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बुधवार, 7 मई 2014

मरुधरा कि माटी से निकला नायब फनकार रोजे खान

मरुधरा कि माटी से निकला नायब फनकार रोजे खान

बाड़मेर राजस्थान कि लोक संस्कृति औ लोक गायिकी दे साक्षात् दर्शन धोरो कि धरती बाड़मेर में होते हें। इस मरू माटी ने कई बेहतरीन लोक फनकार दिए हें जिन्होंने देश विदेशो में अपना नाम कमाया ही हे साथ ही राजस्थानी लोक संस्कृति को बचाये रखा हें। ऐसे ही एक लोक फनकार जिले के भीयांड गाँव में रोज़े खां हैं . मांगनियार गायकी के उन चंद लोगों में से एक जो अपनी प्राचीन गायकी के हुनर को अब भी जीवित रखे हुए हैं. उनके घर पर जिस आत्मीयता के साथ मेरा स्वागत हुआ वो शब्द कहाँ बयां कर पाएंगे . थाली में सजे गेहूं के दाने और दीपक के साथ गुड़ जिसका एक छोटा टुकड़ा खिलाकर मेहमान को भीतर ले जाते हैं . उनका घर गाँव के आखिरी सिरे पर था पास में एक तालाब था जो अब पानी का रास्ता देख रहा था और रास्ता तो कई मोर भी देख रहे थे जो रोज़े खां के घर के पास ऐसे घूमते हैं मानो पालतू मुर्गियां हों अगली सुबह हमारी नींद बारिश की बूंदों ने खुलवाई क्योंकि हम छत पर सो रहे थे मेघों से घिरा आसमान ,जहां तक नजर जाये वहां तक फैली मरुभूमि और नीचे ज़मीन पर बादलों के स्वागत में नाचते मोर। अनूठा गाँव हें रोजे खान का। रोजे खान कि गायकी में जादू हें। रोजे खान अपने समाज में लुप्त हो रही लोक गायिकी को लेकर चिंतित हें। उनके प्रयास हें कि नै पौध तैयार करनी होगी ताकि राजस्थानी कि संस्कृति अक्षुण रहे


रोज़े खां और उनके परिवार ने लोक-संगीत का जो रस बरसाया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता . गीतों को खड़ताल गति देते हैं तो कमायचा उसमे मरुभूमि का सारा का सारा सौन्दर्य भर देता है कमायचा मांगनियारों का अपना वाद्य है लेकिन इसका पहला सुर ही सुनने वाले को अहसास करा देता है की अब जो रस बरसेगा वो उस सोनारी धरती का होगा जिसे माडधरा कहते हैं एक विकल ध्वनि, जो गूंजती है तो प्यास जगाती भी है और प्यास बुझाती भी है . लेकिन ये कमायचा भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . धीरे-धीरे ये वाद्य लुप्त हो रहा है एक तो इसे बजाने में नयी पीढ़ी की रूचि कम है उस पर अब इसे बनाने वाले भी कम होते जा रहे हैं जो बचे हुए लोग हैं वो कभी कभार बिकने के कारण इसे बनाना छोड़ चुके है इसीलिए अब ये बाज़ार में इतना महंगा बिकता है कि कोई गरीब लोक कलाकार इसे खरीदने का सपना ही देख सकता है . आर्थिक उदारवाद ने हमें जो कुछ दिया उसकी भरपूर कीमत भी वसूली है बाज़ार अब केवल उनके लिए आनंद का अवसर उपलब्ध कराता है जिनकी जेबें ठसाठस भरी हुई हैं बाकी लोगों के लिए तो ये तमाशा बस देखने की चीज़ है . --

सनावड़ा
सनावड़ा वैसे तो पश्चिमी राजस्थान का एक आम गाँव ही है लेकिन इसकी एक खासियत है यहाँ मौजूद राजस्थानी लोक कलाकार - मांगनियारों के लगभग ४५ परिवार. किसी एक ही गाँव में सैकड़ो कलाकार एक साथ रहते हैं ये कल्पना भी दुर्लभ लगती है लेकिन सनावड़ा आइये यहाँ के ४५ परिवारों का हर शख्स कलाकार है - महिलाएं और बच्चे भी . मैं सनावड़ा पहुंचा तो पहली मुलाकात बच्चों से ही हुई पर तब एक अजनबी से मिलने का संकोच उनमे था. आगे बढ़ा तो झूला झूलती लड़कियां मिल गयीं बहुत दिनों बाद दिखाई दिए इस दृश्य ने रूह को बहुत सुकून पहुँचाया .















