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गुरुवार, 23 मार्च 2017

: गणगौर त्यौहार पर आज भी कायम है घुड़ला घुमाने की परम्परा.....

: गणगौर त्यौहार पर आज भी कायम है घुड़ला घुमाने की परम्परा.....

गणगौर के साथ घुड़ला लोक संस्कृति और जन मान्यता का हिस्सा बन गया है। म्हारो तेल बळे घी घाल घुडलो घूमे छै जी घूमे...। इस लोक गीत के पीछे निहितार्थ हमारी लोक संस्कृति और सामाजिक परम्पराओं को गणगौर के साथ घुड़ला इंगित करता है। बीकानेर में सूरज रोटे के उपवास के अगले दिन से घुड़ला निकाला जाता है।




लड़कियां घुड़ला लेकर अपने चाचा, ताऊ, और निकटतम परिजनों के घरों में जाती है। वहां गीत गाती हैं। इसके पीछे की दृष्टि यह है कि लड़की परिजनों को अहसास करवाती है कि मेरी सुरक्षा की जिम्मेदारी आप पर है। इस अवसर पर वे अपने रिश्तोंं को भी समझती है। घुड़ला उसी घर ले जाया जाता है जहां लडकी अपनी सुरक्षा समझती है।




पुराने शहर में घुड़ला घुमाने की परम्परा कायम है। समाज शा?ी सुधा आचार्य ने बताया कि घुडला घुमाने के पीछे समाज का मनोविज्ञान है। किवदंती है कि जोधपुर के पीपाड़ गांव में गणगौर की पूजा करती लडकियों को यौवन हमलावार घोड़ेल खां उठाकर ले गया। इन लडकियों को छुड़ाने के लिए तत्कालीन राजा ने उससे युद्ध किया।




इससे राजा का शरीर तीरोंं से बींध गया। राजा लड़कियों को छुडाकर ले आया। अब गणगौर के साथ घड़े में छेद करके दीपक रखा जाता है। इसे घुडैले के रूप में परिजनों के यहां यह संदेश देने के लिए घुमाया जाता है कि उनकी रक्षा की जिम्मेदारी परिजनों की है। लड़कियां गणगौर के साथ उनकी रक्षा करने वाले को प्रतीकात्मक दीपक की ज्योति के रूप में रखती है।




घुड़ला नृत्य
घुड़ले की कथा के साथ नृत्य भी शुरू हो गया है। घुड़ले को सिर पर रखकर महिला घुड़ला नृत्य करती है। इस नृत्य को कोमल कोठारी ने राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के मंच से अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया। वैसे बीकानेर में भी मानसी सिंह पंवार सिर पर घुड़ला रखकर नृत्य करती है।




घुडले के गीत
बीकानेेर में लडकियां घुडेले के गीत गाती हुई समूह में घरों में जाती है। जब वे घरों के आगे गीत गाती है तो परिजन उपहार के रूप में घुड़ेले में रुपए डालते हैं। जब गणगौर की पूजा समाप्त हो जाती है तो गणगौर ससुराल चली जाती है और लड़किया आखिरी दिन पूजा करके इस एकत्रित राशि से सामूहिक भोज (गोठ) का आयोजन करती है।




यह पारिवारिक एवं सामाजिक रिश्तों की सनातन संस्कृति को सबल बनाती है। घुडैल के माध्यम से बहिन-बेटी के प्रति समाज में सनातन संस्कृति की जोत जलती रहने का संदेश दिया जाता है।

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

ईसर-गवर की स्थापना, गणगौर पूजन शुरू


ईसर-गवर की स्थापना, गणगौर पूजन शुरू 

जैसलमेर 
कुंवारियों और नवविवाहिताओं की 15 दिवसीय गणगौर का पूजन पारंपरिक रूप से प्रारंभ हुआ। होलिका दहन के अवसर पर महिलाओं द्वारा भाइयों के सिर पर घोली गई मालाओं को होलिका के साथ जलाया गया था और उस राख से धुलंडी की सुबह ईसर एवं गणगौर की मूर्तियों की स्थापना करते हुए विधि विधान के साथ गणगौर पूजन प्रारंभ किया गया। 

