पहचान को तरसती राजस्थानी!
बाड़मेर। आज राजस्थान दिवस है और प्रदेश राजस्थानी की मान्यता को लेकर बात कर रहा है, लेकिन एक भाषा के रूप में राजस्थानी मरूधरा में भी पहचान नहीं बना पाई है। सालों से उच्च माध्यमिक स्तर पर राजस्थानी विषय होने के बावजूद यहां अधिकांश विद्यालयों में राजस्थानी भाषा नहीं पढ़ाई जा रही है। महाविद्यालय स्तर पर तो इस विषय को शामिल ही नहीं किया गया है। हजारों की संख्या में राजस्थानी पढ़ने वालों की तादाद अंगुलियों पर गिनने लायक ही है।
राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग उठ रही है। इससे राजस्थानी को पहचान मिलेगी तो यहां के युवा इस विषय का अध्ययन कर रोजगार के अवसर पर सकेंगे, लेकिन विद्यालय स्तर पर राजस्थानी की स्थिति सुखद नहीं है। जिले में उच्च माध्यमिक स्तर पर राजस्थानी भाषा को शामिल किए करीब बारह साल हो चुके हैं। इस दौरान इस विषय को मात्र दो-तीन विद्यालयों में ही पढ़ाया जा रहा है। ऎसे में यह विषय आरम्भिक तौर पर ही दम तोड़ता नजर आ रहा है।
महाविद्यालय में नहीं शामिल
उच्च माध्यमिक विद्यालयों में यह विषय शामिल है, लेकिन महाविद्यालय स्तर पर यह शामिल नहीं है। ऎसे में अधिकांश विद्यार्थी आगे इसका भविष्य नहीं होने की बात कहते हुए इसे पढ़ने से परहेज कर रहे हैं।
यहां है राजस्थानी
जिले में उच्च माध्यमिक स्तर के 145 विद्यालय हैं, इनमें से मात्र राउमावि स्टेशन रोड बाड़मेर, खड़ीन, कल्याणपुर और जसोल में ही राजस्थानी भाषा पढ़ाई जा रही है। करीब पचपन निजी विद्यालय हैं, जिसमें से एक में भी राजस्थानी नहीं पढ़ाई जा रही।
प्रोत्साहन की जरूरत
प्रदेश की भाषा राजस्थानी की मान्यता नहीं होने से दिक्कत हो रही है। राजस्थानी को प्राथमिक स्तर से विषय के रूप में शामिल कर प्रोत्साहन देने की जरूरत है।
- भोमसिंह बलाई, छात्र नेता
राजस्थानी आवश्यक हो
राजस्थान में राजस्थानी आवश्यक विषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए। राजस्थानी भाषा की मान्यता मिले इसके प्रयास जरूरी है।
- अशोक सारला, जिलाध्यक्ष, राजस्थानी भाषा छात्र परिषद
मान्यता जरूरी
राजस्थानी की मान्यता जरूरी है। इससे हमारी संस्कृति व सभ्यता के प्रति युवाओं की सोच बढ़ेगी और युवाओं को रोजगार में भी फायदा मिलेगा। - नीम्बाराम जांगिड़, सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य
मांग नहीं आ रही
किसी विद्यालय में पन्द्रह विद्यार्थी मांग करते हैं तो वहां यह विषय पढ़ाया जा सकता है। जिले में तीन-चार विद्यालयों में यह विषय है। अन्य जगह से मांग नहीं आ रही है, ऎसे में विष्ाय नहीं पढ़ाया जा रहा। - गोरधनलाल पंजाबी, जिला शिक्षा अधिकारी (माध्यमिक शिक्षा)
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शनिवार, 30 मार्च 2013
गुरुवार, 28 मार्च 2013
राजस्थान दिवस पर मुह पर पट्टी बांध करेगे मान्यता की मांग
राजस्थान दिवस पर मुह पर पट्टी बांध करेगे मान्यता की मांग
अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता सघर्ष समिति बाड़मेर तथा घटक संगठन मोटियार परिषद्, छात्र परिषद्, महिला परिषद्, चिन्तन परिषद के तत्वाधनान में राजस्थान दिवस पर राजस्थानी भाषा को संविधान की आठवी अनुसूची में शामिल करने की मांग को लेकर कार्यकर्ता मुंह पर पट्टी बांधकर राजस्थानी भाषा की मान्यता की मांग करेंगें।
समिति के जिला प्रवक्ता रमेशसिंह इन्दा ने बताया कि राजस्थान दिवस पूरे राजस्थान में मनाया जा रहा है। राजस्थानी भाषा के बिना कैसा राजस्थान गूंगा राजस्थान के तहत राजस्थानी भाषा को मान्यता की मांग को लेकर तीस मार्च को प्रातः दस बजे सामूहिक विरोध धरना दिया जाएगा। उन्होने बताया कि प्रदेश महामंत्री राजेन्द्रसिह बारहठ तथा संभाग उपपाटवी चन्दनसिंह भाटी के निर्देशानुसार तीस मार्च को प्रातः दस बजे राजस्थानी भाषा समिति से जुड़े समस्त कार्यकर्ता भाषा प्रेमी अहिसां चौराहे से काली मुंह पर पट्टी लगाकर राजस्थान भाषा की मान्यता की मांग करेगें। उन्होने समिति के समस्त पदाधिकारियों, समस्त घटक संगठनों के पदाधिकारियों से नियत समय पर कार्यक्रम में शरीक होने की अपील की है। उन्होने बताया कि मुंह पट्अी बांध शांति रैली निकाली जाएगी तथा जिला कलक्टर बाड़मेर को राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन सुपुर्द किया जाएगा।
मंगलवार, 29 मार्च 2011
foto...राजस्थान दिवस बाड़मेर: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि...राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त का ंिसंहद्वार बाड़मेर
आपणों राजस्थान आपण्ी राजस्थानी
बाड़मेर: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त का ंिसंहद्वार बाड़मेर बहु-आयामी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से सम्पन्न रहा है। पारम्परिक काव्य-साहित्य, समकालीन अभिलेख तथा विविध साक्ष्य इसके प्रमाण है। थार के इस मरु प्रान्त के परिपेक्ष्य में रामायण एवं महाभारत के अन्तर्गत निर्देश समुपलब्ध होते है। रामायण के युद्व काण्ड में सेतु-बन्ध प्रसंग के अन्तर्गत सागर-शोषण हेतु चढ़े अमोध राम बाण के उत्तरवर्त्ति द्रुमकुल्य प्रदेश के आभीरो पर सन्धन से मरुभूमि की उत्पत्ति का वर्णन है।
महाभारत के अश्वमेधिक पर्वान्तर्गत भारत युद्वोपरान्त श्री कृष्ण के द्वारिका प्रत्यागमन प्रसंग की उनकी इसी मरुभमि में उत्तक ऋषि से भेंट और यहां जल की दुर्लभता विषयक उल्लेख मिलते है। मौर्यकाल में सौराष्ट्र से संयुक्त क्षेत्र के रुप यह प्रान्त चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य के अन्तर्गत था। तत्पश्चात इस पर इण्डोग्रिक शासको, मिलिन्द तथा महाक्षत्रप रुद्रदमन का शासन रहा। कतिपय इतिहासज्ञो के अनुसार यूनानियों द्वारा उल्लेख श्ग्व्।छ।श् दुर्ग सम्भवतः सिवाना क्षेत्रान्तर्गत था।
परवर्ती काल में इस क्षेत्र का गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत होना मीरपुर खास में गुप्तकालीन बौद्व स्मारक प्राप्त होने से प्रमाणित होता है।
