भारतीय इतिहास में 23 मार्च 1931 एक सुनहरे दोनों ही अर्थो में लिखा गया था। आज ही के दिन इंकलाब जिंदाबाद करने वाले क्रांतिकारी भगतसिंह तथा उनके साथी सुखदेव और राजगुरू को लाहौर जेल में फांसी दी गई थी। स्वयं को नास्तिक मानने वाले भगतसिंह कहते थे कि देश की आजादी सिर्फ अपने बूतेहासिल की जा सकती है और इसके लिये ईश्वर का सहारा लेना बेमानी है। शहीदे आजम के अनुसार ईश्वर की मौजूदगी का अहसास व्यकित को कमजोर बनाता है।
लाहौर जेल में बंदी धार्मिक स्वाभाव के क्रांतिकारी बाबा रणधीर सिंह द्वारा नास्तिक और घंमडी कहे जाने पर शहीदे आजम ने डायरी में अपना पक्ष रखते हुये लिखा,"मैं अहंकारवश सर्वशकितमान ईश्वर पर विश्वास नही करता हूं यह मानना गलत है। क्योंकि व्यकितगत अहंकार वह है जिसमें मनुष्य खुद को ईश्वर का प्रतिद्धंदी समझने लगे अथवा स्वंय को ही ईश्वर मानने लगे। ऎसा व्यक्ति किसी न किसी रूप में ईश्वर के अस्तित्व को मानता है जिसका अर्थ वह सात्विक है।" आर्यसमाजी परिवार में 28 सितम्बर 1907 को जन्मे भगतसिंह अपने विद्यार्थी जीवन में वह दो प्रहर गायत्री मंत्र का जाप करते थे और सिख होने के नाते लंबे केश रखते थे मगर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्हे अराजकतावादी नेता बाकु निन, साम्यवाद के पिता मार्क्स के अलावा क्रांतिकारी लेनिन और त्रात्सकी को पढ़ने का मौका मिला।
यह सभी नास्तिक थे और अपनी बदौलत एक बड़े लक्ष्य को हासिल कर सके। भगत सिंह ने लिखा, मैं एक मनुष्य हूं और इससे अधिक कुछ और नही। मेरा जन्म भारत माता को गुलामी के बेडियों से मुक्त कराने के लिये हुआ है और इसके लिये मुझे किसी ढाल अथवा सहारे की जरूरत नहीं। इसके लिये बटुकेश्वर दत्त समेत मेरा कोई मित्र मुझे नास्तिक अथवा घंमडी कहे इससे मेरा लक्ष्य अथवा सोच नही बदल सकती।
शहीदे आजम ने लिखा कि सीआईडी अधीक्षक न्यूमन ने 1927 में लाहौर में उनसे काकोरी कांड में शामिल क्रांतिकारियों का नाम बताने के बदले रिहाई का प्रस्ताव कि या जिसे नकारने पर उन्हें मौत की सजा भुगतने के लिये तैयार रहने की चेतावनी दी । जेल अधिकारियों ने सजा से बचने के लिये उन्हे न्यूमन की सलाह मानने अथवा दो समय ईश्वर का मंत्र जपने की सलाह दी। मगर नास्तिक होने के कारण उनकी यह तरकीब काम न आ सकी। भगतसिंह ने 12 वर्ष की अल्प आयु में ही जलियांवाला बाग नरसंहार से क्रोधित भगतसिंह ने जनरल डायर समेत समूची अंग्रेजी हुकूमत का सफाया करने का संकल्प ले लिया था।
वर्ष 1921 में महात्मा गांधी द्वारा अंग्रेज सरकार के खिलाफ चलाए गए असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिये भगत सिंह ने स्कूली शिक्षा की तिलांजलि दे दी थी । वर्ष 1922 में गोरखपुर के चौरीचौरा कांड से भगत बहुत व्यथित हुए थे और उन्होने अंहिसा का रास्ता छोड़कर देश को आजाद कराने का संकल्प लिया था। परिजनों की मर्जी के अनुसार विवाह से इंकार करने के सवाल पर क्रातिकारी का कहना था कि उच्च कोटि के प्रेम के लिये स्वतन्त्रता का वातावरण चाहिये और इसलिए वह देश को गुलामी के बंधन से आजाद किये बिना विवाह के लिये सोच भी नही सकते। लाहौर सेन्ट्रल जेल में फांसी पर झूलने से पहले उन्होने अंग्रेज मजिस्ट्रेट को कहा था कि आप बेहद भाग्यशाली है जो आपको यह देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है कि एक भारतीय अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये किस तरह हंसते हंसते फांसी पर लटकना पसंद करता है।
