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सोमवार, 25 अगस्त 2014

राजस्थानी भाषा में योगदान पर चन्दन सिंह भाटी को कैलगरी और कनाडा राणा अवार्ड मिलेगा

राजस्थानी भाषा में योगदान पर चन्दन सिंह भाटी को कैलगरी और कनाडा राणा अवार्ड  मिलेगा 

बाड़मेर राजस्थानी भाषा आंदोलन में सक्रीय योगदान देने वाले राजस्थानी भाषा मान्यता संघरश समिति के प्रदेश उप पाटवी चन्दन सिंह  भाटी  को   केलागरी और कनाडा राणा अवार्ड समारोह  में तीस अगस्त को जोधपुर में सम्मानित किया जायेगा ,भाटी को यह सम्मान उनके द्वारा राजस्थानी भाषा आंदोलन में योगदान के उपलक्ष में दिया जा रहा हैं , 

समिति के सरंक्षक रावत त्रिभुवन सिंह राठोड ने बताया  को बाड़मेर जैसलमेर में उनके द्वारा राजस्थानी भाषा आंदोलन में  योगदान के लिए दिया जा रहा हैं। भाटी  से सम्मानित होने वाले एकमात्र व्यक्ति हैं ,उन्हें तीस अगस्त को  टाउन हॉल जोधपुर में आयोजित होने वाले केलागरी और कनाडा राणा अवार्ड समारोह में अंतराष्ट्रीय न्यायाधीश दलबीर भंडारी सम्मानित करेंगे। 

इस समारोह में अरब देशो  फंसे बयासी भारतीयों को सुरक्षित लाने में योगदान देने वाले अधिकारियो को भी सम्मानित किया जायेगा ,

राणा के अंतराष्ट्रीय मीडिया सलाहकार और विधि प्रकोष्ट सलाहकार  राजस्थानी भाषा समिति  अंतराष्ट्रीय संयोजक प्रेम भंडारी ने बताया की राजस्थानी भाषा आंदोलन  उल्लेखनीय योगदान देने चन्दन सिंह भाटी को राणा  की और से सम्मानित किया जायेगा ,उन्होंने बताया की कन्हैयालाल सेठिया स्मृति भाषा साहित्य सम्मान भी इसी समारोह में दिया जायेगा ,भंडारी ने बताया की समारोह में द्विमर्शिक राजस्थानी पत्रिका कथेसर का लोकार्पण भी किया जायेगा। 

उन्होंने बताया की अन्तराष्ट्रीय नयायाधीश माननीय दलबीर भंडारी होंगे मुख्य अतिथि। मुख्य न्यायाधीश राजस्थान सुनील अम्बवानी अति विशिष्ठ मेहमान ,होंगे जोधपुर महाराज गजे सिंह जी अध्यक्षता करेंगे। साथ ही समरोह में  लोकायुक्त सज्जन सिंह कोठारी ,जगदीश चन्द्र etv हेड ,जोधपुर सांसद गजेन्द्र सिंह शेखावत ,पाली सांसद पी पी चौधरी ,राजयसभा सांसद राम नारायण डूडी ,नारायणलाल पंचारिया और ओंकार सिन्ह् लखावत सहित कई हस्तियाँ शिरकत करेंगी। समारोह में कन्हैयालाल सेठिया पुरस्कार सहित राजस्थानी भाषा के विकास में योगदान देने वालो को भी समानित किया जायेगा।

शनिवार, 14 दिसंबर 2013

भाटी राजस्थानी भाषा समिति के प्रदेश उपाध्यक्ष नियुक्त

भाटी राजस्थानी भाषा समिति के प्रदेश उपाध्यक्ष नियुक्त


बाड़मेर अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति राजस्थान के प्रदेश महामंत्री राजेंद्र सिंह बारहट ने दफ्तरी हुकम निकल समिति के सम्भाग उप पाटवी चन्दन सिंह भाटी को राजस्थानी भाषा कि मान्यता के लिए दिए सराहनीय योगदान को ध्यान में रखते हुए प्रदेश उप पाटवी के पद पर नियुक्ति दी हें। प्रदेश समिति द्वारा जारी आदेश में लिखा हें कि समिति के सम्भाग उप पाटवी पद पर रहते हुए चन्दन सिंह भाटी द्वारा राजस्थानी भसझा कि मान्यता के लिए उच्च स्तरीय और सराहनीय प्रयास हुए ,जिसे देखते हुए भाटी को प्रदेश कि राजस्थान के सभी जिलो में समिति के कार्यकारिणी के विस्तार और राजस्थानी भाषा के समर्थको को जोड़ने कि जिम्मेदारी दी गयी हें। महामंत्री राजेंद्र सिंह बारहठ ने बताया कि राजस्थानी रत्न से समानित चन्दन सिंह भाटी को प्रदेश में राजस्थानी भाषा के अभियान कि अलख जगाने के निर्देश जरी किये हें।

बुधवार, 21 अगस्त 2013

सरहद से उठी मान्यता हुंकार सरकारी तंत्र को हिला कर रख देगी

सरहद से उठी मान्यता हुंकार सरकारी तंत्र को हिला कर रख देगी
मान्यता में देरी बर्दास्त नहीं। 

अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति बाड़मेर द्वारा बुधवार को आयोजित बज्जवता रेवो जगाता रेवो ढोल थाली संकल्प रैली महावीर पार्क में सभा में तब्दील हो गई ,सभा को संबोधित करते हुए डिंगल भाषा के साहित्यकार मेघुदान छरन झानाकाली ने कहा की राजस्थान के इतिहास ,और संस्कृति को संजोने में पुरावाजो द्वारा दिए बलिदान का ही नतीजा हें की राजस्थान की लोक संस्कृति और भाषा का विश्व भर में मान सम्मान हें ,इस सामान को बचाए रखने के लिए जरुरी हें की सरकार अब राजस्थानी भाषा को मान्यता दे ,उन्होंने कहा की भाषा के बिना राजस्थान की संस्कृति और परम्पराए ख़त्म हो ,जाएगी इसीलिए भाषा का जरुरी हें,इस अवसर पर राजस्थानी भाषा के वरिष्ठ कवि महादान सिंह भादरेश ने कहा की युवाओं का मायड भाषा के प्रति झुन्झारुपन प्रेरणा योग्य हें ,उन्होंने कहा की बाड़मेर के युवाओं ने खून से ख़त लिख कर साबित कर दिया की अब सरकार नहीं चेती तो राजस्थानी आन्दोलन किस करवट बेठेगा और उसके क्या परिणाम होंगे अनुमान ही लगाया जा सकता हें ,उन्होंने कहा की विश्व के सर्वश्रेष शाद कोष और ग्रन्थ जिस भाषा के हो और उसी भाषा को मान्यता के लिए संघर्ष करना पड़े इससे ज्यादा शर्नाक बात क्या हो सकती हें ,लोक कलाकार फकीरा खान ने कहा की राजस्थानी भाषा के नूर ने राजस्थानी की संस्कृति को विदेशो में पहचान ,दिलाई मगर हम अपनी भाषा को अपने घर में सामान नहीं दिला पाए ,संभाग उप पाटवी चन्दन सिंह भाटी ने कहा की सरकार की यह क्या निति हें राजस्थानी भाषा के साहित्यकारों ,कवियों ,लेखको ,पत्र पत्रिकाओ को समानित करती हें पुरुस्कार देती हें ,राजस्थानी भाषा के कालजयी पुरुषो महिलाओ को राजस्थानी रत्न का सम्मान देती हें मगर भाषा को मान्यता नहीं देती आखिर क्यूँ, उन्होंने कहा की सरहद से राजस्थानी भाषा को मान्यता की जो हुनकर उठी हें वो पुरे प्रदेश के सरकारी तंत्र को हिला कर रखा देगी ,इस अवसर पर रिडमल सिंह दांता ,जीतेन्द्र छंगानी ,दुर्जन सिंह गुडीसार ,बाबु भाई शेख ,रमेश सिंह इन्दा,दिग विजय सिंह चुली ने भी अपने विचार रखे। ,

सोमवार, 1 जुलाई 2013

exclusiv news पचपदरा रिफायनरी ..पर चन्दन सिंह भाटी की खास रिपोर्ट

लूण की खान पर तेल का तालाब

जिस पचपदरा में तेल रिफाइनरी स्थापित की जा रही है वह साइबेरियाई पक्षियों की सबसे बड़ी सैरगाह है।

