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गुरुवार, 9 जनवरी 2014

आगरा का लाल क़िला




आगरा में ताजमहल से थोड़ी दूर पर 16 वीं शताब्‍दी में बना महत्‍वपूर्ण मुग़ल स्‍मारक है, जो आगरा का लाल क़िला नाम से विख्यात है। यह शक्तिशाली क़िला लाल सैंड स्‍टोन से बना हुआ है। यह 2.5 किलोमीटर लम्‍बी दीवार से घिरा हुआ है। यह मुग़ल शासकों का शाही शहर कहा जाता है। इस क़िले की बाहरी मज़बूत दीवारें अपने अंदर एक स्‍वर्ग को छुपाए हैं। इस क़िले में अनेक विशिष्‍ट भवन हैं।
विशिष्‍ट भवन

'मोती मस्जिद' सफ़ेद संगमरमर से बनी है, जो एक त्रुटि रहित मोती जैसी है।
दीवान ए आम
दीवान ए ख़ास
मुसम्‍मन बुर्ज - जहाँ मुग़ल शासक शाहजहाँ की मौत 1666 ए. डी. में हुई।
जहाँगीर का महल
ख़ास महल
शीश महल
आगरा का क़िला मुग़ल वास्‍तुकला का उत्‍कृष्‍ट उदाहरण है, यह भारत में 'यूनेस्को के विश्‍व विरासत स्‍थलों' में से एक है।

अकबरनामा के अनुसार आगरा क़िले का निर्माण होता देखते सम्राट अकबर

क़िले का निर्माण

आगरा के क़िले का निर्माण 1656 के लगभग शुरू हुआ था। इसकी संरचना मुग़ल बादशाह अकबर ने निर्मित करवाई थी। इसके बाद का निर्माण उनके पोते शाहजहाँ ने कराया। शाहजहाँ ने क़िले में सबसे अधिक संगमरमर लगवाया। यह क़िला अर्ध चंद्राकार बना हुआ है जो पूर्व की दिशा में चपटा है और इसकी एक सीधी और लम्‍बी दीवार नदी की ओर जाती है। इस पर लाल सैंडस्‍टोन की दोहरी प्राचीर बनी हैं। बाहरी दीवार की चौड़ाई 9 मीटर मोटी है। एक और आगे बढ़ती 22 मीटर ऊंची अंदरुनी दीवार अपराजेय है। क़िले की रूपरेखा यमुना नदी की दिशा में है, जो उन दिनों इसके पास से बहती थी। इसका मुख्‍य अक्ष नदी के समानान्‍तर है और दीवारें शहर की ओर हैं।


क़िले की संरचना


इस क़िले के मूलत: चार प्रवेश द्वार थे, जिनमें से दो को बाद में बंद कर दिया गया था। आज पर्यटकों को राणा अमरसिंह दरवाज़े से प्रवेश करने की अनुमति है। 'जहाँगीरी महल' पहला उल्‍लेखनीय भवन है जो अमरसिंह नामक प्रवेश द्वार से आने पर अतिथि सबसे पहले देखते हैं। जहाँगीर अकबर का बेटा था और वह मु्ग़ल साम्राज्य का उत्तराधिकारी भी था। जहाँगीर महल का निर्माण अकबर ने महिलाओं के लिए कराया था। यह पत्‍थरों से बना हुआ है और इसकी बाहरी सजावट बहुत ही सादगी वाली है। पत्‍थरों के बड़े कटोरे पर सजावटी पर्शियन पच्‍चीकारी की गई है, जो संभवत: सुगंधित गुलाबजल को रखने के लिए बनाया गया था। अकबर ने जहाँगीर महल के पास अपनी प्रिय रानी जोधाबाई के लिए एक महल का निर्माण भी कराया था।


ख़ासमहल
आगरा क़िले की झरोखा ख़िड़की में जहाँगीर


शाहजहाँ द्वारा पूरी तरह से संगमरमर का बना हुआ ख़ासमहल विशिष्‍ट इस्‍लामिक-पर्शियन विशेषताओं का उत्कृष्ट उदाहरण है। इनके साथ हिन्‍दुओं की वास्तुकला की अद्भुत छतरियों को मिलाया गया है। यह बादशाह का सोने का कमरा या आरामगाह माना जाता है। ख़ासमहल में सफ़ेद संगमरमर की सतह पर चित्रकला का सबसे उत्कृष्ट चित्रांकन किया गया है। ख़ासमहल की बाईं ओर 'मुसम्‍मन बुर्ज' है कहा जाता है कि इसका निर्माण शाहजहाँ ने कराया था। यह सुंदर अष्‍टभुजी स्‍तंभ एक खुले मंडप के साथ बना है। इसका खुलापन, ऊंचाइयाँ और शाम की ठण्‍डी हवाएं इसकी कहानी खुद कहती हैं। कहा जाता है कि यही वह जगह है जहाँ शाहजहाँ ने ताजमहल को निहारते हुए अंतिम सांसें ली थी।


शीशमहल


शीशमहल या कांच का बना हुआ महल हमाम के अंदर सजावटी पानी वास्तुकला का उत्‍कृ‍ष्‍टतम उदाहरण है। यह माना जाता है कि हरम या कपड़े पहनने का कक्ष और इसकी दीवारों में छोटे छोटे शीशे लगाए गए थे जो भारत में कांच की सजावट का सबसे अच्‍छा नमूना है। शाही महल के दाईं ओर दीवान-ए-ख़ास है, जो निजी श्रोताओं के लिए है। यहाँ बने संगमरमर के खम्‍भों में सजावटी फूलों के पैटर्न पर अर्ध्द कीमती पत्‍थर लगाए गए हैं। इसके पास मम्‍मम-शाही या 'शाहबुर्ज' को गर्मी के मौसम में काम में लिया जाता था।


दीवान-ए-आम


'दीवान-ए-आम' में प्रसिद्ध 'मयूर सिंहासन' रक्खा जाता था, जिसे शाहजहाँ ने राजधानी दिल्‍ली से ला कर लालक़िले में रक्खा गया था। यह सिंहासन सफ़ेद संगमरमर से बना हुआ उत्‍कृष्‍ट कला का नमूना है।


नगीना मस्जिद


नगीना मस्जिद का निर्माण शाहजहाँ ने कराया था, जो दरबार की महिलाओं के लिए एक निजी मस्जिद थी।

यमुना नदी से आगरा क़िले का एक दृश्य
मोती मस्जिद



मोती मस्जिद आगरा क़िले की सबसे सुंदर रचना है। यह भवन आजकल दर्शकों के लिए बंद किया गया है। मोती मस्जिद के पास 'मीना मस्जिद' है, जिसे शाहजहाँ ने केवल अपने निजी उपयोग के लिए बनवाया था।


ध्वनि और प्रकाश कार्यक्रम


क़िले की दर-ओ दीवार आकर्षक रोशनी से रोशन होती और पाश्र्व में इतिहास की गाथा दमदार आवाज़ के साथ सुनाई देती है। छह साल बाद आगरा क़िला फिर से इस अंदाज में पर्यटकों को इतिहास के पन्नों से रुबरु कराने के लिए तैयार है। पौने दो करोड़ रुपये खर्च कर बंद पड़े 'ध्वनि और प्रकाश कार्यक्रम' का अधिकारियों की मौजूदगी में अभ्यास होगा। आगरा क़िले में होने वाला 'ध्वनि और प्रकाश कार्यक्रम' वर्ष 2004 से बंद पड़ा था। केंद्र सरकार ने इस कार्यक्रम को दोबारा शुरू करने के लिए 1.76 करोड़ रुपये बजट को स्वीकृति दी थी। अब योजना पूरी कर ली गई और कार्यक्रम शुरू होने के लिए पूरी तैयार है। सूत्रों के मुताबिक इस बार कार्यक्रम को बिल्कुल नये अंदाज में प्रस्तुत किया जाएगा। इसके लिए आधुनिक उपकरण और मशीनें लगाई गई हैं। जिससे प्रस्तुति पहले से कहीं ज़्यादा बेहतर होगी।


