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मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

बीते दिनों के संत फकीरों का संक्षिप्त परिचय - बुल्ला शाह (1680 - 1757)


बीते दिनों के संत फकीरों का संक्षिप्त परिचय - बुल्ला शाह (1680 - 1757)
 
बुल्लेशाह जिला कसूर (पाकिस्तान) में एक फकीर हुये हैं इनका जन्म बहावलपुर सिंध के गांव उच गैलानीयां में शाह मुहम्मद दरवेश के घर हुआ, जो मुसलमानों में ऊंची जाति के सैय्यद थे। जन्म के बाद का इनका जीवन जिला कसूर में बीता। वर्तमान में भारत पाकिस्तान सीमा पर स्थित जिला कसूर एक विशेष प्रकार कि मेथी के लिए जाना जाता है इसे 'कसूरी मेथी' कहते हैं। बुल्लेशाह बचपने से ही अध्यात्म से जुड़े रहे और उन्होंने कुछ गैबी (न दिखने वाली) ताकत हासिल कर ली कि अधपके फलों को पेड़ से बिना छुए गिरा दे पर उनको तलाश थी एक ऐसे मुर्शिद की जो उन्हें खुदा से मिलवा दे। एक दिन अराईं (छोटी मुसलिम जात) के बाग के पास से गुज़रते हुए, बुल्ले की नजऱ शाह इनायत पर पड़ी। उन्हें लगा शायद मुर्शिद की तलाश पूरी हुई। मुर्शिद को आज़माने के लिए बुल्ले ने अपनी गैबी ताकत से आम गिरा दिए। शाह इनायत ने कहा, नौजवान तुमने चोरी की है। बुल्ले ने चतुराई दिखाई, ना छुआ ना पत्थर मारा कैसी चोरी? शाह इनायत ने इनायत भरी नजऱों से देखा, हर सवाल लाजवाब हो गया। बुल्ला पैरों पर नतमस्तक हो गया। झोली फैला खैर मांगी मुर्शिद मुझे खुदा से मिला दे। मुर्शिद ने कहा, मुश्किल नहीं है,बस खुद को भुला दे। फिर क्या था बुल्ला मुरशद का मुरीद हो गया, लेकिन अभी इम्तिहान बाकी थे। पहला इम्तिहान तो घर से ही शुरू हुआ। सैय्यदों का बेटा अराईं का मुरीद हो, तो तथाकथित समाज में मौलाना की इज्ज़त खाक में मिल जाएगी। बहनें-भाभीयां समझाती हैं कि अराईं का संग छोड़ दो,
बुल्ले नू समझावण आइयां भैणां ते भरजाइयां l
बुल्ले तूं की लीकां लाइयां छड्ड दे पल्ला अराइयां ll
पर बुल्ला कहां जाति को जानता है। कहां पहचानता है समाज के मजहबों वाले मुखौटे।

शाह इनायत पूर्ण पुरुष थे| लोग महात्माओं के चरणों में जाते है तो लोक लाज में बंधे हुए जाते हैं | बुल्ले के परिवार में शादी थी, बुल्ले ने मुर्शिद को आने का न्यौता दिया। फकीर तबियत इनायत शाह खुद तो गए नहीं अपने एक मुरीद को भेज दिया। अराईं मुरीद फटे पुराने कपड़ों में शादी में पहुंचा। बुल्लेशाह के सम्मान को धक्का लगा | लोगों ने ताना दिया कि तुम्हारे गुरु भाई तुमसे मिलने आये हैं | बुल्लेशाह ने लोक लाज के डर से कहा कि ये मेरे गुरु भाई नहीं हैं | वह मुरीद लौट कर शाह इनायत के पास पहुंचा और उन्हें सारी बातें बता दी | गुरु जी ने कहा कि कोई बात नहीं|

बुल्लेशाह साधना करते थे और रूहानी तरक्की भी अच्छी थी उस दिन से उनकी रूहानी तरक्की बंद हो गई | वे बड़े परेशान हुये | गुरु भी इनके प्रति उदासीन दिखाई पड़ने लगे तो खूब रोये | सोचा कि अब क्या किया जाये ? गलती मालूम हो गई थी | परमार्थ के रास्ते पर चलने वालों को अहं को मिटाना पड़ता है , लोक लाज समाप्त करनी पड़ती है, तानेकशी बर्दाश्त करनी पड़ती है | गुरु को खुश करना आसान बात नहीं थी | उन्होंने देखा कि शाह इनायत को गाना पसंद था | बुल्लेशाह ने मुर्शिद को खुश करने के लिए कंजरों से गाना सीखना शुरू कर दिया| मान अपमान से बड़ी चीज रूहानी तरक्की छिन गई थी बंद हो गई थी | साधकों का साधन रुक जाय, जो दिखाई या सुनाई पड़ता है बंद हो जाय तो ऐसी विरह और तड़प पैदा होती है कि मरना बेहतर समझते हैं| तो वेश्या के यहाँ गाना सीखने लगे | कुछ दिन बीत गये | लगन से काम किया जाय तो सफलता जल्दी मिलने लगती है | बुल्लेशाह एक अच्छे गायक बन गये और नाचने वाले भी | गुरु के प्यार ने उन्हें इस स्तर तक पहुंचा दिया | सारी लोक लज्जा कुल मर्यादा समाप्त हो गई | गुरु खुश हो जांय और कुछ नहीं चाहिए | मुर्शिद जिसको चाहे आलिम (अक्लमंद) कर दे, जिसे चाहे अक्ल से खाली कर दे।

