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मंगलवार, 21 जनवरी 2020

जैसलमेर इतिहास का कालखण्ड अब खण्ड खण्ड हो रहा ,पुरा सम्पदाएँ सरंक्षण के आभाव में दम तोड़ रही

जैसलमेर इतिहास का कालखण्ड अब खण्ड खण्ड हो रहा ,पुरा सम्पदाएँ सरंक्षण के आभाव में दम तोड़ रही 

सिर कीजे काठ की, देह कीजै पाषण। बख्तर कीजै लौह का फिर देखो जैसाण।।
सिर कीजे काठ की, देह कीजै पाषण।
बख्तर कीजै लौह का फिर देखो जैसाण।।










 विश्व विख्यात जैसलमेर अब 863 वर्ष का हो चला है। इसकी स्थापना यदुकुल कृष्णवां भाटी राजपूत राजा जैसल ने 12वीं शताब्दी में की थी। इससे पहले भाटियों का राज्य लौद्रवा था जिसे मोहम्मद गौरी की सेना ने राजा भोजदेव के भतीजे जैसल के सहयोग से उजाड़ दिया था। इसके बावजूद आज भी जैसलमेर सैलानियों की पहली पसंद बना हुआ है। जहां हर शाम इन्हीं सैलानियों की बदौलत इतनी रंगीन होती है कि शायद ही थार के मरूस्थल में कहीं और होती होगी।

रेत के समंदर में दफन है प्राचीन सभ्यता के अवशेष

कला अनुरागियों की पहली पसंद यह मरूस्थलीय शहर सैलानियों की पहली पसंद है। पाकिस्तान की सीमा जैसलमेर से लगती है। यह शहर प्राचीनकाल से ही सभ्यता एवं संस्कृति का पालना रहा है। इसके पश्चिम दिशा में मोहनजोदड़ो व हड़प्पा सभ्यता की खोज हो चुकी है। जैसलमेर की धरती में भी प्राचीन सिन्धु घाटी सभ्यता के खण्डहर रेत में दबे पड़े हैं।

जैसलमेर की प्रमुख विशेषताएं

जैसलमेर के किले को सोनार का किला भी कहते हैं। यह किला अपने वीर शासकों की गौरवमयी गाथाओं, रीति-रिवाजों, परम्पराओं और विशाल रेतीले धोरों की छाती पर बनी सुन्दर गगनचुम्बी हवेलियों, अपने लोकगीत संगीत, लंगा गायन के लिए भी विशेष प्रसिद्ध है।

पीले पत्थरों से बने सोनार किले को

करीब सात  वर्ष पहले यूनेस्को ने विश्व धरोहर के रूप में मान्यता प्रदान की है। इसके बाद भी सोनार के किले के संरक्षण की ठोस योजना सरकार के पास नहीं है। यह किला जर्जर होता जा रहा है। किले में परकोटे के ऊपर से मल-मूत्र और गंदा पानी बहता है। इससे किले की नींव कमजोर हो रही है।किले के मूल स्वरुप के साथ अवैध  होटल व्यवसायी न केवल छेड़छाड़ कर रहे  बल्कि किले में मनमाफिक अवैध निर्माणों से किले को बदरंग भी कर रहे,

किले को सर्वाधिक नुकसान परम्परागत जल निकासी की व्यवस्था बिगडऩे से हो रहा है। फलस्वरूप गंदी नालियों का और वर्षा का पानी किले की नींव में रिस रहा है तथा सम्पूर्ण किले को कमजोर कर रहा है। परकोटे व बुर्जों में दरारें आ रही हैं। किले के संरक्षण के नाम पर देश विदेश की अनेक संस्थाएं दिल्ली में बैठी करोडों रुपए एकत्रित कर रही हैं। लेकिन किले को वास्तविक समस्या पर इन संस्थानों का ध्यान नहीं है। किले के भीतर आवासीय घरों में दरारें आ रही हैं। घरों से निकलने वाला गंदा पानी भी पहाड़ों को कमजोर कर रहा है।