गौरवलब है कि ताजनगरी आने वाले पर्यटकों को रात्रि प्रवास को आकर्षित करने के लिए पूर्व में पर्यटन विभाग ने यह कार्यक्रम शुरू किया था। क़िला बंद होने के बाद शाम को होने वाले इस कार्यक्रम में ध्वनि और प्रकाश संयोजन के साथ क़िले से जुड़े इतिहास को रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया जाता था। 2004 से बंद पड़े इस शो को शुरू कराने की जब पर्यटन संस्थाओं और जन प्रतिनिधियों ने माँग उठाई और मामला विधानसभा तक पहुँच गया तो प्रस्ताव केन्द्रीय पर्यटन मंत्रालय को भेज दिया गया। जहाँ से बजट मिलने के बाद इसे दोबारा तैयार किया गया है। यह कार्यक्रम हिन्दी और अंग्रेज़ी में अलग-अलग प्रस्तुत किया जाएगा।

रविवार, 22 दिसंबर 2013

कोई तो बताये मेरी गुलाब को किसने मारा?


कोई तो बताये मेरी गुलाब को किसने मारा?


ई। 1761 में मेवाड़ी सरदार सिसी फ्रांसिसी सेनापति समरू को मेवाड़ पर चढ़ा लाये। तब से महाराणा और उसके सरदारों में आपसी संघर्ष का जो सिलसिला चला वह रजवाड़ों के मिट जाने के बाद ही समाप्त हो सका।


जिस समय अंग्रेज शक्ति देशी राज्यों की घेराबंदी करने की योजना बना रही थी, उस समय राजपूताना के देशी राज्य अनेक आंतरिक एवं बाह्य समस्यओं से जूझ रहे थे जिनमें से सबसे बड़ी और अंतहीन दिखायी देने वाली समस्या थी। राज्यों के सामंतों तथा जागीरदारों की अनुशासन हीनता और लूट खसोट की प्रवृत्ति। सामंतों तथा जागीरदारों ने राजाओं की नाक में दम कर रखा था तथा अधिकांश राजा अपने सरदारों के उन्मुक्त आचरण का दमन करने में सक्षम नहीं थे।


देशी राज्यों में राजा के उत्तराधिकारी को लेकर खूनी संघर्ष होते रहेते थे जिनके कारण राज्य वंश के सदस्य, राज्य के अधिकारी एवं जागीरदार दो या दो से अधिक गुटों में बंटे रहते थे। इन सब कारणों से राजपूताना के देशी राज्यों की आर्थिक, राजनैतिक एवं सामरिक दशा अत्यंत शोचनीय हो गयी थी।
राजपूताना के रजवाड़े और उनके अधीनस्थ जागीरदारों में विगत एक शताब्दी से भी अधिक समय से जबर्दस्त संघर्ष की स्थिति बनी हुई थी। जागीरदार अपने निरंकुश व्यवहार का निशाना न केवल निरीह जनता को बनाते रहे थे अपितु वे रियासत के शासकों की भी उपेक्षा करके मनमाना व्यवहार करते रहे थे।


जोधपुर नरेश विजयसिंह की पूरी शक्ति अपने ही जागीरदारों को दबा कर रखने में व्यय हुई थी। ई। 1786 में उसने अपने जागीरदारों को मराठों से निबटने में असमर्थ जानकर नागों और दादू पंथियों की एक सेना तैयार की। ये लोग ‘बाण’ चलाने में बड़े दक्ष थे। इनकी मदद से विजयसिंह को काफी बल मिला किन्तु विदेशी सेना को मारवाड़ में देखकर सारे राजपूत सरदार बिगड़ गये और उन्होंने इके होकर विजयसिंह के विरुद्ध लड़ाई की घोषणा कर दी।


विजयसिंह उस समय तो किसी प्रकार सरदारों को मना लाया किन्तु बाद में उसने सरदारों को धोखे से कैद कर लिया। इनमें से दो सरदारों की कैद में मृत्यु हो गई और एक को बालक जानकर छोड़ दिया गया। इस घटना से सारे जागीदारों में सनसनी फैल गई और उन्होंने मारवाड़ में लूट मार मचा दी। बड़ी कठिनाई से विजयसिंह स्थित पर काबू पा सका। आउवा के ठाकुर जैतसिंह ने जब पशुवध निषेध की राजाज्ञा का पालन नहीं किया तो विजयसिंह ने किले में बुलाकर उसकी हत्या कर दी।


कुछ ही दिनों बाद जोधपुर राज्य के जागीरदारों ने षड़यंत्र पूर्वक राजा विजयसिंह की पासवान गुलाबराय की हत्या कर दी। राजा को इस घटना से इतना आघात पहुँचा कि वह पागलों की तरह जोधपुर की गलियों में भटकने लगा और मार्ग में मिलने वाले प्रत्येक आदमी से कहता– कोई तो बताये मेरी गुलाब को किसने मारा? इस पासवान के वियोग में राजा मात्र 46 वर्ष की आयु में मृत्यु को प्राप्त हुआ।


पोकरण ठाकुर सवाईसिंह ने अपने साथ पाली, बगड़ी, हरसोलाव, खींवसर, मारोठ, सेनणी, पूनलू आदि के जागीरदारों को अपने पक्ष में करके महाराजा मानसिंह के विरुद्ध लड़ाई आंरभ कर दी। जोधपुर नरेश मानसिंह को अपने सरदारों को दबाने के लिये पिण्डारी नेता अमीरखां की सेवाएं लेनी पड़ीं। अमीरखां के साथी मुहम्मद खां ने पोकरण, पाली और बगड़ी के ठाकुरों को मूण्डवा में बुलाया और धोखे से एक शामियाने में बैठाकर शामियाने की रस्सि्यां काट दीं तथा चारों तरफ से तोल के गोले बरसा दिये। उसने मृत ठाकुरों के सिर काटकर राजा मानसिंह को भिजवाये। इस घटना से सारे ठाकुर डर गये और उन्होंने महाराजा से माफी मांग ली।


उदयपुर में 1761 में अरिसिंह मेवाड़ का महाराणा हुआ। महाराणा होने के उपलक्ष्य में वह एकलिंगजी के दर्शनों के लिये गया। वहाँ से लौटते समय जब महाराणा का घोड़ा चीरवा के तंग घाटे तक पहुंचा, उस समय महाराणा के आगे कई सरदार और घुड़सवार चल रहे थे जिससे महाराणा के घोड़े को धीमे हो जाना पड़ा। इस पर महाराणा ने छड़ीदारों को आज्ञा दी कि मार्ग खाली करवाओ। छड़ीदारों ने मार्ग खाली करवाने के लिये सरदारों के घोड़ों को भी छडि़यां मारीं। सरदार लोग उस समय तो उस अपमान को सहन कर गये किंतु उन्होंने महाराणा को हटा कर उसके स्थान पर महाराणा के पिता जगतसिंह की अन्य विधवा, जो कि झाली रानी के नाम से विख्यात थी, उसके गर्भ में पल रहे बालक को महाराणा बनाने का संकल्प किया। सरदारों के इस आचरण से कुपित होकर महाराणा ने कई सरदारों की हत्या करवा दी। मेवाड़ी सरदार फ्रांसिसी सेनापति समरू को मेवाड़ पर चढ़ा लाये। तब से महाराणा और उसके सरदारों में आपसी संघर्ष का जो सिलसिला चला वह रजवाड़ों के मिट जाने के बाद ही समाप्त हो सका।


