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मंगलवार, 29 मार्च 2011

foto...राजस्थान दिवस बाड़मेर: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि...राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त का ंिसंहद्वार बाड़मेर











पधारो म्हारे देश.









राजस्थान दिवस पर सभी को हार्दिक बधाई ओर शुभ कामनाऐं.......

आपणों राजस्थान आपण्ी राजस्थानी


बाड़मेर: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि



राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त का ंिसंहद्वार बाड़मेर बहु-आयामी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से सम्पन्न रहा है। पारम्परिक काव्य-साहित्य, समकालीन अभिलेख तथा विविध साक्ष्य इसके प्रमाण है। थार के इस मरु प्रान्त के परिपेक्ष्य में रामायण एवं महाभारत के अन्तर्गत निर्देश समुपलब्ध होते है। रामायण के युद्व काण्ड में सेतु-बन्ध प्रसंग के अन्तर्गत सागर-शोषण हेतु चढ़े अमोध राम बाण के उत्तरवर्त्ति द्रुमकुल्य प्रदेश के आभीरो पर सन्धन से मरुभूमि की उत्पत्ति का वर्णन है।


महाभारत के अश्वमेधिक पर्वान्तर्गत भारत युद्वोपरान्त श्री कृष्ण के द्वारिका प्रत्यागमन प्रसंग की उनकी इसी मरुभमि में उत्तक ऋषि से भेंट और यहां जल की दुर्लभता विषयक उल्लेख मिलते है। मौर्यकाल में सौराष्ट्र से संयुक्त क्षेत्र के रुप यह प्रान्त चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य के अन्तर्गत था। तत्पश्चात इस पर इण्डोग्रिक शासको, मिलिन्द तथा महाक्षत्रप रुद्रदमन का शासन रहा। कतिपय इतिहासज्ञो के अनुसार यूनानियों द्वारा उल्लेख श्ग्व्।छ।श् दुर्ग सम्भवतः सिवाना क्षेत्रान्तर्गत था।


परवर्ती काल में इस क्षेत्र का गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत होना मीरपुर खास में गुप्तकालीन बौद्व स्मारक प्राप्त होने से प्रमाणित होता है।


पूर्व मध्यकालिन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार यह प्रदेश गुर्जरत्रा कहलाता था। चीनी यात्री हेंनसांग ने इसी गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीलो मोलो भीनमाल अथवा बाड़मेर बताया है। डॉ. जे एन आसोपा क ेमत में गुर्जर शब्द अरब यात्रियों द्वारा गुर्जर प्रतिहारो हेतु प्रयुक्त सम्बोधन जुर्ज का समानार्थक है। जिसकी व्युत्पति मरुभूमि में प्रवाही जोजरी नदी से बताई गई है। इस प्रकार प्रतिहारो से सम्बन्ध गुर्जर विशेषण भौगोलिक महत्व का सूचक है। जो यहां गुर्जर प्रतिहार अधिराज्य को निर्दिष्ट करता है। इस तथ्य की पुष्टि 936 ई. के चेराई अभिलेख से होती है। गुर्जर प्रतिहारो के उपरान्त यहां परमारो का अधिपत्य रहा।


मरुमण्डल के ये परमार आबू के परमारो से पृथक माने जाते है। 1161 ई. के किराडू अभिलेख औरा 1183 ई. के मांगता ताम्रपत्र के अन्तर्गत सिन्धुराज (956ई.) को ‘सम्भून मरुमण्डले‘ कहकर यहां के परमारो का आदिपुरुष निर्दिष्ट किया गया है। इनकी राजधानी किरात कूप (किराडू) थी। फिर यहां गुजरात के चालुक्यों का अधिकार ज्ञात होता है।


1152 ई. के कुछ पूुर्व किराडूु पर कुमारपाल चाणक्य के सामंत अल्हण चाहमान का अधिकार था। किन्तु 1161 ई. के किराडू अभिलेख के अनुसार सिंधुराज के वंशज (9वीं पीढ़ी) सोमेश्वर परमार द्वारा अधीनता मानने से संतुष्ट कुमारपाल द्वारा उसे किराडू पुनः प्रदान कर दिया गया। 1171 ई से 1183 ई. तक क्रमशः कीर्त्तिपाल चौहान, मुहम्मद गौरी (1178ई) भीमदेव सोलकी द्वितीय तथा जैसलमेर के भाटियो के किराडू पर अनवरत आक्रमणो एवं तत्कालीन शासको आसलराज और बन्धुराज के अक्षम प्रतिरोध से यहां का परमार राज्य शनै‘ शनै निःशेष होता चला गया।