एक दिन नाचने वाली एक स्त्री (कंजरी) शाह इनायत के यहाँ कव्वाली के लिए जाने लगी - तो बुल्लेशाह ने उससे कहा कि अपने कपड़े मुझे दे दे तेरी जगह मैं कव्वाली करूँगा| बुल्लेशाह वहां पहुंचे और गाना शुरू कर दिया। चेहरे पर घूंघट था | गाने के साथ नाचने भी लगे।

दिल में दर्द हो तो जुबां में भी दर्द कि तासीर होती है| बाहर से कितना ही बनाव करो बात नहीं बनती | जिसके दिल में विरह है तो उसकी जबान भी दर्द भरी होगी| बुल्लेशाह ने अपने गाने में सारा दर्द उड़ेल दिया था| शाह इनायत ने उठकर, स्त्री भेष में बुल्ले को गले लगा लिया | लोग शाह इनायत के इस कृत्य पर आश्चर्यचकित थे कि ये क्या हो गया ? शाह इनायत ने कहा कि भाई बुल्ले अब पर्दा उठा ले | बुल्ले ने चरणों पर गिर कर कहा कि मैं बुल्ला नहीं भुल्ला हूँ अर्थात भूला हुआ हूँ | मुरशिद ने सीने से लगाकर भुल्ले को जग के बंधनों से मुक्त कर अल्हा की रमज़ से मिला दिया।

गुरु का खुश होना है भारी सत्तपुरुष निज किरिया धारी|
गुरु प्रसन्न होंय जा ऊपर वही जीव है सबके ऊपर ||

बुल्ला ने अलाह को पाने को जो रास्ता अपनाया वो इश्क मिज़ाजी (इंसान से मोहब्बत) से होते हुए इश्क हकीकी (खुदा से मोहब्बत) को जाता है। बुल्ले ने एक (मुरशद) से इश्क किया और उस एक (खुदा) को पा लिया। बुल्ला कहता है,

राझां राझां करदी नी मैं आपे रांझा होई
सद्दो नी मैंनू धीदो रांझा हीर ना आखो कोई

नाम-जाति-पाति, क्षेत्र, भाषा, पाक-नापाक, नींद-जगने, आग-हवा, चल-अचल के दायरे से खुद को बाहर करते हुए खुद के अंदर की खुदी को पहचानने की बात बुल्ले शाह यूं कहते हैं-

बुल्ला की जाना मैं कौन
ना मैं मोमन विच मसीतां न मैं विच कुफर दीयां रीतां
न मैं पाक विच पलीतां, न मैं मूसा न फरओन
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं अंदर वेद किताबां, न विच भंगा न शराबां
न रिंदा विच मस्त खराबां, न जागन न विच सौण
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं शादी न गमनाकी, न मैं विच पलीती पाकी
न मैं आबी न मैं खाकी, न मैं आतिश न मैं पौण
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं अरबी न लाहौरी, न मैं हिंदी शहर नगौरी
न हिंदू न तुर्क पिशौरी, न मैं रहंदा विच नदौन
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं भेत मजहब दा पाया, न मैं आदम हव्वा जाया
न मैं अपना नाम धराएया, न विच बैठण न विच भौण
बुल्ला की जाना मैं कौन

अव्वल आखर आप नू जाणां, न कोई दूजा होर पछाणां
मैंथों होर न कोई स्याना, बुल्ला शौह खड़ा है कौन
बुल्ला की जाना मैं कौन




 

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मंगलवार, 11 दिसंबर 2012

चलो बुल्लेशाह को फिर से खोजें

 