बीकानेर नरेश जोरावर सिंह की मृत्यु 1746 ई। में हुई। उसके कोई संतान नहीं थी अत: उसके मरते ही राज्य का सारा प्रबंध भूकरका के ठाकुर कुशालसिंह तथा मेहता बख्तावरसिंह ने अपने हाथ में ले लिया। उन दोनों ने राज्य का सारा कोष साफ कर दिया तथा बाद में जोरवारसिंह के चचेरे भाई गजसिंह से यह वचन लेकर कि वह उस समय तक के राज्यकोष का हिसाब नहीं मांगेगा, उसे गद्दी पर बैठा दिया। इससे अन्य सरदार शासक के प्रति द्वेष भाव रखने लगे।


बीकानेर जसवंतसिंह ने तो अपने बड़े पुत्र राजसिंह को राजद्रोह के अपराध में जेल में डाल रखा था। जब 1787 में जसवंतसिंह मरने लगा तो उसने राजसिंह को जेल से निकाल कर बीकानेर राज्य का उत्तराधिकारी घोषित किया। राजसिंह केवल 30 दिन तक राज्य करके मृत्यु को प्राप्त हुआ। राजसिंह का बड़ा पुत्र प्रतापसिंह उस समय नाबालिग था अत: बालक प्रतापसिंह को बीकानेर का राजा बनाया गया तथा सूरतसिंह को राज्य का संरक्षक नियुक्त किया गया। कुछ दिन बाद सूरतसिंह ने अपने हाथों से प्रतापसिंह का गला घोंट कर उसकी हत्या कर दी और स्वयं राजा बन गया। इससे राज्य के सारे सरदार सूरतसिंह के शत्रु हो गये और उसे उखाड़ फैंकने का उपक्रम करने लगे।


जयपुर नगर के निर्माता जयसिंह ने उदयपुर के राणा से प्रतिज्ञा की थी कि मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न होने वाला पुत्र जयसिंह के बाद आमेर राज्य का उत्तराधिकारी होगा किंतु जयसिंह की मृत्यु के बाद जयसिंह का सबसे बड़ा पुत्र ईश्वरीसिंह जयपुर राज्य की गद्दी पर बैठा। मेवाड़ की राजकुमारी से उत्पन्न माधोसिंह को टोंक, टोडा तथा तीन अन्य परगनों की जागीर दे दी गयी। इस पर माधोसिंह ने मेवाड़ तथा मराठों का सहयोग प्राप्त कर जयपुर राज्य पर आक्रमण कर दिया। ईश्वरीसिंह को आत्महत्या कर लेनी पड़ी तथा 1750 ईस्वी में माधोसिंह जयपुर की गद्दी पर बैठा।इसी प्रकार की बहुत सी घटनायें बूंदी, कोटा, डूंगरपुर बांसवाड़ा तथा अन्य राजपूत रियासतों में घटित हुईं थीं जिनके चलते राजाओं और जागीरदारों में संघर्ष की स्थिति चली आ रही थी। विद्रोही राजकुमारों तथा जागीरदारों को अपने ही शासकों का सामना करने की क्षमता राजपूताने में उपस्थित दो बाह्य शक्तियों से प्राप्त हुई थी। इनमें से पहली बाह्य शक्ति मराठों की थी तो दूसरी पिण्डारियों की।

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शुक्रवार, 20 दिसंबर 2013

पिण्डारियों ने पोकरण ठाकुर का सिर काटकर राजा को भिजवाया

डॉ एम एल  गुप्ता 


पिण्डारियों ने पोकरण ठाकुर का सिर काटकर राजा को भिजवाया


ई. 1803 में राजा मानसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उस समय उसके पूर्ववर्ती राजा भीमसिंह की विधवा रानी गर्भवती थी जिसने कुछ दिन बाद धोकलसिंह नामक पुत्र को जन्म दिया। पोकरण के ठाकुर सवाईसिंह ने पाली, बगड़ी, हरसोलाव, खींवसर, मारोठ, सेनणी, पूनलू आदि के जागीरदारों को अपने पक्ष में करके धोकलसिंह को मारवाड़ का राजा बनाना चाहा। उसने जयपुर के राजा जगतसिंह तथा बीकानेर के राजा सूरतसिंह को भी अपनी ओर मिला लिया। इन तीनों पक्षों ने लगभग एक लाख सिपाहियों की सेना लेकर जोधपुर राज्य पर चढ़ाई कर दी। मानसिंह ने गीगोली के पास इस सेना का सामना किया किंतु जोधपुर राज्य के सरदार जबर्दस्ती मानसिंह का घोड़ा युद्ध के मैदान से बाहर ले आये। शत्रु सेना ने परबतसर, मारोठ, मेड़ता, पीपाड़ आदि कस्बों को लूटते हुए जोधपुर का दुर्ग घेर लिया।


इस पर मानसिंह को पिण्डारी नेता अमीरखां की सेवाएं लेनी पड़ीं। उसने अमीरखां को पगड़ी बदल भाई बनाया और उसे अपने बराबर बैठने का अधिकार दिया। इतना ही नहीं मानसिंह ने अमीर खां को पाटवा, डांगावास, दरीबा तथा नावां आदि गाँव भी प्रदान किये। अमीरखां ने महाराजा को वचन दिया कि वह सवाईसिंह को अवश्य दण्डित करेगा।


अमीरखां ने एक भयानक जाल रचा। उसने महाराजा मानसिंह से पैसों के लिये झगड़ा करने का नाटक किया तथा जोधपुर राज्य के गाँवों को लूटने लगा। जब सवाईसिंह ने सुना कि अमीर खां जोधपुर राज्य के गाँवों को लूट रहा है तो उसने अमीरखां को अपने पक्ष में आने का निमंत्रण दिया। अमीर खां ने सवाईसिंह से कहा कि यदि सवाईसिंह अमीरखां के सैनिकों का वेतन चुका दे तो अमीरखां सवाईसिंह को जोधपुर के किले पर अधिकार करवा देगा। सवाईसिंह अमीरखां के आदमियों का वेतन चुकाने के लिये तैयार हो गया। इस पर अमीरखां ने सवाईसिंह को अपने साथियों सहित मूण्डवा आने का निमंत्रण दिया।



सवाईसिंह चण्डावल, पोकरण, पाली और बगड़ी के ठाकुरों को साथ लेकर मूण्डवा पहुँचा। अमीरखां के आदमियों ने इन ठाकुरों को एक शामियाने में बैठाया तथा धोखे से शामियाने की रस्सि्यां काटकर चारों तरफ से तोल के गोले बरसाने लगे। इसके बाद मृत ठाकुरों के सिर काटकर राजा मानसिंह को भिजवाये गये। इस घटना से सारे ठाकुर डर गये और उन्होंने महाराजा से माफी मांग ली।कुछ दिनों बाद अमीरखां महाराजा से पैसों की मांग करने लगा। जब महाराजा ने पैसे देने से मना कर दिया तो उसने गाँवों में आतंक मचा दिया। एक दिन उसके आदमियों ने जोधपुर के महलों में घुसकर राजा मानसिंह के प्रधानमंत्री इन्द्रराज सिंघवी तथा राजा के गुरु आयस देवनाथ की हत्या कर दी।

गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

जैसलमेर महारावल ने घबराकर अंग्रेज बहादुर से दोस्ती गांठने का मन बनाया

दीवान सालिमसिंह के अत्याचारों से घबरा 

महारावल मूलराज 
महारावल ने घबराकर अंग्रेज बहादुर से दोस्ती गांठने का मन बनाया
लेखक। मोहनलाल गुप्ता 


जैसलमेर को अंतर्कलह में फंसा हुआ जानकर ई. 1783 में बीकानेर के राजा ने पूगल पर अधिकार कर लिया और उसे अपने राज्य में मिला लिया। उन दिनों जोधपुर राज्य में भी शासनाधिकार को लेकर कलह मचा हुआ था। राजा विजयसिंह अपने पौत्र मानसिंह को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहता था किंतु विजयसिंह का दूसरा पौत्र पोकरण ठाकुर सवाईसिंह के साथ मिलकर राज्य हड़पने का षड़यंत्र कर रहा था। भीमसिंह को जोधपुर राज्य छोड़कर जैसलमेर में शरण लेनी पड़ी। इस दौरान जैसलमेर के महारावल मूलराज तथा जोधपुर के राजकुमार भीमसिंह के मध्य एक संधि हुई तथा महारावल ने युवराज रायसिंह की पुत्री का विवाह भीमसिंह के साथ कर दिया।

कुछ समय बाद परिस्थितियों ने पलटा खाया तथा विजयसिंह की मृत्यु होने पर भीमसिंह जोधपुर का राजा बना। मानसिंह को जोधपुर से भागकर जालोर के किले में शरण लेनी पड़ी। जब भीमसिंह जोधपुर का राजा बना तो जैसलमेर के युवराज रायसिंह को जोधपुर में रहना कठिन हो गया। वह अपने पिता से क्षमा याचना करने के लिये जैसलमेर राज्य में लौट आया। जोरावरसिंह तथा उसके अन्य साथी भी जैलसमेर आ चुके थे।

महारावल ने युवराज के समस्त साथियों तथा जोरावरसिंह को तो क्षमा कर दिया किंतु अपने पुत्र को क्षमा नहीं कर सका और उसे देवा के दुर्ग में नजरबंद कर दिया। रायसिंह के दो पुत्र अभयसिंह और धोकलसिंह बाड़मेर में थे। महारावल ने उन्हें कई बार बुलाया किंतु सामंतों ने डर के कारण राजकुमारों को समर्पित नहीं किया। महारावल ने रुष्ट होकर बाड़मेर को घेर लिया। 6 माह की घेरेबंदी के बाद सामंतों ने इस शर्त पर दोनों राजकुमारों को महारावल को सौंप दिया कि राजकुमारों के प्राण नहीं लये जायेंगे। महारावल ने जोरावरसिंह से दोनों राजकुमारों के प्राणों की सुरक्षा की गारण्टी दिलवायी।

दीवान सालिमसिंह के दबाव पर महारावल मूलराज ने युवराज रायसिंह के दोनों पुत्रों को रायसिंह के साथ ही देवा के दुर्ग में नजरबंद कर दिया। सालिमसिंह अपने पिता की हत्या करने वालों से बदला लेना चाहता था किंतु जोरावरसिंह उन सब सामंतों को महारावल से माफी दिलवाकर फिर से राज्य में लौटा लाया था। इसलिये सालिमसिंह ने जोरावरसिंह को जहर देकर उसकी हत्या करवा दी। कुछ ही दिनों बाद मेहता सालिमसिंह ने जोरावरसिंह के छोटे भाई खेतसी की भी हत्या करवा दी। सालिमसिंह का प्रतिशोध यहाँ पर आकर भी समाप्त नहीं हुआ। उसने कुछ दिन बाद देवा के दुर्ग में आग लगवा दी जिसमें युवराज रायसिंह तथा उसकी रानी जलकर मर गये। रायसिंह के दोनों पुत्र अभयसिंह तथा धोकलसिंह इस आग में जीवित बच गये थे। उन्हें रामगढ़ में लाकर बंद किया गया। कुछ समय बाद वहीं परा उन दोनों की हत्या कर दी गयी।
इस प्रकार जब राजपूताना मराठों और पिण्डारियों से त्रस्त था और अंग्रेज बंगाल की ओर से चलकर राजपूताने की ओर बढ़े चले आ रहे थे, जैसलमेर का राज्य अपनी ही कलह से नष्ट हुआ जा रहा था। बीकानेर का राजा जैसलमेर राज्य के पूगल क्षेत्र को हड़प गया था तो जोधपुर राज्य ने उसके शिव, कोटड़ा तथा दीनगढ़ को डकार लिया था। महारावल ने दीवान सालिमसिंह तथा अपने पड़ौसी राज्यों के अत्याचारों से घबरा कर अंग्रेज बहादुर से दोस्ती गांठने का मन बनाया।

बुधवार, 18 दिसंबर 2013

मेहता सालिमसिंह ने जैसलमेर के तीन राजकुमारों को मार डाला


मेहता सालिमसिंह ने जैसलमेर के तीन राजकुमारों को मार डाला

लेखक मोहन लाल गुप्ता 


जिस समय जोधपुर, जयपुर, मेवाड़ और बीकानेर आपस में संघर्षरत थे तथा मराठों और पिण्डारियों का शिकार बन रहे थे उस समय जैसलमेर का भाटी राज्य भयानक आंतरिक कलह में उलझा हुआ था। मरूस्थलीय एवं अनुपजाऊ क्षेत्र में स्थित होने के कारण मराठों और पिण्डारियों को इस राज्य में कोई रुचि नहीं थी। इस काल में एक ओर तो राज्य के दीवान और सामंतों के मध्य शक्ति परीक्षण चल रहा था दूसरी ओर जैसलमेर के शासक मूलराज द्वितीय का अपने ही पुत्र रायसिंह से वैर बंध गया था।


महारावल मूलराज ने मेहता टावरी (माहेश्वरी) स्वरूपसिंह को अपना दीवान नियुक्त किया। वह कुशाग्र बुद्धि वाला चतुर आदमी था। महारावल ने राज्य का सारा काम उसके भरोसे छोड़ दिया। जैसलमेर राज्य के सामंत लूटपाट करने के इतने आदी थे कि वे अपने ही राज्य के दूसरे सामंत के क्षेत्र में लूटपाट करने में नहीं हिचकिचाते थे। जब मेहता स्वरूपसिंह ने सामंतों को ऐसा करने से रोकने का प्रयास किया तो सामंत उसकी जान के दुश्मन बन गये। जब सामंतों ने स्वरूपसिंह के विरुद्ध शिकायत की तो महारावल ने स्वरूपसिंह के विरुद्ध कोई भी शिकायत सुनने से मना कर दिया। इस पर सामंतों ने महारावल के पुत्र राजकुमार रायसिंह को स्वरूपसिंह के विरुद्ध षड़यंत्र में शामिल कर लिया।


दीवान स्वरूपसिंह एक वेश्या पर आसक्त था परंतु वह वेश्या सामंत सरदारसिंह पर आसक्त थी। इससे स्वरूपसिंह खिन्न रहता था। अपनी खीझ निकालने के लिये उसने सरदारसिंह को बहुत तंग किया। सरदारसिंह ने युवराज रायसिंह से स्वरूपसिंह की शिकायत की। रायसिंह पहले से ही स्वरूपसिंह से रुष्ट था क्योंकि स्वरूपसिंह ने युवराज का दैनिक भत्ता कम कर दिया था।


