सैलानियो को आज भी लुभाता हैं जैसलमेर का सोनार किला
मरूकांतार की गोरहरे त्रिकुट पहाडी पर २५० फीट उंतुंग ९९ बुर्जो के कलेवर से आवेष्ठित इस दुर्ग का निर्माण संवत् १२१२ में रावल जैसल ने करवाया था । पीत पाषाणों से निर्मित जैसलमेर दुर्ग अपनी भव्यता और अद्भूत स्थापत्य कला के कारण ाविश्वविख्यात हैं । विगत ८५८ वर्षो से अपनी आभा और कीर्ति की पताका फहराता यह किला अपने आगोश में यहां के वांशिंदो को भी ममत्व प्रदान करता सा ाप्रतीत होता है। वर्षो पूर्व विख्यात फिल्म निर्माता -निर्देशक सत्यजीत राय ने अपने बंगला कथानक सोनार किला को छयांकित कर चलचित्र का रूप दिया । यह सोनार किला ओर कुछ नहीं -जैसलमेर का भव्य स्वर्णिम दुर्ग ही था । चूंकि यह किला ओर इसके स्थित सैकडो आवासीय भवन सुनहरे पत्थरो से बने हुऐ है। इसलिए यह स्वर्णिम दुर्ग अथवा सोनार किला के नाम जाना जाता है। इस किले का प्रवेश द्वारा अखेप्रोल के नाम से प्रसिद्ध है। यहंा प्रवेश करते ही गगंन चुम्बी राज प्रासाद के दर्शन होते है। यहां बना बडासा चौगान अपनी उचाई पर चढने के लिए आमंत्रित-सा करता प्रतीत होता है। चढाई चढते ही अनायास ही बाई ओर बैरीशाल बुर्ज एक विशाल स्तम्भ की भंाति अपने उपर सुंदर झुरमुटाकार छतरी से सज्जित दृष्टिगोचर होता है। लगता हैं -जैसे कोई लैम्प पोस्ट पथिकों को राह दिखला रहा है। इस बुर्ज के पास से घुमते ही बहुत ही खूबसूरत कलात्मक नक्काशी से युक्त सूरज प्रोल बनी हुई हैं। किसी जमाने में यही मुख्य प्रोल हुआ करती थी , जिसपर लगे सगुन के प्रतीक तौरण आज भी मुस्कराते स्वागत को आतुर है।
सूरज प्रोल के आगे घुमते ही फलसूण्ड विजय की बनी दिवार आज भी जैसलमेर के सुरवीरों की प्रशस्ति गाती प्रतीत होती हैं। ठीक इसी के पास गणेश प्रोल और उसके आगे चढते ही भव्य कमल झरोखे के पास अट्टालिका-सी हवा प्रोल स्थित है। गर्मी की भयानक शूल की चुभती ल को मीठी ठण्डी बयार में में तब्दील करने की खाशियत रखती है यह हवा प्रोल । हवाप्रोल के बहार दशहरा चौक स्थित हैं । ढाई साकों का साक्षात साक्षी रहा हैं यह चौक । इस चौक में दक्षिण मे खडे होने पर राजप्रासाद के रंगमहल,गजविलास,मोतीमहल,तथा जनाना महल पर की गई नयनाभिराम बरीक खुदाई पर्यटकों के बढते कदमो को ठिठका देती है। जिससे उनकी पैनी चाक्षुष दृष्टि और कलाअनुरागी मन मंत्रमुग्ध हो उठते है। यहीं से डेल्टा की भांति अनेको संकरी गलिया सैलानियो को विभिन्न दिशाओं की सैर करवाने को आतुर पलकें बिछाए प्रतीक्षारत प्रीतत होती है। इन्ही मे से ठीक पश्चिमी दिशा की गली सैलानियो के कदमो को जैन मंदिर की ओर ले जाती है। आखिर इन जैन मंदिरो में क्या आकर्षण है कि आज भी लाखों देशी-विदेशी पर्यटक इन्हे देखने को अनवरत आते रहते है। इन जैन मंदिरो में प्रमुख है- दुर्ग स्थित आठ भव्य