बाड़मेर: समृद्धि आई और संकट भी
कभी दवा की एक छोटी-सी दुकान चलाने वाले 30 वर्षीय आजाद सिंह राठौड़ आज शहर में बन रहे एक बहुमंजिला सिटी सेंटर का अपनी हार्ले डेविडसन बाइक से नजारा ले रहे हैं. यहां से महज दो किमी दूर सुमेर खान रामदिया करोड़ों की दास्तान के बीच अब भी अपना बीपीएल कार्ड नहीं भूले हैं. दस साल पहले यही बाड़मेर ऐसा उजड़ा-सा शहर होता था कि राजस्थान के नक्शे पर इसे पहचान पाना मुश्किल था.
स्वागत है आपका बाड़मेर में. किस्मत ने इस शहर पर 2002 में दस्तक दी, जब केयर्न नाम की कंपनी ने यहां तेल की खोज की. इसके बाद 2006 से 2010 के बीच कंपनी ने 15,000 लोगों को रोजगार दिया, जिनमें ज्यादातर यहीं के बाशिंदे थे. कुछेक सौ दूर से भी आए जिन्हें मोटी तनख्वाह पर लाया गया था.
2007 में सज्जन जिंदल की कंपनी राजवेस्ट पावर लिमिटेड ने यहां लिग्नाइट आधारित पावर प्लांट लगाना शुरू किया. इसके लिए लिग्नाइट का खनन बाड़मेर लिग्नाइट माइनिंग कंपनी करती थी, जो राजवेस्ट और राजस्थान राज्य खनन और खनिज निगम का साझा उपक्रम है. इस परियोजना के लिए जमीन भी चाहिए थी और लोग भी. इसने 5,800 लोगों को रोजगार दिया. इसके बाद असली तकदीर खुली इस शहर के आसपास के गांवों की, जिनकी जमीन ज्यादातर राजवेस्ट के लिए और कुछ केयर्न के लिए अधिग्रहीत की गई.
आज 50 वर्षीय तन सिंह के पास सी क्लास मर्सिडीज, क्यू-7 ऑडी और दो फॉर्चुनर हैं. शहर के बीचोबीच उनका बंगला तैयार होने को है. उन्हीं के शब्दों में, ''मेरे पास कुछ नहीं था. मैंने रोड रोलर चलाने से शुरुआत की. सरकारी ठेके लेने शुरू किए. '' उनका कारोबार 1999 में दो करोड़ रु. से भी कम था.
राजस्थान सरकार के लिए सड़कें बनाने के उनके इस कारोबार में मुनाफा बेहद मामूली था. 2000 में उन्हें तेल तलाशने वाली एक कंपनी से ठेका मिला. आज उनका सालाना कारोबार 100 करोड़ रु. का है. पिछले साल उन्होंने चार करोड़ रु. आयकर और आठ करोड़ रु. का बिक्रीकर चुकाया. वे कहते हैं, ''तेल और लिग्नाइट मेरी तरक्की के मंत्र हैं. '' उनके पांच होटल हैं और कुछ शहरों में अलग-अलग शोरूम और कांप्लेक्स हैं. ''यह सब मुझे जमीन से नहीं, अपनी कड़ी मेहनत से हासिल हुआ है. '' वे अपनी बात साफ करते हैं.
पावर प्लांट के लिए 2007 में भदरेस गांव में 58,000 रु. प्रति एकड़ की दर से जमीन अधिग्रहीत की गई थी. पुनर्वास के लिए दो कमरे का मकान, जबकि उस जमीन पर बारिश होने पर तीनेक हजार रु. की बाजरे की फसल हो पाती थी. सितंबर, 2009 में स्थानीय नेताओं ने अधिग्रहण की दर प्रति एकड़ 3.71 लाख रु. पर पहुंचा दी.