किराडू राज्य के अवसान का समानान्तर सुन्धामाता मंदिर में चौहान चाचिगदेव के शिलालेख में विर्णत वाग्भट्ट मेरु अथवा बाहड़मेर का उत्थान प्रायः बारहवी शती ई. के उत्तरार्द्व में होना विदित होता है। इसकी संस्थापना का श्रेय क्षमाकल्याण रचित खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार सिद्वराज जयसिंह (1094-1142ई) के मन्त्री उदयन के पुत्र वाग्भट्ट अथवा बाहड़देव परमार को प्रदान किया गया है।


स्थापना के पश्चात यहां जैन श्रावको द्वारा मन्दिर एवं वाटिकाओं के निर्माण तथा 1252 में आचार्य जिनेश्वर सूरि के आगमन की जानकारी मेरुतुग कृत प्रबन्ध चिन्तामणि से मिलती है। बाहड़मेर के आदिनाथ मन्दिर अभिलेख (1295 ई) से हयां परमारो के उपरान्त चौहानो के शासन के संकेत प्राप्त होते है।


कान्हड़ दे प्रबन्ध (पद्मनाम रचित) के अन्तर्गत 1308-09 में अलाउदीन खिलजी की सेनाओं द्वारा जालौर सिवाना अभियान के क्रम में बाहड़मेर पर भी आक्रमण किये जाने सम्बन्धी उल्लेख है।


इस अराजकता का लाभ उठाकर राव धूहड़ राठौड़ के पुत्र राव राजपाल ने लगभग 1309-10ई में यहां के परमारो के प्रायः 560 ग्रामो पर अधिकार कर लिया। इसी के पराक्रमी वंशज रावल मल्लीनाथ के नाम पर इस क्षेत्र को मालानी की संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा।