exclusiv news   पचपदरा रिफायनरी ..पर चन्दन सिंह भाटी की खास रिपोर्ट 


तब भी ब्रिटिश हुकुमत ही इसके पीछे थी, अब एक ब्रिटिश कंपनी इसके पीछे है। पचपदरा के धुंधले इतिहास और सुनहरे भविष्य के बीच संतुलन साधने के लिए बिना ब्रिटेन को बीच में लाये बात पूरी नहीं हो सकती। उस वक्त जब देश में गांधी जी का नमक आंदोलन नहीं हुआ था तब से पहले की बात है। बाड़मेर का यह पचपदरा इलाका एक असफल नमक आंदोलन चला चुका था। बंगाल को शुद्ध नमक खिलाने के नाम पर जब अंग्रेजी हुकूमत ने ब्रिटिश नमक का बाजार खोलने की शुरूआत की तो वे पचपदरा के इसी सांभर इलाके में आये थे, भारी मशीनरी के साथ। उनकी भारी मशीनरी और नमक के भारी उत्पादन दोनों की ही उस वक्त सफल नहीं हो पाये तो उसका कारण यह था कि मशीन से पैदा किये गये सांभर नमक को पचपदरा की खुदरा खानों से निकला नमक चुनौती दे रहा था। स्वाभाविक था कि अंग्रेजों ने पचदरा की 'पड़तल' खानों को बंद करने की कोशिश की। इसके जवाब में यहां के नमक उत्पादकों ने कलकत्ते जाकर अंग्रेजी हुकुमूत को असफल चुनौती दी थी, नमक के साथ। लेकिन न कलकत्ते में यहां के नमक कारोबारी सफल हो सके और न पचपदरा में अंग्रेजी हुकूमत।
गांधी जी से भी पहले नमक का यह पहला 'संघर्ष' इतिहास की किताबों में भी ठीक से भले ही कलमबंद नहीं हो पाया, लेकिन आज भी आप पचपदरा आयें तो धुंधले रूप में ही सही इतिहास के इस अनोखे संघर्ष के अवशेष मौजूद हैं। चारों तरफ दूर-दूर तक बियाबान के बीच बसे सांभरा में अंग्रेजों के जमाने में एक टीले पर बनाया गया नमक विभाग का दफ्तर और कॉलोनी आज भी मौजूद है। तब अंग्रेजों का हाकम यहां बैठता था। नमक की पहरेदारी करने के लिए चौकियां बनी हुई थीं। घोड़ों पर पहरेदारी होती थी। भैरोसिंह शेखावत मुख्यमंत्री बने तो 1992 में नमक की खदानों में काम करने वाले 'खारवालों' को सरकार ने पट्टे देकर मालिक बना दिया और विभाग का दफ्तर भी शिफ्ट कर दिया। तब से आलीशान दफ्तर का भवन, डाक बंगला और करीब 70 क्वार्टर वाली कॉलोनी वीरान पड़ी है। इनमें भी 35 ठीक-ठाक हैं, बाकी खंडहर हो चुके हैं। यहीं पर एक खजाना कक्ष बना हुआ है। इसमें सलाखों के भीतर एक तहखाने में यह खजाना आज भी इतिहास का गवाह बना हुआ है। लोहे की मोटी चद्दर से बना है भारी भरकम दरवाजा। इस पर आज भी इंग्लैंड का बना ताला ही लटक रहा है। खजाना खाली है यहा भरा, यह तो पता नहीं लेकिन मकड़ियों के जाल ने इन्हें पुरातन अवशेष में जरूर तब्दील कर दिया है।
लेकिन इतिहास में अवशेष हो जाने के बाद भी पचपदरा की पड़तल खानों (नमक की वे खान जिसमें एक बार नमक निकाल लेने के बाद उन्हें बंद कर दिया जाता है।) से निकलनेवाले नमक की गुंजाइश ही कायम नहीं है, जिस सांभर में अंग्रेजी हुकूमत अपने मशीनों का अवशेष पीछे छोड़ गई थी, उस सांभर में मशीनों के वे अवशेष भी जंग लगे हथियारों की तरह आज भी देखे जा सकते हैं। सिर्भ सांभरा माता का भव्य मंदिर ही नमक की समृद्धि से ही समृद्ध नहीं हुआ था, बाड़मेर का यह पूरा इलाका कभी राजसी वैभव लिए था तो उसका कारण कुछ और नहीं बल्कि सांभर नमक ही था।
आश्चर्यजनक रूप से पचपदरा में रिफाइनरी का स्वागत वे तीन हजार खारवाल भी कर रहे हैं जो नमक के कारोबारी है, यह जानते हुए कि रिफाइनरी आने से सांभर नमक का कारोबार बर्बाद हो जाएगा। सांभरा के गणपत खारवाल कहते हैं, नमक के काम में तो मुश्किल से दो सौ रुपए दिहाड़ी मिलती है, वह भी साल में आठ माह से ज्यादा नहीं। रिफाइनरी लगने से गांव वालों को कम से कम रोज अच्छी मजदूरी तो मिलेगी।
सांभर नमक अपनी विशिष्टता के लिए जाना जाता है। सांभर नमक वह नमक है जो नमक होते भी नमक नहीं होता है। हिन्दू समाज में सांभर नमक को इतना पवित्र माना जाता है कि व्रत त्यौहार में इस नमक को इस्तेमाल किया जाता है। जोधपुर के पास नमक की सांभर झील अगर अपने सांभर नमक के लिए दुनियाभर में विख्यात है तो बाड़मेर का सांभरा इलाका भी अपने नमक के उत्पादन और कारोबार के लिए ही जाना जाता है। सांभरा गांव और पचपदरा क्षेत्र में पानी को सुखाकर नमक नहीं तैयार किया जाता बल्कि यह देश का संभवत: एकमात्र ऐसा इलाका है जहां खदानों से खोदकर नमक निकाला जाता है। जमीन से निकले इस नमक को शायद इसीलिए विशिष्ट नमक माना जाता है। लेकिन नमक की इस विशिष्टता पर अब जल्द ही तेल का तालाब तैर जाएगा और तेल की धार बह निकलेगी।
परियोजना से जुड़ी हर बात पूरी हो चुकी है। घोषणा भी हो चुकी है और अतीत में खो चुके पचपदरा इलाके में प्रापर्टी डीलर अभी से सक्रिय हो गये हैं। इसी जून महीने में राजस्थान सरकार की 26 फीसदी हिस्सेदारी वाली इस परियोजना को हिन्दुस्तान पेट्रोलियम कारपोरेशन द्वारा लगाने की योजना को मंजूरी मिल चुकी है। संभावना है कि जुलाई महीने में किसी भी वक्त कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी इस इलाके का दौरा करके परियोजना की आधारशिला रख देंगी। हालांकि अभी भी स्पष्ट तौर पर यह तो पता नहीं चल पाया है कि इस परियोजना में ब्रिटिश कंपनी केयर्न की कितनी हिस्सेदारी है लेकिन इस बात की संभावना बताई जा रही है कि एचपीसीएल की सहयोगी कंपनी एमआरपीएल में राजस्थान सरकार के अलावा केयर्न की भी हिस्सेदारी है। वैसे इस परियोजना को पचपदरा लाने के पीछे केयर्न का बड़ा अहम रोल है। इस रिफाइनरी के लिए जो कच्चे तेल की सप्लाई है उसमें बड़ी हिस्सेदारी केयर्न की ही होगी। केयर्न अपने दो तेल पाइपलाइनों मंगला और भाग्यम के जरिए जामनगर में रिलायंस की रिफाइनरी के अलावा इस परियोजना को भी कच्चा तेल सप्लाई करेगी।
बाड़मेर में पचपदरा से पहले 37,230 करोड़ रूपये की यह परियोजना यहां से करीब चालीस किलोमीटर दूर लगनेवाली थी। लेकिन जमीन के विवाद के चलते आखिरकार कंपनी ने अपना इरादा बदल दिया और वह रिफाइनरी परियोजना को पचपदरा के पास ले आई। परियोजना के लिए कंपनी को 3700 एकड़ जमीन की जरूरत है जो उसे आराम से पचपदरा में मिल रही है। पहले के परियजना स्थल लीलारा से उलट यहां परियोजना मुख्य बस्ती से छह किलोमीटर दूर बनाई जा रही है जिससे कम से कम इंसानों के विस्थापित होने का कोई खतरा नहीं है। शायद इसीलिए यहां के लोग चाहते हैं कि रिफाइनरी की परियोजना यहीं लगे ताकि इस इलाके में राजसी ठाट बाट दोबारा लौट आये। राजसी ठाट बाट जब आयेगा तब लेकिन जिस तरह से इलाके में प्रापर्टी के कारोबारी सक्रिय दिखाई दे रहे हैं उससे इतना तो साफ दिख रहा है सरहदी जिले का उपेक्षित सा यह नमक उत्पादक इलाका अचानक ही चर्चा में आ गया है। शाम होते ही पचपदरा में जगह जगह प्रापर्टी डीलर जमा हो जाते हैं और जमीन के सौदों को अंजाम देने लगते हैं।
लेकिन प्रापर्टी के इस संभावित कारोबार में क्या सचमुच पचपदरा को इस रिफाइनरी से सिर्फ फायदा ही फायदा होनेवाला है। शायद ऐसा नहीं है। भले ही नमक के कारोबार की उपेक्षा के कारण लंबे समय से उपेक्षित इस इलाके में रिफाइनरी के कारण रूपये की रौनक लौट आई है लेकिन रिफाइनरी के कारण इस इलाके की जैव विविधता और सबसे अधिक साइबेरियाई पक्षियों को बड़ा खतरा पैदा हो गया है। पचपदरा क्षेत्र में प्रति वर्ष हज़ारों की तादाद में प्रवासी पक्षी साइबेरियन क्रेन जिसे स्थानीय भाषा में कुरजां कहते हैं, वे आती हैं। इस क्षेत्र को कुरजां के लिए सरंक्षित क्षेत्र घोषित करने की कार्यवाही चल रही थी। सँभारा, नवोड़ा बेरा, रेवाडा गाँवों के तालाबों पर कुरजां अपना प्रवासकाल व्यतीत करते हैं। और केवल साइबेरियाई पक्षियों की ही बात नहीं है। पचपदरा में वन्यजीवों की भरमार है, विशेषकर चिंकारा और कृष्णा मृग बहुतायत में पाये जाते हैं. इसीलिए पचपदरा से आगे कल्यानपुर डोली को आखेट निषेध क्षेत्र घोषित कर रखा हैं। तेल रिफाइनरी के आने के बाद इन वन्यजीवों और दुर्लभ पक्षियों की क्या दशा या दुर्दशा होगी इसके बारे में सोचने की फुर्सत न तो सरकार को है, न कंपनी को और न ही प्रापर्टी डीलरों को।
वन्यजीव, दुर्लभ साइबेरियाई पक्षियों से ज्यादा इस वक्त इस पूरे इलाके में दुकान, मकान, होटल बनाने की चिंता है। रियल एस्टेट और ट्रांसपोर्ट में उभर रही संभावनाओं के कारण हर आदमी की आंख में अपने लिए वैभवशाली भविष्य की चमक साफ दिखाई दे रही है। शायद यही कारण है कि पचपदरा से लेकर बागुन्दी और जोधपुर तक जमीनों की कीमतों में उछाल आ गया है। इस उछाल का फायदा जिन्हें मिलेगा वे उछल रहे हैं लेकिन उन मूक पशु पक्षियों का भविष्य संकट में है जो न तो अपने लिए खुद कोई आंदोलन कर सकते हैं और जिनके लिए यहां आंदोलन करनेवाला कोई दिखाई नहीं दे रहा। सब सांभर नमक पर की खान पर तेल का तालाब बनाने में व्यस्त हैं।
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chandan singh bhati 

