जोधपुर में है 471 साल पुराना प्रेम काव्य 'ढोला-मारू
जोधपुर शौर्य की धरती राजपुताना (राजस्थान) के झुलसते रेगिस्तान में परवान चढ़ी 'ढोला-मारूÓ की प्रेम गाथा में मानव हृदय के रागात्मक संबंध और प्रेम की मर्मस्पर्शी दास्तान सदियों बाद आज भी राजस्थानी गीतों-पोथियों और साहित्य में अमर है।
विश्व प्रसिद्ध प्रेम गाथाओं में शुमार 'ढोला-मारूÓ का नायक एक एेसा अद्वितीय प्रेमी है जिसने बचपन के अदृश्य प्रेम को पाने के लिए संघर्ष किया और मिलन के लिए कई बाधाओं को पार कर अन्तत: सुखद प्रेम की विजय पताका फहराई।
त्रिकोणीय प्रेम पर आधारित ढोला मारू के अत्यंत लोकप्रिय काव्य की 17 से 19 वीं शताब्दी की हस्तलिखित प्रतियां जोधपुर के प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में मौजूद हैं। करीब 471 साल पुराने बहुत से ग्रंथ तो सचित्र है। 'ढोला मारू रा दूहाÓ राजस्थान का एक जातीय काव्य है जिसमें राजस्थानी रहन-सहन, जीविका, आशा-आकांक्षा, मनोभावना के सुंदर चित्रण सहित राजस्थान की आत्मा अपने सरल एवं स्वाभाविक ढंग से झांकती दृष्टिगोचर होती है।
काव्य के अधिकांश भाग में मारू के प्रेम संदेश को अधिक स्थान मिला है। प्राविप्र जोधपुर के वरिष्ठ शोध सहायक डॉ. केके सांखला के अनुसार प्रेम कथानकों पर आधारित हस्तलिखित ग्रंथों में विसं-1819 के ढोला-मारू, 1890 के फूलजी-फूलयती, 1853 के मधु-मालती, 19 वीं सदी के सदैवच्छ सावलिंगा के सचित्र ग्रंथ संस्थान में मौजूद हैं। प्रेम की विरह गाथाओं के प्राचीन साहित्य पर अनेक शोधार्थियों की ओर से शोध प्रबंध भी प्रस्तुत किए जा चुके हैं।
ढोला एक, दीवानी दो
पूंगल की राजकुमारी मारवणी उर्फ मारू का विवाह बचपन में ही नरवरगढ के राजकुमार ढोला से होता है लेकिन ढोला जब युवा होता है तो उसका विवाह मालवा की राजकुमारी मालवणी से कर दिया जाता है।
उधर मारू को यौवन का प्रथम बसंत झकझोरने लगता है तब वह सपने में अपने प्रियतम की मधुर छवि देखती है और उसके विरह में व्याकुल होकर कबूतर -कुरजां व अन्य पक्षियों के माध्यम से प्रियतम ढोला को प्रेम का संदेश भेजती है। लेकिन मालवणी मारू के प्रेम संदेश को ढोला तक पहुंचने से पहले ही नष्ट कर देती है।
अन्त में कुछ ढाढी गायक मालवा पहुंचकर लोकगीतों के माध्यम से मारू की विरह गाथा को गायन के माध्यम से ढोला को सुनाने में सफल होते हैं। मारू की विरह वेदना सुनकर ढोला तत्काल मिलने के लिए अनेक बाधाओं को पार करते हुए तीव्रगामी ऊंट पर सवार होकर पूंगलगढ़ पहुंचता है।
बसंतोत्सव का महत्व
वाट्सएप-फेसबुक की युवा पीढ़ी प्राचीन संस्कृत साहित्य में प्रेम के प्रतीक के रूप में वर्णित सांस्कृतिक महत्व को भूल चुकी है। बसंत ऋतु में सदियों से परम्परागत रूप से मनाए जाने वाले बसंतोत्सव व मदनोत्सव का महत्व आज भी कायम है।
- कमलेश बहुरा, पुस्तकालयध्यक्ष, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर।