युवराज को दीवान से रुष्ट जानकर, दीवान से असंतुष्ट सामंत, रायसिंह की शरण में आ गये तथा स्वरूपसिंह को पद से हटाने का षड़यंत्र करने लगे। 10 जनवरी 1784 को युवराज रायसिंह ने भरे दरबार में दीवान स्वरूपसिंह का सिर काट डाला। अपने पुत्र का यह दु:साहस देखकर महारावल रायसिंह दरबार छोड़कर भाग खड़ा हुआ और रनिवास में जाकर छुप गया। महारावल को इस प्रकार भयभीत देखकर सामंतों ने रायसिंह को सलाह दी कि वह महारावल की भी हत्या कर दे और स्वयं जैसलमेर के सिंहासन पर बैठ जाये।


युवराज ने पिता की हत्या करना उचित नहीं समझा किंतु सामंतों के दबाव में उसने महारावल को अंत:पुर में ही बंदी बनाकर राज्यकार्य अपने हाथ में ले लिया। अपने पिता के प्रति आदर भाव होने के कारण युवराज स्वयं राजगद्दी पर नहीं बैठा। लगभग तीन माह तक महारावल रनिवास में बंदी की तरह रहा। एक दिन अवसर पाकर महारावल के विश्वस्त सामंतों ने अंत:पुर पर आक्रमण कर दिया तथा महारावल मूलराज को मुक्त करवा लिया। महारावल को उसी समय फिर से राजगद्दी पर बैठाया गया। उस समय युवराज रायसिंह अपने महल में विश्राम कर रहा था। जब महारावल का दूत युवराज के राज्य से निष्कासन का पत्र लेकर युवराज के पास पहुँचा तो युवराज को स्थिति के पलट जाने का ज्ञान हुआ।


महारावल ने क्षत्रिय परम्परा के अनुसार राज्य से निष्कासित किये जाने वाले युवराज के लिये काले कपड़े, काली पगड़ी, काली म्यान, काली ढाल तथा काला घोड़ा भी भिजवाया। युवराज ने अपने पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया तथा काला वेश धारण कर अपने साथियों सहित चुपचाप राज्य से निकल गया। उसने जोधपुर के राजा विजयसिंह के यहाँ शरण प्राप्त की।


महारावल मूलराज ने फिर से राजगद्दी पर बैठकर पूर्व दीवान स्वरूपसिंह के 11 वर्षीय पुत्र सालिमसिंह को राज्य का दीवान बनाया। मेहता सालिमसिंह ने कुछ समय तक बड़ी शांति से राज्य कार्य का संचालन किया। जैसलमेर के इतिहास में मेहता सालिमसिंह का बड़ा नाम है। जैसे ही सालिमसिंह वयस्क हुआ, उसके और सामंत जोरावरसिंह के बीच शक्ति परीक्षण होने लगा। जोरावरसिंह ने ही महारावल को अंत:पुर से मुक्त करवाकर फिर से राजगद्दी पर बैठाया था किंतु सालिमसिंह ने महारावल से कहकर जोरावरसिंह को राज्य से निष्कासित करवा दिया। जोरावरसिंह युवराज रायसिंह के पास चला गया।

हिन्दूपथ - राणा साँगा (1509-1528)

हिन्दूपथ - राणा साँगा (1509-1528)

महाराणा साँगा का जन्म 12 अप्रेल 1482 को तथा राज्याभिषेक 24 मई 1509 को हुआ। ये महाराणा कुंभा के पौत्र तथा महाराणा रायमल के पुत्र थे।

1518 मेँ राणा सांगा ने मालवा के शासक मोहम्मद खिलजी द्वितीय को गागरोण के युद्ध मेँ पराजित किया।

राणा साँगा ने 1518 मेँ खातोली युद्ध और 1519 मेँ बाङी के युद्ध मेँ इब्राहीम लोदी की मियाँ मक्कन की अगुवाई वाली सेना को पराजित किया।

खानवा का युद्ध 17 मार्च 1527 को हुआ था। महाराणा साँगा ने खानवा के युद्ध से पहले पाती परवन नामक राजपूती परंपरा के तहत राजस्थान के प्रत्येक सरदार व महाराणा को अपनी ओर से युद्ध मेँ शामिल होने का निमंत्रण दिया। साँगा अंतिम हिन्दू राजा था , जिसके सेनापतित्व मेँ सब राजपूत जातियाँ विदेशियोँ को भारत से निकालने के लिए सम्मिलित हुई। इसलिए सांगा को हिन्दूपथ/हिन्दुपात कहते है।

बाबर ने मुस्लिम सैनिकोँ की धार्मिक भावनाओँ को उत्तेजित करने हेतु खानवा व चन्देरी के युद्ध मेँ जिहाद का नारा दिया।

खानवा के युद्ध मेँ बाबर की विजय का प्रमुख कारण तोपखाना था। उसके तोपची का नाम मुस्तफा अली था।

खानवा के युद्ध के बाद घायल सांगा को बसवा(दौसा) मेँ लाया गया , अपने सरदारोँ द्वारा जहर दिये जाने के कारण राणा सांगा की मौत हुई। उनका अंतिम संस्कार यही पर किया गया।

सांगा का समाधि स्थल (छतरी) मांङलगढ मेँ है , जिसका निर्माण जगनेर के अशोक परमार ने करवाया था।

बुधवार, 11 दिसंबर 2013

चोल राजवंश, भारत का वो राजवंश जिनके राजाओं को "सूर्य पुत्र" कहा जाता है



चोल राजवंश, भारत का वो राजवंश जिनके राजाओं को "सूर्य पुत्र" कहा जाता है। इस राजवंश ने अपने शुरूआती दौर से ही इतिहास के जानकारों और उसमें रूचि रखने वालों को अपनी तरफ आकर्षित किया है। अतः भारत में ये राजवंश हमेशा से ही अपने यश, वैभव, बल और सेना के चलते इतिहासकारों के बीच आकर्षण का केंद्र रहा है। इस राजवंश के बारे में एक बड़ी ही प्रसिद्ध कहावत मशहूर है, कहा जाता है कि जहां कावेरी नदी की धार मुड़ती थी ये राजवंश वहां तक फैला था। एक मजबूत नौसेना का स्वामी ये राजवंश एक ज़माने में दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली राजवंश रहा है। इस राजवंश के शासनकाल की अवधि 9 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के बीच की थी। 9वीं से 13 वीं शताब्दी के शुरूआती दौर को देखें तो पता चलता है कि अपने सांस्कृतिक, आर्थिक और सैन्य मोर्चों की बदौलत चोल साम्राज्य दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया का सुपर पावर था और उस समय किसी भी राजवंश या साम्राज्य में इतनी हिम्मत नहीं थि की वो इनका डट के मुकाबला कर सकें।सभी चोल राजाओं में सबसे प्रसिद्ध राजराजा चोल हैं और उनके बेटे राजेंद्र चोल हैं इन दोनों राजाओं के बारें में ये प्रसिद्ध था कि हर उगते सूरज के साथ इनके राज्य का विस्तार हुआ है। जिन्होंने प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों न केवल एक मजबूत प्रशासन की नीव रखी बल्कि, निर्माण, कला और साहित्य को भी बहुत प्रोत्साहन दिया। अगर तमिल साहित्य को देखें तो मिलता है की संगम कवियों ने चोल शासकों और उनकी शासन व्यवस्था का बहुत अधिक मात्रा में प्रचार प्रसार किया है और पूरा का पूरा तमिल साहित्य चोल राजवंशों की गाथाओं से भरा पड़ा है। अगर बात इस राजवंश की कला के क्षेत्र में की गयी उपलब्धियों पर हो तो पता चलता है कि इन्होने कला और निर्माण को उसके सर्वोत्तम रूप में प्रसारित और प्रचारित किया। स्लाइड्स के माध्यम से देखिये क्यों ख़ास थी चोल राजवंश की कला शैली।






