थार महोत्सव’’थाने उडीके बाड़मेर’’
बाड़मेर जिला लोक संस्कृति से परिपूर्ण हैं। गांव ढाणी पगपग पर लोक कला बिखरी पडी हैं। लोक कला को समेटने का प्रयास बाड़मेर थार महोत्सव के जरिए किया गया। यह महोत्सव आगे जकार थार महोत्सव बना।
थार की थली में तीन दिवसीय थार महोत्सव का आगाज 11वीं तथा 12 शताब्दी के ऐतिहासिक प्रस्त नगरी किराडू में होता हैं। शास्त्रीय संगीत से शाम सजती हैं। गजल गायकी के साथसाथ भजन की स्वर लहरियां इन प्राचीन भग्नावेशों में गुंजायमान होती हैं। विश्व पर्यटन मानचित्र में पहचान कायम करने का प्रयास जिला प्रशासन द्वारा थार महोत्सव के जरिए किया जा रहा हैं। देशी विदेशी शैलानियों को थार की थली की तरफ आकर्षिक करने के लिये इस महोत्सव में नए, रोचक एवं दिलचस्प कार्यक्रमों का समावेश किया गया। लोक संस्कृति से रूबरू कराते ख्यातनाम देशी कलाकारों को आमंत्रित किया जाता हैं।
इस महोत्सव में हस्त शिल्प मेले का आयोजन किया जाता हैं। जिसमें स्थानीय हस्तशिल्पकारों के हाथों से तैयार काष्ठ कला के फर्नीचर, कांच कशीदाकारी के वस्त्र, खादी वस्त्र, कम्बलें, पट्टु जैसे उत्पादन मेले की शोभा ब़ाते हैं। शोभा यात्रा का दिलकश नजारा सजेधजे युवकयुवतियां, पारम्परिक वेशभूषा पहने बालाएं जो सिरों पर कलश लेकर शोभा यात्रा की अगुवाई करती हैं। इसी संस्कृति से रूबरू कराती हैं। यह शोभायात्रा आदर्श स्टेडियम जाकार समाप्त होती हैं। इसके साथ ही थार की संस्कृति से रूबरू कराती विभिन्न प्रतियोगिताओं का दौर आरम्भ होता हैं। सर्वाधिक लोकप्रिय प्रतियोगिता थारश्री तथा थार सुन्दरी के प्रति दर्शको का जबदस्त रूझान हैं। थारश्री प्रतियोगिता में सुन्दर, छैल, छबीले नौजवान तथा थार सुन्दरी प्रतियोगिता में मृगनयनी अनुपम सौन्दर्य प्रतीक नव युवतियां चाव से भाग लेती हैं।
युवको की बडीबडी नशीली आंखे, रोबदार चेहरा, बी हुई दा़ी व रोबीली मूंछे थार संस्कृति का पहनावा कुर्ता, धोती एवं साफा पहना वीर लगते हैं। गले में परम्परागत आभूषण इनके चेहरे की सुन्दरता ब़ाते हैं।
परम्परागत मारवाड़ी वेशभूषा में सजी धजी युवतियां शीरी, लैला, भारमली मूमल, जूलिएट के अनुपम सौन्दर्य की याद ताजा कर देती हैं। इस दिन पगडी बांधो प्रतियोगिता, दादा पोता दौड, भागता बाराती, छीना झपटी, रस्सा कस्सी जैसी प्रतियोगिताओं के साथ ऊंट श्रंृगार प्रतियोगिता दर्शको में रोमांच भरती हैं। वहीं परम्परागत ोल वादन प्रतियोगिता में ोल वादक दर्शको को थिरकने पर मजबूर कर देते हैं। दूसरे दिन महाबार थार की थली में लोक संस्कृति से सजी धजी गीत संगीत की सुरमई शाम का आनन्द लेते हैं। स्थानीय लोक संस्कृति लोकगीत, लोक गायकों द्वारा अविस्मरणीय प्रस्तुतियां दी जाती हैं। दमादम मस्त कलन्दर, निम्बुडा, होलियों में उड़े रे गुलाल, जवांई जी पावणा, जैसी प्रस्तुतियां लोक कलाकारों द्वारा रेतीले धोरो के मध्य चान्दनी रात में दी जाती हैं, जो दर्शको को झूमने पर मजबूर करती हैं। तीसरे व अंतिम दिन वीर दुर्गादास की कर्मस्थली कनाना में शीतला सप्तमी का विशाल मेला लगता हैं। जहां गैर नृतक सूर्योदय की पहली किरण के साथ माटी की सोंधी महक में अपनी स्वर लहरियां बिखेरते हैं। श्रेष्ठ गैर नृतक दलों को पुरस्कृत किया जाता हैं।
विदेशी पर्यटकों को अधिकाधिक जोड़ने के लिए इन्टरनेट पर थार महोत्सव के नाम से एक बेबवाईट भी डाली गई हैं। जिसके लिए विभिन्न पर्यटन एजेन्सियों से सम्पर्क साध अधिकाधिक विदेशी सैलानियों को जोड़ने का प्रयास किया। वहीं मनीष सोलंकी द्वारा निर्मित प्रतीक चिन्ह को चयन किया। थार के रेतीले धोरे, रेगिस्तान का जहाज ऊंट, उमंग भरे नृत्य इतिहास के साक्षी किराडू मन्दिर तथा रंगाई छपाई को दर्शाते इस प्रतीक में थार संस्कृति समाहित हैं। मनीष सोलंकी ने इसका शीर्षक ’’थाने उडीके बाड़मेर’’ दिया।