार के चित्र बने होते हैं।
2. पाना - राजस्थान में कागज पर जो चित्र उकेरे जाते हैं, उन्हें पाना कहा जाता है।
3. मांडणा - राजस्थान में लोक चित्रकला की यह एक अनुठी परम्परा है। त्योहारों एवं मांगलिक अवसरों पर पूजास्थल चैक पर ज्यामितीयवतृ , वर्ग या आडी़ तिरछी रेखाआंे के रूप में ‘मांडणा’ बनाये जाते हैं।
4. फड़ - कपड़ों पर किये जाने वाले चित्राकं न को ‘फड़’ कहा जाता है।
5. सांझी - यह गोबर के घर के आंगन, पूजास्थल अथवा चबुतरें पर बनाया जाता है।
लाके गीत, लाके नाटय् , लोकवाद्य, लाके चित्रकला राजस्थानी संस्कृति एवं सम्यता के प्रमुख अंग है। आदिकाल से लेकर आज तक इन कलाआंे का विविध रूपों में विकास हुआ है। इन विधाआंे के विकास में भक्ति, प्रेम, उल्लास और मनोरंजन का प्रमुख स्थान रहा है। इनके पल्लवन में लोक आस्था की प्रमुख भूमिका रही है। बिना आस्था और विष्वास के इन लोक कलाआंे के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज भी लोककला के मूल तत्त्व जन जीवन में विद्यमान हैं। त्योहार, नृत्य, संगीत, लोकवाद्य, लोक कलाआंे, विभिन्न बोलियों एवं परिणाम के कारण ही राजस्थान को ‘रंगीला राजस्थान’ की संज्ञा दी जाती है। राजस्थान की सांझी संस्कृति के दर्षन यहाँ के जन-जीवन के साथ साहित्य में भी देखे जा सकते हैं। धर्म समभाव एवं सुलह-कुल की नीति यहाँ के धार्मिक जीवन का इतिहास के काल से ही मूल मंत्र रहा है।

शनिवार, 6 जुलाई 2013

जैसलमेर ख़त्म होती संस्कृति और परम्पराओं से घटे पर्यटक



विश्व पर्यटन दिवस पर विशेष 

जैसलमेर पर्यटन सीजन पर विशेष लेख भाग 1 


आखिर क्यों आये विदेशी पर्यटक .....


ख़त्म होती संस्कृति और परम्पराओं से घटे पर्यटक 
जैसलमेर पश्चिमी राजस्थान का रेगिस्तानी ऐतिहासिक जिला जैसलमेर अपने पर्यटन व्यवसाय से लिए विश्व भर में मशहूर हें .कभी पर्यटकों की रेलम पेल बारहमास रहने लगी थी असि और नब्बे के दशक में इस जिले में प्रयातकों का काफी जोर था .खासकर विदेशी सैलानी थार क्षेत्र की लोक कला ,संस्कृति और ग्रामीण जीवन करीब से देख अभिभूत हो जाते थे .एक साल में करीब पांच से सात लाख देशी विदेशी प्रयातकों का जैसलमेर आना होता था जो अब घटकर तीन लाख तक पहुँच गया .विदेशी सैलानियों का जैसलमेर से मोहभंग सा हो गया .पूर्व में जन्हा विदेशी पर्यटक जैसलमेर जिले को औसत दस दिन देते थे अब पर्यटक एक दो दिन में ही जैसलमेर की सैर कर निकल जाते हें .विदेशी पर्यटकों के जैसलमेर से मोहभंग होने का मुख्य कारन चाहे कोई कुछ बताये मगर वास्तव में जब से जैसलमेर में आधुनिकता ने घर किया तभी से विदेशी पर्यटकों से मूंह मोड़ना आरम्भ कर दिया .


