राजस्थान की लोक संस्कृति के क्या कहने -
चन्दन सिंह भाटी
बदलाव की बयार जब सब जगह चल रही हो। दुनिया का प्रत्येक कोना बदलाव के साथ चल रहा हैं। यह बदलाव नकारात्मक अधिक और सकारात्मक कम हैं। बाड़मेर जिला भी बदलाव की बयार से अछूता नहीं हैं। सुखद पहलू यह हैं कि यह बदलाव सकारात्मक हैं। इस क्षेत्र में हुआ बदलाव विकास की नर्इ ऊंचार्इ को छू रहा हैं।
क्षेत्र में बदलाव आया जरूर मगर ग्रामीणों में आज भी अपनी संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, रीति-रिवाज, आभूषण, खान पान के प्रति मोह कायम हैं। परिधान सदियों से समाज में सभ्यता का प्रतीक रहा हैं। सिन्ध संस्कृति से क्षेत्र का जुडा आरम्भ से रहा हैं। भारत-पाक अलग होने के बाद भी यहां व्यापक बदलाव आया। पशिचमी राजस्थान के इस मरू जिले का पहनावा सदा लोकप्रिय रहा हैं। परम्परागत परिधान तथा आभूषण चार चांद लगाते हैं। महिलाओं में परम्परागत रूप से घाघरा, कुर्ती, कांचली, ओढ़नी, पोमचा, ताहरिया, चुनरी, अंगिया पहने जाते हैं। घामरा कमर से एड़ी तक का लम्बा स्कर्ट होता था। कलियों को जोडकर या चुन्नर के द्वारा इस ऊपर संकरा और नीचे चौड़ा घेरदार बनाया जाता हैं। घघरे ऊंचे रखे जाते हैं ताकि पावों में पहने आभूषण दिखार्इ दे सके। 80 कली के घाघरे के लोकगीत बने हैं। मलमल, साटन, छींट, लटठा, गोटेदार, मगजी वाला के घाघरे आज भी शौक से पहने जाते हैं। कुर्ती कांचली क्षेत्र की सर्वाधिक लोकप्रिय परिधान हैं। राजपूती परिधान के नाम से प्रसिद्ध यह परिधान आज विदेषों में लोकप्रिय हैं। कुर्ती कांचली पहनावा आज स्टेट सिम्बल बना हैं। फिल्मी दुनिया में कुर्ती कांचली की अभी धूम हैं। शरीर के ऊपरी हिस्से में सित्रयां कुर्ती और कांचली पहनती हैं। बांहे कांचली में ही होती हैं। कुर्ती बिना बांह की होती हैं। ये दोनों मिलकर ब्लाऊज का कार्य करते हैं। अविवाहित लड़कियां कुर्ता कांचली एक ही पहनती है, जो बेल गोटा पर कढ़ार्इ या प्रिन्ट घाघरे पर होता हैं। वेसा ही कुर्ती कांचली पर होता हैं। ओंढनी शरीर के निचले हिस्से में घाघरा ऊपर कुर्ती कांचली पहनने के बाद सित्रयां ओढ़नी ओढती हैं। ओढ़नी प्राय: ढ़ार्इ से तीन मीटर लम्बी और चौडी डेढ़ से पौने दो मीटर होती हैं, जिससे घूंघट निकालने में आसानी होती हैं। ओढणी में बैल बूटे, भांत या गोटा पती होती हैं। ओढ़नी के किनारे गोटे लगाये जाते हैं। लहरिया बंधेज की ओढ़निया विशेष लोकप्रिय है। लहरिया श्रावण में तीज त्यौहार के अवसर पर सित्रयां विशेषकर पहनती हैं। पंचरंगी लहरिया शुभ माना जाता हैं। संत शिरोमणी मीरा बार्इ ने कहा था कि पंचरंग चोला पहिर सखि में झुरमर खेलन जाती। होली के अवसर पर महिलाएंं फागणियां ओढ़नी ओढती हैं। बन्धेज के परिधान इस वक्त काफी लोकप्रिय हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रंगार्इ छपार्इ के