*डेजर्ट फेयर 2019*
कलेक्टर नमित मेहता की राजस्थानी परंपरा को कायम रखने की अनूठी पहल *•साफा सिरमौर^*
*अनोखा रोमांच होगा जब पांच हजार लोग एक साथ पारंपरिक साफा बांध विश्व रिकॉर्ड बनाएंगे।।*
*बाडमेर न्यूज़ ट्रैक के लिए चन्दन सिंह भाटी*
*17 फरवरी से थार की माटी की सोंधी महक से लबरेज लोक संस्कृति और परंपरा का प्रतीक मरु मेला यानी डेजर्ट फेयर में इस बार युवा और ऊर्जावान जिला कलेक्टर नमित मेहता और प्रभारी मोहनदान रतनू ने नवाचार करते हुए मरु महोत्सव में साफा सिरमौर को केंद्र बिंदु बना एक साथ पांच हजार साफे बांधने का लक्ष्य रखा है जिसमे सभी अधिकारी जुटे। अच्छा हो इस इवेंट में संभाग के सबसे बेहतर विभिन्न साफे बांधने वालो को भी आमंत्रित किया जाता।।साफा इस क्षेत्र की संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है।इसके सरंक्षण के प्रयास को नमन।।
*पढ़िए साफा क्यों है सिरमौर*
राजस्थान की समृद्ध संस्कृति एवं रीति-रिवाज आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में खोते जा रहे हैं। आधुनिकता और पाश्चात्य सभ्यता के साथ आये बदलाव ने परम्परागत रीति-रिवाजों को न केवल बदलकर रख दिया, अपितु राजस्थान की समृद्ध संस्कृति अपना आकार खोती जा रही हैं।
रोजमर्रा की भागदौड़ और पहियों पर घूमती वातानुकूलित जिन्दगी के बीच समारोह के दौरान साफा उपलब्ध नहीं होने अथवा इस ओर किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं होने पर ऐसे मौके पर इसका प्रबन्ध नहीं हो पाता है। चुनिन्दा स्थानों से साफा लाने की जहमत कोई नहीं करता, लेकिन साफे का स्थान बरकरार है। इस स्थान को बदला नहीं जा सकता। दुनिया के कानून, संविधान तो बदले जा सकते हैं। मगर ‘साफे’ का स्थान नहीं बदला जा सकता। इसका महत्व इसी कारण बरकरार हैं। विभिन्न समारोहों में अतिथियों का साफा पहनाकर स्वागत करने की परम्परा है।
‘साफा’ राजस्थान की समृद्ध संस्कृति और परम्परा का अभिन्न हिस्सा हैं। लेकिन, राजपूती आन-बान-शान का प्रतीक साफा अब सिरों से सरकता जा रहा है। युवा पीढ़ी आधुनिक होकर ‘साफे’ का महत्व समझ नहीं पा रही है। इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी ‘पाग-पगड़ी-साफे’ को इज्जत और ओहदे का प्रतीक माना जाता है। साफे को आदमी के ओहदे व खानदान से जोड़कर देखा जाता हैं। साफा पहन कर बड़े-बुजुर्ग अपने आपको सम्पूर्ण व्यक्तित्व का मालिक समझते हैं। ‘साफा’ व्यक्ति के समाज का प्रतीक माना जाता हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग समाज में अलग-अलग तरह के साफे पहने जाते हैं। साफे से व्यक्ति की जाति व समाज का स्वतः पता चल जाता हैं।