लावारिस पड़ी 84 गांवों की सम्पदा

 मरूप्रदेश में पालीवाल ब्राह्मणों ने 84 गांव बसाए थे। पालीवालों ने यहां कृषि ओर व्यापार का खूब विकास किया। यह एक सम्पन्न समुदाय था। जो कि नाराज होकर एक ही रात में अपने आलीशान मकान व अन्य जायदाद छोड़ कर दो सौ वर्ष पहले कहीं चला गया। पालीवालों के इन गांवों की बसावट कुएं तालाब खड़ीन श्मशान देवी देवताओं के मंदिरों आदि के कलात्मक व ऐतिहासिक अवशेष इन गांवों में चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। पालीवालों के बड़े गांव कुलधरा व खाभा के संरक्षण के कुछ प्रयास हुए। बाकी के गांवों में अतिक्रमण हो रहे हैं। नष्ट हो रहे हैं और रेत में दब रहे हैं।

यह है विरासत का खजाना
जैसलमेर में गुप्तकालीन एवं मौर्य काल के अनेक खण्डित मंदिर व मूर्तियां हैं। लौद्रवा, चूंधी, संचियाय में सैकडों पाषाण प्रतिमाएं खम्भे तराशे हुए पत्थर असुरक्षित पड़े हैं। ये करीब पन्द्रह सौ वर्ष पहले के बने हुए हैं। इनकी सुरक्षा नहीं होने से पुरा महत्व की यह सम्पदा अब चोरी होने लगी है। काफी संपदा देत में दबने लगी है और काफी दब चुकी है।

भाटी शासकों और  जैन सेठों आदि ने यहां गांव गांव में सुन्दर तालाब कुएं बावडियां आम आदमी के हितार्थ व्यास बुझाने के लिए बनवाए थे। इनके बेजोड़ घाट छतरियां अब क्षीण होकर गिरने लगे हैं। इनकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है।

इतने किले कहीं और नहीं ,सरंक्षण का अभाव

जैसलमेर के जागीरदारो के किले जैसे गणेाया रामगढ़, फतेहगढ़ लाठी शाहगढ़, हड्डा ,फतेहगढ़ ,घोटारू ,किशनगढ़ , लखा ,देवीकोट, मोहनगढ़, नाचना,देवा  आदि रेत के धोरों के बीच बने किले हैं जो कि स्थापत्य कला की दृष्टि से अनूठी कृतियां हैं। इसकी भी कोई देखरेख नहीं है तथा खण्डहर में बदल रहे हैं।

१8वीं शताब्दी में बनी दीवान सालमसिंह की हवेली के अनेक झरोखे गिर गए हैं। इसी प्रकार पटवों की हवेली में अनेक जगह दरारें आ गई हैं। एक हवेली के गोखड़े एवं कंगूरे गिर गए हैं। छतों से वर्षा का पानी रिस रहा है।
अमरसागर के चारों ओर अवैध खनन हो रहा है। इस कारण अब अमरसागर में तालाब में पानी आना बन्द हो गया है। इस तालाब का अस्तित्व संकट में पड़ गया है। राजाओं के श्मशानघाट बड़ाबाग में प्राचीन एवं ऐतिहासिक छतरियां हैं। इन पर महत्वपूर्ण शिलालेख लगे हुए हैं। अब ये शिलालेख देखभाल के अभाव में दयनीय स्थिति में हैं। यह जिंदा इतिहास को जबरन मौत देने जैसा है।

वैशाखी में 12वीं से 16वीं शताब्दी के शिव मंदिर और बावडियां हैं। यह प्राचीन तीर्थ भी है। यहां चारों तरफ देवी-देवताओं की मूर्तियों के भग्नावशेष लावारिस पड़े हैैं। गजरूपसागर की पठियालें व छतरियों के अनेक पत्थर चोरी हो चुके हैं।

गुलाबसागर प्राचीन देवी शक्तिपीठ तनोट घंटियाली आदि अपना प्राचीन स्वरूप खो रहे हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न मंदिर, पालीवालों के 84 प्राचीन गांव में स्थित खड़ीन एवं अन्य पुरा सम्पदा का खजाना बिखरा पड़ा है। लौद्रवा स्थित मूमल की मेड़ी के अनेक पत्थर अब दिखते ही नहीं हैं। 11वीं सदी के इस स्थान पर सेनापति शहाबुद्दीन गौरी एवं राजा भोज के बीच जंग हुई थी। जंग के बाद लौद्रवा पूर्ण रूप से उजड़ गया था। इस स्थान पर भी नई बस्तियां बस गई हैं। इतिहास का यह महत्वपूर्ण कालखण्ड अब खण्ड खण्ड हो रहा है।

