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मंगलवार, 4 अगस्त 2015

जैसलमेर दर्शन। . दर्शनीय हैं लोद्रवा के कलात्मक जैन मंदिर












जैसलमेर  दर्शन। . दर्शनीय हैं लोद्रवा के कलात्मक जैन मंदिर

ऐतिहासिक स्वर्ण नगरी जैसलमेर देश के पश्चिमांचल का न केवल पर्यटन स्थल है बल्कि स्थापत्य, ज्ञान व मूर्तिकला में विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैसलमेर के जैन मंदिर तो शिल्पकला के बेजोड़ नमूने हैं। जैसलमेर में जैन धर्मावलंबियों का लंबे समय तक वर्चस्व रहा, जहां कभी इनके 2700 से अधिक घर-परिवार थे। यहां की समृद्ध जातियों में ओसवाल तो गांवों में पालीवालों का आधिपत्य था। जैसलमेर के आसपास के गांवों में जैन मंदिरों की तो भरमार है जो आज भी आस्था के केंद्र बिन्दु तो हैं ही, पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थल भी हैं।

जैसलमेर से 15 कि.मी. दूर काक नदी के किनारे बसा लोद्रवा गांव व यहां के कलात्मक जैन मंदिर तो देखते ही बनते हैं। ऐसा माना जाता है कि लोद्रवा गांव को लोद्रवा व रोद्रवा नामक राजपूत जातियों ने बसाया था। प्राचीन काल में लोद्रवा अत्यन्त ही हरा-भरा कृषि क्षेत्र था। लोद्रवा नगर सुन्दर होने के साथ-साथ यहां के लोग भी समृद्ध थे।

बारहवीं शताब्दी में जब दिल्ली के मुगल शासक मोहम्मद गौरी ने भारत के मंदिरों को लूटना व नष्ट करना शुरू किया तो यह शहर भी उसकी नजरों से बच न सका। उस समय इस नगर के शासक भुजदेव थे। मोहम्मद गौरी के भयानक आक्रमण के दौरान भुजदेव भी युद्ध में मारे गए थे व यहां के जैन मंदिर भी गौरी ने नष्ट कर दिए थे।

बाद में कुछ वर्षों के पश्चात् यहां के पांचों जैन मंदिरों का पुनर्निर्माण घी का व्यापार करने वाले थारुशाह ने वि.सं. 1675 में करवाया था। इन मंदिरों के निर्माण में प्रयुक्त पत्थरों को सोना देकर खरीदा गया था। लोद्रवा स्थित जैन मंदिरों में भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति सफेद संगमरमर से निर्मित है। मूर्ति के ऊपर सिर पर हीरे जड़े हुए हैं जिससे मूर्ति अत्यन्त आकर्षक लगती है। मंदिरों को कलात्मक रूप देने के लिए पत्थर के शिल्पियों ने मंदिरों के स्तंभों व दीवारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण कर इसके सौंदर्य को बढ़ाया है। मंदिर को अधिक गरिमा प्रदान करने के लिए नौवीं-दसवीं शताब्दी में मंदिर के सम्मुख तोरणद्वार बनाने की भी परंपरा थी। मंदिर के समस्त स्तंभों में मुखमंडप के स्तंभों का घट-पल्लव अलंकरण सर्वाधिक कुशलता एवम् सौंदर्य का परिचय देता है। हालांकि मंदिर की मौलिकता तथा वास्तु योजना को ज्यों का त्यों रखा गया है। लोद्रवा का जैन मंदिर वास्तु एवं मूर्तिकला की शैली की शताब्दियों लंबी विकास यात्रा का भी साक्ष्य प्रस्तुत करता है।

पाश्र्वनाथ मंदिर के समीप एक कलात्मक बनावटी कल्पवृक्ष है, जिसमें चीते, बकरी, गाय, पक्षी व अनेक जानवरों को भी एकसाथ दर्शाया गया है। कल्पवृक्ष जैन धर्मावलंबियों के लिए समृद्धि व शांति का द्योतक है। लोद्रवा स्थित काक नदी के किनारे रेत में दबी भगवान शिव की अनोखी मूर्ति है