पूर्व मध्यकालिन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार यह प्रदेश गुर्जरत्रा कहलाता था। चीनी यात्री हेंनसांग ने इसी गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीलो मोलो भीनमाल अथवा बाड़मेर बताया है। डॉ. जे एन आसोपा क ेमत में गुर्जर शब्द अरब यात्रियों द्वारा गुर्जर प्रतिहारो हेतु प्रयुक्त सम्बोधन जुर्ज का समानार्थक है। जिसकी व्युत्पति मरुभूमि में प्रवाही जोजरी नदी से बताई गई है। इस प्रकार प्रतिहारो से सम्बन्ध गुर्जर विशेषण भौगोलिक महत्व का सूचक है। जो यहां गुर्जर प्रतिहार अधिराज्य को निर्दिष्ट करता है। इस तथ्य की पुष्टि 936 ई. के चेराई अभिलेख से होती है। गुर्जर प्रतिहारो के उपरान्त यहां परमारो का अधिपत्य रहा।
मरुमण्डल के ये परमार आबू के परमारो से पृथक माने जाते है। 1161 ई. के किराडू अभिलेख औरा 1183 ई. के मांगता ताम्रपत्र के अन्तर्गत सिन्धुराज (956ई.) को ‘सम्भून मरुमण्डले‘ कहकर यहां के परमारो का आदिपुरुष निर्दिष्ट किया गया है। इनकी राजधानी किरात कूप (किराडू) थी। फिर यहां गुजरात के चालुक्यों का अधिकार ज्ञात होता है।
1152 ई. के कुछ पूुर्व किराडूु पर कुमारपाल चाणक्य के सामंत अल्हण चाहमान का अधिकार था। किन्तु 1161 ई. के किराडू अभिलेख के अनुसार सिंधुराज के वंशज (9वीं पीढ़ी) सोमेश्वर परमार द्वारा अधीनता मानने से संतुष्ट कुमारपाल द्वारा उसे किराडू पुनः प्रदान कर दिया गया। 1171 ई से 1183 ई. तक क्रमशः कीर्त्तिपाल चौहान, मुहम्मद गौरी (1178ई) भीमदेव सोलकी द्वितीय तथा जैसलमेर के भाटियो के किराडू पर अनवरत आक्रमणो एवं तत्कालीन शासको आसलराज और बन्धुराज के अक्षम प्रतिरोध से यहां का परमार राज्य शनै‘ शनै निःशेष होता चला गया।
किराडू राज्य के अवसान का समानान्तर सुन्धामाता मंदिर में चौहान चाचिगदेव के शिलालेख में विर्णत वाग्भट्ट मेरु अथवा बाहड़मेर का उत्थान प्रायः बारहवी शती ई. के उत्तरार्द्व में होना विदित होता है। इसकी संस्थापना का श्रेय क्षमाकल्याण रचित खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार सिद्वराज जयसिंह (1094-1142ई) के मन्त्री उदयन के पुत्र वाग्भट्ट अथवा बाहड़देव परमार को प्रदान किया गया है।
स्थापना के पश्चात यहां जैन श्रावको द्वारा मन्दिर एवं वाटिकाओं के निर्माण तथा 1252 में आचार्य जिनेश्वर सूरि के आगमन की जानकारी मेरुतुग कृत प्रबन्ध चिन्तामणि से मिलती है। बाहड़मेर के आदिनाथ मन्दिर अभिलेख (1295 ई) से हयां परमारो के उपरान्त चौहानो के शासन के संकेत प्राप्त होते है।
कान्हड़ दे प्रबन्ध (पद्मनाम रचित) के अन्तर्गत 1308-09 में अलाउदीन खिलजी की सेनाओं द्वारा जालौर सिवाना अभियान के क्रम में बाहड़मेर पर भी आक्रमण किये जाने सम्बन्धी उल्लेख है।
इस अराजकता का लाभ उठाकर राव धूहड़ राठौड़ के पुत्र राव राजपाल ने लगभग 1309-10ई में यहां के परमारो के प्रायः 560 ग्रामो पर अधिकार कर लिया। इसी के पराक्रमी वंशज रावल मल्लीनाथ के नाम पर इस क्षेत्र को मालानी की संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा।
