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शुक्रवार, 18 जुलाई 2014

अदभुत: शिवलिंग के दो भागों का शिवरात्रि पर हो जाता है ‘मिलन’



धार्मिक दृष्टि से पूरा संसार ही शिव का रूप है। इसलिए शिव के अलग-अलग अद्भुत स्वरूपों के मंदिर और देवालय हर जगह पाए जाते हैं। ऐसा ही एक मंदिर स्थित है - हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित काठगढ़ महादेव। इस मंदिर का शिवलिंग ऐसे स्वरूप के लिए प्रसिद्ध है, जो संभवत: किसी अन्य शिव मंदिर में नहीं दिखाई देता। काठगढ़ महादेव संसार में एकमात्र शिवलिंग माने जाते हैं, जो आधा शंकर और आधा पार्वती का रूप लिए हुए हैं, यानि एक शिवलिंग में दो भाग हैं। शिव और शक्ति के अर्द्धनारीश्वर स्वरुप श्री संगम के दर्शन से मानव जीवन में आने वाले सभी पारिवारिक और मानसिक दु:खों का अंत हो जाता है।

ईशान संहिता के अनुसार इस शिवलिंग का प्रादुर्भाव फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी की रात्रि को हुआ था। यह पावन शिवलिंग अष्टकोणीय है तथा काले-भूरे रंग का है। लगभग 7-8 फुट ऊंचा भगवान शिव आशुतोष का प्रतिमा स्वरूप व लगभग 6-7 फुट ऊंचा इसी के साथ सटा हुआ माता पार्वती का प्रतिमा स्वरूप विराजमान है। दो भागों में विभाजित आदि शिवलिंग का अंतर ग्रहों एवं नक्षत्रों के अनुसार घटता-बढ़ता रहता है और शिवरात्रि पर दोनों का ‘मिलन’ हो जाता है। शिवरात्रि के अवसर पर हर साल यहां पर तीन दिवसीय भारी मेला लगता है। इस दिन भगवान शिव की शादी माता पार्वती के साथ हुई थी। उनकी शादी का उत्सव मनाने के लिए रात में शिव जी की बारात निकाली जाती है। रात में पूजा कर फलाहार किया जाता है। अगले दिन सवेरे जौ, तिल, खीर और बेल पत्र का हवन करके व्रत समाप्त किया जाता है।

काठगढ़ महादेव मंदिर के दक्षिण में ब्यास नदी है। इस धर्मस्थल से दो नदियों का मिलन स्थान है। इस मंदिर के साथ कई पौराणिक किंवदंतियां जुड़ी हुई है। लोगों के कथनानुसार मंदिर में स्थापित शिवलिंग स्वयंभू प्रकट है। कहा जाता है कि व्यास नदी के किनारे स्थित इस मंदिर के बारे में शिव पुराण में भी व्याख्या मिलती है। ब्रह्मा जी और विष्णु जी के बीच श्रेष्ठता का विवाद उत्पन्न हो गया और दोनों महेश्वर और पाशुपात अस्त्रों जैसे दिव्यास्त्र लेकर युद्ध हेतु उन्मुख हो उठे। इससे तीनों लोकों में नाश की आशंका होने लगी और भगवान शिव शंकर महाअग्नि तुल्य स्तंभ के रूप में ब्रह्मा जी और विष्णु जी के बीच में प्रकट हो गए। इससे दोनों देवताओं के दिव्यास्त्र स्वत: ही शांत हो गए और युद्ध खत्म हो गया। यही अग्नि तुल्य स्तंभ, काठगढ़ के रूप में जाना जाने लगा।

कहा जाता है कि त्रेता युग में जब महाराज दशरथ की शादी हुई थी तो उनकी बारात पानी पीने के लिए यहां रुकी थी और यहां एक कुएं का निर्माण किया गया था। यह कुआं आज भी यहां स्थापित हैं। जब भी भरत व शत्रुघ्न अपने ननिहाल कैकेय देश (वर्तमान कश्मीर) जाते थे तो वे व्यास नदी के पवित्र जल से स्नान करके राजपुरोहित व मंत्रियों सहित यहां स्थापित शिवलिंग की पूजा-अर्चना कर आगे बढ़ते थे।

एक किंवदंती में कहा गया है कि सिकंदर महान का विजयी अभियान यहीं आकर रुका था। विश्वविजेता सिकंदर ईसा से 326 वर्ष पूर्व जब पंजाब पहुंचा, तो प्रवेश से पूर्व मीरथल नामक गांव में अपने सैनिकों को खुले मैदान में विश्राम की सलाह दी। इस स्थान पर उसने देखा कि एक फ़कीर शिवलिंग की पूजा में व्यस्त था। उसने फ़कीर से कहा- ‘आप मेरे साथ यूनान चलें। मैं आपको दुनिया का हर ऐश्वर्य दूंगा।’ फ़कीर ने सिकंदर की बात को अनसुना करते हुए कहा- ‘आप थोड़ा पीछे हट जाएं और सूर्य का प्रकाश मेरे तक आने दें।’ फ़कीर की इस बात से प्रभावित होकर सिकंदर ने भोले नाथ के इस अलौकिक स्वरूप की पूजा-अर्चना की और यहां यूनानी सभ्यता की पहचान छोड़ते हुए शिवलिंग के चारों ओर अष्टकोणिय चबूतरों का निर्माण करवाया था। शिवालय की ऐतिहासिक चारदीवारी में यूनानी शिल्पकला का प्रतीक व प्रमाण आज भी मौजूद हैं।



बताया जाता है कि इस मंदिर ने महाराजा रणजीत सिंह के कार्यकाल में सबसे ज्यादा प्रसिद्धि प्राप्त की थी। कहते हैं, महाराजा रणजीत सिंह ने जब गद्दी संभाली, तो पूरे राज्य के धार्मिक स्थलों का भ्रमण किया। वह जब काठगढ़ पहुंचे, तो इतना आनंदित हुए कि उन्होंने आदि शिवलिंग पर सुंदर मंदिर का निर्माण करवाया और शिवलिंग की इस महिमा का गुणगान भी चारों ओर करवाया। मंदिर के पास ही बने एक कुएं का जल उन्हें इतना पसंद था कि वह हर शुभकार्य के लिए यहीं से जल मंगवाते थे।