जिसके चार सिर हैं। यह मूर्ति केवल अर्द्धभाग तक ही दृष्टिगत है। इसके साथ ही नदी के किनारे पर ‘महेंद्र-मूमल’ की प्रेम कहानी को विस्मृत न होने देने के लिए उनकी याद में एक ‘मेढ़ी’ बनी हुई है जो ‘मूमल की मेढ़ी’ के नाम से विख्यात है।

लोद्रवा में प्राचीन काल में बने घर, कुएं, तालाब व कलात्मक स्नान घर के अवशेष देखने को मिलते हैं, जो अतीत के वैभव को दर्शाते हैं। जैसलमेर आने वाले हजारों विदेशी व देशी पर्यटक यहां के मंदिरों का कला-वैभव देखने अवश्य आते हैं।

सोमवार, 29 जुलाई 2013

मूमल महिंद्रा की अमर प्रेम गाथा का साक्षी लोद्रवा,मूमल की मेडी आज भी अडिग





स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हें लोद्रवा के मंदिर
मूमल महिंद्रा की अमर प्रेम गाथा मूमल की मेडी आज भी अडिग
ऐतिहासिक स्वर्ण नगरी जैसलमेर देश के पश्चिमांचल का न केवल पर्यटन स्थल है बल्कि स्थापत्य, ज्ञान व मूर्तिकला में विश्व में अपना विशिष्ट स्थान रखती है। जैसलमेर के जैन मंदिर तो शिल्पकला के बेजोड़ नमूने हैं। जैसलमेर में जैन धर्मावलंबियों का लंबे समय तक वर्चस्व रहा, जहां कभी इनके 2700 से अधिक घर-परिवार थे। यहां की समृद्ध जातियों में ओसवाल तो गांवों में पालीवालों का आधिपत्य था। जैसलमेर के आसपास के गांवों में जैन मंदिरों की तो भरमार है जो आज भी आस्था के केंद्र बिन्दु तो हैं ही, पर्यटकों के लिए दर्शनीय स्थल भी हैं।

जैसलमेर से 15 कि.मी. दूर काक नदी के किनारे बसा लोद्रवा गांव व यहां के कलात्मक जैन मंदिर तो देखते ही बनते हैं। ऐसा माना जाता है कि लोद्रवा गांव को लोद्रवा व रोद्रवा नामक राजपूत जातियों ने बसाया था। प्राचीन काल में लोद्रवा अत्यन्त ही हरा-भरा कृषि क्षेत्र था। लोद्रवा नगर सुन्दर होने के साथ-साथ यहां के लोग भी समृद्ध थे।

बारहवीं शताब्दी में जब दिल्ली के मुगल शासक मोहम्मद गौरी ने भारत के मंदिरों को लूटना व नष्ट करना शुरू किया तो यह शहर भी उसकी नजरों से बच न सका। उस समय इस नगर के शासक भुजदेव थे। मोहम्मद गौरी के भयानक आक्रमण के दौरान भुजदेव भी युद्ध में मारे गए थे व यहां के जैन मंदिर भी गौरी ने नष्ट कर दिए थे।
बाद में कुछ वर्षों के पश्चात् यहां के पांचों जैन मंदिरों का पुनर्निर्माण घी का व्यापार करने वाले थारुशाह ने वि.सं. 1675 में करवाया था। इन मंदिरों के निर्माण में प्रयुक्त पत्थरों को सोना देकर खरीदा गया था। लोद्रवा स्थित जैन मंदिरों में भगवान पाश्र्वनाथ की मूर्ति सफेद संगमरमर से निर्मित है। मूर्ति के ऊपर सिर पर हीरे जड़े हुए हैं जिससे मूर्ति अत्यन्त आकर्षक लगती है। मंदिरों को कलात्मक रूप देने के लिए पत्थर के शिल्पियों ने मंदिरों के स्तंभों व दीवारों पर देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण कर इसके सौंदर्य को बढ़ाया है। मंदिर को अधिक गरिमा प्रदान करने के लिए नौवीं-दसवीं शताब्दी में मंदिर के सम्मुख तोरणद्वार बनाने की भी परंपरा थी। मंदिर के समस्त स्तंभों में मुखमंडप के स्तंभों का घट-पल्लव अलंकरण सर्वाधिक कुशलता एवम् सौंदर्य का परिचय देता है। 