जिस गाँव में सैकड़ो कलाकार रहते हो वहां किसी अन्जान अतिथि के प्रति भी आत्मीय व्यवहार देखने को मिले तो बहुत आश्चर्य चकित नहीं होना चाहिए . संगीत में इतनी सामर्थ्य तो शेष है कि तेजी से बदलते दौर में भी भारतीय मूल्यों को भारतीय जन-जन के मन में संजोकर रख सके . सनावड़ा में मुझे अपेक्षा से अधिक स्नेह मिल रहा था . गाँव के कच्चे घर जिन्हें झूपा कहते हैं मुझे बहुत आकर्षित कर रहे थे मैंने बहुत संकोच के साथ वहां कुछ वक़्त बिताने की अनुमति मांगी तो बहुत प्रसन्नता के साथ उन्होंने झूपा मेरे लिए खाली कर दिया . मिट्टी की दीवारें और मिट्टी के चूल्हे के साथ मिट्टी की खुशुबू भी मुझे वहां रुकने के लिए विवश कर रही थी लेकिन मैं जल्दी ही वहां से आगे चल पड़ा .


कच्चे घरों के साथ-साथ गाँव में पक्के घर भी बहुत थे एक घर के बाहर कुछ महिलाएं गीत गा रही थीं उनके स्वर में जो करूणा थी उसने मुझे वहां रुकने के लिए विवश कर दिया वो घर किसी मांगनियार का ही था और गीत गा रही महिलाएं भी मांगनियार ही थीं जो दिल को छू लेने वाली एक परंपरा का निर्वाह कर रहीं थीं . विवाह के बाद बेटी जब घर आती है और लौटकर ससुराल जाती है तो घर और आस-पड़ोस की महिलाएं उसके जाने के बाद घर के आँगन में बैठकर गीत गाती हैं कुरजां ,अरणी जैसे कई गीत हैं जो इस अवसर पर गाये जाते हैं ये लोक गीतों का मंचीय प्रदर्शन नहीं था ये लोक गीतों का मूल स्वरुप था इसलिए मैं बहुत देर तक वो गीत सुनता रहा गाने वाली महिलाओं के चेहरे ढंके हुए थे पर उनके स्वर में जो करूणा थी जो पीर थी उस पीर उस करूणा का अदृश्य चेहरा किसी को भी द्रवित कर सकता था . उन्होंने एक गीत गाया ..............
 

बाबेजी री कुरजों उड़ जासी म्हरो वहतोड़ो बाद्लियो बरस जासी
आज म्हारी धीयल बाई सासरिये जासे
 

म्हरो वहतोड़ो बाद्लियो बरस जासी


बेटी को ससुराल जाना है कुरजों को उड़ जाना है और रुके हुए बादल को बरस जाना है ये बादल और कुछ नहीं आँखों में रुके हुए आंसू ही तो हैं

घूंघट के पीछे उनके आंसू आँखों में थे या फिर वो बादल बरस गए थे ये तो मैं जान नहीं पाया पर उनके स्वर मैं बसी हुई पीड़ा मेरी आँखों से बरसने को आतुर हुई तो मैं वहां से चल पड़ा मैं उन बादलों को बाहर बरसने नहीं देना चाहता था मैं चाहता था की वो भीतर बरस जाएँ ताकि संवेदना की नमी बनी रहे मुझमे भी और मेरी कहानी में भी .................







मेरे नए उपन्यास का नायक मांगनियार है . इसीलिए उनके जीवन को करीब से देखने-समझने के लिए मैं राजस्थान गया था .लोक-गीत देश के हर हिस्से में गए जाते हैं लेकिन मांगनियार एक ऐसी जाति है जो लोक-गीतों का पर्याय बन चुकी है . संगीत इनके जीवन का आधार है . ये कलाकार मंचों पर तो कुछ ही समय से प्रदर्शन कर रहे हैं लेकिन संगीत से इनका रिश्ता सदियों पुराना है . अपने राजपूत यजमानों के यहाँ ख़ुशी के अवसर पर गीत गाना ही इनका पेशा है. जब धर्म के नाम पर अलगाव का आलम हो तब ऐसे लोगों के बीच होना कितना सुकून पहुंचता है जो हमारी गंगा-जमुनी तहजीब के प्रतीक हों . मांगनियार इस्लाम को मानते हैं लेकिन किसी भी राजपूत के यहाँ ख़ुशी का कोई अवसर हो तो इनकी उपस्थिति अनिवार्य होती है जिन रस्मों में केवल परिवार के लोग होते है ये वहां भी मौजूद रहते हैं. और जब कभी इनके यहाँ ख़ुशी या गम का कोई मौका हो तो इनकी सारी जरूरतें हिन्दू राजपूत पूरी करते हैं .