रविवार, 23 नवंबर 2014

इतिहास जब सिवाना नरेश ने मरोड़ी अपनी मूंछे. . .और तिलमिला उठे सम्राट अकबर

इतिहास 
जब सिवाना नरेश ने मरोड़ी अपनी मूंछे. . .और तिलमिला उठे सम्राट अकबर
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राव कल्ला रायमलोत की गौरवगाथा
जीत जाँगिड़ सिवाणा
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आगरा के किले में अकबर का खास दरबार लगा हुआ था | सभी राजा, महाराजा, राव, उमराव, खान आदि सभी खास दरबारी अपने अपने आसनों पर जमे हुए थे | आज बादशाह अकबर बहुत खुश था,सयंत रूप से आपस में हंसी-मजाक चल रहा था| तभी बादशाह ने अनुकूल अवसर देख बूंदी के राजा भोज से कहा - "राजा साहब हम चाहते है

आपकी छोटी राजकुमारी की सगाई शाहजादा सलीम के साथ हो जाये |"

राजा भोज ने तो अपनी पुत्री किसी मलेच्छ को दे दे ऐसी कभी कल्पना भी नहीं की थी | उसकी कन्या एक मलेच्छ के साथ ब्याही जाये उसे वह अपने हाड़ावंश की प्रतिष्ठा के खिलाफ समझते थे | इसलिए राजा भोज ने मन ही मन निश्चय किया कि- वे अपनी पुत्री की सगाई शाहजादा सलीम के साथ हरगिज नहीं करेंगे |

यदि ऐसा प्रस्ताव कोई और रखता तो राजा भोज उसकी जबान काट लेते पर ये प्रस्ताव रखने वाला भारत का सम्राट अकबर था जिसके बल, प्रताप, वैभव के आगे सभी राजा महाराजा नतमस्तक थे | राजा भोज से प्रति उत्तर सुनने के लिए अकबर ने अपनी निगाहें राजा भोज के चेहरे पर गड़ा दी | राजा भोज को कुछ ही क्षण में उत्तर देना था वे समझ नहीं पा रहे थे कि - बादशाह को क्या उत्तर दिया जाये | इसी उहापोह में उन्होंने सहायता के लिए दरबार में बैठे राजपूत राजाओं व योद्धाओं पर दृष्टि डाली और उनकी नजरे सिवाना के शासक कल्ला रायमलोत पर जाकर ठहर गयी |

कल्ला रायमलोत राजा भोज की तरफ देखता हुआ अपनी भोंहों तक लगी मूंछों पर निर्भीकतापूर्वक बल दे रहा था| राजा भोज को अब उतर मिल चुका था उसने तुरंत बादशाह से कहा - "जहाँपनाह मेरी छोटी राजकुमारी की तो सगाई हो चुकी है|"

"किसके साथ ?" बादशाह ने कड़क कर पूछा |

"जहाँपनाह मेरे साथ, बूंदी की छोटी राजकुमारी मेरी मांग है |" अपनी मूंछों पर बल देते हुए कल्ला रायमलोत ने दृढ़ता के साथ कहा | यह सुनते ही सभी दरबारियों की नजरे कल्ला को देखने लगी इस तरह भरे दरबार में बादशाह के आगे मूंछों पर ताव देना अशिष्टता ही नहीं बादशाह का अपमान भी था | बादशाह

भी समझ गया था कि ये कहानी अभी अभी गढ़ी गयी है पर चतुर बादशाह ने नीतिवश जबाब दिया _

"फिर कोई बात नहीं | हमें पहले मालूम होता तो हम ये प्रस्ताव ही नहीं रखते |" और दुसरे ही क्षण बादशाह ने वार्तालाप का विषय बदल दिया|

यह घटना सभी दरबारियों के बीच चर्चा का विषय बन गयी| कई दरबारियों ने इस घटना के बाद बादशाह को कल्ला के खिलाफ उकसाया तो कईयों ने कल्ला रायमलोत को सलाह दी आगे से बादशाह के आगे मूंछे नीची करके जाना बादशाह