हालांकि मंदिर की मौलिकता तथा वास्तु योजना को ज्यों का त्यों रखा गया है। लोद्रवा का जैन मंदिर वास्तु एवं मूर्तिकला की शैली की शताब्दियों लंबी विकास यात्रा का भी साक्ष्य प्रस्तुत करता है।
पाश्र्वनाथ मंदिर के समीप एक कलात्मक बनावटी कल्पवृक्ष है, जिसमें चीते, बकरी, गाय, पक्षी व अनेक जानवरों को भी एकसाथ दर्शाया गया है। कल्पवृक्ष जैन धर्मावलंबियों के लिए समृद्धि व शांति का द्योतक है। लोद्रवा स्थित काक नदी के किनारे रेत में दबी भगवान शिव की अनोखी मूर्ति है जिसके चार सिर हैं। यह मूर्ति केवल अर्द्धभाग तक ही दृष्टिगत है। इसके साथ ही नदी के किनारे पर ‘महेंद्र-भूमल’ की प्रेम कहानी को विस्मृत न होने देने के लिए उनकी याद में एक ‘मेढ़ी’ बनी हुई है जो ‘भूमल की मेढ़ी’ के नाम से विख्यात है।
लोद्रवा में प्राचीन काल में बने घर, कुएं, तालाब व कलात्मक स्नान घर के अवशेष देखने को मिलते हैं, जो अतीत के वैभव को दर्शाते हैं। जैसलमेर आने वाले हजारों विदेशी व देशी पर्यटक यहां के मंदिरों का कला-वैभव देखने अवश्य आते हैं।

मूमल महिंद्रा की अमर प्रेम गाथा का साक्षी   

मूमल की मेडी आज भी अडिग

-- लुद्रवा या लोद्रवा कभी भाटी शासकों की राजधानी रहा था लेकिन वक़्त बीता तो एक राजधानी का अस्तित्व समाप्त हुआ और जैसलमेर के माथे पर मुकुट रखे जाने का पथ प्रशस्त हुआ. लुद्रवा आज भी अवशेषों को माध्यम बनाकर अपने प्राचीन वैभव की दास्तान सुनाता है। साथ ही नए निर्माण के कारण अस्तित्व में आये जैन मंदिर की बेहद खूबसूरत जालीदार दीवारें जिनकी हर एक पंक्ति का शिल्प भिन्न-भिन्न होने के कारण रचनात्मक कौशल का बेहतरीन नमूना है किसी के भी आकर्षण का केंद्र बन सकती हैं। इसी मंदिर का तोरण अपने मूल में प्रयुक्त प्राचीन पत्थरों को माध्यम बनाकर इस नगर के शैव होने का प्रमाण देता-सा लगता है। पर मेरे लिए इस नगर के प्राचीन राजधानी होने से अधिक महत्वपूर्ण था इस नगर का राजस्थान की सर्वाधिक चर्चित लोक प्रेम कथाओं में से एक - मूमल की नायिका का यहाँ से जुड़ाव। कभी लुद्रवा में मूमल का घर था और सिंध के सोढा राजपूत महेंद्र ने यहीं मूमल के साथ प्रेम की अमर दास्तान जी थी। मैंने जब राजस्थांनी लोक संगीत की सर्वाधिक चर्चित गायिका अल्लाह जिलाई बाई आवाज में मूमल सुना था तब से ही मैं इस जगह आना चाहता था.. ..............
काली रे काली काजलिये रे रेख जी
कोई भूरो बादल में चमके बीजली
रंग भीणी ऐ मूमल हाले तो ले चालूँ
अमराणे रे देस रे .............
लुद्रवा में मुझे बार-बार यही लगता रहा की ये धरती आज भी वही प्रेम कथा सुना रही है। न जाने कितने योद्धा यहाँ रहे होंगे ,राजधानी का वैभव भी कम नहीं होगा पर काल के प्रवाह में सब कुछ खो गया। आज ये धरती सब नाम भूल चुकी है पर मूमल-महेंद्र का नाम आज भी यहाँ गूंजता है। राजधानियां मिट जाती हैं , राजवंश खो जाते हैं पर मोहब्बत की दास्तान पर वक़्त की रेत कभी पर्दा नहीं डालती बल्कि वहां से गुजरो तो धीरे से कहती है कि इस विकल माडधरा पर कभी सब कुछ भूलकर रोज़ चला आता था महेंद्र क्योंकि तब यहाँ रहती थी मोहब्बत के लिए अपनी जान दे देने वाली अनिंद्य सुन्दरी .... मूमल ......