बुधवार की सुबह गीत गाती सजी-धजी बालिकाओं और नवविवाहिताओं को बाग-बगीचों से पुष्प बीन कर लाते देखा गया। मंडलियों के रूप में पूजा का आयोजन करते हुए चयनित स्थान पर शुद्ध रेत में जवारे बोए गए। प्रतिदिन सुबह-शाम इनकी पूजा की जाएगी और गणगौर पूजन करने वाली बालिकाओं व महिलाओं द्वारा गणगौर के गीत गाए जाएंगे।

धुलंडी के दिन गणगौर पूजा के लिए तैयार हुई बालिकाओं तथा नवविवाहिताओं की भारी चहल-पहल देखी गई। परंपरा है कि इस प्रकार गणगौर पूजन के लिए तैयार हुई बालिकाओं को आदर की दृष्टि से देखा जाता है और इन पर रंग गुलाल इत्यादि नहीं छिड़का जाता है। 15 दिन तक यह आयोजन निरंतर चलता रहेगा। इस दौरान गणगौर पूजक मंडलियों द्वारा विविध पारंपरिक आयोजन किए जाएंगे और घुड़ला निकाल कर रात्रि जागरण किए जाएंगे। आखिर में गणगौर के दिन पवित्र तालाब व कुंड आदि में ईसर पार्वती और गवर के खोल का विसर्जन किया जाएगा।

गुरुवार, 28 मार्च 2013

शीतला सप्तमी ...इस दिन घर में चूल्हा नहीं जलता ...ठंडा खाते हें


थार में मेलों की धमचक शुरू


शीतला सप्तमी ...इस दिन घर में चूल्हा नहीं जलता ...ठंडा खाते हें

बाड़मेर अपनी लोक कला ,संस्कृति और परम्पराओ के लिए विशिष्ठ पहचान बनाने वाले बाड़मेर िले में होली की समाप्ति के बाद लोक मेलो और त्योहारों की धमचक शुरू हो चुकी है .आने वाला एक माह तक थार नगरी त्योहारों के उल्लास से सरोबार हो गी .गणगौर का त्यौहार होली के साथ ही शुरू हो चुका हें ,जिले में शीतला सप्तमी से पूर्व विभिन क्षेत्रो में गैर नृत्य मेलो के आयोजन आरम्भ हो गए ,शीतला सप्तमी या अष्टमी का व्रत केवल चैत्र मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को होता है और यही तिथि मुख्य मानी गई है। किंतु स्कन्द पुराण के अनुसार इस व्रत को चार महीनों में करने का विधान है। इसमें पूर्वविद्धा अष्टमी (व्रतमात्रेऽष्टमी कृष्णा पूर्वा शुक्लाष्टमी परा) ली जाती है। चूँकि इस व्रत पर एक दिन पूर्व बनाया हुआ भोजन किया जाता है अतः इस व्रत को बसौड़ा, लसौड़ा या बसियौरा भी कहते हैं। शीतला को चेचक नाम से भी जाना जाता है।

यह व्रत कैसे करें

व्रती को इस दिन प्रातःकालीन कर्मों से निवृत्त होकर स्वच्छ व शीतल जल से स्नान करना चाहिए।

स्नान के पश्चात निम्न मंत्र से संकल्प लेना चाहिए-

मम गेहे शीतलारोगजनितोपद्रव प्रशमन पूर्वकायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिये शीतलाष्टमी व्रतं करिष्ये


संकल्प के पश्चात विधि-विधान तथा सुगंधयुक्त गंध व पुष्प आदि से माता शीतला का पूजन करें।

इसके पश्चात एक दिन पहले बनाए हुए (बासी) खाद्य पदार्थों, मेवे, मिठाई, पूआ, पूरी, दाल-भात आदि का भोग लगाएँ।

यदि आप चतुर्मासी व्रत कर रहे हों तो भोग में माह के अनुसार भोग लगाएँ। जैसे- चैत्र में शीतल पदार्थ, वैशाख में घी और शर्करा से युक्त सत्तू, ज्येष्ठ में एक दिन पूर्व बनाए गए पूए तथा आषाढ़ में घी और शक्कर मिली हुई खीर।

तत्पश्चात शीतला स्तोत्र का पाठ करें और यदि यह उपलब्ध न हो तो शीतला अष्टमी की कथा सुनें।

रात्रि में जगराता करें और दीपमालाएँ प्रज्वलित करें।

विशेष : इस दिन व्रती को चाहिए कि वह स्वयं तथा परिवार का कोई भी सदस्य किसी भी प्रकार के गरम पदार्थ का भक्षण या उपयोग न करे।