परस्पर रिश्ते का आलम ये है कि किसी हिन्दू यजमान के यहाँ किसी की मृत्यु हो जाये तो मुस्लिम मांगनियार के यहाँ शोक मनाया जाता है और इस दौरान वे रंगीन साफे के स्थान पर सफेद साफा बंधते हैं जो शोक का प्रतीक होता है . सनावड़ा एक ऐसा गाँव है जहां मांगनियारों के बहुत से घर हैं. मुझे एक घर में उनके गीत सुनने के लिए आमंत्रित किया गया संयोग से तीन पीढ़ियों के कलाकारों को एक साथ सुनने का मौका मिला बुजुर्ग निहाल खां जवान होता मोहम्मद नवास और नन्हा याकूब खां .सबके संगीत में मिट्टी की अद्भुत महक और मिट्टी से अनमोल जुड़ाव . मैं बहुत देर तक उनके गीत सुनता रहा . ये किसी व्यवस्थित महफ़िल की दास्ताँ नहीं है कमरे में मेरे साथ दो बकरियां थीं बाहर कुछ गायें थीं और कुछ दूर एक ऊँट था वो सब भी श्रोता थे बस एक ही फर्क था वो रोज़ सुनते हैं और मैं एक बार सुनने के बाद शायद ऐसी महफ़िल में फिर शामिल नहीं हो पाऊंगा ...... लेकिन मौका मिला तो मैं फिर जाऊंगा वहां जहां हर शख्स को ऐसी रूह मिली है जो इंसानियत के मायने समझाती है .

शनिवार, 1 मार्च 2014

मरुधरा कि माटी से निकला नायब फनकार रोजे खान

मरुधरा कि माटी से निकला नायब फनकार रोजे खान


बाड़मेर राजस्थान कि लोक संस्कृति औ लोक गायिकी दे साक्षात् दर्शन धोरो कि धरती बाड़मेर में होते हें। इस मरू माटी ने कई बेहतरीन लोक फनकार दिए हें जिन्होंने देश विदेशो में अपना नाम कमाया ही हे साथ ही राजस्थानी लोक संस्कृति को बचाये रखा हें। ऐसे ही एक लोक फनकार जिले के भीयांड गाँव में रोज़े खां हैं . मांगनियार गायकी के उन चंद लोगों में से एक जो अपनी प्राचीन गायकी के हुनर को अब भी जीवित रखे हुए हैं. उनके घर पर जिस आत्मीयता के साथ मेरा स्वागत हुआ वो शब्द कहाँ बयां कर पाएंगे . थाली में सजे गेहूं के दाने और दीपक के साथ गुड़ जिसका एक छोटा टुकड़ा खिलाकर मेहमान को भीतर ले जाते हैं . उनका घर गाँव के आखिरी सिरे पर था पास में एक तालाब था जो अब पानी का रास्ता देख रहा था और रास्ता तो कई मोर भी देख रहे थे जो रोज़े खां के घर के पास ऐसे घूमते हैं मानो पालतू मुर्गियां हों अगली सुबह हमारी नींद बारिश की बूंदों ने खुलवाई क्योंकि हम छत पर सो रहे थे मेघों से घिरा आसमान ,जहां तक नजर जाये वहां तक फैली मरुभूमि और नीचे ज़मीन पर बादलों के स्वागत में नाचते मोर। अनूठा गाँव हें रोजे खान का। रोजे खान कि गायकी में जादू हें। रोजे खान अपने समाज में लुप्त हो रही लोक गायिकी को लेकर चिंतित हें। उनके प्रयास हें कि नै पौध तैयार करनी होगी ताकि राजस्थानी कि संस्कृति अक्षुण रहे


रोज़े खां और उनके परिवार ने लोक-संगीत का जो रस बरसाया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता . गीतों को खड़ताल गति देते हैं तो कमायचा उसमे मरुभूमि का सारा का सारा सौन्दर्य भर देता है कमायचा मांगनियारों का अपना वाद्य है लेकिन इसका पहला सुर ही सुनने वाले को अहसास करा देता है की अब जो रस बरसेगा वो उस सोनारी धरती का होगा जिसे माडधरा कहते हैं एक विकल ध्वनि, जो गूंजती है तो प्यास जगाती भी है और प्यास बुझाती भी है . लेकिन ये कमायचा भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है . धीरे-धीरे ये वाद्य लुप्त हो रहा है एक तो इसे बजाने में नयी पीढ़ी की रूचि कम है उस पर अब इसे बनाने वाले भी कम होते जा रहे हैं जो बचे हुए लोग हैं वो कभी कभार बिकने के कारण इसे बनाना छोड़ चुके है इसीलिए अब ये बाज़ार में इतना महंगा बिकता है कि कोई गरीब लोक कलाकार इसे खरीदने का सपना ही देख सकता है . आर्थिक उदारवाद ने हमें जो कुछ दिया उसकी भरपूर कीमत भी वसूली है बाज़ार अब केवल उनके लिए आनंद का अवसर उपलब्ध कराता है जिनकी जेबें ठसाठस भरी हुई हैं बाकी लोगों के लिए तो ये तमाशा बस देखने की चीज़ है .