nehru nagar barmer rajasthan

9413307897 

रविवार, 9 जून 2013

चन्दन सिंह भाटी को राजस्थानी रत्न सम्मान





राजस्थानी भाषा, साहित्य एवं संस्कृति महोत्सव बाड़मेर में राजस्थानी भाषा के लिए उल्लेखनीय पत्रकारिता के लिए राजस्थानी रत्न का सम्मान सी डी साब ,बी डी कल्ला ,ओंकार सिंह लखावत ,अर्जुनदान देथा द्वारा प्रदान किया गया --

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

राजस्थानी भाषा साहित्य संस्कृति महोत्सव बाड़मेर में होगा आयोजित

राजस्थानी भाषा साहित्य संस्कृति महोत्सव बाड़मेर में होगा आयोजित




बाड़मेर राजस्थानी भाषा साहित्य संस्कृति महोत्सव इस साल बाड़मेर में अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति बाड़मेर आयोजित करेगी .संभाग उप पाटवी चन्दन सिंह भाटी ने बताया की राजस्थानी भाषा साहित्य संस्कृति महोत्सव इस साल आठ और नौ जून को बाड़मेर में आयोजित किया जाएगा .महोत्सव की बाड़मेर में आयोजन की सिकृति मिल चुकी हें ,इसकी तैयारियों के लिए समिति की जल्द बैठक आयोजित की जायेगी .भाटी ने बताया की समिति के प्रदेश महामंत्री राजेंद्र सिंह बारहट के निर्देशानुसार राजस्थानी साहित्य एवं संवर्धर्ण समिति और अखिल भारतीय राजस्थानी भाषा मान्यता संघर्ष समिति के संयुक्त तत्वाधान में महोत्सव का आयोजन किया जायेगा ,उन्होंने बताया की महोत्सव में राजस्थानी भाषा के वरिष्ठ साहित्य कार भाग लेंगे .यह पहला अवसर हे जब बाड़मेर में राजस्थानी भाषा साहित्य और संस्कृति के सम्बन्ध में बड़े स्तर पर महोत्सव का आयोजन होगा महोत्सव में राजस्थानी भाषा के वरिष्ठ साहित्यकारों को आमंत्रित किया जाएगा .महोत्सव के सफल आयोजन के लिए जल्द समिति की बैठक बुलाई जायेगी .

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

foto....मुग़ल संस्कृति और स्थापत्य कला का प्रतिक हें किशनगढ़ का किला











मुग़ल संस्कृति और स्थापत्य कला का प्रतिक हें किशनगढ़ का किला
चन्दन सिंह भाटी 

जैसलमेर के सांस्कृतिक इतिहास में यहाँ के स्थापत्य कला का अलग ही महत्व है। किसी भी स्थान विशेष पर पाए जाने वाले स्थापत्य से वहां रहने वालों के चिंतन, विचार, विश्वास एवं बौद्धिक कल्पनाशीलता का आभास होता है। जैसलमेर में स्थापत्य कला का क्रम राज्य की स्थापना के साथ दुर्ग निर्माण से आरंभ हुआ, जो निरंतर चलता रहा। यहां के स्थापत्य को राजकीय तथा व्यक्तिगत दोनो का सतत् प्रश्रय मिलता रहा। इस क्षेत्र के स्थापत्य की अभिव्यक्ति यहां के किलों, गढियों, राजभवनों, मंदिरों, हवेलियों, जलाशयों, छतरियों व जन-साधारण के प्रयोग में लाये जाने वाले मकानों आदि से होती है।इसी कड़ी में जैसलमेर का पाकिस्तान सरहद पर निर्मित किला हे किशनगढ़ .समय की मार झेलते झेलते आज जर्जर अवस्था में पहुँच गया ,हें किशनगढ़ का किला अपने आप में अनूठा हे सुरक्षा के लिहाज़ हे मुग़ल कालीन शैली में इसे बनाया गया था .इसकी विशेषता हे की इस किले में एक बारगी प्रवेश करने के बाद किसी को ढूँढना काफी मुश्क्किल था .इसके ख़ुफ़िया रास्ते इसके निर्माण की खाशियत हें ,

