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रविवार, 9 मार्च 2014

मरूधर रो अगनबोट ऊंट.....प्रो. जहूरखां मेहर

मरूधर रो अगनबोट ऊंट

प्रो. जहूरखां मेहर



रेगिस्तानी बातां सारू राजस्थानी री मरोड़ अर ठरको ई न्यारो। सबदां सूं लड़ालूंब घणी राती-माती भासा है राजस्थानी। इण लेख में मरुखेतर रै एक जीव ऊंट सूं जुड़ियोड़े रो लेखो करता थकां आ बात जतावण री खप्पत करी है कै थळी रै जीवां अर बातां सारू राजस्थानी भासा री मरोड़ अर ठरको ई न्यारो।
ऊंट मरुखेतर रो अगनबोट कैईजै अर इण सारू राजस्थानी साहित, इतिहास अर बातां में इतरा बखाण लाधै कै इचरज सूं बाको फाड़णो पड़ै। दूजी भासावां में तो 'ऊंट' अर 'कैमल' सूं आगै काळी-पीळी भींत। मादा ऊंट सारू 'ऊंटनी' अर 'सी कैमल' या 'कैमलैस' सूं धाको धिकाणो पड़ै। पण आपणी भासा में इण जीव रा कितरा-कितरा नांव! कीं तो म्हे अंवेरनै लाया हां। बांच्यां ई ठा पड़ै-
जाखोड़ो, जकसेस, रातळो, रवण, जमाद, जमीकरवत, वैत, मईयो, मरुद्विप, बारगीर, मय, बेहटो, मदधर, भूरो, विडंगक, माकड़ाझाड़, भूमिगम, पींडाढाळ, धैंधीगर, अणियाळ, रवणक, फीणनांखतो, करसलो, अलहैरी, डाचाळ, पटाल, मयंद, पाकेट, कंठाळक, ओठारू, पांगळ, कछो, आखरातंबर, टोरड़ो, कंटकअसण, करसो, घघ, संडो, करहो, कुळनारू, सरढो, सरडो, हड़बचियो, हड़बचाळो, सरसैयो, गघराव, करेलड़ो, करह, सरभ, करसलियो, गय, जूंग, नेहटू, समाज, कुळनास, गिडंग, तोड़, दुरंतक, भुणकमलो, वरहास, दरक, वासंत, लंबोस्ट, सिंधु, ओठो, विडंग, कंठाळ, करहलो, टोड, भूणमत्थो, सढ़ढो, दासेरक, सळ, सांढियो, सुतर, लोहतड़ो, फफिंडाळो, हाथीमोलो, सुपंथ, जोडरो, नसलंबड़, मोलघण, भोळि, दुरग, करभ, करवळो, भूतहन, ढागो, गडंक, करहास, दोयककुत, मरुप्रिय, महाअंग, सिसुनामी, क्रमेलक, उस्ट्र, प्रचंड, वक्रग्रीव, महाग्रीव, जंगळतणोजत्ती, पट्टाझर, सींधड़ो, गिड़कंध, गूंघलो, कमाल, भड्डो, महागात, नेसारू, सुतराकस अर हटाळ।
मादा ऊंट रा ई मोकळा नांव। बूढी, ग्याबण, जापायती, बांझड़ी, कागबांझड़ी अर भळै के ठा कित्ती भांत री सांढां सारू न्यारा-न्यारा नांव। मादा ऊंट नै सांढ, टोडड़ी, सांयड, सारहली, टोडकी, सांड, सांईड, क्रमाळी, सरढी, ऊंटड़ी, रातळ, करसोड़ी, रातल, करहेलड़ी, कछी अर जैसलमेर में डाची कैवै। सांढ जे ढळती उमर री व्है तो डाग, रोर, डागी, रोड़ो, खोर, डागड़ जै़डै नांवां सूं ओळखीजै। सांढ जे बांझ व्है तो ठांठी, फिरड़ी, फांडर अर ठांठर कहीजै। लुगायां ज्यूं कागबांझड़ी व्है अर एकर जणियां पछै पाछी कदैई आंख पड़ै इज कोयनी। ज्यूं सांढ ई एकर ब्यायां पछै दोजीवायती नीं व्है तो बांवड़ कहीजै। बांवड़ नै कठैई-कठैई खांखर अर खांखी ई कैवै। पेट में बचियो व्है जकी सांढ सुबर कहीजै। जिण सांढ रै साथै साव चिन्योक कुरियो व्है वा सलवार रै नांव सूं ओळखीजै। कदैई जे कुरियो हूवतां ई मर जावै तो बिना कुरियै री आ सांढ हतवार कुहावै।
ऊंट रो साव नान्हो बचियो कुरियो कुहावै। कुरियो तर-तर मोटो व्है ज्यूं उणरा नांव ई बदळता जावै। पूरो ऊंट बणण सूं पैलां कुरियो, भरियो, भरगत, करह, कलभ, करियो अर टोडियो या टोरड़ो अर तोरड़ो कहीजै।
राजस्थानी संस्कृति में ऊंट सागे़डो रळियोड़ो, एकमेक हुयोड़ो। लोक-साहित इणरी साख भरै। ऊंट सूं जुड़ियोडा अलेखूं ओखाणा अर आडियां मिनखां मूंडै याद। लोकगीतां रो लेखो ई कमती नीं।
जगत री बीजी कोई जोरावर सूं जोरावर भासा में ई एक चीज रा इत्ता नांव नीं लाधै। कोई तूमार लै तो ठा पड़ै कै कठै तो राजस्थानी रै सबदां रो हिमाळै अर कठै बीजी फदाक में डाकीजण जोग टेकरियां। कठै भोज रो पोथीखानो, कठै गंगू री घाणी!