वस्त्र अधिक पहने जाते हैं। स्थानीय बन्धेज की विशिष्ट शैली अजरख व मलीट हैं। अजरख में लाल एवं नीले रंग से मुसलमान, मेघवाल जाति में अजरख तथा मलीट के परिधान पहने जाते हैं। ये परिधान स्थानीय खत्री जाति के लोग तैयार करते हैं। पाकिस्तान में भी अजरख व मीट रेटा, पडा की जबरदस्त मांग रहती हैं। पुरूष का परिधान ग्रामीण क्षेत्रों में कुछ बढ़कर हैं। साफा, पोतिया, टोपी, अंगरखी, चौला, पायजामा, धोती, कुर्ता आज भी ग्रामीण संस्कृति का गौरव बढ़ा रहे हैं। क्षत्रिय समाज में पुरूष तेवटा व कमीज पहनते हैं। बदलते बयार में सित्रयां जहां साडी, ब्लाऊज बालिकाएं सलवार कुर्ता, स्कर्ट तक पहुंची हैं, वहीं पुरूष का फैशन के नाम पर पेंट-शर्ट, कोट पहनते हैं। युवा वर्ग में जींस अवश्य लोकप्रिय हैं। खादी के कुर्ता पायजामा आज भी लोकप्रिय हैं। खादी के प्रति युवाओं का लगाव बढ़ता जा रहा हैं। पुरूषों में पांवो में पगरखी पहनने की परम्परा हैं।
मरूस्थली प्रदेष में सबसे रेतीले क्षेत्र में पगरखी या जूती आज भी लोकप्रिय हैं। युवा वर्ग अवश्य बूट, स्पोर्टस बूट, सैंडिल तक बदलाव में रंगा हैं। महिलाओं में भी पगरखी समान रूप से प्रचलित हैं। आज फैशन के दोर में शहरी महिलाएं भी शौक से जूती पहनती हैं। आभूषणों में सियों में आज बडा परिवर्तन आया हैं। ग्रामीण अंचलो में परम्परागत आभूषण सिर के शीषफूल, रखडी, टीका बोरिया, कान के आभूषणों में कर्णफूल, पीपल पत्र, फूल झूमका, आगोत्य पहनने का प्रचलन हैं। नाक में नथ, फीणी पहने जाते हैं। वहीं कण्ठी, निम्बोली, तमणियां, कंठसारी, कण्ठयाला, चांदल्या पन्द्रहार, हंसहारख् डुगलां गले की शोभा बढ़ाते हैं। वहीं बाजूबन्द, अणत पर कडा, कंकण, गजरा चूडी, कडा, हाथपान, वीटी, मुन्दडी, दामवा, अंगूठी कन्दौरा, पायल, पायजेब, नुपूर, झांझारिया, जोड, पगपान, तोडा, अनोटा, बिछया, पोलरा, छल्ला, बाजूबन्द, भुजबन्द आदि गहने आज भी सित्रयां बड़े चाव से पहनती हैं। वहीं पुरूष आज भी कानों में गोखरू, लोंग पहनते हैं। हंसली, कण्ठी, अगुठी, हार (चैन), कडा आदि पहनते हैं। ये आभूषण सोने एवं चांदी के बने होते हैं। शादी ब्याह तीज त्यौहार के अवसर पर अक्सर महिलायें व पुरूष आभूषणों से श्रृंगारित होकर आते हैं। जिले में खान पान की सिथति में विशेष बदलाव नहीं आया। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बाजरे के आटे की राब, गाठ के साथ झांकल (नाश्ता) बाजरी का सोगरा, काचरा मतीरा, केर, सांगरी, रायता, कडी, कुम्भट, दही की सब्जी के साथ बेपारा (दोपहर का भोजन), बयालू (रात का भोजन) करते हैं। खाने के बाद छाछ का चटकारा लेना नहीं भूलते। लहसून, मिर्ची की चटनी का अपना स्वाद हैं। विशेष अवसरो पर गेहूं की रोटी, चावल अवश्य खाये जाते हैं। शादी विवाह तीज त्यौहार के अवसर पर सूजी का हलवा, चना सब्जी, लापसी की परम्परा आज भी कायम हैं।