जैसलमेर इतिहासकारों के अनुसार सीमावर्ती इलाके में बना किशनगढ़ दुर्ग मुस्लिम शैली में बना हुआ है। इसका पुराना नाम दीनगढ़ था। इसका निर्माण महारावल मूलराज ने 1820 से 1876 ई. के मध्य करवाया था। 1965 के भारत पाक युद्ध में इस किले को खासा नुकसान पहुंचा था। इस किले में देवी की बड़ी बड़ी प्राचीन मूर्तियां भी है,मुग़ल शैली की निर्माण कला अनायास ही अपनी और आकर्षित करती हें ,जैसलमेर के किले जहां पत्थरो से निर्मित हें वही किशनगढ़ का किला पूर्णतया ईंटो से बना हें ,इस किले को हासिल करने के लिए मुग़ल शासको ने काफी प्रयास किये थे .अविभाजित भारत के समय इसका निर्माण किया था इसके निर्माण की शैली वर्तमान पाकिस्तान के कई किले के सामान हें ,इसकी निर्माण कला अनायास को अपनी और आकर्षित करती हें .

जैसलमेर राज्य मे हर २०-३० किलोमीटर के फासले पर छोटे-छोटे दुर्ग दृष्टिगोचर होते हैं, ये दुर्ग विगत १००० वर्षो के इतिहास के मूक गवाह हैं। मध्ययुगीन इतिहास में इनका परम महत्व था। ये राजनैतिक आवश्यकतानुसार निर्मित कराए जाते थे। दुर्ग निर्माण में सुंदरता के स्थान पर मजबूती तथा सुरक्षा को ध्यान में रखा जाता था। परंतु यहां के दुर्ग मजबूती के साथ-साथ सुंदरता को भी ध्यान मं रखकर बनाया गया था। दुर्गो में एक ही मुख्य द्वारा रखने के परंपरा रही है। किशनगढ़, शाहगढ़ आदि दुर्ग इसके अपवाद हैं। ये दुर्ग पक्की ईंटों के बने हैं। इस दुर्ग में आठ से अधिक बुर्ज बने हें । ये दुर्ग को मजबूती, सुंदरता व सामरिक महत्व प्रदान करते थे।जैसलमेर राज्य भारत के मानचित्र में ऐसे स्थल पर स्थित है जहाँ इसका इतिहास में एक विशिष्ट महत्व है। भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा पर इस राज्य का विस्तृत क्षेत्रफल होने के कारण अरबों तथा तुर्की के प्रारंभिक हमलों को यहाँ के शासकों ने न केवल सहन किया वरन दृढ़ता के साथ उन्हें पीछे धकेलकर शेष राजस्थान, गुजरात तथा मध्य भारत को इन बाहरी आक्रमणों से सदियों तक सुरक्षित रखा। राजस्थान के दो राजपूत राज्य, मेवाइ और जैसलमेर अनय राज्यों से प्राचीन माने जाते हैं, जहाँ एक ही वंश का लम्बे समय तक शासन रहा है। हालाँकि मेवाड़ के इतिहास की तुलना में जैसलमेर राज्य की ख्याति बहुत कम हुई है, इसका मुख्य कारण यह है कि मुगल-काल में बी जहाँ मेवाड़ के महाराणाओं की स्वाधीनता बनी रही वहीं जैसलमेर के महारावलों द्वारा अन्य शासक की भाँती मुगलों से मेलजोल कर लिया जो अंत तक चलता रहा। आर्थिक क्षेत्र में भी यह राज्य एक साधारण आय वाला पिछड़ा क्षेत्र रहा जिसके कारण यहाँ के शासक कभी शक्तिशाली सैन्य बल संगठित नहीं कर सके। फलस्वरुप इसके पड़ौसी राज्यों ने इसके विस्तृत भू-भाग को दबा कर नए राज्यों का संगठन कर लिया जिनमें बीकानेर, खैरपुर, मीरपुर, बहावलपुर एवं शिकारपुर आदि राज्य हैं। जैसलमेर के इतिहास के साथ प्राचीन यदुवंश तथा मथुरा के राजा यदु वंश के वंशजों का सिंध, पंजाब, राजस्थान के भू-भाग में पलायन और कई राज्यों की स्थापना आदि के अनेकानेक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक प्रसंग जुड़े हुए हैं।


आज़ादी के बाद जैसलमेर रियासत के समय पाकिस्तान के लडाको हूर्रो का काफी आंतक किशनगढ़ में रहा .उस दौरान हुर्रो से निपटने के लिए जैसलमेर के तत्कालीन महारावल ने जिम्मेदारी सत रामजी हजूरी को सौंपी ,थी सत रामजी ने हुर्रो से धर्मेला कर इस समस्या से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया .

सदियों तक आवागमन के सुगम साधनों के आभाव में यह स्थान देश के अनय प्रांतों से लगभग कटा सा रहा। इस कारण बाहर के लोगों केकिशनगढ़ के बारे में बहुत कम जानकारी रही है। सामान्यत: लोगों की कल्पना में यह स्थान धूल व आँधियों से घिरा रेगिस्तान मात्र है। परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है, इतिहास एवं काल के थपेड़े खाते हुए भी यहाँ प्राचीन, संस्कृति, कला, परंपरा व इतिहास अपने मूल रुप में विधमान रहा तथा यहाँ के रेत के कण-कण में पिछले आठ सौ वर्षों के इतिहास की गाथाएँ भरी हुई हैं। जैसलमेर राज्य ने मूल भारतीय संस्कृति, लोक शैली, सामाजिक मान्यताएँ, निर्माणकला, संगीतकला, साहित्य, स्थापत्य आदि के मूलरुपंण बनाए हुए .