15 वीं शती ई के पूर्वाद्व में मल्लीनाथ के पौत्र मण्डलीक द्वारा बाहड़मेर और चौहटन के शासको क्रमश मुग्धपाल (माम्पा) तथा सूंजा को परास्त करा अपने अनुज लूणकर्ण राठौड़ा (लूंका) को वहां का राज्य सौप दिया गया। इस प्रकार जसोल बाड़मेर एवं सिणदरी जहां मल्लीनाथ के वंशाजो द्वारा शासित हुए वही नगर और गुढ़ा उनके सबसे छोटे भाई जैतमाल की सन्तति के अधिकार मेें रहे। जबकि मंझले भाई वरीमदेव के पुत्र चूण्डा ने परिहारो से मण्डोर छीना। बाहड़मेर में लुंका जी की चौथी पीढी के शासक राव भीमाजी रत्नावत को जोधपुर नरेश राव मालदेव के सामान्तो जैसा भैैर व दासोत और पृथ्वीराज जैैतावत द्वारा लगभग 1551-52 ई. में पराजित किया गया। जैसलमेर के रावल हरराय की सहायता के पश्चात भी पुनः हार जाने एवं बाहड़मेर के राठौड़ो की रतनसी तथा खेतसी के धड़ो में बट जाने पर भीमाजी ने बाहड़मेर छोड़कर बापड़ाऊ क्षेत्रान्तर्गत नवीन बाहड़मेर अथवा जूना और नवीन बाहड़मेर बसाया तभी से पुराना बाड़मेर जुना बाड़मेर कहा जाने लगा। परवर्ती काल में जैसलमेर के सहयोग से भीमाजी ने जुना बाहड़मेर तथा शिव आदि अपने खोए प्रदेश पुनः प्राप्त कर लिए। उपयुक्त तथ्यों की जानकारी विविध ख्यातो विशेषतः नेनसी की और राठौड़ वंश के इतिहास ग्रन्थ से समुचित रुप से हो जाती है। बाड़मेर की वणिका पहाड़ी की तलहटी के जैन मन्दिर के शिलालेख के अन्तर्गत 1622 ई यहां उदयसिंह का शासन निर्दिष्ट है। परवर्ती शासको रावत मेघराज, रामचन्द्र और साहबाजी, भाराजी आदि के सघर्ष प्रायः 19 वी शती ई. के आरम्भ तक यहां की राजनीति तथा समाज को प्रभावित करते रहें। तब मालानी परगने में प्रायः 460 ग्राम 14918 वर्ग किमी क्षेत्रान्तर्गत थे। मारवाड़ नरेश मानसिंह (1804-43 ई) के काल में यहां के सरदारो एवं भोमियों द्वारा गुजरात कच्छ तथा सिंध में उत्पाद मचाने एवं ब्रिटिश कम्पनी सरकार के आदेश के बाबजूद मानसिंह के उन्हे नियत्रित करने में विफल रहने पर रावत भभूतसिंह के समय 1836 ई. में चौहटन मालानी को बम्बई सरकार के अन्तर्गत ब्रिटिश अधिकार में ले लिया गया। सभी उत्पादी सरदारो को कैद कर राजकोट एवं कच्छ भुज भेज दिया गया। क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित होने पर मालानी को प्रशासन 700/- मासिक वेतन प्राप्त एक अधीक्षक को सौंपा गया, जिसकी सहायतार्थ मुम्बई रेग्यूलर केवेलरी का दस्ता तथा गायकवाड़ इन्फेन्ट्री के 100 घोड़े बाड़मेर मुख्यालय में रहते थे। (कच्छ भुज के रावल देसुल जी की जमानत से मुक्त हुए रावत भभूतसिंह भी अंग्रेजो से हुए समझौते के अनुसार बाड़मेर आ गए।) 1839 ई में मालानी परगना मुम्बई सरकार से ए.जी.जी. राजस्थान को स्थानान्तरित कर दिया गया। 1844 ई में गायकवाड़ केवेलरी का स्थान 150 मारवाड़ के घुड़सवारो ने ले लिया। अन्तिम स्थानीय अधीक्षक कैप्टन जैकसन के यहां से लौटने पर मारवाड़ के पोलिटीकल एजेन्ट की सता आरम्भ हुई। इस अतिरिक्त प्रभार हेतु उसके लिए 100/- मासिक भत्ता नियत था। 1865 ई में नियुक्त पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन इम्पे के तत्वावधान में मालानी के विस्तृत सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के प्रभाव स्वरुप जसोल तथा बाड़मेर में 1867 ई में वर्नाक्यूलर स्कलो के माध्यम से आधुनिक शिक्षा का समारम्भ हुआ। सर्वे रिपोर्ट 4 मई 1868 को प्रकाशित हुई। परवर्त्ती काल में इस क्षेत्र के ठाकुरो द्वारा प्रत्यक्षतः मारवाड़-प्रशासन के अधीन होने की इच्छा पर। 1 अगस्त 1891 को मालानी परगना मारवाड़ राज्य के अन्तर्गत आ गया। आगामी छः वर्षो में मालानी प्रशासन सुचारु एवं सुव्यवस्थित रहने, अपराधो में कमी होने और किसी भी प्रकार की शिकायत न आने पर जोधपुर में महाराजा सरदार सिंह को 1898 ई में यहां के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये गये। 22 दिसम्बर 1900 ई को मालानी के हृदयस्थल से गुजरने वाली बालोतरा सादीपाली रेल्वे लाइन का शुभारम्भ हुआ।


स्वतन्त्रता प्राप्ति तक जोधपुर प्रशासन के अधीनस्थ रहते हुए देशी रियासतो के भारतीय सघ में विलीनीकरण के उपरान्त मालानी परगना 1949 ई में बाड़मेर जिले के रुप में अस्तित्व मान हुआ। जो आधुनिक बाड़मेर कहलाया।

मंगलवार, 22 मार्च 2011

जल माफिया बेचते हेैं करोड़ों का अवैध पानीे






जल माफिया बेचते हेैं करोड़ों का अवैध पानीे


बाडमेर सीमावर्ती बाडमेर मे जिले में पेयजल की भारी किल्लत के कारण थारवासी जहॉ पलायन को मजबूर हो रहे हैं,वहींजिले क ेजल माफिया प्रति वशर करोड़ो रुपयों का अवैध पानी बेच कर चान्दी काट रहे हैं।स्थानिय वासियों को पानी पीने के लिए भारी कीमत चुकानी पड़ रही हैं।पानी की एकएक बून्द के लिए मोहताज थार वासियों ने सपने में भी नहीे सोचा था कि उन्हे पीने के पानी की भारी कीमत चुकानी पड़ेगी।


