भारत में जो अति पवित्र सात मोक्ष पुरियां हैं, उनमें से कांचीपुरम् अन्यतम् है। कांचीपुरम् का शाब्दिक अर्थ स्वर्ण नगरी है। अपनी पवित्रता और मंदिरों के कारण इसे दक्षिण भारत की वाराणसी भी कहा जाता है। चेन्नई के पास कांचीपुरम् में ही मां श्री कामाक्षी अम्मान सनाथी का मंदिर है यहां पर देवी का नाम त्रिपुरा संदुरी है जो पद्मासन की स्थिति में विराजित हैं।
मां के इस मंदिर में प्रतिवर्ष फरवरी मार्च के 9 वे चंद्र दिवस पर रथयात्रा होती है। तमिल नववर्ष पर भी यहां एक विशेष उत्सव होता है। यह स्थान आदि शंकराचार्य से भी जुड़ा है। यहीं पर शंकराचार्य की समाधी भी है। दक्षिण भारत के ज्यादातर प्रसिद्ध मंदिरों में वास्तु सिद्धान्तों का पालन किया गया है। ऐसा लगता है कि, कामाक्षी देवी मंदिर निर्माण में वास्तु सिद्धान्तों की थोड़ी अवहेलना की गई है।
इसके बाद भी यह मंदिर प्रसिद्ध है उसका एकमात्र कारण है कि, मंदिर की उत्तर दिशा में स्थित एक बड़ा सरोवर। वास्तु सिद्धान्त के अनुसार जहां भी उत्तर दिशा में ज्यादा मात्रा में पानी का संग्रह हो तो वह स्थान प्रसिद्धि प्राप्त करता ही है जैसे, तिरुपति बालाजी तिरुपति, गुरुवयूर मंदिर केरला, वक्कडनाथ मंदिर, त्रिशुर, पद्नाभ स्वामी मंदिर तिरुअन्नतपुरम् इत्यादि।
कामाक्षी मंदिर परिसर में दिशाएं मध्य में न होकर कोने में हैं अर्थात् यह विदिशा भूमि पर बना मंदिर है। कामाक्षी मंदिर परिसर के चारों ओर सड़क है और परिसर पर चारों दिशाओं में शुभ मार्ग प्रहार भी है। मंदिर की दक्षिण दिशा स्थित मुख्यद्वार पर सुन्दर गोपुरम् (द्वार) है। वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण आग्नेय का द्वार वैभव और प्रसिद्धि बढ़ाता है। गर्भगृह में मां दक्षिणमुखी होकर विराजित हैं। मूर्ति स्नान के बाद निकले पानी की निकासी उत्तर दिशा से होती है। मुख्य मंदिर के अन्दरईशान कोण को छोड़कर शेष अन्य दिशाओं में तीनों तरफ ऊंचे प्लेटफार्म पर तीन मंदिर बने हैं।
यह सभी निर्माण तो वास्तुनुकूल है। इसी कारण मंदिर को इतनी प्रसिद्धि मिली है। इसी के साथ इस मंदिर में कुछ महत्वपूर्ण वास्तुदोष भी हैं जो मंदिर की प्रसिद्धि, आर्थिक स्थिति और वहां रहने वाले पुजारियों के साथ-साथ आने वाले भक्तों को प्रभावित करते हैं, जो इस प्रकार हैं -
इस मंदिर परिसर की चारदीवारी का दक्षिण नैऋत्य वाला भाग बढ़ा हुआ है। मंदिर परिसर के अन्दर चारदीवारी के चारों कोनों पर निर्माण कार्य किया गया है। एक कोने पर कमरे बने हैं, तो दूसरे पर भोजनशाला, तीसरे पर हाथी स्टेण्ड और चौथे पर कालेज है। यह सभी निर्माण वास्तु नियमों के बिल्कुल विपरीत हैं। यदि मंदिर के उपरोक्त वास्तुदोषों को दूर किया जाए तो निश्चित ही मंदिर के प्रति भक्तों की श्रद्धा और बढ़ेगी और चढ़ावा भी खूब चढेगा।
मां के इस मंदिर में प्रतिवर्ष फरवरी मार्च के 9 वे चंद्र दिवस पर रथयात्रा होती है। तमिल नववर्ष पर भी यहां एक विशेष उत्सव होता है। यह स्थान आदि शंकराचार्य से भी जुड़ा है। यहीं पर शंकराचार्य की समाधी भी है। दक्षिण भारत के ज्यादातर प्रसिद्ध मंदिरों में वास्तु सिद्धान्तों का पालन किया गया है। ऐसा लगता है कि, कामाक्षी देवी मंदिर निर्माण में वास्तु सिद्धान्तों की थोड़ी अवहेलना की गई है।
इसके बाद भी यह मंदिर प्रसिद्ध है उसका एकमात्र कारण है कि, मंदिर की उत्तर दिशा में स्थित एक बड़ा सरोवर। वास्तु सिद्धान्त के अनुसार जहां भी उत्तर दिशा में ज्यादा मात्रा में पानी का संग्रह हो तो वह स्थान प्रसिद्धि प्राप्त करता ही है जैसे, तिरुपति बालाजी तिरुपति, गुरुवयूर मंदिर केरला, वक्कडनाथ मंदिर, त्रिशुर, पद्नाभ स्वामी मंदिर तिरुअन्नतपुरम् इत्यादि।
कामाक्षी मंदिर परिसर में दिशाएं मध्य में न होकर कोने में हैं अर्थात् यह विदिशा भूमि पर बना मंदिर है। कामाक्षी मंदिर परिसर के चारों ओर सड़क है और परिसर पर चारों दिशाओं में शुभ मार्ग प्रहार भी है। मंदिर की दक्षिण दिशा स्थित मुख्यद्वार पर सुन्दर गोपुरम् (द्वार) है। वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण आग्नेय का द्वार वैभव और प्रसिद्धि बढ़ाता है। गर्भगृह में मां दक्षिणमुखी होकर विराजित हैं। मूर्ति स्नान के बाद निकले पानी की निकासी उत्तर दिशा से होती है। मुख्य मंदिर के अन्दरईशान कोण को छोड़कर शेष अन्य दिशाओं में तीनों तरफ ऊंचे प्लेटफार्म पर तीन मंदिर बने हैं।
यह सभी निर्माण तो वास्तुनुकूल है। इसी कारण मंदिर को इतनी प्रसिद्धि मिली है। इसी के साथ इस मंदिर में कुछ महत्वपूर्ण वास्तुदोष भी हैं जो मंदिर की प्रसिद्धि, आर्थिक स्थिति और वहां रहने वाले पुजारियों के साथ-साथ आने वाले भक्तों को प्रभावित करते हैं, जो इस प्रकार हैं -
इस मंदिर परिसर की चारदीवारी का दक्षिण नैऋत्य वाला भाग बढ़ा हुआ है। मंदिर परिसर के अन्दर चारदीवारी के चारों कोनों पर निर्माण कार्य किया गया है। एक कोने पर कमरे बने हैं, तो दूसरे पर भोजनशाला, तीसरे पर हाथी स्टेण्ड और चौथे पर कालेज है। यह सभी निर्माण वास्तु नियमों के बिल्कुल विपरीत हैं। यदि मंदिर के उपरोक्त वास्तुदोषों को दूर किया जाए तो निश्चित ही मंदिर के प्रति भक्तों की श्रद्धा और बढ़ेगी और चढ़ावा भी खूब चढेगा।