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शुक्रवार, 27 मार्च 2020

कोरोना लॉक डाउन का असर सरहदी सैन्य शक्ति और भक्ती आस्था केंद्र तनोट माता मंदिर में सन्नाटा ,पुजारी के आलावा कोई नहीं

कोरोना लॉक डाउन का असर

सरहदी सैन्य शक्ति और भक्ती आस्था केंद्र तनोट माता मंदिर में सन्नाटा ,पुजारी के  आलावा कोई नहीं

जैसलमेर सदियों में पहली बार सैन्य भक्ति और शक्ति आस्था केंद्र तनोट माता मंदिर में कोरोना संक्रमण के चलते  लॉक डाउन के कारन सन्नाटा पसरा हैं ,जबकि आम नवरात्रि में हज़ारो की तादाद में श्रद्धालु दर्शार्थ स्थानीय और बहरी प्रांतो से आते हैं ,खासकर सैनिक परिवारों की इस मंदिर के प्रति प्रगाढ़ आस्था हैं ,इस बार करोनाबन्दी के चलते मंदिर व्यवस्थापक ने मंदिर 31 मार्च तक आमजन के लिए  बंद रखने की घोषणा की थी ,तब से मंदिर में सिर्फ पुजारी द्वारा ही पूजा अर्चना करवाई जा रही हैं ,


तनोट राय माता  मंदिर का इतिहास

जैसलमेर से करीब 130 किमी दूर स्थि‍त माता तनोट राय (आवड़ माता) का मंदिर है। तनोट माता को देवी हिंगलाज माता का एक रूप माना जाता है। हिंगलाज माता शक्तिपीठ वर्तमान में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के लासवेला जिले में स्थित है।

भाटी राजपूत नरेश तणुराव ने तनोट को अपनी राजधानी बनाया था। उन्होंने विक्रम संवत 828 में माता तनोट राय का मंदिर बनाकर मूर्ति को स्थापित किया था। भाटी राजवंशी और जैसलमेर के आसपास के इलाके के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी तनोट माता की अगाध श्रद्धा के साथ उपासना करते रहे। कालांतर में भाटी राजपूतों ने अपनी राजधानी तनोट से हटाकर जैसलमेर ले गए परंतु मंदिर तनोट में ही रहा।

तनोट माता का य‍ह मंदिर यहाँ के स्थानीय निवासियों का एक पूज्यनीय स्थान हमेशा से रहा परंतु 1965 को भारत-पाक युद्ध के दौरान जो चमत्कार देवी ने दिखाए उसके बाद तो भारतीय सैनिकों और सीमा सुरक्षा बल के जवानों की श्रद्धा का विशेष केन्द्र बन गई।

सितम्बर 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हुआ। तनोट पर आक्रमण से पहले श‍त्रु (पाक) पूर्व में किशनगढ़ से 74 किमी दूर बुइली तक पश्चिम में साधेवाला से शाहगढ़ और उत्तर में अछरी टीबा से 6 किमी दूर तक कब्जा कर चुका था। तनोट तीन दिशाओं से घिरा हुआ था। यदि श‍‍त्रु तनोट पर कब्जा कर लेता तो वह रामगढ़ से लेकर शाहगढ़ तक के इलाके पर अपना दावा कर सकता था। अत: तनोट पर अधिकार जमाना दोनों सेनाओं के लिए महत्वपूर्ण बन गया था।

17 से 19 नवंबर 1965 को श‍त्रु ने तीन अलग-अलग दिशाओं से तनोट पर भारी आक्रमण किया। दुश्मन के तोपखाने जबर्दस्त आग उगलते रहे। तनोट की रक्षा के लिए मेजर जय सिंह की कमांड में 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और सीमा सुरक्षा बल की दो कंपनियाँ दुश्मन की पूरी ब्रिगेड का सामना कर रही थी। शत्रु ने जैसलमेर से तनोट जाने वाले मार्ग को घंटाली देवी के मंदिर के समीप एंटी पर्सनल और एंटी टैंक माइन्स लगाकर सप्लाई चैन को काट दिया था।