15 वीं शती ई के पूर्वाद्व में मल्लीनाथ के पौत्र मण्डलीक द्वारा बाहड़मेर और चौहटन के शासको क्रमश मुग्धपाल (माम्पा) तथा सूंजा को परास्त करा अपने अनुज लूणकर्ण राठौड़ा (लूंका) को वहां का राज्य सौप दिया गया। इस प्रकार जसोल बाड़मेर एवं सिणदरी जहां मल्लीनाथ के वंशाजो द्वारा शासित हुए वही नगर और गुढ़ा उनके सबसे छोटे भाई जैतमाल की सन्तति के अधिकार मेें रहे। जबकि मंझले भाई वरीमदेव के पुत्र चूण्डा ने परिहारो से मण्डोर छीना। बाहड़मेर में लुंका जी की चौथी पीढी के शासक राव भीमाजी रत्नावत को जोधपुर नरेश राव मालदेव के सामान्तो जैसा भैैर व दासोत और पृथ्वीराज जैैतावत द्वारा लगभग 1551-52 ई. में पराजित किया गया। जैसलमेर के रावल हरराय की सहायता के पश्चात भी पुनः हार जाने एवं बाहड़मेर के राठौड़ो की रतनसी तथा खेतसी के धड़ो में बट जाने पर भीमाजी ने बाहड़मेर छोड़कर बापड़ाऊ क्षेत्रान्तर्गत नवीन बाहड़मेर अथवा जूना और नवीन बाहड़मेर बसाया तभी से पुराना बाड़मेर जुना बाड़मेर कहा जाने लगा। परवर्ती काल में जैसलमेर के सहयोग से भीमाजी ने जुना बाहड़मेर तथा शिव आदि अपने खोए प्रदेश पुनः प्राप्त कर लिए। उपयुक्त तथ्यों की जानकारी विविध ख्यातो विशेषतः नेनसी की और राठौड़ वंश के इतिहास ग्रन्थ से समुचित रुप से हो जाती है। बाड़मेर की वणिका पहाड़ी की तलहटी के जैन मन्दिर के शिलालेख के अन्तर्गत 1622 ई यहां उदयसिंह का शासन निर्दिष्ट है। परवर्ती शासको रावत मेघराज, रामचन्द्र और साहबाजी, भाराजी आदि के सघर्ष प्रायः 19 वी शती ई. के आरम्भ तक यहां की राजनीति तथा समाज को प्रभावित करते रहें। तब मालानी परगने में प्रायः 460 ग्राम 14918 वर्ग किमी क्षेत्रान्तर्गत थे। मारवाड़ नरेश मानसिंह (1804-43 ई) के काल में यहां के सरदारो एवं भोमियों द्वारा गुजरात कच्छ तथा सिंध में उत्पाद मचाने एवं ब्रिटिश कम्पनी सरकार के आदेश के बाबजूद मानसिंह के उन्हे नियत्रित करने में विफल रहने पर रावत भभूतसिंह के समय 1836 ई. में चौहटन मालानी को बम्बई सरकार के अन्तर्गत ब्रिटिश अधिकार में ले लिया गया। सभी उत्पादी सरदारो को कैद कर राजकोट एवं कच्छ भुज भेज दिया गया। क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित होने पर मालानी को प्रशासन 700/- मासिक वेतन प्राप्त एक अधीक्षक को सौंपा गया, जिसकी सहायतार्थ मुम्बई रेग्यूलर केवेलरी का दस्ता तथा गायकवाड़ इन्फेन्ट्री के 100 घोड़े बाड़मेर मुख्यालय में रहते थे। (कच्छ भुज के रावल देसुल जी की जमानत से मुक्त हुए रावत भभूतसिंह भी अंग्रेजो से हुए समझौते के अनुसार बाड़मेर आ गए।) 1839 ई में मालानी परगना मुम्बई सरकार से ए.जी.जी. राजस्थान को स्थानान्तरित कर दिया गया। 1844 ई में गायकवाड़ केवेलरी का स्थान 150 मारवाड़ के घुड़सवारो ने ले लिया। अन्तिम स्थानीय अधीक्षक कैप्टन जैकसन के यहां से लौटने पर मारवाड़ के पोलिटीकल एजेन्ट की सता आरम्भ हुई। इस अतिरिक्त प्रभार हेतु उसके लिए 100/- मासिक भत्ता नियत था। 1865 ई में नियुक्त पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन इम्पे के तत्वावधान में मालानी के विस्तृत सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के प्रभाव स्वरुप जसोल तथा बाड़मेर में 1867 ई में वर्नाक्यूलर स्कलो के माध्यम से आधुनिक शिक्षा का समारम्भ हुआ। सर्वे रिपोर्ट 4 मई 1868 को प्रकाशित हुई। परवर्त्ती काल में इस क्षेत्र के ठाकुरो द्वारा प्रत्यक्षतः मारवाड़-प्रशासन के अधीन होने की इच्छा पर। 