रेगिस्तान में पानी का करोड़ो का कारोबार अविश्वसनीय जरुर लगता है,किन्तु सत्य हैं।पिश्चमी राजस्थान के बाड़मेर मे जिले म ेंपेयजल संकट से जूझते आमजन के लिए पीने का पानी जॅहा एक बड़ा संकट हैं वहीं इन जल माफियों के लिए आमदनी का जरिया बना हुआ हैं।एक तरफ सरकार दावा कर रही है कि सभी गांवों में पानी पहुॅचाया जा रहा है।जबकि हकीकत में गा्रमिणों को पेयजल की भारी कीमत चुकानी पड़ रही हैं।गांवों में पेयजल योजनाऐं ठप्प पड़ी हैं।टृैक्टर के पहियों पर पानी के करोड़ो रुपयों के अवैध कारोबार का धन्धा सरकारी कर्मचारीयों की महरबानी से निर्बाध चल रहा हैं।जिले का कोई गांवाणी ऐसी नहीं हैं जहॉ गा्रमीणों को पानी खरीदना नहीं पड़ता हो। 



लगातार छः सालो से पड़ रहे अकाल ने को में खाज का काम किया है।मानसून मेहरबान होता है तो साल के चार महिनेों में पानी के लिए मारामारी खत्म हो जाती हैं।मगर ोश आठ माह में पेयजल संकट से ग्रस्त गांवों में रहने वाले लोगो को पानी खरीद कर ही पीना पड़ता हैं।इस बार बरसात के अभाव में निरन्तर पेयजल संकट रहा हैंसर्दी के मौसम में भी टृेक्टर से पानी विपणन का कार्य चरम पर हैं।अमुमन गर्मियों में एक टेंकर पानी की करमत चार सौ रुपयें होती है,इस बार सर्दियों में भी एक टृेक्टर पानी की कीमत 550600 रुपये हैं।जल माफिया इतने दुःसाहसी हैकिअपने व्यवसाय में तेजी लाने के लिए सरकारी कारिन्दों से मिली भगत कर सरकारी योजनाओं को ठप्प करवा देते हैं। 


, ऐसे में गा्रमिणों को मजबूरी वश मुहॅमांगी कीमतों पर पेयजल टेंकर मंगवाने पड़ते हैं।माफिया स्थानिय कर्मचारियों केसाथ मिलकर तकनीकि गड़बड़ीयॉ कराते हैं किजल विभाग के आला अधिकारी भी कुछ नहीं कर पाते।ऐसा ही एक माजरा नया मलवा में सामने आया।इस गांव की पाईप लाईन पिछले छः माह से बाधित हैं।गा्रमिण लम्बे समय से जिला कलक्टर,विधायक तथा अधिशासी अभियंता तक को कई र्मतबा शिकायतें करने के उपरांत पाईप लाईन दुरुस्त नही हो पाई।गा्रमिण आज भी 600 रुपये देकर पानी के टेंकर मंगवा रहे हैं।पाक सीमा से सटे सैकड़ों गांवों में इस तरह पाईप लाइ्रनें बाधित पड़ी हैं।गांवों में पेयजल संकट के कारण गा्रमिणों की हालात खराब हैं।गा्रमिणों को पानी के उपभोग में कंजुसी करने के बावजूद भी सामान्यतः पांचछः सदस्यों एवं एकदो पशु रखने वाले वाले परिवार को प्रति माह एक टेंकर खरीदना ही पड़ता हैं। 