दुश्मन ने तनोट माता के मंदिर के आसपास के क्षेत्र में करीब 3 हजार गोले बरसाएँ पंरतु अधिकांश गोले अपना लक्ष्य चूक गए। अकेले मंदिर को निशाना बनाकर करीब 450 गोले दागे गए परंतु चमत्कारी रूप से एक भी गोला अपने निशाने पर नहीं लगा और मंदिर परिसर में गिरे गोलों में से एक भी नहीं फटा और मंदिर को खरोंच तक नहीं आई।

सैनिकों ने यह मानकर कि माता अपने साथ है, कम संख्या में होने के बावजूद पूरे आत्मविश्वास के साथ दुश्मन के हमलों का करारा जवाब दिया और उसके सैकड़ों सैनिकों को मार गिराया। दुश्मन सेना भागने को मजबूर हो गई। कहते हैं सैनिकों को माता ने स्वप्न में आकर कहा था कि जब तक तुम मेरे मंदिर के परिसर में हो मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी।

सैनिकों की तनोट की इस शानदार विजय को देश के तमाम अखबारों ने अपनी हेडलाइन बनाया।

एक बार फिर 4 दिसम्बर 1971 की रात को पंजाब रेजीमेंट की एक कंपनी और सीसुब की एक कंपनी ने माँ के आशीर्वाद से लोंगेवाला में विश्व की महानतम लड़ाइयों में से एक में पाकिस्तान की पूरी टैंक रेजीमेंट को धूल चटा दी थी। लोंगेवाला को पाकिस्तान टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया था।

1965 के युद्ध के बाद सीमा सुरक्षा बल ने यहाँ अपनी चौकी स्थापित कर इस मंदिर की पूजा-अर्चना व व्यवस्था का कार्यभार संभाला तथा वर्तमान में मंदिर का प्रबंधन और संचालन सीसुब की एक ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। मंदिर में एक छोटा संग्रहालय भी है जहाँ पाकिस्तान सेना द्वारा मंदिर परिसर में गिराए गए वे बम रखे हैं जो नहीं फटे थे।

लोंगेवाला विजय के बाद माता तनोट राय के परिसर में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया, जहाँ हर वर्ष 16 दिसम्बर को महान सैनिकों की याद में उत्सव मनाया जाता है।

हर वर्ष आश्विन और चै‍त्र नवरात्र में यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। अपनी दिनोंदिन बढ़ती प्रसिद्धि के कारण तनोट एक पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध होता जा रहा है।

इतिहास: मंदिर के वर्तमान पुजारी सीसुब में हेड काँस्टेबल कमलेश्वर मिश्रा ने मंदिर के इतिहास के बारे में बताया कि बहुत पहले मामडि़या नाम के एक चारण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्त करने की लालसा में उन्होंने हिंगलाज शक्तिपीठ की सात बार पैदल यात्रा की। एक बार माता ने स्वप्न में आकर उनकी इच्छा पूछी तो चारण ने कहा कि आप मेरे यहाँ जन्म लें।

माता कि कृपा से चारण के यहाँ 7 पुत्रियों और एक पुत्र ने जन्म लिया। उन्हीं सात पुत्रियों में से एक आवड़ ने विक्रम संवत 808 में चारण के यहाँ जन्म लिया और अपने चमत्कार दिखाना शुरू किया। सातों पुत्रियाँ देवीय चमत्कारों से युक्त थी। उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश की रक्षा की।



माड़ प्रदेश में आवड़ माता की कृपा से भाटी राजपूतों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया। राजा तणुराव भाटी ने इस स्थान को अपनी राजधानी बनाया और आवड़ माता को स्वर्ण सिंहासन भेंट किया। विक्रम संवत 828 ईस्वी में आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए यहाँ अपनी स्थापना की।

विक्रम संवत 999 में सातों बहनों ने तणुराव के पौत्र सिद्ध देवराज, भक्तों, ब्राह्मणों, चारणों, राजपूतों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाकर कहा कि आप सभी लोग सुख शांति से आनंदपूर्वक अपना जीवन बिता रहे हैं अत: हमारे अवतार लेने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। इतना कहकर सभी बहनों ने पश्चिम में हिंगलाज माता की ओर देखते हुए अदृश्य हो गईं। पहले माता की पूजा साकल दीपी ब्राह्मण किया करते थे। 1965 से माता की पूजा सीसुब द्वारा नियुक्त पुजारी करता है।