जनवरी, 2011 में सरकार ने यह दर 7.4 लाख रु. एकड़ पर ला दी और कंपनियों को डीएलसी की तय दर से छह से दस गुना तक देने को मजबूर कर दिया. दो साल के भीतर लोगों के हाथ में 1,200 करोड़ रु. आ गए. गरीब जमीन वाले एकाएक करोड़पति भूमिहीन बन गए. शहर ही नहीं, अधिग्रहीत जमीन से सटे इलाके भी इतने महंगे हो गए हैं कि आज यहां बसना 'भूमिहीनों' के ही बस की बात है.
केयर्न मुंहमांगी कीमतें देने को राजी हो गया. राजवेस्ट पीछे-पीछे था. नतीजा: चार बेडरूम के मकानों का किराया 15,000 रु. से रु. से सीधे एक लाख रु. महीना जा पहुंचा. 2002 में पैथोलॉजी में डिप्लोमा के बाद पिता की केमिस्ट की दुकान संभालने वाले राठौड़ को तेल तलाशने वाली एक कंपनी ने स्टेशनरी के धंधे में उतरने की सलाह दी. वे भी फिर पीछे नहीं मुड़े. उसके बाद तो पवन हंस हेलिकॉप्टर में लोहे की कील लगाने का काम हो या थाई, दिल्ली दरबार और ताज के रसोइए लाने का या फिर लॉन्ड्री, गोदाम और डीजल जेनसेट की आपूर्ति का, तेल कंपनियों ने उनकी सेवाएं बाड़मेर के बाहर भी लेनी शुरू कर दीं.
कुछेक साल में ही उनका कारोबार एक करोड़ रु. को पार कर गया. आज उनके पास चार मेडिकल स्टोर हैं. वे कहते भी हैं, ''मैं खालिस तेल की पैदाइश हूं. '' जुलाई में उन्होंने अपने सपनों की बाइक नौ लाख रु. की हार्ले डेविडसन खरीद डाली. पजेरो पहले से है.
बीस करोड़ रु. के सालाना कारोबार वाली कीरी ऐंड कंपनी लॉजिस्टिक्स प्राइवेट लिमिटेड के मालिक ललित कीरी उनके दोस्त भी हैं और प्रतिद्वंद्वी भी. कीरी कहते हैं, ''मैं अब आगे तकनीकी क्षेत्र में जाकर कारोबार सौ करोड़ रु. का करना चाहता हूं. '' राठौड़ की तरह वे भी केमिस्ट थे. ''मुझे लगता था कि बाड़मेर में पैदा होना एक सजा है. '' सो, वे मसकट में बढ़ईगीरी करने चले गए. 2002 में लौटे और तबसे यह काम. उनका मकान एक लाख रु.महीने किराए पर उठ गया.
2003 में उनसे बंकर की सप्लाई करने को कहा गया. शून्य से यह काम शुरू कर दो साल में वे करोड़पति हो गए. इसके बाद बाड़मेर से बाहर कैटरिंग का काम आया. पिछले सितंबर में उन्होंने मुंबई में समुद्र के किनारे की फैब्स फैब्रिकॉन नाम की कंपनी खरीद ली.
बेशक, यह यहां के लोगों की उद्यमशीलता और मेहनत का ही नतीजा था, पर इस लिहाज से सितंबर, 2009 का दिन खास था, जब बाड़मेर शहर में जमीन की कीमत एकदम से चढ़ गई. उस दिन 272 ऐसे लोगों को 267 करोड़ रु. मिले, जिन्होंने जिंदगी गरीबी में गुजारी थी और जिन्हें पता न था कि इस पैसे का करें क्या?
ज्यादा से ज्यादा इन्हें यह समझ आया कि 10 किमी दूर शहर तक चला जाए और वहां अपने एक मकान होने के सपने को पूरा किया जाए. साइकिल पर भी न चढऩे वाले लोग एसयूवी में उडऩे लगे. महिंद्रा ने हर 20 ट्रैक्टर की खरीद पर एक मुफ्त की योजना चला दी. बोलेरो इतनी बिकीं कि वेटिंग लिस्ट लग गई.
