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बुधवार, 22 अगस्त 2012

कीर्ति स्तंभ पर्यटकों से दूर

चित्तौड़गढ़। चित्तौड़ दुर्ग के पूर्व में स्थित कीर्ति स्तम्भ और पश्चिम में विजय स्तंभ दुर्ग के प्राचीन और मध्यकालीन वैभव और उत्कर्ष के गवाह हैं। ये अवशेष सनातन आर्य सभ्यता से जुड़ी जैन और वैष्णव सांस्कृतिक धाराओं की कथाएं बयान करते हैं। एक विराट चक्रवर्ती सम्राट और दूसरा आध्यात्मिक चेतना की अनुभूति को एक साथ जीवंत करते हैं। इसे विडम्बना की कहा जाएगा कि हर समय पर्यटकों से आबाद रहने वाले विजय स्तम्भ के चारों ओर जहां अव्यवस्थाएं है। वहीं कीर्ति स्तंभ पर्यटकों की पहंुच से दूर हंै।

ईसा की ग्यारहवीं और बारहवीं शताब्दी में बने कीर्ति स्तम्भ का निर्माण जैन तीर्थकर आदिनाथ को समर्पित है। दिगम्बर जैन समाज की ओर से निर्मित इस छह मंजिला स्तम्भ के चारों कोने पर चार जैन तीर्थकरों की प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। स्थापत्य शिल्प की दृष्टि से विश्व में सर्वथा अनूठे इस स्तम्भ का ऊपरी तल बारह स्तम्भों पर टिका हुआ है। स्तंभ की बाहरी दीवारों पर उत्कीर्ण असंख्य कला कृतियों में योगारूढ़ व्यक्ति की हाथियों से जोर आजमाइश और उन्हें वश में करने समेत जैन और सनातन संस्कृति से जुड़ी अनेक कथाएं परिभाषित हैं। पास स्थित जैन मंदिर में जैन तीर्थकरों की तीन दुर्लभ मूर्तियां देसी विदेशी पर्यटकों का मन मोहने में सक्षम हैं।

मुख्य मार्ग से दूरी के कारण अधिकांश पर्यटक कीर्ति स्तंभ तक पहंुच ही नहीं पाते हैं। केवल टेक्सी से सीधे उदयपुर से आने वाले गिने चुने विदेशी पर्यटकों की यहां सीधी पहंुच हो पाती है। पर्यटन विभाग और पुरातत्व विभाग ने भी अब तक इस स्तंभ का इसकी कीर्ति के अनुरूप प्रचार प्रसार नहीं किया है।

विजय स्तंभ का समूचा परिसर और उसके आस पास का क्षेत्र पर्यटकों की आवाजाही से सदैव आबाद रहता है। दुर्ग पर आने वाला शायद ही कोई पर्यटक होगा, जो यहां नहीं आता हो। ईस्वी सन 1448 में महाराणा कुम्भा की ओर से मालवा के सुल्तान पर विजय के उपलक्ष्य में निर्मित विजय स्तम्भ भगवान विष्णु को समर्पित है। इस नौ मजिला स्तंभ की प्रत्येक मंजिल पर छज्ोदार झरोखे हैं। ऊपरी सतह पर हमीर से कुम्भा तक मेवाड़ पर शासन करने वालों के नाम उत्कीर्ण हैं। स्तंभ की बाहरी दीवारों पर देवी- देवता, ऋतु, शस्त्र और वाद्ययंत्रों के देवताओं के अलावा गंगा, यमुना और विलुप्त हो चुकी सरस्वती नदी की मूर्तियां भी उत्कीर्ण हैं। स्तंभ की पांचवीं मंजिल पर इसके निर्माण कर्ता जैत व इसके तीन पुत्र नापा, पूजा और पोमा के नाम हैं। राजस्थान की पहचान बने इस विजय स्तंभ का विशाल कलेवर मेवाड़ के स्वर्ण युग की गाथा का प्रमुख किरदार है।

कीर्ति स्तम्भ, एक स्तम्भ या मीनार है, जो राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में स्थित है। इसे भगेरवाल जैनव्यापारी जीजाजी कथोड़ ने बारहवीं शताब्दी में बनवाया था। यह 22 मीटर ऊँची है। यह सात मंज़िला इमारत है। इसमें 54 चरणों वाली सीढ़ी है। इसमें जैन पन्थ से सम्बन्धित चित्र हैं। कीर्ति स्तम्भ, विजय स्तम्भ से भी अधिक पुराना है।
महाराणा कुम्भा ने मालवा के सुल्तान महमूद शाह ख़िलजी को सन् 1440 (संवत 1497) में प्रथम बार परास्त कर उसकी यादगार में इष्टदेव विष्णु के निमित्त यह कीर्ति स्तम्भ बनवाया था।
इसकी प्रतिष्ठा सन् 1448 (संवत 1505) में हुई।
कीर्ति स्तम्भ वास्तुकला की दृष्टि से अपने आपमें मंजिल पर झरोखा होने से इसके भीतरी भाग में भी प्रकाश रहता है।
इसमें विष्णु के विभिन्न रुपों जैसे जनार्दन, अनन्त आदि, उनके अवतारों तथा ब्रह्मा, शिव, भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं, अर्धनारीश्वर (आधा शरीर पार्वती तथा आधा शिव का), उमामहेश्वर, लक्ष्मीनारायण, ब्रह्मासावित्री, हरिहर (आधा शरीर विष्णु और आधा शिव का), हरिहर पितामह (ब्रम्हा, विष्णु तथा महेश तीनों एक ही मूर्ति में), ॠतु, आयुध (शस्त्र), दिक्पाल तथा रामायण तथामहाभारत के पात्रों की सैकड़ों मूर्तियाँ खुदी हैं।
प्रत्येक मूर्ति के ऊपर या नीचे उनका नाम भी खुदा हुआ है। इस प्रकार प्राचीन मूर्तियों के विभिन्न भंगिमाओं का विश्लेषण के लिए यह भवन एक अपूर्व साधन है।
कुछ चित्रों में देश की भौगोलिक विचित्रताओं को भी उत्कीर्ण किया गया है।
कीर्तिस्तम्भ के ऊपरी मंज़िल से दुर्ग एवं निकटवर्ती क्षेत्रों का विहंगम दृश्य दिखता है।