बुल्ला की जाणा मैं कौन? थैया-थैया करके थक गए फकीर बुल्लेशाह ने सदियों पहले किसी दिन यह बात खुद से अकेले में कही होगी। योगवाशिष्ठ में ठीक यही सवाल राम अपने गुरु वशिष्ठ से करते हैं। किसी अंधियारी रात में वह गुरु के घर का दरवाजा खटखटाते हैं। भीतर से गुरु पूछते हैं- कौन? राम बाहर से बोलते हैं- यही तो जानने आया हूं कि मैं हूं कौन? यह कोई संयोग नहीं है कि इक्कीसवीं सदी में पहचान के सवालों से खदबदा रहा दक्षिण एशिया कभी नुसरत फतेह अली खां, कभी वडाली बंधुओं, कभी रब्बी शेरगिल तो कभी ए. आर. रहमान के सुरों पर सवार बुल्लेशाह की रचनाओं में सुकून पा रहा है।

बुल्ला की जाणा मैं कौन को ही गौर से सुनें तो इस सूफी संत के क्रांतिकारी अध्यात्म तक पहुंच सकते हैं। ना मैं मोमिन विच्च मसीतां, ना मैं विच्च कुफर दिआं रीतां। ना मैं पाकां विच्च पलीतां, ना मैं मूसा ना फिरऔन। ना मैं अंदर बेद किताबां, ना विच भंगां होर शराबां। ना विच रिंदां मस्त खराबां, ना विच जागन ना विच सौन।.....अव्वल आखर आप नूं जाना, ना कोई दूजा होर पिछाना। मैथों होर न कोई सियाना, बुल्ला शाह खड़ा है कौन। न तो मस्जिद में रमने वाला मोमिन हूं, न कुफ्र की रीत से कोई लेना-देना है। न पवित्र लोगों के बीच गंदा हूं, न मूसा हूं, न फराओ। न वेद और दूसरी किताबों में हूं, न भांग और शराब में। न मस्त शराबियों के बीच खराब पड़ा हूं, न जागने वालों में हूं, न सोने वालों में। .....प्रारंभ और अंत मैं खुद को ही जानता हूं, किसी और की मुझे पहचान नहीं है। मुझसे सयाना कोई और नहीं है, बुल्लेशाह की शक्ल में यह कौन खड़ा है? बाबा बुल्लेशाह की जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों अभी पाकिस्तानी पंजाब में है, लेकिन एक मजहबी मुल्क में ऐसे बागी सुर के लिए क्या कोई जगह निकाली जा सकेगी? बाबा का जीवनकाल 1680 से 1757 के बीच माना जाता है। एक ऐसा दौर, जिसकी पहचान औरंगजेब की मजहबी तानाशाही और गुरु गोविंद सिंह की बगावत से जुड़ी है। दिल्ली तख्त के सीधे निशाने पर होने के बावजूद नवें गुरु तेग बहादुर को इस फकीर ने खुलेआम गाजी (धर्मयोद्धा) करार दिया था। हिंसा और रक्तपात से भरे उस युग को ध्यान में रखें तो उनकी इस काफी (सूफी छंद) का एक अलग अर्थ निकलता है- वाह-वाह माटी दी गुलजार। माटी घोड़ा, माटी जोड़ा माटी दा असवार। माटी माटी नूं दौड़ावे, माटी दी खड़कार। माटी माटी नूं मारन लागी, माटी दे हथियार....। मिट्टी का घोड़ा, मिट्टी का जोड़ा, मिट्टी का ही सवार। मिट्टी मिट्टी को दौड़ावे, मिट्टी की झनकार। मिट्टी मिट्टी को मार रही है, मिट्टी के हथियार....।
बुल्लेशाह के बारे में किस्सा है कि एक बार रमजान के महीने में वह अपने डेरे में बैठे बंदगी कर रहे थे और उनकेचेले बाहर बैठे गाजर खा रहे थे। कुछ रोजादार मुसलमान उधर से गुजरे और फकीर के डेरे पर लोगों को रोजातोड़ते देख नाराज हो गए। पूछा - तुम लोग मुसलमान नहीं हो क्या ? जवाब हां में मिला तो उनकी कुटाई करदी। फिर उन्हें लगा कि कुछ सेवा उस उस्ताद की भी की जानी चाहिए , जिसके शागिर्द ऐसे हैं। भीतर जाकर पूछा- अरे तू कौन है ? बुल्लेशाह ने बाजू ऊपर करके एं - वें हाथ हिला दिए। मोमिनों को लगा , पागल है। बाद मेंचेलों ने पूछा , बाबा हमें बड़ी मार पड़ी , तुम बच कैसे गए ? उन्होंने कहा , तुमसे कुछ पूछा था ? वे बोले ,मजहब पूछा था , मुसलमान बताया तो मारने लगे। बुल्लेशाह ने कहा - बेटा , कुछ बने हो , तभी मार खाई है।हम कुछ नहीं बने तो बच गए।