ओएस मोटर्स के शाखा प्रबंधक राजेश सिंह जोधा बताते हैं कि तीन साल के भीतर उन्होंने 2,000 बोलेरो बेची हैं. पहले यहां सालाना औसत बिक्री 200 की थी. वे 2006 में सालाना 150 मैसी फर्ग्युसन टैक्टर बेचते थे, आज 800 बेचते हैं. ज्यादातर चौपहिया वाहन यहां काम कर रही कंपनियों में किराए पर लग जाते हैं. अकेली केयर्न 900 वाहन किराए पर लेती है. जनवरी, 2011 में जब अगले अधिग्रहण का वक्त आया, लोग समझदार हो चुके थे. उन्होंने इस बार पैसा फिक्स डिपॉजिट में लगा दिया. अचानक शहर में एक बैंक स्ट्रीट उभर आई है, जहां आधा दर्जन बड़े बैंकों की शाखाएं खुली हैं.
किशन लाल पूनिया (45) अब धोती कुर्ता नहीं पहनते. डेढ़ साल पहले उन्होंने उसी दिन कपड़े बदल लिए थे, जब उन्हें अपनी 80 एकड़ बंजर जमीन के बदले छह करोड़ रु. की रकम मिली थी. यह जमीन बमुश्किल सालाना 60,000 रु. का बाजरा पैदा करती थी. उनकी सुनिए, ''अब जोतदार दूसरे जोतदारों से काम करवाते हैं. ''
उन्होंने 1.6 करोड़ रु. में 105 एकड़ सिंचित जमीन खरीद ली. दो करोड़ रु. फिक्स डिपॉजिट हैं. उनके काफिले में 18 पहिए का एक और 12 पहिए के दो ट्रक, एक डम्पर, एक बोलेरो और एक स्कॉर्पियो हैं. इनसे वे एक लाख रु. महीना कमा लेते हैं. मजदूर भी सप्लाई करते हैं. शहर में उन्होंने एक करोड़ रु. में दो एकड़ जमीन खरीद ली है. उस पर वे बहुमंजिला फार्म हाउस परिसर बनवा रहे हैं.
पूनिया कहते हैं, ''हम बहुत गरीब से बहुत अमीर हो गए हैं. '' वे 70 से ऊपर के सुमेर खान रामदिया की मिसाल देते हैं, जिनके पास आज भी बीपीएल कार्ड है. सुमेर के बेटे आतिम खान (28) कहते हैं, ''मैं गड़रिया हुआ करता था. '' यह तब की बात है जब उनके अब्बा ने 44 एकड़ जमीन के बदले 3.2 करोड़ रु. का मुआवजा नहीं मिला था. 10 लोगों का परिवार उससे गुजर नहीं कर पाता था. अब आतिम ने एक करोड़ रु. में दो जगह 26 एकड़ सिंचित जमीन खरीदकर 60,000 सालाना की बंटाई पर जोतदारों को किराए पर दे दी है. बुजुर्ग सुमेर खान कहते हैं, ''मेरे परिवार में अब कोई खेती नहीं करना चाहता. '' परिवार अब शहर में नए बने मकान में रहता है. इस साल उनकी बीवी और एक बेटा 10 लाख रु. खर्च कर हज गए.
बाड़मेर में आज दो तरह के लोग हैं. एक बिना कंपनी वाले, जिनकी जमीन अधिग्रहीत नहीं हुई है. दूसरे कंपनी वाले. मसलन 29 वर्षीय शैतान सिंह माहेचा, जो आजकल पटवारी बनने की ट्रेनिंग ले रहे हैं. उनके परिवार को तीन करोड़ रु. मुआवजा मिला था. कुछ में उपजाऊ जमीन खरीदी, 42 लाख रु. में शहर में एक प्लॉट लिया और एक बोलेरो खरीदी. कई ऐसे मामले हैं जहां भूमिहीनों ने अमीर बनने के बाद पहले तय हुए रिश्तों को, वादों को गैर-बराबरी के नाम पर तोड़ डाला.
एक वकील राम कुमावत बताते हैं, ''संपत्ति विवाद बढ़े हैं. पिता की संपत्ति में महिलाओं के दावों के मामले भी बढ़ रहे हैं. '' एक और पूनिया परिवार में एक महिला ने दादा की संपत्ति में हिस्सेदारी के लिए दावा ठोक रखा है, जिन्हें कई करोड़ रु. का मुआवजा मिला था.