कलात्मक मंदिर । सात मंदिर तो एक ही परिसर में है। किंतु आठवा मंदिर जो भगवान महावीर स्वामी को समर्पित है, इनसे थोडी सी दूरी पर है। इन जैन मंदिरो का निर्माण चौदवी और पन्द्रवीं शताब्दी में हुआ था । इन जैन मंदिरो में कलात्मक पाषाणों से बनी देव प्रतिमाऐ स्थापित की हुई है। इन मदिरो में विभिन्न प्रकार की कला शैलियो में उत्कीर्ण ६६०० पीत पाषाण प्रतिमाऐ स्थित है। सभा मण्डप के मध्य बनी विभिन्न नृत्य मुद्राओं में लीन मुर्तियो को इस तरह बनाया गया हैं कि सैलानी दांतो तले उगुली दबाकर रह जाते है। मंदिर के घुमावदार फेरियों में बनी प्रतिमाऐ जिनमें दपर्ण दर्शन, महिषासुर वद्य ,जुडे में बाल बाधती नारी , कृष्ण राधिका की रास लीला से संबंधित मूर्तिया तथा कथक नृत्य दर्शाती मूर्तिया प्रमुख है।विविध भाव -भंगिमाओं प्रेम, वात्सलय, नारी सौन्दर्य व श्रृंगार आदि जीवन के विभिन्न पहलुओं का मनोहारी कलात्मक रूप मूर्तियों में अवतरित है। गगनचुंबी ध्वजा मण्डपो पर बनी हाथी- घोडे, शेर, चीते, कबूतर और मोरो की प्रतिमाऐ आश्चर्य चकित करती है। इन्ही जैन मंदिरो के तहखाने में जिनभद्रसूरी ज्ञान भण्डार बना हुआ है। जिसमें हजारो प्राचीन ताड पत्रो व कागजी पुस्तको तथा काष्ठ की तख्तियों पर बने चित्र विभिन्न भाषाओं के ग्रन्थ देख्ेा जा सकते है। यहां पर हस्तलिखित सरस्वती स्त्रोत पांच फीट उंचे व चार फीट चौडे कांच में मढा कर रखा गया है। ज्ञान भण्डार में रखे यह ग्रंथ संस्कृत , मागधी ,पाली, मालवी, गुजराती व डिंगल आदि भाषाओं में लिखे हुऐ है। जिनके प्रमुख विषय उपासना,पूजा,अर्थ, न्याय,ज्योतिष, व्याकरण आदि है। दुर्ग के चार कोनो पर रखी हुई चार प्राचीन तोफे राजशाही के समय से ही प्रहरी रूप में स्थापित है जो अब पर्यटको के लिए व्यू पांईट बन गऐ है। उत्तर दिशा में स्थापित तोफ से पटवा हवेली एंव नथमल हवेली तथा पूर्व में स्थापित तोफ से थिरकते मोरो पर बनी दिवान सालमसिंह की हवेली के अतिरिक्त गडसीसर सरोवर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। धूमिल पडेते पीले पत्थरो से बना यह त्रिकुटाकार कलात्मक दुर्ग सैलानियों को आज भी बेहद लूभा रहा है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नही है।
अनिता महेचा
सूरज प्रोल के आगे घुमते ही फलसूण्ड विजय की बनी दिवार आज भी जैसलमेर के सुरवीरों की प्रशस्ति गाती प्रतीत होती हैं। ठीक इसी के पास गणेश प्रोल और उसके आगे चढते ही भव्य कमल झरोखे के पास अट्टालिका-सी हवा प्रोल स्थित है। गर्मी की भयानक शूल की चुभती ल को मीठी ठण्डी बयार में में तब्दील करने की खाशियत रखती है यह हवा प्रोल । हवाप्रोल के बहार दशहरा चौक स्थित हैं । ढाई साकों का साक्षात साक्षी रहा हैं यह चौक । इस चौक में दक्षिण मे खडे होने पर राजप्रासाद के रंगमहल,गजविलास,मोतीमहल,तथा