पीरे का पार गांव निवासी श्रीमति ाहदाद ने बताया कि बरसात के समय टांकों में तीनचार माह का पानी आ जाता हैं।जिसके चलते पेयजल संकट से कुछ राहत मिलती हैं।मगर इस बार बरसात के अभाव में टांके सूखे पड़े हैं।भेड़ पालन का काम होने के कारण एक माह में लगभग तीन टेंकर पानी डलवाना ही पड़ता हैं।एक टेंकर पानी की कीमत 550600 रुपये अदा करनी पड़ती हैंसाल भर मे लगभग तीस हजार रुपये का पानी खरीदना पड़ता हैं।जिले में सतही पारम्परिक जल स्त्रोतों जैसे तालाब,बेरी,कुऐं,टाकों से उपलब्ध होता है।ैंइन स्त्रातों में बरसात का पानी संग्रर्हण कर रखा जाता है।ैंभूजल के रुप में कुछ स्थानों पर कुॅओं,टयूबवेलों से पीने का पानी गुणवतायुक्त उपलब्ध होता हैं।पीने योग्य भूजल वाले क्षैत्रों में अधिकतर किसानों के निजी टयूबवेल तथा कुऐं हैं। 


किसान इस पानी का उपयोग कृशि सिंचाई के अतिरिक्त टेृक्टरटेंकर वालों को विक्रय करते है ।ंकिसान एक टेंकरटेक्टर की भराई कीमत 100150 रुपयें में करवाते हैं।इस प्रकार निजी टयूबवेल व कुओं के मालिक भूजल दोहन कर लाखों रुपये की कमाई करते है।वहीं टृेक्अरटेंकर मालिक उसी पानी को गांवों तक परिवहन कर 350700 रुपयें तक वसुलते हैं।जल माफिया आर्थिक,सामाजिक, एवं राजनीति रुप में इतने प्रभावी हैं कि इन्हें सार्वजनिक पेयजल स्त्रोतों से टेंकर भरने से रोकने का साहस कोई नहीं कर पाता।जिले में लगभग पन्द्रह हजार टेंकर हैं।



बाड़मेर जिले में विभिन्न सरकारी योजनाओं में लगभग आठ लाख टांके बने हुए हैं इसके बावजूद पेयजल संकट यथावत हैं।जिला परिशद सदस्य रिड़मलसिंह दांता के अनुसार जन स्वास्थ्य विभाग को पेयजल योजनाओ पर खर्चा बन्द कर देना चाहिये।जिले में अरबों रुपये इन पेयजल योजनाओं पर व्यय किए गए हैं।मगर आहतों को आज तक राहत नहीं मिल पाइ्रंउनके अनुसार पेयजल आपूर्ति का कार्य ठेके पर दे देना चाहिये।गा्रमीणों को पानी खरीद कर ही पीना हैं,तो विभाग पर अनावश्यक खर्चा क्यों। 


जिला कलेक्टर  ने बताया कि जिले में पेयजल सरंक्षण के विोश उपाय किऐ जा रहे है।मनरेगा योजना में लगभग 50 हजार आंकों का निर्माण कराया जाकर जल सरंक्षण के बेहतरीन प्रयास किऐं गये हैं।साथ ही परमपरागत पेयजल सत्रोतों के जीर्णोद्घार तथा मरम्मत के लिऐं बउी संख्या में सवीकृतिया। जारी की गई हैंजल माफियों के खिलाफ कडे कदम उठाऐं जा रहे हैं।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

फाग की मस्ती ,थार मरुस्थल में चंग बजने लगे



बाड़मेर[चन्दन भाटी] बाड़मेर जिले में मदोत्सव एवं रंगोत्सव की मस्ती छाई हुई हैं।आधुनिकता की दौड़के बावजूद थार मरुस्थल में लोक कला और संस्कृति से जुड़ी परम्पराओं का निर्वाह किया जा रहा हैं।ग्रामीण अंचलों में होली की धूम मची हैं।ग्रामीण अंचलों में रंगोत्सव की मदमस्ती बरकरार हैं।ग्रामीण चौपालों पर सूरज लते ही ग्रामीण चंग की थाप पर फाग गाते नजर आते हैं।वहीं फागुनी लूर गाती महिलाओं के दल फागोत्सव के प्रति दीवानगी का एहसास कराती हैं।



सीमावर्ती बाड़मेर जिले की लोक परम्पराओं का निर्वहन ग्रामीण क्षैत्रों में आज भी हो रहा हैं।रंग और मद के इस त्यौहार के प्रति ग्रामीण अंचलों में दीवानगी बरकरार हैं।ग्रामीण चौपालों परगा्रमीणों के दल सामुहिक रुप से चंग की थाप पर फाग गीत गाते नजर आते हैं।जिले में लगातार

