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शनिवार, 1 मार्च 2014

मरुधरा कि माटी से निकला नायब फनकार रोजे खान

मरुधरा कि माटी से निकला नायब फनकार रोजे खान


बाड़मेर राजस्थान कि लोक संस्कृति औ लोक गायिकी दे साक्षात् दर्शन धोरो कि धरती बाड़मेर में होते हें। इस मरू माटी ने कई बेहतरीन लोक फनकार दिए हें जिन्होंने देश विदेशो में अपना नाम कमाया ही हे साथ ही राजस्थानी लोक संस्कृति को बचाये रखा हें। ऐसे ही एक लोक फनकार जिले के भीयांड गाँव में रोज़े खां हैं . मांगनियार गायकी के उन चंद लोगों में से एक जो अपनी प्राचीन गायकी के हुनर को अब भी जीवित रखे हुए हैं. उनके घर पर जिस आत्मीयता के साथ मेरा स्वागत हुआ वो शब्द कहाँ बयां कर पाएंगे . थाली में सजे गेहूं के दाने और दीपक के साथ गुड़ जिसका एक छोटा टुकड़ा खिलाकर मेहमान को भीतर ले जाते हैं . उनका घर गाँव के आखिरी सिरे पर था पास में एक तालाब था जो अब पानी का रास्ता देख रहा था और रास्ता तो कई मोर भी देख रहे थे जो रोज़े खां के घर के पास ऐसे घूमते हैं मानो पालतू मुर्गियां हों अगली सुबह हमारी नींद बारिश की बूंदों ने खुलवाई क्योंकि हम छत पर सो रहे थे मेघों से घिरा आसमान ,जहां तक नजर जाये वहां तक फैली मरुभूमि और नीचे ज़मीन पर बादलों के स्वागत में नाचते मोर। अनूठा गाँव हें रोजे खान का। रोजे खान कि गायकी में जादू हें। रोजे खान अपने समाज में लुप्त हो रही लोक गायिकी को लेकर चिंतित हें। उनके प्रयास हें कि नै पौध तैयार करनी होगी ताकि राजस्थानी कि संस्कृति अक्षुण रहे


रोज़े खां और उनके परिवार ने लोक-संगीत का जो रस बरसाया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता . गीतों को खड़ताल गति देते हैं तो कमायचा उसमे मरुभूमि का सारा का सारा सौन्दर्य भर देता है कमायचा मांगनियारों का अपना वाद्य है लेकिन इसका पहला सुर ही सुनने वाले को अहसास करा देता है की अब जो रस बरसेगा वो उस सोनारी धरती का होगा जिसे माडधरा कहते हैं एक विकल ध्वनि, जो गूंजती है तो प्यास जगाती भी है और प्यास बुझाती भी है . लेकिन ये कमायचा भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . धीरे-धीरे ये वाद्य लुप्त हो रहा है एक तो इसे बजाने में नयी पीढ़ी की रूचि कम है उस पर अब इसे बनाने वाले भी कम होते जा रहे हैं जो बचे हुए लोग हैं वो कभी कभार बिकने के कारण इसे बनाना छोड़ चुके है इसीलिए अब ये बाज़ार में इतना महंगा बिकता है कि कोई गरीब लोक कलाकार इसे खरीदने का सपना ही देख सकता है . आर्थिक उदारवाद ने हमें जो कुछ दिया उसकी भरपूर कीमत भी वसूली है बाज़ार अब केवल उनके लिए आनंद का अवसर उपलब्ध कराता है जिनकी जेबें ठसाठस भरी हुई हैं बाकी लोगों के लिए तो ये तमाशा बस देखने की चीज़ है .