आगरा। दीवान ए खास में संगीत सम्राट तानसेन का चबूतरा, उससे लगी बादशाह अकबर की ख्वाबगाह। पांच सौ साल बाद भी चांद की 13 और 14 तारीख, यानी पूनम की रात को फतेहपुर सीकरी तानसेन की तान पर खामोश दाद देती है। बारादरी और तानसेन के चबूतरे पर पूनम की रात को आज भी इन दो तारीख पर कोई रुख करने की हिम्मत नहीं करता। इसकी वजह कुछ और नहीं, बल्कि साढ़े पांच सौ सालों से चली आ रही यह मान्यता है कि सुर सम्राट इन दो रातों में अक्सर रियाज करते हैं।
ग्वालियर के बेहट गांव में 14वीं शताब्दी में पैदा हुए सुर सम्राट तानसेन का असली नाम तनसुख व त्रिलोचन था। उनके पिता का नाम मकरंद पांडे था, वह पांच साल की उम्र तक गूंगे थे। पिता के सानिध्य में गायन की शुरुआत की, 11 वर्ष की उम्र में राजा मान सिंह तोमर की रागमाला में विद्यार्थी के रूप में आए। यहां दरबारी संगीतज्ञ के रूप में रहे, इब्राहीम लोदी के ग्वालियर किले पर चढ़ाई के बाद 1557 में उन्होंने रीवा नरेश रामचंद्र बघेल के दरबार में पनाह ली। राजा रामचंद्र की सभा के गायक जीन खां अकबर के दरबारी गायकों में शामिल हो गए थे। उन्होंने तानसेन की विशिष्ट गायकी की प्रशंसा करके उनको अकबर के दरबार में शामिल कराया था। बाद में अकबर ने तानसेन को अपने नौ रत्नों में शामिल कर लिया। उनको संगीत विभाग का प्रधान बना दिया।
फतेहपुर सीकरी परिसर स्थित बारादरी संगीत सम्राट के रिहायश और रियाज की गवाह है। जबकि संगीत सम्राट का चबूतरा बादशाह अकबर के उनके मुरीद होने का गवाही देता है। कहा जाता है कि बादशाह की अकबर की आंख तानसेन की तान से खुलती थी, रात को सोते भी वह उन्हीं आवाज से थे।
तानसेन की यह बारादरी गांव की आबादी से करीब 100 मीटर दूर है। फतेहपुर सीकरी स्मारक में दो दशक से गाइड चांद मोहम्मद उर्फ भारत सरकार भी इस मान्यता की पुष्टि करते हैं। चांद मोहम्मद बताते हैं पांच सौ साल से भी समय से आसपास के लोगों में यह मान्यता बरकरार है। शायद यही वजह है कि रात बारह बजे के बाद आज भी फतेहपुर सीकरी परिसर में कोई कार्यक्रम नहीं कराया जाता।
तानसेन के राग-रागिनी-तानसेन द्वारा रचित ध््राुपदों में 36 राग-रागनियों का प्रयोग हुआ है। इनमें राग भैरव, रागिनी तोड़ी, रागिनी मुल्तानी आदि प्रमुख हैं। तानसेन ने लगभग 400 राग-रागनियों को परिष्कृत करके अपने संगीत ग्रंथों में समाविष्ट किया। उन्होंने ईरानी और भारतीय संगीत शैलियों का प्रयोग करके एक नवीन दरबारी तर्ज का विकास किया। दरबारी तोड़ी, दरबारी जैसे रागों का सृजन किया। उन्होंने तीन प्रमुख ग्रंथों संगीतसार, रागमाला और गणेश स्त्रोत की रचना की।
गणेश वंदना के हैं रचयिता- गणेश वंदना हेतु सदियों से गाई जा रही स्तुति के रचयिता भी तानसेन हैं। उनके द्वारा रचित मूल गणेश वंदना की कुछ पंक्ति 'उठि प्रभात सुमिरियै, जै श्री गणेश देवा माता जाकी पारवती, पिता महादेवा।।'
इतिहास में सुर सम्राट तानसेन और बैजू बावरा के बीच हुआ मुकाबला प्रसिद्ध हैं। तानसेन और बैजू बावरा दोनों वृंदावन वाले स्वामी हरिदास के शिष्य रहे थे। एक बार बादशाह अकबर ने हरिदास से मिलने ख्वाहिश की तो तानसेन ने उनको आगरा बुलाने की हामी भर दी। यह बात स्वामी को बुरी लगी, अपना अपमान समझा कि तानसेन ने राजा उनसे मिलने वृंदावन आने की क्यों नहीं कहा। स्वामी ने तानसेन का दीपक राग सिखाया था, बैजू बावरा को उन्होंने राग मल्हार सिखाया। दोनों के बीच मुकाबला कराया गया। पहला मुकाबला आगरा किले के दीवान खास में हुआ, यहां बैजू ने पत्थर पिघला कर अपना तानपूरा गाड़ दिया। उसे तानसेन से निकालने को कहा लेकिन वह नहीं निकाल सके। दूसरा मुकाबला सिकंदरा में हुआ, यहां राग सुनकर हिरन बैजू के पास आ गए, उन्होंने अपने गले की माला हिरन के गले में डाल दी। तानसेन को अपने संगीत के बल पर हिरन को पास बुलाकर उसके गले में पड़ी माला उतारने की चुनौती दी थी। तानसेन इस चुनौती को पूरा नहीं कर सके थे। तीसरा और आखिरी मुकाबला सीकरी में हुआ, मान्यता है कि यहां तानसेन के राग से दीपक जल उठे, उनके कपड़ों में आग लग गयी। तब बैजू ने राग मल्हार गाकर बारिश कराके दीपकों को बुझा दिया था। बताते हैं इस हार के बाद तानसेन अकबर का दरबार छोड़कर ग्वालियर चले गए। अंतिम समय तक यहीं रहे, अप्रैल 1589 में उन्होंने अंतिम सांस ली।