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सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

तेरहताली नृत्य रेत के टीलों से निकल कर विदेशी धरती पर


तेरहताली नृत्य रेत के टीलों से निकल कर विदेशी धरती पर

साभार ओम मिश्रा

राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र के प्रसिद्ध तेरहताली नृत्य को देश में ही नहीं बल्कि विदेशों में पहचान दिलाने वाली मांगी बाई आज किसी भी परिचय का मोहताज नहीं है। शारीरिक कौशल का पर्याय माने जाने वाले इस लोकनृत्य को कामड़ जाति की औरतें प्रस्तुत करती हैं। कामड़ जाति के आराध्य देव बाबा रामदेव जी हैं। अपने आराध्य देव की प्रार्थना में किये जाने वाले भजनों को तेरहताली लोकनृत्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है। कामड़ जाति की स्त्रियां इस नृत्य को बैठकर करती हैं और पुरुष स्त्रियों के चौतरफा बैठकर तंदूरा, ढोलक एवं मंजीरा बजाकर बाबा रामदेव व अन्य देवी-देवताओं की जीवन-लीला तथा भजनों को गाते हैं।
राजस्थान के लोकनृत्य को देश के अतिरिक्त विदेशों में लोकप्रिय बनाने का श्रेय 72 वर्षीय नृत्यांगना मांगीबाई को जाता है। उन्होंने इस लोकनृत्य को अपनी रोजी-रोटी का साधन न बनाकर भक्ति, कला और साधना के साथ में ही अंगीकार किया। यह मांगी बाई की कला साधना का ही परिणाम है कि उनके द्वारा किए जाने वाले तेरहताली नृत्य में बजने वाले मंजीरों से निकलने वाली स्वर लहरियों ने समूचे संसार को मंत्र मुग्ध कर दिया।
मांगीबाई का जन्म यूं तो चित्तौडग़ढ़ के बनिला गांव में हुआ। परन्तु विवाह पाली जिले के पादरला गांव में मात्र दस वर्ष की अवस्था में हो गया। ससुराल में आकर अपने जेठ गोरमदास से तेरहताली नृत्य की कला सीखी। तेरहताली उनके परिवार तथा जाति का पुश्तैनी धंधा था। मांगीबाई शुरू में तो अपने पुश्तैनी धंधे के रूप में यह नृत्य आस-पास के गांवों में ही करती रही। सन् 1954 पं. जवाहर लाल नेहरू की उपस्थिति में चित्तौडग़ढ़ में आयोजित गाडिय़ा लुहार सम्मेलन में पहली बार हजारों दर्शकों तथा पं. नेहरू जी को भी अपनी नृत्यकला से मोहित कर लिया। इस अविस्मरणीय प्रथम प्रस्तुति के बाद मांगीबाई एक के बाद एक सफलता के पायदान तय करती हुई आज इस स्थिति में पहुंच गयी कि उन्हें तेरहताली नृत्य का पर्याय माना जाने लगा।
72 वर्षीय मांगीबाई तेरहताली नृत्य के बारे में बताती हैं कि — ‘ तेरहताली नृत्य में तेरह मंजीरे हाथ और पांव पर बंधे रहते हैं। दायें पैर पर एड़ी से घुटने के मध्य रेखीयक्रम में नौ मंजीरे बंधे होते हैं। जबकि एक-एक मंजीरा दोनों हाथों की कुहनियों पर तथा दो तथा दो मंजीरे हाथ की उंगलियों में खुलेे रहते हैं। हाथ के दोनों मंजीरों को लेकर जब इन बंधे हुए मंजीरों को बजाया जाता है तो ध्वनि तथा लय का अद्भुत समा बंध जाता है। इस नृत्य के दौरान तेरहताली नृत्यांगनाएं सिर पर पूजा की थाली, कलश, दीपक रखकर तथा मुंह में तलवार दबाकर अनेकानेक भाव भंगिमाओं एवं शारीरिक संतुलन के साथ बैठकर नृत्य करती हैं। नृत्य के दौरान लेट कर तेरहताली बजाना, चक्कर लगाकर तेरहताली बजाना जैसे करतब विशिष्टï शारीरिक संतुलन को प्रदर्शित करते हैं। इस दौरान क्या मजाल कि एक भी मंजीरा बजने से चूक जाए। यह नृत्य महिलाओं द्वारा ही किया जाता है। पुरुष तानपुरे पर भजन तथा देवलीला का गायन करते हैं।
पचास वर्षों से लगातार तेरहताली नृत्य को प्रस्तुत करने वाली मांगीबाई को महामहिम राष्ट्रपति महोदय, माननीय प्रधानमंत्री भारत सरकार द्वारा संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से सम्मानित किया जा चुका है। राजस्थान सरकार द्वारा प्रतिष्ठिïत मीरा अवार्ड तथा राजस्थानी लोकनृत्य तेरहताली अवार्ड दिया जा चुका है। जिला कलक्टर पाली एवं पर्यटन विभाग भारत सरकार द्वारा भी उनकी कला को सम्मानित किया गया है। इस नृत्यकला के भविष्य के बारे में वह कहती हैं कि ‘ इस बात की पीड़ा है कि उन नृत्य को साधना के रूप में आज बहुत कम महिलाएं ले रही हैं। केवल जीविकोपार्जन के लिए नृत्य करना या जागरण में नृत्य करना इस कला के विकास को अवरुद्ध ही करता है। आने वाले समय में इस हिसाब से यह अनूठी लोकनृत्य कला लुप्त हो जाएगी। इसलिए यह जरूरी है कि तेरहताली नृत्य को एक कला साधना के रूप में स्वीकार कर इसके फलक को विस्तार दिया जाए। मैंने इसी क्रम में कुछ प्रयास किया है। नई पीढ़ी भी कुछ सक्रिय सार्थक प्रयास करे तो इस कला के क्षितिज को विस्तार मिलेगा।Ó
पेरिस,लंदन,अमेरिका, इटली,स्पेन, कनाडा, रूस आदि देशों में तेरहताली नृत्य का परचम फहराने वाली मांगीबाई की इस लोकनृत्य के लिए एक बेहद प्रशिक्षण केंद्र खोलने की योजना है लेकिन आर्थिक सहायता के अभाव में उनकी यह योजना परवान नहीं चढ़ पा रही है। अपनी इस योजना के संबंध में वह बताती हैं कि -’मैं अब तक पच्चीस से अधिक युवतियों को अपने स्तर पर इस कला में पारंगत कर चुकी हूं। लेकिन यह प्रयास थोड़ा ही है। यदि तेरहताली नृत्य प्रशिक्षण केंद्र खोलकर इस लोकनृत्य की तालीम युवतियों को दी जाती है तो अधिक से अधिक युवतियां इस कला को सीखने के लिए आयेंगी तथा इस लोकनृत्य कला का विकास भी होगा। परन्तु इस प्रशिक्षण संस्थान हेतु राजकीय स्तर पर अभी तक कोई मदद नहीं मिली है। मैं इस लोकनृत्य को फलता-फूलता देखना चाहती हूं।’