साभार आपणी भाषा-आपणी बात
तारीख१४//२००९

सन १९४१ में जोधपुर में जाया-जलम्या प्रो. जहूरखां मेहर राजस्थानी रा विरला लेखकां में सूं एक। जिणां री भासा में ठेठ राजस्थानी रो ठाठ देखणनै मिलै। राजस्थान रै इतिहास, संस्कृति अर भासा-साहित्य पेटै आपरा निबंध लगोलग छपता रैवै। मोकळा पुरस्कार-सनमान मिल्या है। आज बांचो आं रो ओ खास लेख।

रविवार, 2 मार्च 2014

राजस्थानः सज-धज के निकलती हैं ऊंट हसीनाएं


राजस्थानः सज-धज के निकलती हैं ऊंट हसीनाएं

रईस खां, जो जैसलमेर से 40 किलोमीटर दूर एक गाँव की एक ढाणी में रहते हैं, वो गोरी को अल्हड़ युवती की तरह सजाएँगे.पहले होगा विशेष केश विन्यास, फिर सोलह श्रृंगार. बोरला, नथ, घुंघरू, लूम्बी बाँधने के बाद चमचम करते शीशे की कारीगरी के वस्त्र धारण करवाए जाएंगे और इसका खर्चा बैठेगा मात्र 15-20 हज़ार रुपए.

आप सोचेंगे कि साज-श्रृंगार की कथा में नया क्या है, यह तो घर-घर की कहानी है? है जनाब, ये गोरी किसी गाँव की सामान्य युवती नहीं है, बल्कि एक ऊँटनी है!

गोरी थार रेगिस्तान में अकेली श्रृंगार-प्रेमी ऊंटनी नहीं है. राजस्थान के मरू प्रदेश के दर्ज़नों ऊँट मेलों के अवसर पर ब्यूटीशियन के पास करीने से संवरने जाते हैं.

इसे शहरीकरण का असर कहें या व्यावसायिक मजबूरी, ऊँट-साज ख़ुद को ब्यूटीशियन और अपने घर, झोंपड़े, टेंट को पार्लर कहलाना ज़्यादा पसंद करते हैं.
क्यूँ होती है सज्जा?


आज से कुछ वर्ष पहले ऊँटों का श्रृंगार करने वाले लोग जैसलमेर और बाड़मेर के गाँव-गाँव में हुआ करते थे. ये सामान्यतः ऊँट-पालक प्रजातियों जैसे रेबारी और देवासी परिवारों के सदस्य थे.