लाहौर जेल में बंदी धार्मिक स्वाभाव के क्रांतिकारी बाबा रणधीर सिंह द्वारा नास्तिक और घंमडी कहे जाने पर शहीदे आजम ने डायरी में अपना पक्ष रखते हुये लिखा,"मैं अहंकारवश सर्वशकितमान ईश्वर पर विश्वास नही करता हूं यह मानना गलत है। क्योंकि व्यकितगत अहंकार वह है जिसमें मनुष्य खुद को ईश्वर का प्रतिद्धंदी समझने लगे अथवा स्वंय को ही ईश्वर मानने लगे। ऎसा व्यक्ति किसी न किसी रूप में ईश्वर के अस्तित्व को मानता है जिसका अर्थ वह सात्विक है।" आर्यसमाजी परिवार में 28 सितम्बर 1907 को जन्मे भगतसिंह अपने विद्यार्थी जीवन में वह दो प्रहर गायत्री मंत्र का जाप करते थे और सिख होने के नाते लंबे केश रखते थे मगर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उन्हे अराजकतावादी नेता बाकु निन, साम्यवाद के पिता मार्क्स के अलावा क्रांतिकारी लेनिन और त्रात्सकी को पढ़ने का मौका मिला।
यह सभी नास्तिक थे और अपनी बदौलत एक बड़े लक्ष्य को हासिल कर सके। भगत सिंह ने लिखा, मैं एक मनुष्य हूं और इससे अधिक कुछ और नही। मेरा जन्म भारत माता को गुलामी के बेडियों से मुक्त कराने के लिये हुआ है और इसके लिये मुझे किसी ढाल अथवा सहारे की जरूरत नहीं। इसके लिये बटुकेश्वर दत्त समेत मेरा कोई मित्र मुझे नास्तिक अथवा घंमडी कहे इससे मेरा लक्ष्य अथवा सोच नही बदल सकती।
शहीदे आजम ने लिखा कि सीआईडी अधीक्षक न्यूमन ने 1927 में लाहौर में उनसे काकोरी कांड में शामिल क्रांतिकारियों का नाम बताने के बदले रिहाई का प्रस्ताव कि या जिसे नकारने पर उन्हें मौत की सजा भुगतने के लिये तैयार रहने की चेतावनी दी । जेल अधिकारियों ने सजा से बचने के लिये उन्हे न्यूमन की सलाह मानने अथवा दो समय ईश्वर का मंत्र जपने की सलाह दी। मगर नास्तिक होने के कारण उनकी यह तरकीब काम न आ सकी। भगतसिंह ने 12 वर्ष की अल्प आयु में ही जलियांवाला बाग नरसंहार से क्रोधित भगतसिंह ने जनरल डायर समेत समूची अंग्रेजी हुकूमत का सफाया करने का संकल्प ले लिया था।
वर्ष 1921 में महात्मा गांधी द्वारा अंग्रेज सरकार के खिलाफ चलाए गए असहयोग आंदोलन में शामिल होने के लिये भगत सिंह ने स्कूली शिक्षा की तिलांजलि दे दी थी । वर्ष 1922 में गोरखपुर के चौरीचौरा कांड से भगत बहुत व्यथित हुए थे और उन्होने अंहिसा का रास्ता छोड़कर देश को आजाद कराने का संकल्प लिया था। परिजनों की मर्जी के अनुसार विवाह से इंकार करने के सवाल पर क्रातिकारी का कहना था कि उच्च कोटि के प्रेम के लिये स्वतन्त्रता का वातावरण चाहिये और इसलिए वह देश को गुलामी के बंधन से आजाद किये बिना विवाह के लिये सोच भी नही सकते। लाहौर सेन्ट्रल जेल में फांसी पर झूलने से पहले उन्होने अंग्रेज मजिस्ट्रेट को कहा था कि आप बेहद भाग्यशाली है जो आपको यह देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है कि एक भारतीय अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये किस तरह हंसते हंसते फांसी पर लटकना पसंद करता है।