पैसे ने अफसरों और नौकरशाहों के लिए बाड़मेर को खासा लुभावना बना दिया है. 2005 तक यहां तैनाती को सजा माना जाता था. उसके बाद यहां नियुक्ति पर गर्व का एहसास होता है. 2009 से तो यहां तैनाती ईनाम मानी जाने लगी है. यहां के स्थानीय लोग अधिकतर रियल एस्टेट धंधों को उन अफसरों और कलेक्टरों के नाम से पहचानते हैं जिन्होंने उनमें पैसे लगाए हैं.
27 वर्षीय देवी सिंह सोढ़ा ने 2003 में प्रॉपर्टी डीलिंग शुरू की थी. तब वे साल भर में बमुश्किल दो सौदे करवा पाते थे, आज 20 तक हो जाते हैं. वे खुद मकानों और जमीन में निवेश करते रहते हैं और इनसे ही करोड़ों रु. कमाए हैं.
बाड़मेर के बाजार भी बदल गए हैं. मुख्य स्टेशन बाजार मार्ग वन वे हो गया है ताकि जाम कम किया जा सके. इसके बावजूद दूसरी सड़कों पर भी बोलेरो और कारों का जाम लगा रहता है. यहां चल रहे प्रोजेक्ट्स में काम करने के लिए मोटी तनख्वाह पर बाहर से कुशल लोगों को लाया गया है और शहर में ढेरों एटीएम खुल गए हैं. दर्जनभर नर्सिंग होम भी उग आए हैं. अब लोगों को खरीदारी या इलाज के लिए जोधपुर या अहमदाबाद जाने की जरूरत नहीं. 2006 तक यहां ब्रांडेड कपड़े मुश्किल से मिलते थे. आज अलग-अलग ब्रांड की जींस और ड्रेसेस के शोरूम मौजूद हैं.
बाड़मेर कभी भी पर्यटन स्थल नहीं रहा. होटल उद्योग यहां था ही नहीं. 2002 में कैलास सरोवर नाम के होटल में सिर्फ एक एसी कमरा हुआ करता था. इसके मालिक ओम मेहता और उनके बेटे राजेश मेहता ने इंडिया टुडे को बताया कि आज उनके दो होटल हैं, जिनमें 177 एसी कमरे हैं. इनमें सुइट भी हैं, जिनका एक रात का किराया 9,000 रु. है.
गुजरात में ग्वारफली का कारोबार करने वाले बाड़मेर के करोड़पति एमएल जैन पिछले साल वापस आ गए और यहां उन्होंने होटल ऋषभ खोल लिया है. कंपनियां अपने अधिकारियों और इंजीनियरों के ठहरने के लिए इनके अधिकतर कमरे बुक करवा लेती हैं. इनके बार में विदेशी शराब भी मिलती है.
शहर की इस तरक्की का असर लड़कियों की शिक्षा और आजादी पर भी पड़ा है. 1998 में शुरू होने पर यहां के एमबीसी राजकीय महिला कॉलेज में सिर्फ 80 लड़कियां आती थीं, वह भी लहंगा-घाघरे में. इसके प्रिंसिपल बेसिल फर्नांडीस बताते हैं कि आज यहां 850 छात्राएं हैं और इनमें कई हैं जो जींस पहनती हैं. शहर से पचास किमी दूर बुरहान का टीला गांव में दसवीं की छात्रा इमला बिश्नोई भी रेत के टीलों में भेड़ें चराने के लिए जींस टॉप में निकली है. हिंदी के लेक्चरार मुकेश पचौरी कहते हैं, ''अब तो शहर में कई लोग हिंदी बोलते हैं, पहले वे राजस्थानी ही बोलते थे. ''
स्कूलों में अंग्रेजी पहुंच चुकी है. मुकेश की पत्नी नवनीत पचौरी के मॉडर्न हाइस्कूल की कक्षाओं में 700 बच्चे पढ़ते हैं. बढ़ती जागरूकता का असर है कि जिले के एक छोटे से कस्बे धोरीमन्ना के नौ बच्चों को इस साल आइआइटी समेत प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग कॉलेजों में प्रवेश मिला है. अपनी वेबसाइट बनवाने का चलन यहां जोर पकड़ चुका है. 32 वर्षीय संदीप दुबे 2008 तक साल में तीन वेबसाइट बनाया करते थे, आज महीने में 15 बनाते हैं. कुछ हटकर करने वाले उद्यमी भी हैं. मसलन, एक रिटायर्ड क्लर्क छगन लाल सोनी आंवले और नींबू की बागवानी करते हैं और बड़ी कंपनियां उनसे यह उपज खरीदती हैं.
