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रविवार, 3 अप्रैल 2011

अच्छे घर और वर की चाहत में पूजी जाती है गणगौर






अच्छे घर और वर की चाहत में पूजी जाती है गणगौर

होलिका दहन के दूसरे दिन से शुरू हुए गणगौर त्योहार में कुंवारी कन्याएं और विवाहिताएं पूजन इत्यादि में जुट गई है। गणगौर का पर्व शुरू होने के साथ ही कुंवारी कन्याएं और महिलाएं सुबह-सुबह फूल चुनने के बाद गड़सीसर तालाब का पवित्र जल कलश में भर कर ला रही है। प्रति दिन ईसर और गणगौर की पूजा हो रही है। सुबह-सुबह महिलाएं बगीचे में जाती है और दूब एकत्रित करती है। इस दौरान वे गीत गाती है-बाड़ी वाला बाड़ी खोल, म्हैं आया थारी दोब ने...। बाद में महिलाएं निश्चित स्थान पर एकत्रित होकर दो-दो का जोड़ा बनाकर गणगौर की पूजा करती है।

अच्छे घर और वर की चाहत में पूजी जाती है गणगौर

कुंवारी कन्याएं अच्छे घर और वर की चाह में गणगौर का त्योहार मनाती है। गणगौर का त्योहार पूरी तरह से कुंवारी कन्याओं और महिलाओं का होता है। गणगौर मनाने के प्रति कुंवारी कन्याओं की यह धारणा है कि उसे अच्छा पति मिले और अच्छा घराना मिले।

महिलाओं का उत्साह उमड़ा

गणगौर के त्योहार में महिलाएं जुट गई है। सुबह-शाम महिलाओं की सार्वजनिक स्थानों, मंदिरों, छायादार व पुराने पेड़ों के नीचे भीड़ लगी रहती है। सजी-धजी महिलाएं गणगौर की आरती और पूजा में संलग्न देखी जा रही है।

गली-मोहल्ले में गणगौर की धूम

होलिका दहन के दूसरे दिन से शुरू होने वाली गणगौर पूजा 15 दिन तक चलती है। इसमें कुंवारियां व नवविवाहिताएं बढ़-चढ़कर भाग ले रही है। इन दिनों चल रही गणगौर पूजा की धूम स्वर्णनगरी के प्रत्येक मोहल्ले में देखने को मिल रही है। सुबह-सुबह हाथ में कलश लिए कन्याएं गणगौर पूजन स्थल पर पहुंचती है और विधिवत ईसर-गणगौर की पूजा करती दिखाई दे रही है।

शाम के समय सुनाई पड़ते हैं पारंपरिक गीत

गणगौर उत्सव शुरू होते हैं शहर में पारंपरिक गीतों की गूंज सुनाई देने लगी है। शाम के समय किसी भी गली-मोहल्ले से निकलने पर गणगौर के गीत ही सुनाई पड़ते हैं। सुबह की पूजा के बाद कन्याएं एवं महिलाएं शाम को एक बार एकत्र होकर पूजा-अर्चना करती है और गणगौर के पारंपरिक गीत गाती है।ड्ड

शीतला माता को ठंडे का भोग चढ़ाया

शीतला सप्तमी का त्योहार हर्षोल्लास से मनाया गया। मान्यताओं के अनुसार संक्रामक रोगों से मुक्ति दिलाने वाली और चेचक रोग से बचाने वाली शीतला माता को ठंडे का भोजन और पकवानों का भोग लगाया गया। घरों में ठंडे की तैयारियां शनिवार से ही होनी शुरू हो गई थी। रविवार को जल्दी उठकर घर केे सदस्यों ने सज-धजकर शहर में स्थित शीतला माता मंदिरों में पूजा-अर्चना की और शीतला माता को ठंडे पकवानों का भोग लगाया।

परींडा पूजा हुई

जो श्रद्धालु मंदिर नहीं जा सके उन्होंने अपने-अपने घरों में पेयजल स्थल 'परींडेÓ पर मटकी की पूजा-अर्चना की। मटकी पर स्वास्तिक बनाया गया और ठंडे भोजन और भांति-भांति के पकवान माता को प्रसन्न करने के लिए चढ़ाए गए।