किशनगढ़ किले के जिर्नोदार के लिए पुरातत्व विभाग ने ढाई करोड़ रुपये स्वीकृत किये थे मगर इस बजट का किशनगढ़ के किले में इस्तेमाल नज़र नहीं आ रहा .आज चमगादड़ो का डेरा बन चुका यह की सरंक्षण की दरकार रखता हें ,इस किले का जिर्णोदार कराया जाये तो यह जैसलमेर आने वाले पर्यटकों  के लिए ख़ास आकर्षण का केंद्र बन सकता हें .

रविवार, 9 दिसंबर 2012

जैसलमेर की रियासत कालीन मुद्राऐं

जैसलमेर की रियासत कालीन मुद्राऐं ,मदन लयचा के पास हें  बेजोड़ संग्रह 






आज भी जनता में लोकप्रिय

लेखक .....चन्दन सिंह भाटी


जैसलमेर प्राचीन काल में जब मुद्राऐं प्रचलन में नहीं थी तब वस्तु विनिमय बारटर सिस्टम द्घारा व्यापार किया जाता था।इस तरह के व्यापार में कई प्रकार की समस्याऐं आती थी जैसे पाुओं का बंटवारा नही हो सकता था,जमीन को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाना सम्भन नहीं था आदि।व्यापार में आने वाली इन समस्याओं से निजात पाने के लिऐ मुद्रा का प्रचलन भाुरू हुआ।ये मुद्राऐं रियासत कालीन भारत में अलग अलग राज्यों की अलग अलग होती थी।रियासतकालीन भारत में कागजी मुद्रा का चलन नहीं कें बराबर था,मुख्यत मुद्राऐं सोने चान्दी व ताम्बे की बनाई जाती थी यहां तक की एक राज में तो चमडे की मुद्रा अर्थात
चमडे के सिक्के भी चलायें गय जो कि वर्तमान में दुर्लभ हैं।जैसलमेर के गोपा चौक स्थित स्वर्ण व्यवसायी मदन लायचा के पास जैसलमेर के रियासतकालीन सिक्को का बेजोड़ संग्रह हें ,इस बेजोड़ संग्रह के चलते उन्हें छबीस  जनवरी को जिला  द्वारा  भी किया  .
इसी प्रकार रियासत काल में जैसलमेर रियासत की भी अपनी स्वतंत्र मुद्रा प्रचलन में थी जिसे महारावल सबलसिंह द्घारा सन 1659 में जारी किया गया यह मुद्रा डोडिया पैसा के नाम से जानी जाती थी।इस पर किसी भी प्रकार का राजचिन्ह या लेख नहीं होता था,यह ताम्बे की पतली चदर को छोटे छोटे असमान टुकडों में काट कर बनी होती थी तथा इस पर आडी टेडी समान्तर रेखाऐं व कहीं कहींये रेखाऐं आयात का रूप लेती हुई व उनके मध्य बिन्दु होता था।इनकी इकाई एक तथा आाधा डोडिया होती थी,एक डोडिये का वजन सवा दौ सौ ग्राम होंता था व आधे डोडीऐ का वजन सवा ग्राम होता था। उस काल में डोीऐ का प्रचलन बहुत थाक्योंकि वस्तुऐं बहुत कम ही मुल्य में उपलब्ध हो जाती थी।उस काल में कुछ वस्तुऐं डोयिें की डो सेर भी आती थी।इसिलिऐ इसका सामान्यजन में बहुतायात में प्रचलन होता था।डोडिऐ का प्रचलन जैसलमेर रियासत में के स्वतंत्र भारत में विलय तीस मार्च 1949 कें पचात भी काफी समय तक निर्बाध रूप से चलता रहा।सन 1947 में एक पैसा में दस डोडिया आते थे।डोडिऐ पैसे के बाद इससें बडी ताम्बे की मुद्रा ब्बू पैया होती थी।एक ब्बू पैसा में बीस डोऐिं पैसे होते थे। तथा इनका नाम ब्बू इनके भारी वनज के कारण पडा।इनका वजन 15 से 18 ग्राम के लगभग होता था।तथा इसें जैसलमेर टकसाल में नहीं छापा जाकर इसे जोधपुर टकसाल में छपवाया जाता था।जोधपुर के अलावा भी बीकानेर और भावलपुर रियासत में ब्बू पैसे प्रचलन में थे। आज भी कई घरों में काफी मात्रा में मिल जाऐंगें।


जैसलमेर रियासत का चान्दी का रूपया सर्वप्रथम महारावल अखैसिंह (1722..61)द्घारा सन 1756 में मुद्रित कराना आरम्भ किया था इसिलिऐ जैसलमेर की रजत मुद्रा को अखौाही नाम दिया गया।महारावल अखेसिह ने सिक्के छापने का कार्य करने वाले विोशज्ञ बाडमेर के जसोल (लोछिवाल) से नाथानी लायचा गोत्र के सोनी परिवार को जैसलमेर रियासत में ससम्मान निमन्ति्रत किया ताकि सिक्कों में निखार आ सके।महारावल नें उन्हे वांनुगत टकसाल का दरोगा भी बनाया गया तथा उन्हें रियासत की तमाम सुविधाऐं भी उपलब्ध कराई।यह परिवार आज भी जैसलमेर के परम्परागत आभूशण बनानें में जुटें हैं।
अखौाही सिक्के उस समय की मोहम्मद शाही सिक्कों का ही प्रतिरूप थें मगर उस पर जैसलमेरी रियासत की पहचान के लिऐ चिन्ह (22)बाईस फारसी में () इस रियासत की पहचान रूप था ।क्योंकि महारावल अखैसिह ने राजगद्धी 1722 में सम्भाली थी ,ये मोहम्मद भाही सिक्के बादाशाह की बिना आज्ञा के छापे गये थे। महारावल अखैसिह की मृत्यु के पचात उनके उत्तराधिकारी महारावल मूलराज (1761..1819)द्घारा बादाह से नियमित टकसाल स्थापित करने की आज्ञा लेकर जैसलमेर रियासत की टकसाल में स्वतंत्र रूप से सिक्के छापने आरम्भ किये गयें।
चान्दी के अखौाही में एक रूपया,आठ आनी,चार आनी,दो आनी,मुल्य के सिक्के चलन में थे।इनका वनज क्रमा 10,50 से 1160 ग्राम ,5,35 से 5,80 ग्राम 2,68 से 2,90 ग्राम,1,34 से 1,45 ग्राम होता था व भाुद्धता 95 से 96 प्रतित तक होती थी। उसी दौरान सोने की मुहर भी छपी गई एक मुहर ,आधी मुहर ,चौथाई मुहर और 1/8 मुहर उस समय 1 मुहर 15 चांदी के अखेशाही आते थे तथा 1 अखेशाही में दो तोला चांदी आती थी .उस समय अखेशाही मुग़ल बादशाह के नाम से ही छपे गए उनमे विद्यमान आलेख ,राज्यारोहन सन आदी का यथावाचत ही रखा तथा लिपि फारसी ही रखी गई जो निम्न प्रकार से थी ...एक और ----सिक्का मुबारक साहिब किसन सानी मोहम्मद शाह गाजी 1153