पैसा खूबसूरती की ख्वाहिश भी पैदा करता है. अनपढ़ और कभी चाय की दुकान पर कप धोने वाले 30 वर्षीय जितेंद्र गोयल को यह बात शायद जल्द समझ में आ गई. उन्होंने रोजाना दो रु. पर एक नाई की दुकान पर काम सीखना शुरू कर दिया. 2006 में 1.8 लाख रु. कर्ज लेकर उन्होंने अपना पार्लर खोल लिया और पिछले साल उन्होंने दूसरा पार्लर खोला, जिसमें नौ कुर्सियां हैं और मसाज के लिए तीन बिस्तर भी. बाजार में बाल काटने के 20 रु. लगते हैं लेकिन जितेंद्र 100 रु. लेते हैं. वे गर्व से बताते हैं कि हाल तक यहां की कलेक्टर रहीं वीना प्रधान उनकी ग्राहक थीं.
बदलती हुई संस्कृति ने लोगों को महत्वाकांक्षी भी बना दिया है. निजी कंपनियों के कुछ बड़े ठेकेदार वे ही लोग हैं जिन्होंने परियोजनाओं और जमीन खरीद के खिलाफ आंदोलन चलाया था. राम सिंह बोथिया आंदोलन के दौरान मोटरसाइकिल से चलते थे. आज मुआवजे और ठेकों के बदले वे फॉर्चुनर, बोलेरो और एक्सयूवी 500 पर सवार हैं. वे अब राजनीति में उतरना चाहते हैं. ऐसी इच्छा पालने वाले वे अकेले नहीं हैं.
इस तरीके से उग आए कुछ नए नेताओं ने समस्याएं भी खड़ी की हैं और अपनी राजनीति चमकाने के लिए खनन क्षेत्र में वे धर्मस्थलों और कब्रगाहों आदि को बचाने के मुद्दे उठाते रहते हैं. राजवेस्ट के एक अधिकारी कहते हैं, ''स्थानीय लोगों से निबटना बड़ा मुश्किल है. वे मुआवजा लेने और नए मकान बनाने के लिए पर्याप्त समय दिए जाने के बावजूद जमीन खाली नहीं करते.'' राजवेस्ट ने 2007 में जमीन गंवाने वालों को 109 मकान बनवा कर दिए थे, कोई भी इनमें रहने नहीं आया. कई लोग चाहते हैं कि उन्होंने जो बुलडोजर, अर्थ मूवर, वाटर टैंकर, ट्रैक्टर वगैरह खरीदे हैं, वह कंपनी किराए पर रख ले.
हाल ही में गांववालों ने कंपनी को मुफ्त में जमीन की पेशकश की और शर्त रखी कि राजवेस्ट वहां स्कूल बनवा दे. अनुसूचित जाति की एक बस्ती में कंपनी जब 30 लाख रु. स्कूल पर खर्च करने को तैयार हो गई, तो उससे जमीन के लिए डेढ़ लाख रु. और मांगे गए. टोडाराम जाट नाम के एक शख्स ने 51 किमी में फैले खनन क्षेत्र में घुसकर राख के तालाब में खुदकुशी कर ली. राजवेस्ट को 20 लाख रु. मुआवजा देना पड़ गया. राजवेस्ट के मुताबिक, एक गांववाले ने मरा कुत्ता कंपनी की गाड़ी के नीचे रख दिया और दावा किया कि यह प्रशिक्षित कुत्ता था. 15,000 रु. का मुआवजा ले लिया.