शीतला सप्तमी पर बासी भोजन का भोग लगाया

शीतला सप्तमी पर बासी भोजन का महत्त्व है। शीतला सप्तमी के दिन अधिकांश घरों में चूल्हे नहीं जले । भगवती को बासी भोजन का ही भोग लगाया जाता है। एक दिन पूर्व गृहिणियों ने खाना बनाकर रख दिया था। भोजन में दही, छाछ और घी के भांति-भांति के पकवान बनाए गए। शीतला सप्तमी के दिन माता को भोग चढ़ाकर प्रसाद स्वरूप भोजन ग्रहण किया गया।

राजपरिवार भी शामिल होता था शीतला सप्तमी पूजन में

रोगनाशिनी देवी शीतला की आराधना आम आदमी ही नहीं, राजपरिवार भी करता आया है। राज परिवार की परंपरा के अनुसार शीतला सप्तमी के दिन गाजे-बाजे के साथ देदानसर जाकर पूजा-अर्चना की जाती थी। इसके पीछे यह धारणा होती थी कि राज परिवार ही नहीं जनता भी स्वस्थ एवं सानंद रहे।

कहीं सप्तमी, कहीं अष्टïमी

रोग विनाशिनी शीतला की पूजा का लोक पर्व पारंपरिक रूप से कहीं सप्तमी तो कहीं अष्टïमी को मनाया जाता है। जैसलमेर के मूल निवासी शीतला सप्तमी को ही शीतला की पूजा करते हैं। जबकि जैसलमेर को छोड़ कर मारवाड़ और देश भर के अन्य भागों से आए गृहस्थ अष्टïमी को भी इस पर्व को पारंपरिक रूप से मनाते हैं।ड्ड

सूर्यदेव को रोटे का भोग लगाया

होली के बाद आने वाले पहले रविवार को अदीत रोटे का व्रत हर्षोल्लास से मनाया गया। यह त्योहार सूरज भगवान को समर्पित होता है। रविवार (आदित्यवार) को महिलाओं ने सूरज भगवान को भोग चढ़ाने के लिए रोटा बनाया और पूजा-अर्चना व कथा वाचन के साथ भगवान को भोग लगाकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया। जैसलमेर में यह पर्व परंपरागत रूप से मनाया जाता रहा है। इस त्योहार पर भाई अपनी बहिनों को मिठाई या मिठाई के लिए पैसे देते हैं। यह त्योहार मां और बेटी साथ मिलकर मनाते हैं। इस त्योहार को मनाने के पीछे सुख-समृद्धि की कामना छिपी है। इस दिन महिलाएं गेहूं के आटे का बड़ा-सा रोटा बनाती है। इस रोटे पर भारी मात्रा में घी और शक्कर चुपड़कर सबसे पहला कौर सूरज भगवान को चढ़ाया जाता है।

अदीत रोटे की कहानी

मां-बेटी सामूहिक रूप से अदीत रोटा मना रही थी। मां का रोटा बन चुका था और बेटी का बना नहीं था। तभी साधू आता है। बेटी मां के रोटे से कुछ हिस्सा साधू को दे देती है। मां गुस्सा होती है। बेटी अपने रोटे का कुछ भाग देना चाहती है, मगर मां कहती है ला मेरे सागी रोटे का कोर..बेटी दु:खी होकर घर से निकल जाती है। जंगल में उसे राजकुमार मिलता है और उससे ब्याह रचा लेता है। अगले साल फिर अदीत रोटा का त्योहार आता है। रानी बनी बेटी रोटा बनाती है। रोटा सोने का बन जाता है। राजकुमार इसका कारण पूछता है। बेटी कहती है, मेरे पीहर से आया है। राजकुमार कहता है मैंने तो तुझे जंगल से उठाया था, चल मुझे पीहर दिखा। रानी भगवान सूरज से प्रार्थना करती है। जंगल में बस्ती बस जाती है। राजा वहां पहुंचता है तो उसका खूब आदर सत्कार होता है। बाद में राजा लौट आता है तो बस्ती भी उठ जाती है। राजा के सैनिक शिकायत करते हैं कि वहां तो कुछ भी नहीं है। राजा सारी बात रानी से पूछता है। रानी पूरी कहानी सच-सच बता देती है। तब से अदीत रोटे से सभी लड़कियां राजकुमार जैसे वर और राजघराने जैसे घर की कामना में यह व्रत करती आ रही है।