तुमसे बहुत नाराज है | पर कल्ला को उनकी किसी बात की परवाह नहीं थी | लोगों की बातों के कारण दुसरे दिन जब कल्ला दरबार में हाजिर हुआ तो केसरिया वस्त्र (युद्ध कर मृत्यु के लिए तैयारी के प्रतीक) धारण किये हुए था | उसकी मूंछे आज और भी ज्यादा तानी हुई थी| बादशाह उसके रंग ढंग देख समझ गया था और मन ही मन सोच रहा था - "एेसा बांका जवान बिगड़ बैठे तो क्या करदे |" दुसरे ही दिन कल्ला बिना छुट्टी लिए सीधा बूंदी की राजकुमारी हाड़ी को ब्याहने चला गया और उसके साथ फेरे लेकर आगरा के लिए रवाना हो गया | हाड़ी ने भी कल्ला के हाव-भाव देख और आगरा किले में हुई घटना के बारे में सुनकर अनुमान लगा लिया था कि -उसका सुहाग ज्यादा दिन तक रहने वाला नहीं| सो उसने आगरा जाते कल्ला को संदेश भिजवाया - "हे प्राणनाथ ! आज तो बिना मिले ही छोड़ कर आगरा पधार रहे है पर स्वर्ग में साथ चलने का सौभाग्य जरुर देना |"

"अवश्य एेसा ही होगा |" जबाब दे कल्ला आगरा आ गया | उसके हाव भाव देखकर बादशाह अकबर ने उसे काबुल के उपद्रव दबाने के लिए लाहौर भेज दिया,लाहौर में उसे केसरिया वस्त्र पहने देख एक मुग़ल सेनापति ने व्यंग्य से कहा - "कल्ला जी अब ये केसरिया वस्त्र धारण कर क्यों स्वांग बनाये हुए हो ?" "राजपूत एक बार केसरिया धारण कर लेता है तो उसे बिना निर्णय के उतारता नहीं | यदि तुम में हिम्मत है तो उतरवा दो |" कल्ला ने कड़क कर कहा |

इसी बात पर विवाद होने पर कल्ला ने उस मुग़ल सेनापति का एक झटके में सिर धड़ से अलग कर दिया और वहां से बागी हो सीधा बीकानेर आ पहुंचा | उस समय

बादशाह के दरबार में रहने वाले प्रसिद्ध कवि बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराजजी जो इतिहास में पीथल के नाम से प्रसिद्ध है बीकानेर आये हुए थे,कल्ला ने उनसे कहा - "काकाजी मारवाड़ जा रहा हूँ वहां चंद्रसेनजी की अकबर के विरुद्ध सहायतार्थ युद्ध करूँगा | आप मेरे मरसिया (मृत्यु गीत) बनाकर सुना दीजिये|" पृथ्वीराज जी ने कहा -"मरसिया तो मरने के उपरांत बनाये जाते है तुम तो अभी जिन्दा हो तुम्हारे मरसिया कैसे बनाये जा सकते है|"

"काकाजी आप मेरे मरसिया में जैसे युद्ध का वर्णन करेंगे मैं आपको वचन देता हूँ कि मैं उसी अनुरूप युद्ध में पराक्रम दिखा कर वीरगति को प्राप्त होवुंगा।" कल्ला ने दृढ निश्चय से कहा |

हालाँकि पृथ्वीराजजी के आगे ये एक विचित्र स्थिति थी पर कल्ला की जिद के चलते उन्होंने उसके मरसिया बनाकर सुनाये | कल्ला अपने मरसिया गुनगुनाता जब मारवाड़ के सिवाने की तरफ जा रहा था तो उसे सूचना मिली कि अकबर की एक सेना उसके मामा सिरोही के सुल्तान देवड़ा पर आक्रमण करने जा रही है| कल्ला उस सेना से बीच में ही भीड़ गया और बात की बात में उसने अकबर की उस सेना को भागकर लुट लिया | इस बात से नाराज अकबर ने कल्ला को दण्डित करने जोधपुर के मोटा राजा उदयसिंह को सेना के साथ भेजा |

मोटाराजा उदयसिंह ने अपने दलबल के साथ सिवाना पर आक्रमण किया जहाँ कल्ला अद्वितीय वीरता के साथ लड़ते हुए

वीरगति को प्राप्त हुआ | कहते है कि "कल्ला का लड़ते लड़ते सिर कट गया था फिर भी वह मारकाट मचाता रहा आखिर घोड़े पर सवार उसका धड़ उसकी पत्नी हाड़ी के पास गया,उसकी पत्नी ने जैसे गंगाजल के छींटे उसके धड़ पर डाले उसी वक्त उसका धड़ घोड़े से गिर गया जिसे लेकर हाड़ी चिता में प्रवेश कर उसके साथ स्वर्ग सिधार गयी| आज भी उनकी स्मृति में सिवाना दुर्ग पर हर वर्ष मेला लगता हैं और सिवानावासी उनकी समाधी पर श्रद्धा से शीश झुकाते हैं|