दूसरी और सनह 22 जुलुस मेम्नात मानूस जरब सियासत जैसलमेर इसी पटल पर टकसाल दरोगा का निशाँ होता था .इसके बाद विभिन समय समय जिन जिन महारावालों ने जैसलमेर रियासत के सिक्के छपवाए उन्होंने अपने समय की पहचान के लिए चिन्ह डाले जिससे पता चल सके की यह सिक्का किस महारावल के काल का हें ,जैसे मूलराज ,गज सिंह ,रणजीत सिंह ,बेरिशाल सिंह ने अपने अपने पहचान चिन्ह सिक्को में डाले .


इसके बाद सन 1860 में महारावल रणजीत सिंह के समय चंडी के सिक्को पर से मुग़ल बादशाह के नाम हटा कर महारानी विक्टोरिया का नाम छपा जाने लगा तथा इसी समय सिक्कों पर जैसलमेर के राज् चिन्ह के रूप में छत्र और चिड़िया को भी एक और अंकित किया गया .इस नई मुद्रा में भी रुपया ,आठ आना ,चार आणि ,दो आणि और सोने की मोहर जारी की गई थी ,जो की वजन व् आकर में पूर्ववर्ती सिक्कों की भांति ही थी ,स्वतंत्र भारत की मुद्रा आने तक इनका प्रचालन जारी रहा


नज़राना सिक्कें ------जैसलमेर रियासत के महारावालो ने समय समय पर नज़राना सिक्कें भी चलाये जो की वजन से सामान्य सिक्कों से अधिक वजन में थे व् साईज में भी बड़े थे ,नज़रानी सिक्कें गोल ,चौरस व् अष्ट पहलू में चलाये गए तथा इनका वज़न सवा रुपया ,14-15 ग्राम ,डेड रुपया पौने दो रुपया व् दो रूपया यह सोने व् चांदी दोनों धातुओ में निकाले गए थे .


पुष्ठा मुद्रा ------द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1939 में तोपों में व् युद्ध सामग्री के लिए काफी मात्र में चंडी और ताम्बे के सिक्कों को गलाया गया था .उन्हें ब्रिटेन ले जाने की वजह से छोटी मुद्राओ का संकट आ गया .इससे निजात पाने के लिए महारावल जवाहर सिंह 1914-48 के समय पुट्ठा मुद्रा का चलन जनता में किया गया ,जिसे जनता ने भी स्वीकार .यह मुद्रा स्वतंत्र भारत की नई मुद्रा आने तक प्रचाल;अन में रही .इस प्रकार भी संग्रहकर्ताओं का आकर्षण रियासत कालीन मोहम्मद शाही ,अखेशाही की तरफ अधिक रहता हें .इस प्रकार स्थानीय शासको द्वारा समय समय पर अपनी जनता की आवश्यकताओ की पूर्ति के लिए कई प्रतिबंधो के बावजूद भी अपनी रियासत की जनता के हित को सर्वोपरि मानते हुए स्वतंत्र मुद्रा अखेशाही के प्रकार से स्थानीय प्रजा को अपने शासको को पूर्ण अधिकार एवं स्वयं भू होने का तो विश्वास प्राप्त हुआ ही प्रतिदिन लें दें एवं व्यापर में भी आसानी हो गई .जैसलमेर के निवासी ब्रिटिश चांदी के कलदार या अन्य पडौसी राज्यों की चांदी की मुद्रा की अपेक्षा स्थानीय अखेशाही में ही लेनदेन को प्राथमिकता देते थे ,स्थानीय जनता की यह भावना अपने राज्य की स्वतंत्र मुद्रा में विशवास का प्रतिक थी ,स्वतंत्र भारत में जैसलमेर रियासत के विलय दिनांक तीस मार्च 1949 के पश्चात भी लोगों की पहली पसंद रही तथा आज भी जारी हें ,धन तेरस और दीवाली को आज भी जैसलमेर के लोग अखेशाही सिक्के या मुद्रा लेना प्राथमिकता से पसंद करते हें

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

जैसलमेर बेटी बचाओ अभियान के लिए आदर्श बने कन्या वध वाले बसिया क्षेत्र के गांव ,सरकार आदर्श गांव घोषित करे


जैसलमेर बेटी बचाओ अभियान के लिए आदर्श बने कन्या वध वाले बसिया क्षेत्र के गांव ,सरकार आदर्श गांव घोषित करे 

चन्दन सिंह भाटी

बाडमेर बाडमेर जैसलमेर जिलों की सरहद पर बसे देवडा सहित बसिया क्षेत्र के सत्रह गाँवो में अब किसी भाई की कलाई सूनी नही हैं।कई सदियों तक इस गांव के ठाकुरों के परिवारों में किसी कन्या का जन्म नही होने दिया,मगर बदलाव और जागरूकता की बयार के चलतें इस गांव में अब हर आंगन बेटी की किलकारियॉ गूॅज रही हैं।इस गांव के भाईयों की कलाईयॉ सदियों तक सूनी रही।सामाजिक परम्पराओं और कुरीतियों के चलते इस गॉव सहित आसपास के दर्जनों गांवों सिंहडार,रणधा,मोडा,बहिया,कुण्डा,गजेसिंह का गांव,तेजमालता,झिनझिनियाली,मोघा,चेलक में कन्या के जन्म लेते ही उसें मार दिया जाता था।जिसके चलतें ये गांव बेटियों से वीरान थे।कोई एक दशक पहलें गांव में ठाकुर इन्द्रसिह के घर पहली बारात आई थी।जो पूरे देश में सूर्खियों में छाई थी। बेटी बचाओ जागरूकता के लिए एक आदर्श उदहारण बने हे कन्या वध वाले गांव,