स्थानीय प्रशासन कंपनी की इन दिक्कतों पर मजा लेता है और स्थानीय लोगों की ही मदद करता है. इसकी एक वजह भी है. सरकार को तेल की रॉयल्टी ही सालाना 3,500 करोड़ रु. आती है लेकिन वह अब तक इन लोगों के लिए कुछ भी कर नहीं सकी है. एंबुलेंस से लेकर हेल्थ मोबाइल वैन सब का इंतजाम कॉर्पोरेट वाले करते हैं. शहरी नियोजन लगभग नदारद है. नई कॉलोनियों बेढंगे तरीके से उग रही हैं. सबसे बुरा हाल उन लोगों का हुआ है जिनके पास जमीन नहीं थी और वे सामंतों के यहां या तो मजदूरी करते या फिर पारंपरिक कामों में लगे रहते थे. उनके भूस्वामियों के पास से जमीन क्या गई, इनकी जिंदगी ही तबाह हो गई.
सामाजिक गैर-बराबरी ने सरेराह शराबखोरी और नशे की हालत में होने वाले झगड़ों को बढ़ावा दिया है. रिश्तों में विश्वासघात आदि के मामले बढ़ रहे हैं. एक रेकी उपचारक कृष्ण कबीर कहते हैं, ''बाड़मेर में अब अवसाद, तनाव, अनिद्रा और उत्तेजना जैसे बड़े शहरों वाले रोग पैदा हो रहे हैं. भूमिहीनों ने भले एसयूवी खरीद ली हों, पर वे बार-बार जड़ों से उखड़ जाने की बात करते हैं. ''
क्या यह शहर अपने अचानक उभार को बनाए रख सकेगा? 2010 में प्लांट निर्माण पूरा होने के बाद जो 16,000 रोजगार खत्म हुए, उनसे अचानक आई गिरावट कुछ संकेत देती है. इसके बाद किराए की दर और जमीन के दाम नीचे आए हैं. राजस्थान में केयर्न के ऑपरेशन प्रमुख सी.डी. नारायणस्वामी ने भावी संकट को पकड़ लिया है. वे बताते हैं कि यहां साक्षरता दो फीसदी नीचे आ गई है क्योंकि परियोजना निर्माण के दौरान शिक्षित हुए लोगों में से ज्यादातर शहर छोड़ कहीं और बस गए हैं. ''इस अचानक आई वृद्धि को टिकाए रखने के लिए एक लंबी अवधि की योजना जरूरी है.''
सरकार के किसी भी हस्तक्षेप के अभाव में अब केयर्न ने ही शहर की जरूरतों को पूरा करने के लिए कुछ प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू किए हैं. उसने यहां के बच्चों को ऑडियो-वीडियो से अंग्रेजी सिखाने के लिए स्थानीय शिक्षिका मोहिनी चौधरी को नियुक्त किया है. एक अन्य पाठ्यक्रम में युवाओं को कारीगरी और मोबाइल मरम्मत का प्रशिक्षण दिया जा रहा है.
पर एम.एल. जैन दूरदृष्टि के हिमायती हैं, ''यहां से मुंबई की कोई सीधी ट्रेन नहीं है. चार्टर्ड विमान उतरते हैं पर कोई नियमित उड़ान नहीं. यहां लिग्नाइट की खोज हुई है पर कई खनिज दबे पड़े हैं. '' यहां भी जैसलमेर जितने ही रेत के खूबसूरत टीले बनते हैं. पर सीमावर्ती इलाकों में आवाजाही पर कड़ी बंदिशों के चलते जिले का बड़ा भूभाग अब भी यहां के निवासियों के लिए अछूता है. खैर! कल का गरीब गंवई बाड़मेरी आज बाड़मेराइट बन चुका है और यह सब कच्चे तेल और खदानों की देन है. बाड़मेर में पैदा होना अब अभिशाप नहीं.