आज भी राजस्थान में मूंछों की मरोड़ का उदाहरण दिया जाता है तो कहा जाता है-

"मूंछों की मरोड़ हो तो कल्ला रायमलोत

जैसी |"

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

foto....मुग़ल संस्कृति और स्थापत्य कला का प्रतिक हें किशनगढ़ का किला











मुग़ल संस्कृति और स्थापत्य कला का प्रतिक हें किशनगढ़ का किला
चन्दन सिंह भाटी 

जैसलमेर के सांस्कृतिक इतिहास में यहाँ के स्थापत्य कला का अलग ही महत्व है। किसी भी स्थान विशेष पर पाए जाने वाले स्थापत्य से वहां रहने वालों के चिंतन, विचार, विश्वास एवं बौद्धिक कल्पनाशीलता का आभास होता है। जैसलमेर में स्थापत्य कला का क्रम राज्य की स्थापना के साथ दुर्ग निर्माण से आरंभ हुआ, जो निरंतर चलता रहा। यहां के स्थापत्य को राजकीय तथा व्यक्तिगत दोनो का सतत् प्रश्रय मिलता रहा। इस क्षेत्र के स्थापत्य की अभिव्यक्ति यहां के किलों, गढियों, राजभवनों, मंदिरों, हवेलियों, जलाशयों, छतरियों व जन-साधारण के प्रयोग में लाये जाने वाले मकानों आदि से होती है।इसी कड़ी में जैसलमेर का पाकिस्तान सरहद पर निर्मित किला हे किशनगढ़ .समय की मार झेलते झेलते आज जर्जर अवस्था में पहुँच गया ,हें किशनगढ़ का किला अपने आप में अनूठा हे सुरक्षा के लिहाज़ हे मुग़ल कालीन शैली में इसे बनाया गया था .इसकी विशेषता हे की इस किले में एक बारगी प्रवेश करने के बाद किसी को ढूँढना काफी मुश्क्किल था .इसके ख़ुफ़िया रास्ते इसके निर्माण की खाशियत हें ,

जैसलमेर इतिहासकारों के अनुसार सीमावर्ती इलाके में बना किशनगढ़ दुर्ग मुस्लिम शैली में बना हुआ है। इसका पुराना नाम दीनगढ़ था। इसका निर्माण महारावल मूलराज ने 1820 से 1876 ई. के मध्य करवाया था। 1965 के भारत पाक युद्ध में इस किले को खासा नुकसान पहुंचा था। इस किले में देवी की बड़ी बड़ी प्राचीन मूर्तियां भी है,मुग़ल शैली की निर्माण कला अनायास ही अपनी और आकर्षित करती हें ,जैसलमेर के किले जहां पत्थरो से निर्मित हें वही किशनगढ़ का किला पूर्णतया ईंटो से बना हें ,इस किले को हासिल करने के लिए मुग़ल शासको ने काफी प्रयास किये थे .अविभाजित भारत के समय इसका निर्माण किया था इसके निर्माण की शैली वर्तमान पाकिस्तान के कई किले के सामान हें ,इसकी निर्माण कला अनायास को अपनी और आकर्षित करती हें .