गांव के दुर्जन सिंह भाटी बेटी बचाओ अभियान के लिए पुरोधा साबित हुए ,उन्होंने अपनी बिटिया को उच्च शिक्षा प्राप्ति के लिए गांव से बाहर अन्य जिले में भेज आदर्श स्थापित किया तो अन्य परिवारों में जन जागरण का शंखनांद किया ,आज हर घर और स्कूल बेटी से रोशन हैं ,

उन्होंने बताया की कन्या वध का कलंक बीते समय की बात हुई ,बेटी बचाओ अभियान के लिए देश भर में इन गाँवो से अधिक कोई आदर्श गांव नही हो सकते ,राज्य सरकार को इन गाँवो को आदर्श गांव घोषित कर बालिकाओ के उच्च शिक्षा की व्यवस्था गाँवो में करने की पहल करनी चाहिए ,


कन्या भ्रूणहत्या के लिए बदनाम राजस्थान के देवड़ा गांव के युवकों की कलाई इस बार सूनी नहीं रहेगी। यहां की साठ से अधिक कन्याओं ने जात-पांत, ऊंच-नीच और भेदभाव से ऊपर उठकर गांव के 250 युवकों को राखी बांधने का संकल्प लिया है। इससे उन युवाओं के चेहरे में खुशी लौट आई है, जिनके बहनें नहीं हैं।

टेलीविजन में कन्या भू्रणहत्या के खिलाफ चल रहे सीरियलों को देखकर इन लड़कियों ने यह संकल्प लिया है। गांव की पूजा कंवर कहती हैं कि सगा भाई हो या दूर का रिश्तेदार, किसी की भी कलाई इस बार सूनी नहीं रहेगी। पूजा ने बताया कि हाल ही में गांव में बारात आई थी। यह इस इलाके में बहुत दिनों बाद देखने को मिला था।

गांव के मूल सिंह भाटी कहते हैं कि मेरे कई दोस्तों की बहनें हैं, लेकिन मैं अकेला महसूस करता था। इसलिए मूल सिंह उन जैसे कई लोग गांव की लड़कियों के इस फैसले खुश हैं। इस बार सब लोग इस त्योहार को पूरे उत्साह के साथ मनाएंगे।


जिला प्रमुख अंजना मेघवाल ने बताया कि गांव में शिक्षा और सामाजिक जागरूकता के कारण कन्या भ्रूण हत्याकी कुप्रथा ख़त्म हो गयी हैं है। देवड़ा गांव की लड़कियों का यह फैसला कन्याओं की हत्या करने की मानसिकता में बदलाव लाने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित होगा।मगर दुखद स्थति यह हे की अनपढ़ अभिभावक जागरूक होक बालिकाओ को पढना चाहते हैं मगर स्कूल में शिक्षक नही ,तीन से सात किलोमीटर दुरी पर स्कूल भेजने से पहले अभिभावकों को सुरक्षा का सोचना पड़ता हनन ,जिले की प्राथमिक स्कूल में करीब दो हजार पड़ रिक्त पड़े हैं ,कोई शक नही इन गाँवो में बेटियो के प्रति जबरदस्त जागरूकता आई हैं मगर सरकार सुविधाएं भी नही दे रही। नईमबली गांव के ग्रामीण स्कूल में अध्यापक लगाने के लिए रोज जिला मुख्यालय पर चक्कर काट रहे हैं ,कोई समाधान नही ,इन गाँवो को बालिका बचाओ अभियान के लिए आदर्श गांव सरकार को घोषित कर बालिकाओ को यही उच्च शिक्षा के लिए पैकेज देना चाहिए


देवड़ा गाँव में पुराणी कुरीतियों तो त्यागने का सिलसिला ठाकुर इन्दर सिंह ने किया जब सदियों बाद भाटी परिवार में पहली बार बारात आई ,इन सालो साल में गाँव में बदलाव की बयार हें आज गाँव में चार दर्जन से अधिक बालिकाए हें जो भाटी परिवारों की हें ,

कन्या हत्या के लिए बदनाम रहा देवड़ासहित सत्रह गांवों के लोगो ने कन्या वध के कलंक को धोने की ठान ली हें . वे अब बालिकाओ को न केवल जन्म लेने दे रहे बल्कि उनको शिक्षा भी दिल रहे हैं ..बाड़मेर जैसलमेर की सरहद पर बसे बसिया क्षेत्र जो भाटी राजपूत बाहुल्य हें में बालिका शिक्षा के प्रति ज़बरदस्त जागरूकता आई हें .सरकारी स्कूलों में बड़ी तादाद में पढ़ रही बालिकाए सुखद बदलाव को ब्यान करती हें.

सिह्डार गाँव के दुर्जन सिंह भाटी ने बताया की ग्रामीण क्षेत्रो में अब पुरानी परम्पराए लगभग ख़तम सी हो गई हें आज बालिका हर राजपूत के घर में हें मेरे खुद की दो बालिकाए दिव्या कंवर प्रथम वर्ष तथा नेमु कंवर दशवीकक्षा में हें जो उच्चतर कक्षाओ में बाहर जिलो में पढ़ती हें .


रक्षा बन्धन पे गांव आई दिव्या सिंह भाटी ने बताया की विद्यावाडी  खीमेल पाली में अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही हैं ,पिछली कक्षा में पिचानवे प्रतिशत अंको के साथ उतीर्ण हुई ,अब में अपना ध्यान आर्मी में आने के लिए शिक्षा पर केंद्रित कर रही हूँ ,मुझे आर्मी अफसर बनाना हैं