जोधपुर शौर्य की धरती राजपुताना (राजस्थान) के झुलसते रेगिस्तान में परवान चढ़ी 'ढोला-मारूÓ की प्रेम गाथा में मानव हृदय के रागात्मक संबंध और प्रेम की मर्मस्पर्शी दास्तान सदियों बाद आज भी राजस्थानी गीतों-पोथियों और साहित्य में अमर है।
विश्व प्रसिद्ध प्रेम गाथाओं में शुमार 'ढोला-मारूÓ का नायक एक एेसा अद्वितीय प्रेमी है जिसने बचपन के अदृश्य प्रेम को पाने के लिए संघर्ष किया और मिलन के लिए कई बाधाओं को पार कर अन्तत: सुखद प्रेम की विजय पताका फहराई।
त्रिकोणीय प्रेम पर आधारित ढोला मारू के अत्यंत लोकप्रिय काव्य की 17 से 19 वीं शताब्दी की हस्तलिखित प्रतियां जोधपुर के प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान में मौजूद हैं। करीब 471 साल पुराने बहुत से ग्रंथ तो सचित्र है। 'ढोला मारू रा दूहाÓ राजस्थान का एक जातीय काव्य है जिसमें राजस्थानी रहन-सहन, जीविका, आशा-आकांक्षा, मनोभावना के सुंदर चित्रण सहित राजस्थान की आत्मा अपने सरल एवं स्वाभाविक ढंग से झांकती दृष्टिगोचर होती है।
काव्य के अधिकांश भाग में मारू के प्रेम संदेश को अधिक स्थान मिला है। प्राविप्र जोधपुर के वरिष्ठ शोध सहायक डॉ. केके सांखला के अनुसार प्रेम कथानकों पर आधारित हस्तलिखित ग्रंथों में विसं-1819 के ढोला-मारू, 1890 के फूलजी-फूलयती, 1853 के मधु-मालती, 19 वीं सदी के सदैवच्छ सावलिंगा के सचित्र ग्रंथ संस्थान में मौजूद हैं। प्रेम की विरह गाथाओं के प्राचीन साहित्य पर अनेक शोधार्थियों की ओर से शोध प्रबंध भी प्रस्तुत किए जा चुके हैं।
ढोला एक, दीवानी दो
पूंगल की राजकुमारी मारवणी उर्फ मारू का विवाह बचपन में ही नरवरगढ के राजकुमार ढोला से होता है लेकिन ढोला जब युवा होता है तो उसका विवाह मालवा की राजकुमारी मालवणी से कर दिया जाता है।
उधर मारू को यौवन का प्रथम बसंत झकझोरने लगता है तब वह सपने में अपने प्रियतम की मधुर छवि देखती है और उसके विरह में व्याकुल होकर कबूतर -कुरजां व अन्य पक्षियों के माध्यम से प्रियतम ढोला को प्रेम का संदेश भेजती है। लेकिन मालवणी मारू के प्रेम संदेश को ढोला तक पहुंचने से पहले ही नष्ट कर देती है।
अन्त में कुछ ढाढी गायक मालवा पहुंचकर लोकगीतों के माध्यम से मारू की विरह गाथा को गायन के माध्यम से ढोला को सुनाने में सफल होते हैं। मारू की विरह वेदना सुनकर ढोला तत्काल मिलने के लिए अनेक बाधाओं को पार करते हुए तीव्रगामी ऊंट पर सवार होकर पूंगलगढ़ पहुंचता है।
बसंतोत्सव का महत्व
वाट्सएप-फेसबुक की युवा पीढ़ी प्राचीन संस्कृत साहित्य में प्रेम के प्रतीक के रूप में वर्णित सांस्कृतिक महत्व को भूल चुकी है। बसंत ऋतु में सदियों से परम्परागत रूप से मनाए जाने वाले बसंतोत्सव व मदनोत्सव का महत्व आज भी कायम है।
- कमलेश बहुरा, पुस्तकालयध्यक्ष, राजस्थान प्राच्य विद्या प्रतिष्ठान जोधपुर।