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गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

युधिष्ठिर: क्या सच में धर्मराज?





युधिष्ठिर पाण्डु के पुत्र और पांच पाण्डवों में से सबसे बड़े भाई थे। महाभारत के नायकों में समुज्ज्वल चरित्र वाले ज्येष्ठ पाण्डव थे। युधिष्ठिर धर्मराज के पुत्र थे। वे सत्यवादिता एवं धार्मिक आचरण के लिए विख्यात हैं। अनेकानेक धर्म सम्बन्धी प्रश्न एवं उनके उत्तर युधिष्ठिर के मुख से महाभारत में कहलाये गये हैं। शान्तिपर्व में सम्पूर्ण समाजनीति, राजनीति तथा धर्मनीति युधिष्ठिर और भीष्म के संवाद के रूप में प्रस्तुत की गयी है।






युधिष्ठिर भाला चलाने में निपुण थे। वे कभी मिथ्या नहीं बोलते थे। उनके पिता ने यक्ष बन कर सरोवर पर उनकी परीक्षा भी ली थी। महाभारत युद्ध में धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेना के स्वामी होकर कौरवों के साथ युद्ध करने को तैयार हुए थे, जबकि परम क्रोधी दुर्योधन ग्यारह अक्षौहिणी सेना का स्वामी था।






इनका जन्म धर्मराज के संयोग से कुंती के गर्भ द्वारा हुआ था। वयस्क होने पर इन्होंने कौरवों के साथ द्रोणाचार्य से धनुर्वेद सीखा। समय आने पर जब इनको युवराज-पद मिला तब इन्होंने अद्भुत धैर्य, दृढ़ता, सहनशीलता, नम्रता, दयालुता और प्राणिमात्र पर कृपा आदि गुणों का परिचय देते हुए प्रजा का पालन उत्तम रीति से किया। इसके पश्चात दुर्योधन आदि के षड्यंत्र से ये अपने भाइयों और माता समेत वारणावत भेज दिये गये।







उत्कोचक तीर्थ में पहुँचने पर पाण्डवों ने धौम्य मुनि को अपना पुरोहित बनाया। फिर ये लोग द्रुपद राजा की स्वयंवर-सभा में पहुँचे। वहाँ अर्जुन के लक्ष्यभेद करने पर द्रौपदी की प्राप्ति हुई। कुंती ने भिक्षा में मिली हुई वस्तु को देखे बिना ही आज्ञा दे कि पाँचों भाई बाँट लो। अंत में सब हाल मालूम होने पर कुंती बड़े असमंजस में पड़ीं। तब युधिष्ठिर ने कहा कि माता के मुँह से जो बात निकल गई है उसी को हम लोग मानेंगे।






वहाँ पर ये जिस भवन में ठहराये गये थे। वह भड़क उठने वाली वस्तुओं से बनाया गया था, अतएव उससे निकल भागने को इन्होंने गुप्त रीति से सुरंग खुदवाई और भवन में पुरोचन के आग लगाकर उस सुरंग की राह निकल भागे। फिर ये लोग व्यासजी के सलाह से एकचक्रा नगरी में जाकर रहने लगे। यह नगरी इटावा से 16 मील दक्षिण-पश्चिम में है। यहाँ रहते समय भीमसेन ने बक राक्षस को मारा था। यहाँ से दूसरे स्थान को जाते समय रास्ते में अंगारपर्ण गन्धर्वराज के साथ अर्जुन की मुठभेड़ हुई थी। अन्त में युधिष्ठिर की कृपा से, अंगारपर्ण को छुटकारा मिला था।उत्कोचक तीर्थ में पहुँचने पर पाण्डवों ने धौम्य मुनि को अपना पुरोहित बनाया। फिर ये लोग द्रुपद राजा की स्वयंवर-सभा में पहुँचे। वहाँ अर्जुन के लक्ष्यभेद करने पर द्रौपदी की प्राप्ति हुई। कुंती ने भिक्षा में मिली हुई वस्तु को देखे बिना ही आज्ञा दे कि पाँचों भाई बाँट लो। अंत में सब हाल मालूम होने पर कुंती बड़े असमंजस में पड़ीं। तब युधिष्ठिर ने कहा कि माता के मुँह से जो बात निकल गई है उसी को हम लोग मानेंगे।









विवाह हो चुकने पर पाण्डव लोग दुबारा हस्तिनापुर पहुँच गये। सदा धर्म के मार्ग पर चलने वाले धर्मराज युधिष्ठिर ने राजा शैव्य की पुत्री देविका को स्वयंवर में प्राप्त किया और उनसे विवाह किया था। पाण्डवों को खाण्डवप्रस्थ हिस्से में मिला। वहीं राजधानी बनाकर वे निवास करने लगे।





मय दानव बड़ा होशियार था। उसने अर्जुन के कहने से युधिष्ठिर के लिए राजधानी इन्द्रप्रस्थ में बड़ा सुन्दर सभा भवन बना दिया। इसके कुछ समय पीछे युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ करने का विचार किया। श्रीकृष्ण ने उनके इस संकल्प का अनुमोदन किया। इधर तो इन्द्रप्रस्थ में धूमधाम से यज्ञ की तैयारी की जाने लगी और उधर चारों भाई नाना देशों में जा-जाकर राजाओं से कर वसूल करने लगे। उनके लौट आने पर यज्ञ किया गया।