ग्रामीण जीवन शैली में बदलाव

पूर्व में जैसलमेर आने वाला पर्यटक अपना अधिकांस समय ग्रामीण जन जीवन को जानने में लगाते थे .गाँवो का स्वछन्द वातारण ,पानी से भरे तालाब ,अलमस्त जीवन ,ग्रामीण वेशभूषा , रेगिस्तानी धोरे और कच्चे मकान एक गाँव के सुखद वातावरण का अहसास पर्यटकों को करते थे .थार की लोक संस्कृति ,परम्पराओं ,और जीवन शैली से वे खासे प्रभावित होते थे .आज गाँव गाँव नहीं रहे .गाँव शहरों को मात देते नज़र आते हें ,कच्चे झोंपड़ो की जगह पक्के मकान ,घरो में आधुनिकता की साड़ी सुख सुविधाए ,रेफ्रिजेटर ,कूलर एयर कंडीशनर ,घरो के आस पास लगे मोबाइल टावर .जींस पहने ग्रामीण ,शहरी पोशाको में सजी महिलाए ....विदेशी पर्यटक भारत की असली तस्वीर जैसलमेर के गाँवों में तलाशने आते थे जो अब गायब सी हो गयी हें .पर्यटक गांवों में दो दो तीन तीन दिन ग्रामीणों के साथ रह कर उनकी जीवन शैली को अपने कमरों में कैद करते थे .शाम को जंगल से वापस गाँवों की और आने वाली भेड़ बकरियों की एवड उन्हें लुभाती थी ,तो सुहानी रात में रेगिस्तानी धोरो की शीतलता में खो जाता था एक दम शांत वातावरण पर्यटकों को लुभाता
था .अब गाँवो में शोर गुल के अलावा कुछ बचा नहीं रही सही कसर विंड पवार के टावरों के पूरी कर दी ,जैसलमेर के पर्यटन उद्योग को विंड पोवार ने ख़त्म सा कर दिया .


चिर निंद्रा में पर्यटन विभाग
विदेशी शैलानियों के जैसलमेर से मोह भंग होने के बावजूद पर्यटन विभाग को कोई परवाह नहीं .सालाना करोड़ों रुपयों का कारोबार देने वाले विदेशी पर्यटकों को वापस जैसलमेर की और रुख करने को लेकर कोई योजना नहीं .पर्यटन विभाग के पास जैसलमेर आने जाने वाले देशी विदेशी पर्यटकों के संख्यात्मक आंकड़े तक उपलब्ध नहीं हें .पर्यटन विभाग में कोई फोन अटेंड करने वाला नहीं .पर्यटन विभाग की अनदेखी भी विदेशी शैलानियो के जैसलमेर तक ना आना प्रमुख कारण हें .


जिला प्रशासन लूटने में लगा हें

जैसलमेर आने वाले देशी विदेशी पर्यटकों को सर्वाधिक परेशानी जिला प्रशासन की कार्यवाही से होती . डेजर्ट नेशनल पार्क घूमने के लिए जिला प्रशासन से विशेष अनुमति लेनी होती हें .इसके लिए इतनी कागज़ी कार्यवाही होती हें की पर्यटक आखिर कर इरादा बदल देता हें .जिसको स्वीकृति मिल जाती हें उसे इसके लिए बहूत .सा पैसा दलालों के माध्यम से देना पड़ता हें ,कई स्थान जिले में ऐसे हें जहां जाने के लिए प्रशासनिक स्वीकृति जरुरी होती हें इसके लिए उन्हें भारी रकम चुकानी पड़ती हें .नगर पालिका ,पुलिस थाना ,पार्किंग स्थल ,जैसलमेर विकास समिति ,सहित कैयो को सुविधा शुल्क देने के बाद भी काम नहीं होते ,फिल्म शूटिंग वाले इस लूट के चलते जैसलमेर में शूटिंग करना भी अब पसंद नहीं करते ,


राजस्थानी लोक संस्कृति के अनवरत अनदेखी और पाश्चात्य संस्कृति की नक़ल ने जैसलमेर को विदेशी पर्यटकों से दूर कर रखा हें .

हम लोग जैसलमेर के इतिहास ,संस्कृति और लोक जीवन को जानने समझने और सीखने आते हें ,जैसलमेर में अब पहले वाला माहौल नहीं रहा .जब जैसलमेर जैसा वातावरण मुंबई और दिल्ली में मिल रहा हें तो लोग क्यूँ आये .हम भी यंहा आके निराश हें ,जैसा हमने जैसलमेर के बारे में पढ़ा हमें वैसा कुछ नहीं दिखा .जेम्स हेनरी ..जर्मन पर्यटक


मंगलवार, 26 मार्च 2013

foto...राजस्थान के बाड़मेर का विश्व प्रसिद्ध गैर डांडिया नृत्य








राजस्थान के बाड़मेर का विश्व प्रसिद्ध गैर डांडिया नृत्य


बाड़मेर, राजस्थानः पश्चिमी राजस्थान का सीमान्त जिला बाड़मेर अपनी लोक संस्कृति, सभ्यता व परम्पराओं का लोक खजाना हैं।जिले में धार्मिक सहिष्णुता का सागर लहराता हें। इस समुद्र में भाईचारे की लहरें ही नहीं उठती अपितु निष्ठा, आनन्द, मानवता, करूणा, लोकगीतसंगीत, संस्कृति व परम्परोओं के रत्न भी मिलते हैं। बाड़मेर की जनता अपनी समृद्ध कला चेतना निभा रही हैं। यह प्रसन्नता की बात हैं। जिले को गौरव प्रदान करने में गैर नृतकों ने अहम भूमिका निभाई हैं।