ऐरावतेश्वर मंदिर, दरासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर दरासुरम का एक मुख्य आकर्षण है और भक्त यहाँ वर्ष भर आते हैं। पुराणों के अनुसार देवताओं के राजा इंद्र के सफ़ेद हाथी ऐरावत ने यहाँ भगवान शिव की पूजा की थी। दुर्वासा ऋषि द्वारा दिए गए श्राप से मुक्त होने के लिए ऐरावत ने भगवान शिव की आराधना की। हिंदुओं में मृत्यु के देवता माने जाने वाले भगवान् यम ने भी इस मंदिर में भगवान शिव की आराधना की थी। इस मंदिर में भगवान शिव की ऐरावतेश्वर के रूप में पूजा की जाती है। यह मंदिर प्रारंभिक द्रविड़ वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मंदिर में पत्थरों पर सुंदर नक्काशी की गई है।






थिलाई नटराजर मंदिर, चिदंबरम थिलाई नटराजर मंदिर चिदंबरम का प्रमुख आकर्षण है। यह शैवों के लिए पूजा के सबसे महत्वपूर्ण केन्द्रों में से एक है और यह देश भर के यात्रियों को आकर्षित करता है। कई संतों ने इसकी प्रशंसा में गीत गाएं हैं। इसका निर्माण लगभग 2 सदी पहले किया गया था और तब से इस ने वास्तुकला, नृत्य और तमिलनाडु के अन्य कला रूपों को प्रभावित किया है। आज जिस रुप में यह मंदिर खड़ा है इसे विभिन्न समय पर विभिन्न राजवंशों ने पुनर्निर्मित किया था और उनके शैलीगत प्रभावों को मंदिर की वास्तुकला में देखा जा सकता है। इस मंदिर ने कई राजवंशों को बनते और नाश होते देखा है और इन में से हर एक ने इस पर अपनी छाप छोड़ी है। यहां भगवान शिव को थिलाई कोथन के रुप में पूजा जाता है और यहां स्थापित मुख्य मूर्ति नटराज या "ब्रह्मांडीय नर्तकी" की है।






ब्रहदीश्वर मंदिर, तंजावुर ब्रहदीश्वर मंदिर तमिल वास्तुकला में चोलों द्वारा की गई अद्भुत प्रगति का एक प्रमुख नमूना है। हिंदू देवता शिव को समर्पित मंदिर, भारत का सबसे बड़ा मंदिर होने के साथ-साथ, भारतीय शिल्प कौशल के आधारस्तम्भों में से एक है। मंदिर की भव्यता व बड़े पैमाने पर इसकी स्थापत्य दीप्ति व शांति से प्रेरित होकर इसे 'महानतम चोल मंदिर' के रूप में यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल बनने का गौरव प्राप्त हुआ है। इसे राजराजा चोल द्वारा बनाया गया था। वास्तुकला की द्रविड़ शैली में निर्मित, ब्रहदीश्वर मंदिर में नंदी बैल की प्रतिमा है, तथा यह हिंदुओं के बीच बड़ा पवित्र माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसे एक ही चट्टान के टुकड़े से बनाया गया है तथा माना जाता है कि इसका वजन लगभग 25 टन है।

श्वेतरान्येशवरार मंदिर, तिरूवेनकाडु श्वेतरान्येशवरार मंदिर, नागापट्टिनाम जिले में तिरवेंकाडु में स्थित है। यह तमिलनाडु में स्थित नौ नवग्रह मंदिरों में से चौथा नवग्रह मंदिर है। इस मंदिर में बुद्ध ग्रह( बुध) स्थित है। भगवान शिव इस मंदिर के अधिष्ठात्री देवता हैं तथा यहां उनकी श्वेतरानेश्वरार के रूप में पूजा की जाती है। देवी पार्वती की यहां ब्रहविधानायकी के रूप में पूजा होती है। मंदिर में बुद्ध का पवित्र गर्भग्रह है, जो नौ नवग्रहों में से एक हैं तथा लोगों को सम्पदा व बुद्धि प्रदान करता है। श्वेतरानेश्वरार नाम दो शब्दों श्वेतरानयम तथा ईश्वरार से मिलकर बना है, और श्वेतरानयम दो शब्दों- श्वेतम तथा अरण्यम से मिलकर बना है। मंदिर के द्वार पर नंदी की एक मूर्ति भी इस मंदिर की खासियत है। उनके शरीर पर घाव के 9 निशान हैं तथा इस देवी मंदिर के द्वार पर ही स्थापित किया गया है। इसका मुख भगवान शंकर के मंदिर की ओर है तथा कान देवी की तरफ उन्मुख हैं, जो यह दर्शाते हैं कि नंदी दिव्य जोड़े शिव व पार्वती से आज्ञा लेने को तत्पर हैं।

आदि कुम्बेस्वर मन्दिर कुंभकोणम का कुम्बेस्वर मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है और महामहाम का वार्षिक उत्सव इसी मन्दिर में मनाया जाता है। मन्दिर कम से कम 1300 साल पुराना है। मन्दिर 7वीं शताब्दी से अस्तित्व में है जब शहर पर चोलों का शासन था। मन्दिर का उल्लेख 7वीं शताब्दी में तमिलनाडु के सन्त कवि द्वारा रचित साईवनायानार के श्लोकों में मिलता है। 15वीं से 17वीं शताब्दी के बीच नायक शासकों द्वारा इस मन्दिर में बहुत काम किया गया और इसका विस्तार भी किया गया। आज, यह शहर का सबसे बड़ा शिव मन्दिर है जिसमें कि एक 125 फीट ऊँचा नौ मन्जिला विशाल खम्भा राजागुपुरम् प्रवेशद्वार पर स्थित है। मन्दिर परिसर के अन्दर ही तीन विशाल सकेन्द्रीय परिसर हैं।



जम्‍बूलिंगेश्‍वर मंदिर,श्रीरंगम जम्‍बूलिंगेश्‍वर मंदिर श्रीरंगम के पास तिरुवनैकवल में स्थित है साथ ही ये मंदिर चोल वंश के राजाओं द्वारा कराये गए निर्माण का एक बेहतरीन नमूना है । इस मंदिर की दीवारों पर शिलालेख बने हुए है जो स्‍पष्‍ट रूप से बयां करते है कि वह चोल वंश के है। यह मंदिर लगभग 1800 साल पुराना है लेकिन आज भी इस मंदिर की स्थिति काफी बेहतर है। जम्‍बूकेश्‍वरा गर्भगृह के नीचे पानी का एक स्‍त्रोत भी खोजा गया है। समय के साथ - साथ, जल का यह स्‍त्रोत खाली हो गया, इसे भरने का काफी प्रयास किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी पार्वती ने भगवान शिव के लिए इसी स्‍थान पर तपस्‍या की थी। इस स्‍थान पर देवी पार्वती ने अखिलेश्‍वरी देवी का रूप धारण किया था और जंगल में तपस्‍या शुरू कर दी थी।