निमंत्रण पाकर प्रभृति कौरव भी यज्ञ में सम्मिलित हुए। ठीक समय पर ब्राह्मणों ने युधिष्ठिर को यज्ञ की दीक्षा दी। इस यज्ञ के उत्सव में उस समय के प्रायः सभी नरेश एकत्र हुए थे। यज्ञ में निमंत्रित होकर जाने वालों के ठहरने आदि के लिए अलग-अलग भवन बनाये गये थे। उन लोगों की खासी खातिर की गई और उन्हें यथायोग्य विदाई भी दी गई।






यज्ञ के अंत में भीष्म की सलाह से युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण को अर्घ्य दिया। इसके सिलसिले में चेदि-नरेश शिशुपाल से झगड़ा हो गया। उसे श्रीकृष्ण ने मार डाला। शुभ अवसर पर इसे अशुभ घटना कहना चाहिए। यज्ञ पूरा हो चुकने पर दुर्योधन आदि हस्तिनापुर लौट गये। वहाँ बेटों के मुँह से पाण्डवों के ऐश्वर्य का हाल सुनकर के मन में कुढ़न हुई।,,






अंत में दुर्योधन की बातों में आकर पाण्डवों को जुआ खेलने का प्रबन्ध किया। युधिष्ठिर को जुआ खेलना पसन्द नहीं था किंतु बुलाये जाने पर न जाना नियम-विरुद्ध समझकर वे उस व्यसन में लिप्त हो गये। इस जुए ने उनको कहीं का न रखा। एक-एक करके वे अपनी सब वस्तुएँ खो बैठे। हाथ में कुछ न रह जाने पर वे अपने चारों भाइयों को, अपने को और द्रौपदी को भी, दाँव में लगाकर, हार गये। इस सिलसिले में द्रौपदी तक की धर्षणा की गई।






अंत में धृतराष्ट्र ने आगा-पीछा सोचकर पाण्डवों को, उनकी सम्पत्ति देकर, और समझा-बुझाकर विदा कर दिया। किंतु इस व्यवस्था को दुर्योधन आदि ने ठीक न समझा। युधिष्ठिर दुबारा जुआ खेलने को बुला भेजे गये। वे भी सब कुछ जान-बूझकर लौट आये। इस बार शर्त यह लगाई गई कि हारने वाला बारह वर्ष तक वनवास करके एक वर्ष अज्ञातवास करे और यदि अज्ञातवास में उसका पता लग जाय तो दुबारा यहीं सिलसिला शुरू हो।



कहना अनावश्यक है कि जुए में पाण्डवों की हार हुई। मृगछाला पहनकर पाण्डव, द्रौपदी के साथ, वनवास करने गये। वहाँ पर उनके रिश्तेदार मिलने-भेंटने को अक्सर जाते थे। पाण्डवों ने वन में बारह वर्ष बिता दिये। वन के क्लेशों से ऊबकर द्रौपदी ने युधिष्ठिर को कौरवों से बदला लेने के लिए बहुत उभाड़ा परंतु उन्होंने तरह-तरह से उपदेश देकर द्रौपदी को समझाया और अवसर की प्रतीक्षा करने के लिए कहा।






वनवास के समय महर्षि धौम्य इन लोंगो के साथ ही थे। वहाँ पर जो ऋषि-मुनि और साधु-महात्मा पाण्डवों से मिलने आते थे उनके उपदेश से युधिष्ठिर आदि ने अनेक तीर्थों की यात्रा की। वनवास की अवधि में ही अर्जुन, अस्त्रों की प्राप्ति के लिए, तपस्या करने गये।






एक बार वन घूमते-फिरते भीमसेन एक अजगर के शिकंजे में फँस गये। उनके लौटने में बहुत देर होने पर युधिष्ठिर पता लगाने को निकले तो उनको अजगर की लपेट में पाया। युधिष्ठिर ने अजगर से भीमसेन को छोड़ देने के लिए प्रार्थना की तो उसने कहा कि यदि मेरे प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर दे दोगे तो छोड़ दूँगा। युधिष्ठिर सहमत हो गये। अजगर ने युधिष्ठिर से धर्म तथा समाज-नीति के संबंध में बहुतेरे प्रश्न किये। उन सबका ठीक-ठीक उत्तर पाकर अजगर ने भीमसेन को छोड़ दिया।









एक बार मार्कण्डेयजी ने भी कृपा करके पाण्डवों को दर्शन और उपदेशों के द्वारा कृतार्थ किया था। पाण्डवों के वनवास का समाचार दुर्योधन को मिलता रहता था। वह कर्ण और शकुनि आदि के कहने से, उन लोगों के साथ, वन में पाण्डवों को सताने की इच्छा से पहुँचा। किंतु दैवयोग से ऐसी घटना हो गई जिसमें उसे लेने के देने पड़ गये।