जनाना महल पर की गई नयनाभिराम बरीक खुदाई पर्यटकों के बढते कदमो को ठिठका देती है। जिससे उनकी पैनी चाक्षुष दृष्टि और कलाअनुरागी मन मंत्रमुग्ध हो उठते है। यहीं से डेल्टा की भांति अनेको संकरी गलिया सैलानियो को विभिन्न दिशाओं की सैर करवाने को आतुर पलकें बिछाए प्रतीक्षारत प्रीतत होती है। इन्ही मे से ठीक पश्चिमी दिशा की गली सैलानियो के कदमो को जैन मंदिर की ओर ले जाती है। आखिर इन जैन मंदिरो में क्या आकर्षण है कि आज भी लाखों देशी-विदेशी पर्यटक इन्हे देखने को अनवरत आते रहते है। इन जैन मंदिरो में प्रमुख है- दुर्ग स्थित आठ भव्य कलात्मक मंदिर । सात मंदिर तो एक ही परिसर में है। किंतु आठवा मंदिर जो भगवान महावीर स्वामी को समर्पित है, इनसे थोडी सी दूरी पर है। इन जैन मंदिरो का निर्माण चौदवी और पन्द्रवीं शताब्दी में हुआ था । इन जैन मंदिरो में कलात्मक पाषाणों से बनी देव प्रतिमाऐ स्थापित की हुई है। इन मदिरो में विभिन्न प्रकार की कला शैलियो में उत्कीर्ण ६६०० पीत पाषाण प्रतिमाऐ स्थित है। सभा मण्डप के मध्य बनी विभिन्न नृत्य मुद्राओं में लीन मुर्तियो को इस तरह बनाया गया हैं कि सैलानी दांतो तले उगुली दबाकर रह जाते है। मंदिर के घुमावदार फेरियों में बनी प्रतिमाऐ जिनमें दपर्ण दर्शन, महिषासुर वद्य ,जुडे में बाल बाधती नारी , कृष्ण राधिका की रास लीला से संबंधित मूर्तिया तथा कथक नृत्य दर्शाती मूर्तिया प्रमुख है।विविध भाव -भंगिमाओं प्रेम, वात्सलय, नारी सौन्दर्य व श्रृंगार आदि जीवन के विभिन्न पहलुओं का मनोहारी कलात्मक रूप मूर्तियों में अवतरित है। गगनचुंबी ध्वजा मण्डपो पर बनी हाथी- घोडे, शेर, चीते, कबूतर और मोरो की प्रतिमाऐ आश्चर्य चकित करती है। इन्ही जैन मंदिरो के तहखाने में जिनभद्रसूरी ज्ञान भण्डार बना हुआ है। जिसमें हजारो प्राचीन ताड पत्रो व कागजी पुस्तको तथा काष्ठ की तख्तियों पर बने चित्र विभिन्न भाषाओं के ग्रन्थ देख्ेा जा सकते है। यहां पर हस्तलिखित सरस्वती स्त्रोत पांच फीट उंचे व चार फीट चौडे कांच में मढा कर रखा गया है। ज्ञान भण्डार में रखे यह ग्रंथ संस्कृत , मागधी ,पाली, मालवी, गुजराती व डिंगल आदि भाषाओं में लिखे हुऐ है। जिनके प्रमुख विषय उपासना,पूजा,अर्थ, न्याय,ज्योतिष, व्याकरण आदि है। दुर्ग के चार कोनो पर रखी हुई चार प्राचीन तोफे राजशाही के समय से ही प्रहरी रूप में स्थापित है जो अब पर्यटको के लिए व्यू पांईट बन गऐ है। उत्तर दिशा में स्थापित तोफ से पटवा हवेली एंव नथमल हवेली तथा पूर्व में स्थापित तोफ से थिरकते मोरो पर बनी दिवान सालमसिंह की हवेली के अतिरिक्त गडसीसर सरोवर का विहंगम दृश्य देखा जा सकता है। धूमिल पडेते पीले पत्थरो से बना यह त्रिकुटाकार कलात्मक दुर्ग सैलानियों को आज भी बेहद लूभा रहा है। इसमें कोई अतिश्योक्ति नही है।