रविवार, 6 अक्तूबर 2019

पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हिन्दुओं का आस्था केंद्र 'नानी का हज' माता हिंगलाज, 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ

पाकिस्तान के बलूचिस्तान में हिन्दुओं का आस्था केंद्र  'नानी का हज' माता हिंगलाज, 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ






जैसलमेर भारत के हिन्दुओ का प्रमुख आस्था केंद्र पाकिस्तान के बलूचिस्तान में भी हैं,हिंगलाज माता के के  आस्था पश्चिमी राजस्थान के हिन्दुओ की हैं हिंगलाज शक्तिपीठ 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहां-जहां सती के अंग के टुकड़े, धारण किए वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ अस्तित्व में आया। ये अत्यंत पावन तीर्थ कहलाये। ये तीर्थ पूरे भारतीय उपमहाद्वीप पर फैले हुए हैं। देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। हिंगलाज, 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ है।


यह शक्तिपीठ 25.3डिग्री. अक्षांश, 65.31डिग्री. देशांतर के पूर्वमध्य, सिंधु नदी के मुहाने पर (हिंगोल नदी के तट पर) पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के हिंगलाज नामक स्थान पर,कराची से 144 किलोमीटर दूर उत्तर-पश्चिम में स्थित है। कराची से फ़ारस की खाड़ी की ओर जाते हुए मकरान तक जलमार्ग तथा आगे पैदल जाने पर 7वें मुकाम पर चंद्रकूप तीर्थ है। अधिकांश यात्रा मरुस्थल से होकर तय करनी पड़ती है, जो अत्यंत दुष्कर है। आगे 13वें मुकाम पर हिंगलाज है। यहीं एक गुफा के अंदर जाने पर देवी का स्थान है। यहाँ शक्तिरूप ज्योति के दर्शन होते हैं। गुफा में हाथ व पैरों के बल जाना होता है। मुसलमान हिंगुला देवी को 'नानी' तथा वहाँ की यात्रा को 'नानी का हज' कहते हैं। पूरे बलूचिस्तान के मुसलमान भी इनकी उपासना व पूजा करते हैं।

हिंगलाज की यात्रा कराची से प्रारंभ होती है। कराची से लगभग 10 किलोमीटर दूर हॉव नदी है। वस्तुतः मुख्य यात्रा वहीं से होती है। हिंगलाज जाने के पहले लासबेला में माता की मूर्ति का दर्शन करना होता है। यह दर्शन छड़ीदार (पुरोहित) कराते हैं। वहाँ से शिवकुण्ड (चंद्रकूप) जाते हैं, जहाँ अपने पाप की घोषणा कर नारियल चढ़ाते हैं। जिनकी पाप मुक्ति हो गई और दरबार की आज्ञा मिल गई, उनका नारियल तथा भेंट स्वीकार हो जाती है वरना नारियल वापस लौट आता है।
पौराणिक ग्रंथों के अनुसार

पुराणों में हिंगलाज पीठ की अतिशय महिमा है। श्रीमद्भागवत के अनुसार यह हिंगुला देवी का प्रिय महास्थान है- हिंगुलाया महास्थानम्'। ब्रह्मवैवर्त पुराण में कहा गया है कि हिंगुला देवी के दर्शन से पुनर्जन्म कष्ट नहीं भोगना पड़ता है। बृहन्नील तंत्रानुसार यहाँ सती का "ब्रह्मरंध्र" गिरा था। यहाँ पर शक्ति "हिंगुला" तथा शिव "भीमलोचन" हैं-ब्रह्मरंध्रं हिंगुलायां भैरवो भीमलोचनः। कोट्टरी सा महामाया त्रिगुणा या दिगम्बरी॥ हिंगुलाज को 'आग्नेय शक्तिपीठ तीर्थ' भी कहते हैं, क्योंकि वहाँ जाने से पूर्व अग्नि उगलते चंद्रकूप पर यात्री को जोर-जोर से अपने गुप्त पापों का विवरण देना पड़ता है तथा भविष्य में उसकी पुनरावृत्ति न करने का वचन भी देना पड़ता है। इसके बाद चंद्रकूप दरबार की आज्ञा मिलती है।  चंद्रकूप तीर्थ पहाड़ियों के बीच में धूम्र उगलता एक ऊँचा पहाड़ है। वहाँ विशाल बुलबुले उठते रहते हैं। आग तो नहीं दिखती किंतु अंदर से यह खौलता, भाप उगलता ज्वालामुखी है।