1 अगस्त 1891 को मालानी परगना मारवाड़ राज्य के अन्तर्गत आ गया। आगामी छः वर्षो में मालानी प्रशासन सुचारु एवं सुव्यवस्थित रहने, अपराधो में कमी होने और किसी भी प्रकार की शिकायत न आने पर जोधपुर में महाराजा सरदार सिंह को 1898 ई में यहां के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये गये। 22 दिसम्बर 1900 ई को मालानी के हृदयस्थल से गुजरने वाली बालोतरा सादीपाली रेल्वे लाइन का शुभारम्भ हुआ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति तक जोधपुर प्रशासन के अधीनस्थ रहते हुए देशी रियासतो के भारतीय सघ में विलीनीकरण के उपरान्त मालानी परगना 1949 ई में बाड़मेर जिले के रुप में अस्तित्व मान हुआ। जो आधुनिक बाड़मेर कहलाया।
बाड़मेर: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त का ंिसंहद्वार बाड़मेर बहु-आयामी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से सम्पन्न रहा है। पारम्परिक काव्य-साहित्य, समकालीन अभिलेख तथा विविध साक्ष्य इसके प्रमाण है। थार के इस मरु प्रान्त के परिपेक्ष्य में रामायण एवं महाभारत के अन्तर्गत निर्देश समुपलब्ध होते है। रामायण के युद्व काण्ड में सेतु-बन्ध प्रसंग के अन्तर्गत सागर-शोषण हेतु चढ़े अमोध राम बाण के उत्तरवर्त्ति द्रुमकुल्य प्रदेश के आभीरो पर सन्धन से मरुभूमि की उत्पत्ति का वर्णन है।
महाभारत के अश्वमेधिक पर्वान्तर्गत भारत युद्वोपरान्त श्री कृष्ण के द्वारिका प्रत्यागमन प्रसंग की उनकी इसी मरुभमि में उत्तक ऋषि से भेंट और यहां जल की दुर्लभता विषयक उल्लेख मिलते है। मौर्यकाल में सौराष्ट्र से संयुक्त क्षेत्र के रुप यह प्रान्त चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य के अन्तर्गत था। तत्पश्चात इस पर इण्डोग्रिक शासको, मिलिन्द तथा महाक्षत्रप रुद्रदमन का शासन रहा। कतिपय इतिहासज्ञो के अनुसार यूनानियों द्वारा उल्लेख श्ग्व्।छ।श् दुर्ग सम्भवतः सिवाना क्षेत्रान्तर्गत था।
परवर्ती काल में इस क्षेत्र का गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत होना मीरपुर खास में गुप्तकालीन बौद्व स्मारक प्राप्त होने से प्रमाणित होता है।
पूर्व मध्यकालिन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार यह प्रदेश गुर्जरत्रा कहलाता था। चीनी यात्री हेंनसांग ने इसी गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीलो मोलो भीनमाल अथवा बाड़मेर बताया है। डॉ. जे एन आसोपा क ेमत में गुर्जर शब्द अरब यात्रियों द्वारा गुर्जर प्रतिहारो हेतु प्रयुक्त सम्बोधन जुर्ज का समानार्थक है। जिसकी व्युत्पति मरुभूमि में प्रवाही जोजरी नदी से बताई गई है। इस प्रकार प्रतिहारो से सम्बन्ध गुर्जर विशेषण भौगोलिक महत्व का सूचक है। जो यहां गुर्जर प्रतिहार अधिराज्य को निर्दिष्ट करता है। इस तथ्य की पुष्टि 936 ई. के चेराई अभिलेख से होती है। गुर्जर प्रतिहारो के उपरान्त यहां परमारो का अधिपत्य रहा।
मरुमण्डल के ये परमार आबू के परमारो से पृथक माने जाते है। 1161 ई. के किराडू अभिलेख औरा 1183 ई. के मांगता ताम्रपत्र के अन्तर्गत सिन्धुराज (956ई.) को ‘सम्भून मरुमण्डले‘ कहकर यहां के परमारो का आदिपुरुष निर्दिष्ट किया गया है। इनकी राजधानी किरात कूप (किराडू) थी। फिर यहां गुजरात के चालुक्यों का अधिकार ज्ञात होता है।