पड़ रहे अकाल का प्रभाव अधिक नजर नहीं आ रहा ।अलबता होली के धमाल के लिए प्रसिद्धसनावड़ा गांव के बुर्जुग रुपाराम ने बताया कि अकाल के कारण गांव के युवा रोजगार के लिए गुजरात गए हुए हैंअकाल के कारण हमारे गॉव में होली का रंग फीका नही। पडता।होली से

तीन चार रोज पूर्व रोजगार के लिए बाहर गए युवा पर्व मनाने पहफॅच जाएगे।गांव की परम्परा हैंजो हम अपने बुजुर्गों के समय से देखते आ रहे हैं।इसकी पालना होती हैं।



होली से 15 दिन पूर्व गांव में होली का आलम शुरु होता हैं।चोपाल पर शाम होते होते गांव के बडे बुड़े जवान बच्चे सभी एकत्रित हो जाते हैं।चंग बजाने वालो की थाप पर गा्रमिण सामुहिक रुप से फाग गाते हैं।वहीं गांव की महिलाए रात्री में एक जगह एकत्रित हो कर बारी बारी से घरों के आगे फाग गाती हैं।जो महिलाऐं इस दल में नहीं आती उस महिला के घर के आगे जाकर महिला दल अश्लील फाग गाती हैं,जिसे सुनकर अन्दर बैठी महिला शर्माकर दल मे शामिल हो जाती हैं।



महिलाओं द्घारा दो दल बनाकर लूर फाग गाती हैं।लूर में दोनों महिला दल आपस में गीतों के माध्यम से सवालजवाब करती हैं।लूर थार की परम्परा हैं।लुप्त हो रही लूर परम्परा सनावडा तथा सिवाना क्षैत्र के ग्रामीण अंचलों तक सिमट कर रह गई हे ।फाग गीतों के साथ साथ डाण्डिया गेर नृत्य का भी आयोजन होता हैं।भारी भरकम घुंघरु पांवों में बांध कर हाथें में आठ आठ मीटर लम्बे डाण्डियेंल करोल की थाप और थाली टंकार पर जब गेरिऐं नृत्य करते हैं तों लोक संगीत की छटा माटी की सौंधी में घुल जाती हैं। सनावडा में होली के दूसरे दिन बडे स्तर पर गेर नृत्यो का आयोजन होता हैं।जिसमें आसपास के गांवों के कई दल हिस्सा लेते हैं।ग्रामीण क्षैत्रों में होली का रंग जमने लगा हैं।शहरी क्षैत्र में भी गेरियों के दल इस बार नजर आ रहे हैं।जो शहर की गलियों में चंग की थाप पर फाग गाते नजर आते हैं।

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

थार की प्रेम कहानी कोटड़ा के किले से निकली बाघा भारमली प्रेम कहानी






थार की प्रेम कहानी


कोटड़ा के किले से निकली बाघा भारमली प्रेम कहानी


बाडमेर प्रेम की कथा अकथ है, अनिवर्चनीय है। फिर भी प्रेम कथा विविध प्रकार से कही जाती है, कही जाती थी और की जाएगी। मरुप्रदो की प्रेम गांथाएं मूमल महेन्द्रा, ढोला मारु तथा बाघा भारमली प्रेम का जीवंत उदाहरण है॥ प्रेम भावत और जीवन नियन्तता है। प्रेम एक व्यवस्थित एवं स्थिर मनोदा है। जब एक व्यक्ति का आकशर्ण दूसरे व्यक्ति पर इतना प्रबल हो कि उसकी प्राप्ति, उसका सानिध्य, उसकी रक्षा और उसकी प्रसन्नता में ही सुख की अनुभूति होने लगे तब उस मनोवृति को प्रेम का नाम दिया जाता है। मानव मन की सबसे सुन्दर दुर्बलता प्रेम है।


थार के इस समुन्द्र में कई प्रेम गाथाओं ने जन्म लिया होगा। मगर बाघा भारमली की प्रेम कथा राजस्थान के लोक साहित्यिक के अन्तर्गत अपना विश्ट स्थान रखती है। समाज और परम्पराओं के विपरित बाघा भारमली की प्रेम कथा बाड़मेर के कणकण में समाई है। इस प्रेम कथा को रुठी रानी में अवय विस्तार मिला है। मगर स्थानीय तौर पर यह प्रेम कथा साहित्यकारो द्वारा अपेक्षित हुई है। किन्तु चारण कवियों ने अपने ग्रन्थो में इस प्रेम कथा का उल्लेख अवय किया है। कोटड़ा के किले से जो प्रेम कहानी निकली वह बाघा भारमली के नाम से अमर हुई।