देवी के शक्तिपीठों में कामाख्या, काँची, त्रिपुरा, हिंगुला प्रमुख शक्तिपीठ हैं। हिंगुला का अर्थ सिन्दूर है। हिंगलाज खत्री समाज की कुल देवी हैं। कहते हैं, जब 21 बार क्षत्रियों का संहार कर परशुराम आए, तब बचे राजागण माता हिंगुला की शरण में गए और अपनी रक्षा की याचना की। तब माँ के उन्हें ब्रह्मक्षत्रिय कहकर अभयदान दिया।

माँ के मंदिर के नीचे अघोर नदी है। कहते हैं कि रावण वध के पश्चात् ऋषियों ने राम से ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति हेतु हिंगलाज में यज्ञ करके कबूतरों को दाना चुगाने को कहा। श्रीराम ने वैसे ही किया। उन्होंने ग्वार के दाने हिंगोस नदी में डाले। वे दाने ठूमरा बनकर उभरे, तब उन्हें ब्रह्महत्यादोष से मुक्ति मिली। वे दाने आज भी यात्री वहाँ से जमा करके ले जाते हैं।
अंतिम पड़ाव

माँ की गुफा के अंतिम पड़ाव पर पहुँच कर यात्री विश्राम करते हैं। अगले दिन सूर्योदय से पूर्व अघोर नदी में स्नान करके पूजन सामग्री लेकर दर्शन हेतु जाते हैं। नदी के पार पहाड़ी पर माँ की गुफा है। गुफा के पास ही अतिमानवीय शिल्प-कौशल का नमूना माता हिंगलाज का महल है, जो यज्ञों द्वारा निर्मित माना जाता है। एक नितांत रहस्यमय नगर जो प्रतीत होता है, मानो पहाड़ को पिघलाकर बनाया गया हो। हवा नहीं, प्रकाश नही, परंतु रंगीन पत्थर लटकते हैं। वहाँ के फर्श भी रंग-बिरंगे हैं। दो पहाड़ियों के बीच रेतीली पगडण्डी। कहीं खजूर के वृक्ष, तो कही झाड़ियों के बीच पानी का सोता। उसके पार ही है माँ की गुफा। सचमुच माँ की अपरम्पार कृपा से भक्त वहाँ पहुँचते हैं। कुछ सीढ़ियाँ चढ़कर, गुफा का द्वार आता है तथा विशालकाय गुफा के अंतिम छोर पर वेदी पर दिया जलता रहता है। वहाँ पिण्डी देखकर सहज ही वैष्णो देवी की स्मृति आ जाती है। गुफा के दो ओर दीवार बनाकर उसे एक संरक्षित रूप दे दिया गया है। माँ की गुफा के बाहर विशाल शिलाखण्ड पर, सूर्य-चंद्र की आकृतियाँ अंकित हैं। कहते हैं कि ये आकृतियाँ राम ने यहाँ यज्ञ के पश्चात स्वयं अंकित किया था।
द्वादश रूप

ऐसी मान्यता है कि वहाँ आसाम की कामाख्या, तमिलनाडु की कन्याकुमारी, काँची की कामाक्षी, गुजरात की अम्बाजी, प्रयाग की ललिता, विन्ध्याचल की विन्ध्यवासिनी, काँगड़ा की ज्वालामुखी, वाराणसी की विशालाक्षी, गया की मंगलादेवी, बंगाल की सुंदरी, नेपाल की गुह्येश्वरी और मालवा की कालिका इन द्वादश रूपों में आद्याशक्ति ही हिंगला देवी के रूप में सुशोभित हो रही हैं।
धार्मिक महोत्सव

वहाँ प्रतिवर्ष अप्रॅल में धार्मिक महोत्सव का आयोजन होता है, जिसमें दूरदराज के इलाके से लोग आते हैं। हिंगुला देवी की यात्रा के लिए पारपत्र तथा वीज़ा जरूरी है।