पर ऊंटों की घटती संख्या के साथ ऐसे लोग भी कम होते गए. इसका असर ये हुआ की ऊंटों की श्रृंगार कला, इसे खांटी मारवाड़ी में ‘लव’ करना कहा जाता है, अब सिर्फ कुछ विशेषज्ञों के पास सिमट कर रह गई है.

बीकानेर विश्वविद्यालय के पर्वायवरण विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर अनिल छंगाणी कहते हैं, “ऊंटों का लव करना पहले एक सामान्य ग्रामीण कला थी. प्रतिष्ठित और धनाढ्य परिवारों के लोग खाली समय में अपने ऊँट की सज्जा रेबारी और देवासी लोगों से करवाते थे, बदले में कुछ अन्न, धान दे देते थे.”

वे कहते हैं, “चूँकि अब लोग कम रह गए तो यह कला अब व्यवसाय के रूप में परिवर्तित हो गई है. बचे-खुचे ब्यूटीशियन अब पैसा बना लेते हैं, अपनी मांग ज़्यादा और आपूर्ति कम होने के कारण.”
आजीविका


आज से कुछ वर्ष पहले तक ऊंटों का श्रृंगार दो कारणों से किया जाता था.

पहला उन्हें अलग पहचान देने के लिए, दूसरा मालिक का सामाजिक रसूख जताने के लिए. जितना रईस मालिक, उतना सजा-धजा उसका ऊँट. पर अब यह काम मेलों में आने वाले सैलानियों के लिए होता है.

जैसलमेर और बाड़मेर में ऊंटों के लिए सालाना तीन जलसे होते हैं. इनमें सबसे मशहूर जैसलमेर का मरू उत्सव माघ पूर्णिमा से तीन दिन पहले शुरू हो कर ख़त्म होता है.

इसमें मेले में करीब 50,000 पर्यटक और 300-400 ऊंट आते हैं. इसके अलावा बाड़मेर का उत्सव और एक लूनी नदी के पेटे में लगने वाला मेला भी थार के रेगिस्तान में ऊंट और पर्यटक आकर्षित करते हैं.

रईस खां और उनके ब्यूटीशियन भाइयों का पार्लर इन्हीं दिनों चलता है और कारोबार भी.

वह कहते हैं, “हम लोगों को बीकानेर और पुष्कर के मेलों में भी बुलाया जाता है,”

कुल मिला कर एक साल में चार-पांच जगह अपनी कला के प्रदर्शन से ये परिवार अपना पेट पाल लेते है. रईस के अनुसार “कभी-कभी मेले-ठेले में प्रतियोगिता जीत कर कुछ पैसा मिला जाता है.”
भविष्य असुरक्षित


प्रोफेसर छंगाणी के अनुसार राजस्थान में ऊंटों की संख्या हर साल 10 प्रतिशत की दर से घट रही है. इसके कई कारण हैं, जैसे कि सड़कों का फैलाव, गाड़ियों का चलन और चरागाहों का अभ्यारण्यों में शामिल हो जाना.

जैसलमेर के बाशिंदे और मीडियाकर्मी अनिल रामदेव कहते हैं पहले हर घर के आगे ऊंटों की संख्या गृहस्वामी की संपन्नता का प्रतीक होती थी. पर अब समय बदल गया है. उनके खुद के परिवार में भी पहले ऊँट हुआ करते थे, पर अब उनकी जगह वाहन खड़े होते हैं.

रामदेव कहते हैं, “जजमान कम होने से कारीगर भी विलुप्त होते जा रहे है. अगर ये मेले नहीं होते तो 'लव' करना ख़त्म हो गया होता.”

कुछ लोगों ने 'लव' करने के लिए आधुनिक उपकरणों का उपयोग करने का प्रयास किया था, पर हाथ के हुनर जैसा मज़ा नहीं आया. घूम-फिर कर लोग रईस जैसे लोगों के पास ही वापस आ गए.



विलुप्त होती इस कला को बचाने में मेलों से मदद मिली है. ऊंट प्रेमी और विशेषज्ञ कहते हैं ऐसे आयोजन और होंगे तो कारीगर बचे रहेंगे और गाँव की गोरियां भी सजती रहेंगी.