जैसलमेर राज्य मे हर २०-३० किलोमीटर के फासले पर छोटे-छोटे दुर्ग दृष्टिगोचर होते हैं, ये दुर्ग विगत १००० वर्षो के इतिहास के मूक गवाह हैं। मध्ययुगीन इतिहास में इनका परम महत्व था। ये राजनैतिक आवश्यकतानुसार निर्मित कराए जाते थे। दुर्ग निर्माण में सुंदरता के स्थान पर मजबूती तथा सुरक्षा को ध्यान में रखा जाता था। परंतु यहां के दुर्ग मजबूती के साथ-साथ सुंदरता को भी ध्यान मं रखकर बनाया गया था। दुर्गो में एक ही मुख्य द्वारा रखने के परंपरा रही है। किशनगढ़, शाहगढ़ आदि दुर्ग इसके अपवाद हैं। ये दुर्ग पक्की ईंटों के बने हैं। इस दुर्ग में आठ से अधिक बुर्ज बने हें । ये दुर्ग को मजबूती, सुंदरता व सामरिक महत्व प्रदान करते थे।जैसलमेर राज्य भारत के मानचित्र में ऐसे स्थल पर स्थित है जहाँ इसका इतिहास में एक विशिष्ट महत्व है। भारत के उत्तर-पश्चिमी सीमा पर इस राज्य का विस्तृत क्षेत्रफल होने के कारण अरबों तथा तुर्की के प्रारंभिक हमलों को यहाँ के शासकों ने न केवल सहन किया वरन दृढ़ता के साथ उन्हें पीछे धकेलकर शेष राजस्थान, गुजरात तथा मध्य भारत को इन बाहरी आक्रमणों से सदियों तक सुरक्षित रखा। राजस्थान के दो राजपूत राज्य, मेवाइ और जैसलमेर अनय राज्यों से प्राचीन माने जाते हैं, जहाँ एक ही वंश का लम्बे समय तक शासन रहा है। हालाँकि मेवाड़ के इतिहास की तुलना में जैसलमेर राज्य की ख्याति बहुत कम हुई है, इसका मुख्य कारण यह है कि मुगल-काल में बी जहाँ मेवाड़ के महाराणाओं की स्वाधीनता बनी रही वहीं जैसलमेर के महारावलों द्वारा अन्य शासक की भाँती मुगलों से मेलजोल कर लिया जो अंत तक चलता रहा। आर्थिक क्षेत्र में भी यह राज्य एक साधारण आय वाला पिछड़ा क्षेत्र रहा जिसके कारण यहाँ के शासक कभी शक्तिशाली सैन्य बल संगठित नहीं कर सके। फलस्वरुप इसके पड़ौसी राज्यों ने इसके विस्तृत भू-भाग को दबा कर नए राज्यों का संगठन कर लिया जिनमें बीकानेर, खैरपुर, मीरपुर, बहावलपुर एवं शिकारपुर आदि राज्य हैं। जैसलमेर के इतिहास के साथ प्राचीन यदुवंश तथा मथुरा के राजा यदु वंश के वंशजों का सिंध, पंजाब, राजस्थान के भू-भाग में पलायन और कई राज्यों की स्थापना आदि के अनेकानेक ऐतिहासिक व सांस्कृतिक प्रसंग जुड़े हुए हैं।


आज़ादी के बाद जैसलमेर रियासत के समय पाकिस्तान के लडाको हूर्रो का काफी आंतक किशनगढ़ में रहा .उस दौरान हुर्रो से निपटने के लिए जैसलमेर के तत्कालीन महारावल ने जिम्मेदारी सत रामजी हजूरी को सौंपी ,थी सत रामजी ने हुर्रो से धर्मेला कर इस समस्या से हमेशा के लिए छुटकारा पा लिया .

सदियों तक आवागमन के सुगम साधनों के आभाव में यह स्थान देश के अनय प्रांतों से लगभग कटा सा रहा। इस कारण बाहर के लोगों केकिशनगढ़ के बारे में बहुत कम जानकारी रही है। सामान्यत: लोगों की कल्पना में यह स्थान धूल व आँधियों से घिरा रेगिस्तान मात्र है। परंतु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है, इतिहास एवं काल के थपेड़े खाते हुए भी यहाँ प्राचीन, संस्कृति, कला, परंपरा व इतिहास अपने मूल रुप में विधमान रहा तथा यहाँ के रेत के कण-कण में पिछले आठ सौ वर्षों के इतिहास की गाथाएँ भरी हुई हैं। जैसलमेर राज्य ने मूल भारतीय संस्कृति, लोक शैली, सामाजिक मान्यताएँ, निर्माणकला, संगीतकला, साहित्य, स्थापत्य आदि के मूलरुपंण बनाए हुए .

किशनगढ़ किले के जिर्नोदार के लिए पुरातत्व विभाग ने ढाई करोड़ रुपये स्वीकृत किये थे मगर इस बजट का किशनगढ़ के किले में इस्तेमाल नज़र नहीं आ रहा .आज चमगादड़ो का डेरा बन चुका यह की सरंक्षण की दरकार रखता हें ,इस किले का जिर्णोदार कराया जाये तो यह जैसलमेर आने वाले पर्यटकों  के लिए ख़ास आकर्षण का केंद्र बन सकता हें .