शनिवार, 28 सितंबर 2019

जैसलमेर भारत पाक सरहद पर सेना का प्रमुख आस्था केंद्र माँ तनोट माता मंदिर

जैसलमेर भारत पाक सरहद पर सेना का प्रमुख आस्था केंद्र माँ तनोट माता मंदिर 


चन्दन सिंह भाटी 

जैसलमेर से करीब 130 किमी दूर भारत पाक सीमा पर स्थि‍त माता तनोट राय (आवड़ माता) का मंदिर है। तनोट माता को देवी हिंगलाज माता का एक रूप माना जाता है। हिंगलाज माता शक्तिपीठ वर्तमान में पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रांत के लासवेला जिले में स्थित है।

भाटी राजपूत नरेश तणुराव ने तनोट को अपनी राजधानी बनाया था। उन्होंने विक्रम संवत 828 में माता तनोट राय का मंदिर बनाकर मूर्ति को स्थापित किया था। भाटी राजवंशी और जैसलमेर के आसपास के इलाके के लोग पीढ़ी दर पीढ़ी तनोट माता की अगाध श्रद्धा के साथ उपासना करते रहे। कालांतर में भाटी राजपूतों ने अपनी राजधानी तनोट से हटाकर जैसलमेर ले गए परंतु मंदिर तनोट में ही रहा।

तनोट माता का य‍ह मंदिर यहाँ के स्थानीय निवासियों का एक पूज्यनीय स्थान हमेशा से रहा परंतु 1965 को भारत-पाक युद्ध के दौरान जो चमत्कार देवी ने दिखाए उसके बाद तो भारतीय सैनिकों और सीमा सुरक्षा बल के जवानों की श्रद्धा का विशेष केन्द्र बन गई। 


सितम्बर 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हुआ। तनोट पर आक्रमण से पहले श‍त्रु (पाक) पूर्व में किशनगढ़ से 74 किमी दूर बुइली तक पश्चिम में साधेवाला से शाहगढ़ और उत्तर में अछरी टीबा से 6 किमी दूर तक कब्जा कर चुका था। तनोट तीन दिशाओं से घिरा हुआ था। यदि श‍‍त्रु तनोट पर कब्जा कर लेता तो वह रामगढ़ से लेकर शाहगढ़ तक के इलाके पर अपना दावा कर सकता था। अत: तनोट पर अधिकार जमाना दोनों सेनाओं के लिए महत्वपूर्ण बन गया था।

17 से 19 नवंबर 1965 को श‍त्रु ने तीन अलग-अलग दिशाओं से तनोट पर भारी आक्रमण किया। दुश्मन के तोपखाने जबर्दस्त आग उगलते रहे। तनोट की रक्षा के लिए मेजर जय सिंह की कमांड में 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और सीमा सुरक्षा बल की दो कंपनियाँ दुश्मन की पूरी ब्रिगेड का सामना कर रही थी। शत्रु ने जैसलमेर से तनोट जाने वाले मार्ग को घंटाली देवी के मंदिर के समीप एंटी पर्सनल और एंटी टैंक माइन्स लगाकर सप्लाई चैन को काट दिया था।

दुश्मन ने तनोट माता के मंदिर के आसपास के क्षेत्र में करीब 3 हजार गोले बरसाएँ पंरतु अधिकांश गोले अपना लक्ष्य चूक गए। अकेले मंदिर को निशाना बनाकर करीब 450 गोले दागे गए परंतु चमत्कारी रूप से एक भी गोला अपने निशाने पर नहीं लगा और मंदिर परिसर में गिरे गोलों में से एक भी नहीं फटा और मंदिर को खरोंच तक नहीं आई।