मालाणी पट्टी में गैर नृत्यों की होली के दिन से धूम रहती हैं। यह धूम कनाना, लाखेटा, सिलोर, सनावड़ा सहित अने क्षेत्रों में समान रूप से रहती हैं। यही गैर नृत्य बाड़मेर की समृद्ध परम्परा व लोक संस्कृति का प्रतीक हैं। प्रतिवर्ष चैत्र मास में अनेक गैर नृत्य मेले लगते हैं। इन मेलों का धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृति महत्व समान हैं। लाखेटा में किसानों का यह रंगीला मेला प्रतिवर्ष आयोजित किया जाता हैं। पिछले चार सौ वर्षो से लोगो का प्रमुख धार्मिक आस्था स्थल लाखेटा हैं। जहां बाबा संतोष भारती की समाधि हैं। गैर नर्तको के सतर से अधिक दल इस मेले में भाग लेते हैं। सूय की पहली किरण के साथ गैर नृत्यों का दौर आरम्भ होता हैं। माटी की सोंधी महक, घुंघरूओं की झनक से मदमस्त कर देती हैं। किसानों का प्रमुख गैर नृत्य मेला जिसमें बाड़मेर, जोधपुर, पाली, जालोर जिलो से भी गैर नृतक शरीक होकर इस गैर नृत्य मेले को नई ऊंचाईयां प्रदान करते हैं।

गांवो से युवाबुजुर्गो के जत्थे हर्षोल्लास के साथ रंग बिरंगी वेशभूषा और लोक वाद्य यंत्रों के साथ भाग लेते हैं। मेले में युवा ग्रामीण गोलाकरअर्द्ध गोलाकार घेरे में विभिन्न मुद्राओं में ोल की ंकार, थाल टंकार पर नृत्य करते और हाथों में रखी एक मीटर की डण्डी आजू बाजू के गैरियों की डण्डियों से टकराते हैं और घेरे में घूमते हुए नृत्य करते हैं। गैरिये चालीस मीटर के घाघरे पहन हाथों में डाण्डियें, पांवो में आठआठ किलो वजनी घुंघरू पहन जब नृत्य करते हैं तो पूरा वातावरण कानो में रस घोलने लगता हैं। ढोल की टंकार और थाली की टंकार पर आंगीबांगी नांगी जत्था गैर, डाण्डिया गौरों की नृत्य शैली निहारने के लिये मजबूर कर देती हैं। शौर्य तथा लोकगीतों के साथ बारीबारी से गैर दलों द्वारा नृत्य का सिलसिला सूर्यास्त तक जारी रहता हैं।

1520 समूह गैरियों के रूप में भाग लेते हैं गैर दलों की वेशभूषा के अनुरूप ही विभिन्न नृत्य शैलियां होती हैं। सफेद आंगी जो 4040 मीटर कपडे की बनी होती हैं। उस पर लाल कपडा कलंगी लगाकर जब नृत्य करते हैं तो मेले की रंगीनियां तथा मांटी की सोंधी महक श्रद्घालुओं को झूमने पर मजबूर कर देती हैं। सम्पूर्ण मेला स्थल गीतों, फागो और लोकवाद्य-यंत्रों की झंकारों, टंकारो व ंकारो से गुंजायमान हो उठता हैं। लोक संस्कृति को संरक्षण देने वाले लाखेटा, कनाना, कोटडी, सरवडी, कम्मो का वाडा, भलरों का बाडा, मिया का बाडा, खुराणी सहित आप पास के क्षेत्रों में गैर दल चंग की थाप पर गातेनाचते हैं।

वहीं इसी क्षेत्र की आंगी बांगी की रंगीन वेशभूषा वाली डाण्डिया गैर नृत्य दल समां बांधने में सफल ही नहीं रहते अपितु मेले को नई ऊंचाईयां प्रदान करते हैं। वीर दुर्गादास की कर्मस्थली कनाना का मेला जो शीतलासप्तमी को लगता हैं, अपने अपन में अनूठा गैर नृत्यमेला होता हैं जो सिर्फ देखने से ताल्लुक रखता हैं। हजारों श्रद्घालु मेले में भाग लेते हैं। सनावड़ा में भी होली के दूसरे दिन का गैरियों का गैर नृत्य वातावरण को रंगीन बना देता हैं। पूरा आयोजनस्थल दिल को शुकून प्रदान करता हैं।