शनिवार, 5 मई 2012

श्रीनाथजी का ब्रज से निष्क्रमण - मेवाड नाथद्वारा तक इतिहास

श्रीनाथजी का ब्रज से निष्क्रमण - मेवाड नाथद्वारा तक इतिहास







तत्कालिन मुगल सम्राट औरंगजेब द्वारा दमन :- मुगल सम्राट औरंगजेब का शासन काल (सं. १७०५-१७६४) ब्रज के हिन्दुओं के लिए बडे संकट का युग था। उस धर्मोन्ध बादशाह ने राज्याधिकार प्राप्त करते ही अपने मजहबी तास्मुब के कारण ब्रज के हिन्दुओं को बलात् मुसलमान बानाने का भारी प्रयत्न किया, और उनके मन्दिर-देवालयों को नष्ट-भ्रष्ट करने का प्रबल अभियान चलाया था। ब्रज के धर्माचार्यों और भक्तजनों के लिए जीवन मरण की समस्या पैदा हो गई थी। पुष्टि संप्रदाय के वल्लभवंशीय गोस्वामियों को तो अपना सर्वनाश ही होता दिखलाई देने लगा, कारण था कि उनका मुगल बादशाहों से विशेष संबंध रहा था और वे उनसे लाभान्वित भी हुए थे तथा मन्दिर देवालयों में बड़े आनन्द और धूमधाम के धार्मिक आयोजन हुआ करते थे, अतः वे औरंगजेब की आँखों में सबसे अधिक खटक रहे थे।

ब्रज से निष्क्रमण :- उस विषम परिस्थति में व्रज के विविध धर्माचर्यागण अपनी पौराणिक देव मूर्तियों (स्वरूपों) और धार्मिक पोथियों की सुरक्षा के लिए व्रज को छोड़ कर अन्यत्र जाने को विवश हो गए । वल्लभवंशीय गोस्वमियों ने अपने सेवा स्वरूप, धार्मिक ग्रंथ तथा आवश्यक सामग्री के साथ व्रज से हटकर अन्यत्र चले जाने का निश्चय कर लिया। पुष्टि संप्रदाय से सर्वप्रधान सेवा स्वरूप श्रीनाथजी का गोवर्धन के जतीपुरा गोपालपुर से हटाया जाना वल्लभवंशीय गोस्वामियों के ब्रज से निष्क्रमण, व्रज के धार्मिक इतिहास की एक अत्यन्त दुःख घटना थी।



श्रीनाथजी तथा नवनीतप्रियजी की सेवा व्यवस्था का प्रमुख उत्तरदायित्व श्री गिरिधर जी के प्रथम गृह की टीकेत गादी को रहा है उस काल में श्री दामोदर जी इस धर के तिलकायत थे, किन्तु वे १५ वर्ष के बालक थें। इसलिए उनकी तरफ से उनके बड़े काका गोविन्द जी श्रीनाथजी की सेवा और प्रथम गृह की व्यवस्था सम्बंधी कार्यो का संचालन के लिए उन्हे गिरिराज के मन्दिर से हटाकर गुप्त रीति से अन्यत्र ले जाने का निश्चय किया।



एक दिन सायंकाल होते ही श्रीनाथजी को चुपचाप रथ में विराजमान किया गया। उनके साथ कुछ धार्मिकग्रन्थ और आवश्यक सामग्री रख अत्यन्त गुप्त रीति से आगरा की ओर हाक दिया गया। रथ के साथ श्री गोविन्दजी, उनके दोनों अनुज श्री बालकृष्णजी और श्रीवल्लभजी कुछ अन्य गोस्वामी बालक श्रीनाथजी की कृपापात्र एक व्रजवासिन गंगाबाई तथा कतिपय व्रजवासी थे। यह कार्यवाही ऐसी गुप्त रीति से की गई थी कि किसी को कानों-कान तक खबर भी नहीं हुई।

जिस दिन श्रीनाथजी ने गोवर्धन छोड़ा था उस दिन संवत् १७२६ की आश्विन शुक्ला १५ शुक्रवार था। यह तिथि ज्योतिष गणना से ठीक हुई थी । श्रीनाथजी के पधारने के पश्चात् औरंगजेब की सेना मन्दिर को नष्ट करने के लिए गिरिराज पर चढ दौडी थी। उस समय मन्दिर की रक्षा के लिए कुछ थोडे से ब्रजवासी सेवक ही वहाँ तैनात थे। उन्होने वीरता पूर्वक आक्रमणकारियों का सामना किया था किन्तु वे सब मारे गये। उस अवसर पर मन्दिर के दो जलघरियों ने जिस वीरता का परिचय दिया था उसका साम्प्रदायिक ढंग से अलौकिक वर्णन वार्ता में हुआ है। आक्रमणकारियों ने मन्दिर को नष्ट-भ्रष्ट कर मस्जिद बनवा दी थी।