सैनिकों ने यह मानकर कि माता अपने साथ है, कम संख्या में होने के बावजूद पूरे आत्मविश्वास के साथ दुश्मन के हमलों का करारा जवाब दिया और उसके सैकड़ों सैनिकों को मार गिराया। दुश्मन सेना भागने को मजबूर हो गई। कहते हैं सैनिकों को माता ने स्वप्न में आकर कहा था कि जब तक तुम मेरे मंदिर के परिसर में हो मैं तुम्हारी रक्षा करूँगी। एक बार फिर 4 दिसम्बर 1971 की रात को पंजाब रेजीमेंट की एक कंपनी और सीसुब की एक कंपनी ने माँ के आशीर्वाद से लोंगेवाला में विश्व की महानतम लड़ाइयों में से एक में पाकिस्तान की पूरी टैंक रेजीमेंट को धूल चटा दी थी। लोंगेवाला को पाकिस्तान टैंकों का कब्रिस्तान बना दिया था।
1965 के युद्ध के बाद सीमा सुरक्षा बल ने यहाँ अपनी चौकी स्थापित कर इस मंदिर की पूजा-अर्चना व व्यवस्था का कार्यभार संभाला तथा वर्तमान में मंदिर का प्रबंधन और संचालन सीसुब की एक ट्रस्ट द्वारा किया जा रहा है। मंदिर में एक छोटा संग्रहालय भी है जहाँ पाकिस्तान सेना द्वारा मंदिर परिसर में गिराए गए वे बम रखे हैं जो नहीं फटे थे।

 लोंगेवाला विजय के बाद माता तनोट राय के परिसर में एक विजय स्तंभ का निर्माण किया, जहाँ हर वर्ष 16 दिसम्बर को महान सैनिकों की याद में उत्सव मनाया जाता है। हर वर्ष आश्विन और चै‍त्र नवरात्र में यहाँ विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। अपनी दिनोंदिन बढ़ती प्रसिद्धि के कारण तनोट एक पर्यटन स्थल के रूप में भी प्रसिद्ध होता जा रहा है।

इतिहास: मंदिर के वर्तमान पुजारी सीसुब में हेड काँस्टेबल कमलेश्वर मिश्रा ने मंदिर के इतिहास के बारे में बताया कि बहुत पहले मामडि़या नाम के एक चारण थे। उनकी कोई संतान नहीं थी। संतान प्राप्त करने की लालसा में उन्होंने हिंगलाज शक्तिपीठ की सात बार पैदल यात्रा की। एक बार माता ने स्वप्न में आकर उनकी इच्छा पूछी तो चारण ने कहा कि आप मेरे यहाँ जन्म लें।

माता कि कृपा से चारण के यहाँ 7 पुत्रियों और एक पुत्र ने जन्म लिया। उन्हीं सात पुत्रियों में से एक आवड़ ने विक्रम संवत 808 में चारण के यहाँ जन्म लिया और अपने चमत्कार दिखाना शुरू किया। सातों पुत्रियाँ देवीय चमत्कारों से युक्त थी। उन्होंने हूणों के आक्रमण से माड़ प्रदेश की रक्षा की।

काँस्टेबल कालिकांत सिन्हा जो तनोट चौकी पर पिछले चार साल से पदस्थ हैं कहते हैं कि माता बहुत शक्तिशाली है और मेरी हर मनोकामना पूर्ण करती है। हमारे सिर पर हमेशा माता की कृपा बनी रहती है। दुश्मन हमारा बाल भी बाँका नहीं कर सकता है।

माड़ प्रदेश में आवड़ माता की कृपा से भाटी राजपूतों का सुदृढ़ राज्य स्थापित हो गया। राजा तणुराव भाटी ने इस स्थान को अपनी राजधानी बनाया और आवड़ माता को स्वर्ण सिंहासन भेंट किया। विक्रम संवत 828 ईस्वी में आवड़ माता ने अपने भौतिक शरीर के रहते हुए यहाँ अपनी स्थापना की।

विक्रम संवत 999 में सातों बहनों ने तणुराव के पौत्र सिद्ध देवराज, भक्तों, ब्राह्मणों, चारणों, राजपूतों और माड़ प्रदेश के अन्य लोगों को बुलाकर कहा कि आप सभी लोग सुख शांति से आनंदपूर्वक अपना जीवन बिता रहे हैं अत: हमारे अवतार लेने का उद्देश्य पूर्ण हुआ। इतना कहकर सभी बहनों ने पश्चिम में हिंगलाज माता की ओर देखते हुए अदृश्य हो गईं। पहले माता की पूजा साकल दीपी ब्राह्मण किया करते थे। 1965 से माता की पूजा सीसुब द्वारा नियुक्त पुजारी करता है।