1152 ई. के कुछ पूुर्व किराडूु पर कुमारपाल चाणक्य के सामंत अल्हण चाहमान का अधिकार था। किन्तु 1161 ई. के किराडू अभिलेख के अनुसार सिंधुराज के वंशज (9वीं पीढ़ी) सोमेश्वर परमार द्वारा अधीनता मानने से संतुष्ट कुमारपाल द्वारा उसे किराडू पुनः प्रदान कर दिया गया। 1171 ई से 1183 ई. तक क्रमशः कीर्त्तिपाल चौहान, मुहम्मद गौरी (1178ई) भीमदेव सोलकी द्वितीय तथा जैसलमेर के भाटियो के किराडू पर अनवरत आक्रमणो एवं तत्कालीन शासको आसलराज और बन्धुराज के अक्षम प्रतिरोध से यहां का परमार राज्य शनै‘ शनै निःशेष होता चला गया।
किराडू राज्य के अवसान का समानान्तर सुन्धामाता मंदिर में चौहान चाचिगदेव के शिलालेख में विर्णत वाग्भट्ट मेरु अथवा बाहड़मेर का उत्थान प्रायः बारहवी शती ई. के उत्तरार्द्व में होना विदित होता है। इसकी संस्थापना का श्रेय क्षमाकल्याण रचित खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार सिद्वराज जयसिंह (1094-1142ई) के मन्त्री उदयन के पुत्र वाग्भट्ट अथवा बाहड़देव परमार को प्रदान किया गया है।
स्थापना के पश्चात यहां जैन श्रावको द्वारा मन्दिर एवं वाटिकाओं के निर्माण तथा 1252 में आचार्य जिनेश्वर सूरि के आगमन की जानकारी मेरुतुग कृत प्रबन्ध चिन्तामणि से मिलती है। बाहड़मेर के आदिनाथ मन्दिर अभिलेख (1295 ई) से हयां परमारो के उपरान्त चौहानो के शासन के संकेत प्राप्त होते है।
कान्हड़ दे प्रबन्ध (पद्मनाम रचित) के अन्तर्गत 1308-09 में अलाउदीन खिलजी की सेनाओं द्वारा जालौर सिवाना अभियान के क्रम में बाहड़मेर पर भी आक्रमण किये जाने सम्बन्धी उल्लेख है।
इस अराजकता का लाभ उठाकर राव धूहड़ राठौड़ के पुत्र राव राजपाल ने लगभग 1309-10ई में यहां के परमारो के प्रायः 560 ग्रामो पर अधिकार कर लिया। इसी के पराक्रमी वंशज रावल मल्लीनाथ के नाम पर इस क्षेत्र को मालानी की संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा।
15 वीं शती ई के पूर्वाद्व में मल्लीनाथ के पौत्र मण्डलीक द्वारा बाहड़मेर और चौहटन के शासको क्रमश मुग्धपाल (माम्पा) तथा सूंजा को परास्त करा अपने अनुज लूणकर्ण राठौड़ा (लूंका) को वहां का राज्य सौप दिया गया। इस प्रकार जसोल बाड़मेर एवं सिणदरी जहां मल्लीनाथ के वंशाजो द्वारा शासित हुए वही नगर और गुढ़ा उनके सबसे छोटे भाई जैतमाल की सन्तति के अधिकार मेें रहे। जबकि मंझले भाई वरीमदेव के पुत्र चूण्डा ने परिहारो से मण्डोर छीना। बाहड़मेर में लुंका जी की चौथी पीढी के शासक राव भीमाजी रत्नावत को जोधपुर नरेश राव मालदेव के सामान्तो जैसा भैैर व दासोत और पृथ्वीराज जैैतावत द्वारा लगभग 1551-52 ई. में पराजित किया गया। जैसलमेर के रावल हरराय की सहायता के पश्चात भी पुनः हार जाने एवं बाहड़मेर के राठौड़ो की रतनसी तथा खेतसी के धड़ो में बट जाने पर भीमाजी ने बाहड़मेर छोड़कर बापड़ाऊ क्षेत्रान्तर्गत नवीन बाहड़मेर अथवा जूना और नवीन बाहड़मेर बसाया तभी से पुराना बाड़मेर जुना बाड़मेर कहा जाने लगा। परवर्ती काल में जैसलमेर के सहयोग से भीमाजी ने जुना बाहड़मेर