त्‍यागराजस्‍वामी मंदिर, तिरूवरूर त्‍यागराजस्‍वामी मंदिर, तमिलनाडू के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसे लगभग एक सौ साल पहले चोल वंश के द्वारा बनाया गया था। इस मंदिर का परिसर 33 एकड़ के क्षेत्रफल में फैला हुआ है और इस क्षेत्र में कई छोटे - छोटे मंदिर बने हुए है। इस मंदिर का मुख्‍य भाग, दो हिस्‍सों में विभाजित है, एक भाग में भगवान शिव के वाल्मिकीनाथर स्‍वरूप की पूजा की जाती है। जबकि दूसरे भाग में त्‍यागराजर की पूजा की जाती है। यह दोनों ही भाग, दर्शनार्थियों के लिए हमेशा खुले रहते है। दोनों ही भागों में भगवान शिव के रूपों की आराधना होती है। वाल्मिकीनाथर श्राइन में पुतुरू को शिवलिंग के स्‍थान पर रखा गया है। इस मंदिर में यहां गाएं जाने भजन काफी लोकप्रिय होते है। जिन्‍हे 7 वीं सदी के सेवा नयाम्‍मर्स द्वारा बनाया गया था।

मंगलवार, 3 दिसंबर 2013

तालाब की पाल खुदाई के लिए मिट्टी हटी तो नजर आया कंकाल


तालाब की पाल खुदाई के लिए मिट्टी हटी तो नजर आया कंकाल

 बालोतरा



:बालोतरा. चबूतरा बनाने के लिए खुदाई करते समय मिले कंकाल को देखने के लिए उमड़ी भीड़ 


निकटवर्ती रामसीन मूंगड़ा गांव में सोमवार सवेरे तालाब की पाळ पर खुदाई में नर कंकाल मिलने पर पूरे गांव में सनसनी फैल गई। सूचना मिलने पर काफी संख्या में गांव के लोग वहां एकत्रित हो गए। बाद में गांव के ही स्वामी समाज के परिवार ने बताया कि यहां उनके पुरखों की समाधियां है और कोई समाधि से मिट्टी हट गई है। स्वामी परिवार की ओर से वहां चबूतरा निर्माण शुरू करवा दिया गया। घटना सोमवार सवेरे की है। सवेरे तालाब की पाळ पर पशु चराने गए किसी ग्रामीण ने वहां आधा मिट्टी में दबा नर कंकाल देखा। कंकाल का सिर मिट्टी की मटकी से ढका था। मटकी पर किसी पशु का खुर लगने से क्षतिग्रस्त हो गई थी। जानकारी मिलने पर मौके पर काफी संख्या में ग्रामीणों की भीड़ जमा हो गई। गांव के ही स्वामी परिवार के सांवलपुरी व बुधरपुरी ने बताया कि उनके पूर्वजों की समाधियां तालाब की पाळ पर बनी हुई है। इनमें से किसी समाधि के ऊपर से मिट्टी हट जाने से कंकाल नजर आने लगा। इसके बाद स्वामी परिवार की ओर से कंकाल को वापिस दफना कर उसके चारों तरफ चबूतरे का निर्माण शुरू करवा दिया गया।


मंगलवार, 29 मार्च 2011

foto...राजस्थान दिवस बाड़मेर: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि...राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त का ंिसंहद्वार बाड़मेर











पधारो म्हारे देश.









राजस्थान दिवस पर सभी को हार्दिक बधाई ओर शुभ कामनाऐं.......

आपणों राजस्थान आपण्ी राजस्थानी


बाड़मेर: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि



राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त का ंिसंहद्वार बाड़मेर बहु-आयामी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से सम्पन्न रहा है। पारम्परिक काव्य-साहित्य, समकालीन अभिलेख तथा विविध साक्ष्य इसके प्रमाण है। थार के इस मरु प्रान्त के परिपेक्ष्य में रामायण एवं महाभारत के अन्तर्गत निर्देश समुपलब्ध होते है। रामायण के युद्व काण्ड में सेतु-बन्ध प्रसंग के अन्तर्गत सागर-शोषण हेतु चढ़े अमोध राम बाण के उत्तरवर्त्ति द्रुमकुल्य प्रदेश के आभीरो पर सन्धन से मरुभूमि की उत्पत्ति का वर्णन है।


महाभारत के अश्वमेधिक पर्वान्तर्गत भारत युद्वोपरान्त श्री कृष्ण के द्वारिका प्रत्यागमन प्रसंग की उनकी इसी मरुभमि में उत्तक ऋषि से भेंट और यहां जल की दुर्लभता विषयक उल्लेख मिलते है। मौर्यकाल में सौराष्ट्र से संयुक्त क्षेत्र के रुप यह प्रान्त चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य के अन्तर्गत था। तत्पश्चात इस पर इण्डोग्रिक शासको, मिलिन्द तथा महाक्षत्रप रुद्रदमन का शासन रहा। कतिपय इतिहासज्ञो के अनुसार यूनानियों द्वारा उल्लेख श्ग्व्।छ।श् दुर्ग सम्भवतः सिवाना क्षेत्रान्तर्गत था।


परवर्ती काल में इस क्षेत्र का गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत होना मीरपुर खास में गुप्तकालीन बौद्व स्मारक प्राप्त होने से प्रमाणित होता है।


पूर्व मध्यकालिन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार यह प्रदेश गुर्जरत्रा कहलाता था। चीनी यात्री हेंनसांग ने इसी गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीलो मोलो भीनमाल अथवा बाड़मेर बताया है। डॉ. जे एन आसोपा क ेमत में गुर्जर शब्द अरब यात्रियों द्वारा गुर्जर प्रतिहारो हेतु प्रयुक्त सम्बोधन जुर्ज का समानार्थक है। जिसकी व्युत्पति मरुभूमि में प्रवाही जोजरी नदी से बताई गई है। इस प्रकार प्रतिहारो से सम्बन्ध गुर्जर विशेषण भौगोलिक महत्व का सूचक है। जो यहां गुर्जर प्रतिहार अधिराज्य को निर्दिष्ट करता है। इस तथ्य की पुष्टि 936 ई. के चेराई अभिलेख से होती है। गुर्जर प्रतिहारो के उपरान्त यहां परमारो का अधिपत्य रहा।


मरुमण्डल के ये परमार आबू के परमारो से पृथक माने जाते है। 1161 ई. के किराडू अभिलेख औरा 1183 ई. के मांगता ताम्रपत्र के अन्तर्गत सिन्धुराज (956ई.) को ‘सम्भून मरुमण्डले‘ कहकर यहां के परमारो का आदिपुरुष निर्दिष्ट किया गया है। इनकी राजधानी किरात कूप (किराडू) थी। फिर यहां गुजरात के चालुक्यों का अधिकार ज्ञात होता है।


1152 ई. के कुछ पूुर्व किराडूु पर कुमारपाल चाणक्य के सामंत अल्हण चाहमान का अधिकार था। किन्तु 1161 ई. के किराडू अभिलेख के अनुसार सिंधुराज के वंशज (9वीं पीढ़ी) सोमेश्वर परमार द्वारा अधीनता मानने से संतुष्ट कुमारपाल द्वारा उसे किराडू पुनः प्रदान कर दिया गया। 1171 ई से 1183 ई. तक क्रमशः कीर्त्तिपाल चौहान, मुहम्मद गौरी (1178ई) भीमदेव सोलकी द्वितीय तथा जैसलमेर के भाटियो के किराडू पर अनवरत आक्रमणो एवं तत्कालीन शासको आसलराज और बन्धुराज के अक्षम प्रतिरोध से यहां का परमार राज्य शनै‘ शनै निःशेष होता चला गया।