मारवाड़ के पिचमी अंचल बाड़मेरजैसलमेर से सम्बन्धित यह प्रणय वृतान्त आज भी यहां की सांस्कृतिक परम्परा एवं लोकमानस में जीवन्त है।


उपर्युक्त प्रेमगाथा का नायक बाघजी राठौड़ बाड़मेर जिलान्तर्गत कोटड़ा ग्राम का था। उसका व्यक्तित्व शूरवीरता तथा दानाशीलता से विशेश सम्पन्न था। जैसलमेर के भाटियों के साथ उसके कुल का वैवाहिक संबंध होने के कारण वह उनका समधी (गनायत) था।


कथानायिक भारमली जैसलमेर के रावल लूणकरण की पुत्री उमादे की दासी थी। 1536 ई में उमा दे का जोधपुर के राव मालदेव (153162ई) से विवाह होने पर भारमली उमा दे के साथ ही जोधपुर आ गई। वह रुपलावण्य तथा भारीरिकसौश्ठव में अप्सरावत अद्वितीय थी।


विवाहोपरान्त मधुयामिनी के अवसर पर राव मालदेव को उमा दे रंगमहल में पधारने का अर्ज करने हेतु गई दासी भारमली के अप्रतीत सौंदर्य पर मुग्ध होकर मदस्त राव जी रंगमहल में जाना बिसरा भारमली के यौवन में ही रम गये। इससे राव मालदेव और रानी उमा दे में ॔॔रार॔॔ ठन गई, रानी रावजी से रुठ गई। यह रुठनरार जीवनपर्यन्त रही, जिससे उमा दे ॔॔रुठी रानी॔॔ के नाम से प्रसिद्व हुई।


राव मालदेव के भारमली में रत होकर रानी उमा दे के साथ हुए विवासघात से रुश्ट उसके पीहर वालो ने अपनी राजकुमारी का वैवाहिक जीवन निर्द्वन्द्व बनाने हेतु अपने यौद्वा ॔॔गनायत॔॔ बाघजी को भारमली का अपहरण करने के लिए उकसाया। बाघजी भारमली के अनुपम रुपयौवन से माहित हो उसे अपहरण कर कोटड़ा ले आया एवं उसके प्रति स्वंय को हार बैठा। भारमली भी उसके बल पौरुश हार्द्विक अनुसार के प्रति समर्पित हो गई। जिससे दोनो की प्रणयवल्लरी प्रीतिरस से नियप्रति सिंचित होकर प्रफुल्ल और कुसुमितसुरभित होने लगी। इस घटना से क्षुब्ध राव मालदेव द्वारा कविराज आसानन्द को बाघाजी को समझा बुझा कर भारमली को लौटा लाने हेतु भेजा गया। आसानन्द के कोटड़ा पहुॅचने पर बाघ जी तथा भारमली ने उनका इतना आदरसत्कार किया कि वे अपने आगमन का उद्देय भूल अत्यंत होकर वही रहने लगे। उसकी सेवासुश्रूशा एवं हार्दिक विनयभाव से अभिभूत आसाजी का मन लौटने की सोचता ही नही था। उनके भाव विभोर चित्त से प्रेमीयुगल की हृदयकांक्षा कुछ इस प्रकार मुखरित हो उठी


जहं तरवर मोरिया, जहं सरवर तहं हंस।


जहं बाघो तहं भारमली, जहं दारु तहं मंस॥


तत्पचात आसान्नद बाघजी के पास ही रहे। इस प्रकार बाघभारमली का प्रेम वृतान्त प्रणय प्रवाह से आप्यायित होता रहा। बाघजी के निधन पर कवि ने अपना प्रेम तथा भाौक ऐसे अभिव्यक्त किया


ठौड़ ठौड़ पग दौड़, करसां पेट ज कारणै।


रातदिवस राठौड़, बिसरसी नही बाघनै॥