श्रीनाथजी की यात्रा और मेवाड़ की ओर प्रवास :- गेवर्धन से चलकर श्रीनाथजी का रथ रातो-रात ही आगरा पहुँच गया था। उस काल में आगरा में पुष्टि संप्रदाय के अनेक शिष्य सेवक थे। उनके सहयोग से वहाँ श्रीनाथजी को गुप्त रूप से कुछ काल तक रखा गया था। वहाँ उनकी नियमित सेवा-पूजा होती रही और यथा समय प्रभु का अन्नकूट भी किया गया। उसी काल में गोकुल का मुखिया विट्ठलदुबे श्री नवनीतप्रियजी के स्वरूप, बालतिलकायत, श्री दामोदर जी तथा प्रथम गृह की बहू-बेटियों को लेकर आगरा आ गया था। इस प्रकार सबके एकत्र हो जाने के उपरान्त आगरा छोड कर अन्यत्र जाने की तैयारी होने लगी। निष्कासित गोस्वामियो का वह दल आगरा से चलकर पर्याप्त समय तक विभिन्न हिन्दू राज्यों का चक्कर काटता रहा था। अंत में उन सबने मेवाड़ राज्य में प्रवेश किया और वहां उन्हे स्थायी रूप से आश्रय प्रदान किया। जब तक वे यात्रा में रहे श्रीनाथजी को बहुत छिपा कर रखा जाता था, और किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचकर ही अत्यन्त गुप्त रीति में उनकी सेवा-पूजा की जाती थी। जिन स्थानों पर श्रीनाथजी कुछ अधिककाल तक बिराजे थे, अथवा जहां उनका कोई विशेष उत्सव हुआ था, वहां उनकी चरण चौकियां बनाई गई। ऐसी अनेक 'चरण चोकिया' अभी तक विद्यमान है।आगरा से चलकर ग्वालियर राज्य में चंबल नदी के तटवर्ती दंडोतीघाट नामक स्थान में मुकाम किया गया। वहां कृष्णपुरी में श्रीनाथजी बिराजे थे। उस स्थान से चलकर वे कोटा गये, जहां कृष्णविलास की पद्यमशिला पर श्रीनाथजी चार महिने तक बिराजे रहे थे। कोटा से पुष्कर होते हुए कृष्णगढ़ पधराये गये थे। वहां नगर से दो मील दूर पहाडी पर पीताम्बरजी की नाल में श्रीनाथजी बिराजे थे। कृष्णगढ से चलकर जोधपुर राज्य में बंबाल और बीसलपुर स्थानों से होते हुए चाँपसनी पहुँचे थे, जहाँ श्रीनाथजी चार-पांच महिने तक बिराजमान रहे थे। उसी स्थान पर सन् १७२७ के कार्तिक मास में उनका अन्नकूट उत्सव किया गया था। अंत में मेवाड़ राज्य के सिंहाड़ नामक स्थान में पहुँचकर स्थायीरूप से बिराजमान हुए थे। उस काल में मेवाड का राजा राजसिंह (शासन-सं. १६८६ से सं. १७३७) सर्वाधिक शक्तिशाली हिन्दू नरेश था। उसने औरंगजेब की उपेक्षा कर पुष्टि संप्रदाय के गोस्वामियों को आश्रय और संरक्षण प्रदान किया था। सं. १७२८ कार्तिक में श्रीनाथजी सिंहाड़ पहुँचें थे वहा मन्दिर बन जाने पर फाल्गुन कृष्ण ७ शनिवार को उनका पाटोत्सव किया गया।



इस प्रकार श्रीनाथजी को गिरिराज के मन्दिर से हटाकर सिंहाड़ के मन्दिर में बिराजमान करने तक २ वर्ष, ४ महिने, ७ दिन का समय लगा था। उस काल में गोस्वामियों को और उनके परिवारों को नाना प्रकार के संकटों का सामना करना पडा, किन्तु वे अपने आराध्य देव श्रीनाथजी को सुरक्षित स्थान पर पहुँचाने में सफल हुए थे। श्रीनाथजी के कारण मेवाड़ का वह अप्रसिद्ध सिंहाड़ ग्राम श्रीनाथद्वारा के नाम से सम्पूर्ण भारत में सुविखयात हो गया। श्रीनाथजी का स्वरूप व्रज में १७७ वर्ष तक रहा था। श्रीनाथजी अपने प्राकट्य सं. १५४९ से लेकर सं. १७२६ तक व्रज में सेवा स्वीकारते रहे।