तथा शिव आदि अपने खोए प्रदेश पुनः प्राप्त कर लिए। उपयुक्त तथ्यों की जानकारी विविध ख्यातो विशेषतः नेनसी की और राठौड़ वंश के इतिहास ग्रन्थ से समुचित रुप से हो जाती है। बाड़मेर की वणिका पहाड़ी की तलहटी के जैन मन्दिर के शिलालेख के अन्तर्गत 1622 ई यहां उदयसिंह का शासन निर्दिष्ट है। परवर्ती शासको रावत मेघराज, रामचन्द्र और साहबाजी, भाराजी आदि के सघर्ष प्रायः 19 वी शती ई. के आरम्भ तक यहां की राजनीति तथा समाज को प्रभावित करते रहें। तब मालानी परगने में प्रायः 460 ग्राम 14918 वर्ग किमी क्षेत्रान्तर्गत थे। मारवाड़ नरेश मानसिंह (1804-43 ई) के काल में यहां के सरदारो एवं भोमियों द्वारा गुजरात कच्छ तथा सिंध में उत्पाद मचाने एवं ब्रिटिश कम्पनी सरकार के आदेश के बाबजूद मानसिंह के उन्हे नियत्रित करने में विफल रहने पर रावत भभूतसिंह के समय 1836 ई. में चौहटन मालानी को बम्बई सरकार के अन्तर्गत ब्रिटिश अधिकार में ले लिया गया। सभी उत्पादी सरदारो को कैद कर राजकोट एवं कच्छ भुज भेज दिया गया। क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित होने पर मालानी को प्रशासन 700/- मासिक वेतन प्राप्त एक अधीक्षक को सौंपा गया, जिसकी सहायतार्थ मुम्बई रेग्यूलर केवेलरी का दस्ता तथा गायकवाड़ इन्फेन्ट्री के 100 घोड़े बाड़मेर मुख्यालय में रहते थे। (कच्छ भुज के रावल देसुल जी की जमानत से मुक्त हुए रावत भभूतसिंह भी अंग्रेजो से हुए समझौते के अनुसार बाड़मेर आ गए।) 1839 ई में मालानी परगना मुम्बई सरकार से ए.जी.जी. राजस्थान को स्थानान्तरित कर दिया गया। 1844 ई में गायकवाड़ केवेलरी का स्थान 150 मारवाड़ के घुड़सवारो ने ले लिया। अन्तिम स्थानीय अधीक्षक कैप्टन जैकसन के यहां से लौटने पर मारवाड़ के पोलिटीकल एजेन्ट की सता आरम्भ हुई। इस अतिरिक्त प्रभार हेतु उसके लिए 100/- मासिक भत्ता नियत था। 1865 ई में नियुक्त पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन इम्पे के तत्वावधान में मालानी के विस्तृत सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के प्रभाव स्वरुप जसोल तथा बाड़मेर में 1867 ई में वर्नाक्यूलर स्कलो के माध्यम से आधुनिक शिक्षा का समारम्भ हुआ। सर्वे रिपोर्ट 4 मई 1868 को प्रकाशित हुई। परवर्त्ती काल में इस क्षेत्र के ठाकुरो द्वारा प्रत्यक्षतः मारवाड़-प्रशासन के अधीन होने की इच्छा पर। 1 अगस्त 1891 को मालानी परगना मारवाड़ राज्य के अन्तर्गत आ गया। आगामी छः वर्षो में मालानी प्रशासन सुचारु एवं सुव्यवस्थित रहने, अपराधो में कमी होने और किसी भी प्रकार की शिकायत न आने पर जोधपुर में महाराजा सरदार सिंह को 1898 ई में यहां के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये गये। 22 दिसम्बर 1900 ई को मालानी के हृदयस्थल से गुजरने वाली बालोतरा सादीपाली रेल्वे लाइन का शुभारम्भ हुआ।
स्वतन्त्रता प्राप्ति तक जोधपुर प्रशासन के अधीनस्थ रहते हुए देशी रियासतो के भारतीय सघ में विलीनीकरण के उपरान्त मालानी परगना 1949 ई में बाड़मेर जिले के रुप में अस्तित्व मान हुआ। जो आधुनिक बाड़मेर कहलाया।
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