आस्था केन्द्र खेड
क्षीरपुर जो कि वर्तमान में खेड नाम से जाना जाता हैं। यहां आठ सौ वर्षो पूर्व गुहिल राजपूतों की राजधानी थी। लूनी नदी के प्रवाह से मात्र एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित खेड मुख्य मन्दिर में विद्यमान भगवान रणछोडराय जी की विशालकाय मूर्ति जैसी प्रतिमा देश के किसी भाग में नहीं हैं। 800 वर्ष पूर्व विक्रम संवत् 1250 में यह बस्ती गुहिल राजपूतों की राजधानी होने से निश्चित ही यह स्थान उन्नत दशा में था। इतिहास भी इस बात का साक्षी हैं। कन्नौज के राजा जयचन्द को शहाबुद्दीन गोरी द्वारा परास्त कर दिए जाने पर जयचन्द ने गंगा में डूबकर जान दे दी थी। उसके मृत्यु के पश्चात् उनके पौत्र रावसिंह जी मारवाड आए और उनके पुत्र राव आस्थानजी ने तत्काली गोहिल व डाबी जाति के राजपूतों को हराकर ई0 1250 के बाद अपना स्थाई राज्य कायम किया।
गोहिल राजपूतों के पूर्व यहां पर पंवार, परिहार इत्यादि राजपूतों का राज्य रहा और खेड उनकी राजधानी रही। तब से आज तक यह स्थान अनेक काल खण्डो गुजरता रहा लेकिन अब भी अपना स्थान इतिहास में अक्षुण बनाए हुए हैं। भारत में अपनी पुरातत्वीय विशेषताओं का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत कर रहा हैं। खेड के प्राचीन नाम ’’खेड पाटन’’, ’’खेडगढ़’’ और ’’क्षीरपुर’’ रहे हैं। यह स्थान बालोतरा औद्योगिक नगरी से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर पश्चिम दिशा में स्थित हैं। यहां का धरातल आस-पास की धरती से कुछ ऊपर उठा हुआ हैं। लूनी नदी का प्रवाह यहां से मात्र एक किमी दूरी पर हैं लेकिन जब कभी भी लूनी नदी आती हैं या भारी वर्षा होती हैं तो बाढ़ आ जाती हैं और पानी इस स्थान के चारों ओर फैल जाता हैं। भौगोलिक अन्वेषण से ज्ञात होता हैं कि यह भाग कभी लूनी नदी के विसर्जण से प्रभा जिस समय पंवारों का शासन था, राव सखलाजी के पश्चात् उनके पुत्र वीरमजी आपस में वैमनस्य के कारण मारे गए व मल्लीनाथ जी ने उनके आसपास के प्रदेशों तथा खेड पर अपना आधिपत्यकर लिया। तब से ही वे प्रदेष उनके नाम से मालाणी कहलाने लगा। राव वीरमजी का पुत्र चूंडाजी बड़ा पराक्रमी हुआ। उसने जोधपुर के निकट मण्डोर को अपनी राजधानी बनाया। सं0 1515 में उन्हीं के वंशज राव जोधा जी ने जोधपुर बसाया था। जोधपुर के नरेशों ने समय-समय पर खेड़ के जीर्णोद्वार के लिए लोगो को प्रेरित किया और स्वयं ने भी इस ओर व्यक्तिगत ध्यान दिया। खेड के अन्तर्गत 560 गांव थे। राठौड़ो में राव रायपाल ने इन सब पर अधिकार किया। सं0 1414 में तुर्को ने फिर आक्रमण किया था और राव टीडा युद्ध में खेत रहे। वि.स. 1422 में राव सलखा ने फिर खेड ले लिया और राव के चार पुत्रों में से द्वितीय पुत्र राव वीरम को खेड मिला किन्तु भाईयों के कारण इनकी जगमाल से ठन गई। तब राव मल्लीनाथ ने इनको खेड से दूर चले जाने सलाह दी।
उन्होनें मन्दिर मूर्तियों को खण्डित करने का प्रयत्न किया। संभवतया इस मन्दिर को अलाउद्दीन खिलजी के प्रभुत्व काल में भारी क्षति उठानी पडी। लेकिन इतना होने पर भी इनकी स्थापत्य कला और सुन्दरता छुपी नहीं रह सकती बल्कि मानव के अन्तर्मन को मोह लेती हैं और अतीत की रासलीलाओं की झांकियां प्रस्तुत करती हैं। जिस समय अंग्रेजी शासन ने राजस्थान में कदम रखा था तो यहां के शासको ने स्वतंत्र रहने के अथव प्रयत्न किये किन्तुत सं. 1881 में उन सब को बाड़मेर बुलाया गया और धोखे से बंदी बनाकर कच्छ भुज भेज दिया गया। बाद में इधर नरेश व जोधपुर के सर प्रताप ने बीच में पड़कर समस्त क्षेत्र का जोधपुर में मिला लिया। खेड के कारण ही राठौड़ो की एक खेप (खेड़ेचा) कहलाई। बाद में यह स्थान खेड़ेचा से बदलकर खेड़ बन गया। 24 मार्च 1928 को मरूधर नरेश स्व. महाराज उम्मेदसिंह जी ने इस मन्दिर का निरीक्षण किया था। मुख्य मन्दिर की स्थापत्य कला को देखकर इतिहासकार इसे अति-प्राचीन मानते हैं।
इस तीर्थ की दैव्यशक्ति व आराध्य देव श्री रणछोडराय जी का भव्य मन्दिर मुख्य हैं और चतुर्भुजधारी विग्रह रूप में इनकी पुनः प्रतिष्ठा वि.सं. 1232 फाल्गुन सुदी 2 को हुई थी। इसके अलावा गर्भ गृह के चारों और परिक्रमापथ में इन्द्र, अग्नि, गजानंद, वराह, यम, सूर्य, तैत्य, वायु, चन्द्रमा, नृसिंह, बलराम, कुबेर, महेश्वर भगवान की भव्य मूर्तियां विद्यमान हैं एवं कांच की कारीगरी भी हैं। मुख्य मन्दिर के बांई तरफ ब्रह्माजी का मन्दिर, उनके सामने ही लक्ष्मीजी का भव्य मन्दिर स्थित हैं और उसके पास ही हनुमानजी- बालाजी महाराज की भव्य प्रतिमा स्थापित हैं।
उसके कुछ भाग आगे ही प्रांगण में ही बीचों बीच गरूड़ प्रतिमा विद्यमान हैं और प्रागंण में ही बांयी ओर कैलाशपति शिवजी का भव्य शिवलिंग एवं पीछे शेषशायी भगवान श्री विष्णु की विशाल भव्य मूर्ति (अनंतशयन) समुन्द्र मंथन के विग्रह के साथ दक्षिण भारत की शैली में शयानाधीश हैं।