किराडू राज्य के अवसान का समानान्तर सुन्धामाता मंदिर में चौहान चाचिगदेव के शिलालेख में विर्णत वाग्भट्ट मेरु अथवा बाहड़मेर का उत्थान प्रायः बारहवी शती ई. के उत्तरार्द्व में होना विदित होता है। इसकी संस्थापना का श्रेय क्षमाकल्याण रचित खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार सिद्वराज जयसिंह (1094-1142ई) के मन्त्री उदयन के पुत्र वाग्भट्ट अथवा बाहड़देव परमार को प्रदान किया गया है।


स्थापना के पश्चात यहां जैन श्रावको द्वारा मन्दिर एवं वाटिकाओं के निर्माण तथा 1252 में आचार्य जिनेश्वर सूरि के आगमन की जानकारी मेरुतुग कृत प्रबन्ध चिन्तामणि से मिलती है। बाहड़मेर के आदिनाथ मन्दिर अभिलेख (1295 ई) से हयां परमारो के उपरान्त चौहानो के शासन के संकेत प्राप्त होते है।


कान्हड़ दे प्रबन्ध (पद्मनाम रचित) के अन्तर्गत 1308-09 में अलाउदीन खिलजी की सेनाओं द्वारा जालौर सिवाना अभियान के क्रम में बाहड़मेर पर भी आक्रमण किये जाने सम्बन्धी उल्लेख है।


इस अराजकता का लाभ उठाकर राव धूहड़ राठौड़ के पुत्र राव राजपाल ने लगभग 1309-10ई में यहां के परमारो के प्रायः 560 ग्रामो पर अधिकार कर लिया। इसी के पराक्रमी वंशज रावल मल्लीनाथ के नाम पर इस क्षेत्र को मालानी की संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा।


15 वीं शती ई के पूर्वाद्व में मल्लीनाथ के पौत्र मण्डलीक द्वारा बाहड़मेर और चौहटन के शासको क्रमश मुग्धपाल (माम्पा) तथा सूंजा को परास्त करा अपने अनुज लूणकर्ण राठौड़ा (लूंका) को वहां का राज्य सौप दिया गया। इस प्रकार जसोल बाड़मेर एवं सिणदरी जहां मल्लीनाथ के वंशाजो द्वारा शासित हुए वही नगर और गुढ़ा उनके सबसे छोटे भाई जैतमाल की सन्तति के अधिकार मेें रहे। जबकि मंझले भाई वरीमदेव के पुत्र चूण्डा ने परिहारो से मण्डोर छीना। बाहड़मेर में लुंका जी की चौथी पीढी के शासक राव भीमाजी रत्नावत को जोधपुर नरेश राव मालदेव के सामान्तो जैसा भैैर व दासोत और पृथ्वीराज जैैतावत द्वारा लगभग 1551-52 ई. में पराजित किया गया। जैसलमेर के रावल हरराय की सहायता के पश्चात भी पुनः हार जाने एवं बाहड़मेर के राठौड़ो की रतनसी तथा खेतसी के धड़ो में बट जाने पर भीमाजी ने बाहड़मेर छोड़कर बापड़ाऊ क्षेत्रान्तर्गत नवीन बाहड़मेर अथवा जूना और नवीन बाहड़मेर बसाया तभी से पुराना बाड़मेर जुना बाड़मेर कहा जाने लगा। परवर्ती काल में जैसलमेर के सहयोग से भीमाजी ने जुना बाहड़मेर तथा शिव आदि अपने खोए प्रदेश पुनः प्राप्त कर लिए। उपयुक्त तथ्यों की जानकारी विविध ख्यातो विशेषतः नेनसी की और राठौड़ वंश के इतिहास ग्रन्थ से समुचित रुप से हो जाती है। बाड़मेर की वणिका पहाड़ी की तलहटी के जैन मन्दिर के शिलालेख के अन्तर्गत 1622 ई यहां उदयसिंह का शासन निर्दिष्ट है। परवर्ती शासको रावत मेघराज, रामचन्द्र और साहबाजी, भाराजी आदि के सघर्ष प्रायः 19 वी शती ई. के आरम्भ तक यहां की राजनीति तथा समाज को प्रभावित करते रहें। तब मालानी परगने में प्रायः 460 ग्राम 14918 वर्ग किमी क्षेत्रान्तर्गत थे। मारवाड़ नरेश मानसिंह (1804-43 ई) के काल में यहां के सरदारो एवं भोमियों द्वारा गुजरात कच्छ तथा सिंध में उत्पाद मचाने एवं ब्रिटिश कम्पनी सरकार के आदेश के बाबजूद मानसिंह के उन्हे नियत्रित करने में विफल रहने पर रावत भभूतसिंह के समय 1836 ई. में चौहटन मालानी को बम्बई सरकार के अन्तर्गत ब्रिटिश अधिकार में ले लिया गया। सभी उत्पादी सरदारो को कैद कर राजकोट एवं कच्छ भुज भेज दिया गया। क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित होने पर मालानी को प्रशासन 700/- मासिक वेतन प्राप्त एक अधीक्षक को सौंपा गया, जिसकी सहायतार्थ मुम्बई रेग्यूलर केवेलरी का दस्ता तथा गायकवाड़ इन्फेन्ट्री के 100 घोड़े बाड़मेर मुख्यालय में रहते थे। (कच्छ भुज के रावल देसुल जी की जमानत से मुक्त हुए रावत भभूतसिंह भी अंग्रेजो से हुए समझौते के अनुसार बाड़मेर आ गए।) 1839 ई में मालानी परगना मुम्बई सरकार से ए.जी.जी. राजस्थान को स्थानान्तरित कर दिया गया। 1844 ई में गायकवाड़ केवेलरी का स्थान 150 मारवाड़ के घुड़सवारो ने ले लिया। अन्तिम स्थानीय अधीक्षक कैप्टन जैकसन के यहां से लौटने पर मारवाड़ के पोलिटीकल एजेन्ट की सता आरम्भ हुई। इस अतिरिक्त प्रभार हेतु उसके लिए 100/- मासिक भत्ता नियत था। 1865 ई में नियुक्त पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन इम्पे के तत्वावधान में मालानी के विस्तृत सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के प्रभाव स्वरुप जसोल तथा बाड़मेर में 1867 ई में वर्नाक्यूलर स्कलो के माध्यम से आधुनिक शिक्षा का समारम्भ हुआ। सर्वे रिपोर्ट 4 मई 1868 को प्रकाशित हुई। परवर्त्ती काल में इस क्षेत्र के ठाकुरो द्वारा प्रत्यक्षतः मारवाड़-प्रशासन के अधीन होने की इच्छा पर। 1 अगस्त 1891 को मालानी परगना मारवाड़ राज्य के अन्तर्गत आ गया। आगामी छः वर्षो में मालानी प्रशासन सुचारु एवं सुव्यवस्थित रहने, अपराधो में कमी होने और किसी भी प्रकार की शिकायत न आने पर जोधपुर में महाराजा सरदार सिंह को 1898 ई में यहां के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये गये। 22 दिसम्बर 1900 ई को मालानी के हृदयस्थल से गुजरने वाली बालोतरा सादीपाली रेल्वे लाइन का शुभारम्भ हुआ।


स्वतन्त्रता प्राप्ति तक जोधपुर प्रशासन के अधीनस्थ रहते हुए देशी रियासतो के भारतीय सघ में विलीनीकरण के उपरान्त मालानी परगना 1949 ई में बाड़मेर जिले के रुप में अस्तित्व मान हुआ। जो आधुनिक बाड़मेर कहलाया।