‘पगड़ी’ आदमी के व्यक्तित्व की निशानी समझी जाती है। ‘पगड़ी’ की खातिर आदमी स्वयं बरबाद हो जाता है, मगर उस पर आंच नहीं आने देता। ‘साफा’ ग्रामीण क्षेत्रों में सदा ही बांधा जाता है। खुशी और गम के अवसरों पर भी ‘साफे’ का रंग व आकार बदल जाता हैं। खुशी के समय रंगीन साफे पहने जाते हैं। जैसे शादी-विवाह, सगाई या अन्य उत्सवों, त्यौहारों पर विभिन्न रंगो के साफे पहने जाते हैं। मगर, गम के अवसर पर खाकी अथवा सफेद रंग के साफे पहने जाते हैं, ये शोक का प्रतीक होते हैं। हालांकि, मुस्लिम समाज (सिन्धी) में सफेद साफे शौक से पहने जाते हैं। सिन्धी मुसलमान सफेद ‘पाग’ का ही प्रयोग करते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में आपसी मनमुटाव, लडाई-झगडों का निपटारा ‘साफा’ पहनकर किया जाता है। जैसलमेर व बाड़मेर जिलों के कई गांवो में आज भी अनजान व्यक्ति अथवा मेहमानों को ‘नंगे’ सिर आने की इजाजत नहीं हैं। राजपूत बहुल गांवों में साफे का अत्यधिक महत्व है। इन गांवो में सामंतशाहों के आगे अनुसूचित जाति, जनजाति (मेघवाल, भील आदि) के लोग साफा नहीं पहनते, अपितु सिर पर तेमल (लूंगी) अथवा टवाल बांधते हैं।
विवाह, सगाई अथवा अन्य समारोह में साफे के प्रति परम्पराओं में तेजी से गिरावट आई है। अभिजात्य परिवारों में साफा आज भी ‘स्टेटस सिम्बल’ बना हुआ हैं। अभिजात्य वर्ग में साफे के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है। शादी विवाह या अन्य समारोह में ‘साफे’ के प्रति छोटे-बड़ों का लगाव आसानी से देखा जा सकता है।
हाथों से बांधने वाले ‘साफे’ का जवाब नहीं होता। हाथों से साफे को बांधना एक हुनर व कला है। इस कला को जिंदा रखने वाले कुछ लोग ही बचे हैं। आजकल चुनरी के साफों का अधिक प्रचलन है। लहरियां साफा भी प्रचलन में है। मलमल, जरी, तोता, परी कलर के साफे भी पसन्द किए जा रहे हैं। जोधपुरी साफा पहनना युवा पसन्द करते हैं, जबकि बड़े-बुजुर्ग जैसलमेरी साफा, जो गोल होता है, पहनना पसन्द करते हैं। महारावल बृजराज सिंह द्वारा वर्तमान में बांधे जा रहे साफे को सर्वाधिक पसन्द किया जाता है।
जिले के पहले केबिनेट मंत्री सालेह मोहम्मद ने भी जेसलमेरी गोल साफा पहनकर विधानसभा में शपथ ग्रहण की थी।।
केसरिया रंग का गोल साफा पहनने का प्रचलन अधिका हैं। बहरहाल, साफे का महत्व आज भी कायम हैं।
कलेक्टर नमित मेहता की राजस्थानी परंपरा को कायम रखने की अनूठी पहल *•साफा सिरमौर^*
*अनोखा रोमांच होगा जब पांच हजार लोग एक साथ पारंपरिक साफा बांध विश्व रिकॉर्ड बनाएंगे।।*
*बाडमेर न्यूज़ ट्रैक के लिए चन्दन सिंह भाटी*
*17 फरवरी से थार की माटी की सोंधी महक से लबरेज लोक संस्कृति और परंपरा का प्रतीक मरु मेला यानी डेजर्ट फेयर में इस बार युवा और ऊर्जावान जिला कलेक्टर नमित मेहता और प्रभारी मोहनदान रतनू ने नवाचार करते हुए मरु महोत्सव में साफा सिरमौर को केंद्र बिंदु बना एक साथ पांच हजार साफे बांधने का लक्ष्य रखा है जिसमे सभी अधिकारी जुटे। अच्छा हो इस इवेंट में संभाग के सबसे बेहतर विभिन्न साफे बांधने वालो को भी आमंत्रित किया जाता।।साफा इस क्षेत्र की संस्कृति और परंपरा का प्रतीक है।इसके सरंक्षण के प्रयास को नमन।।
*पढ़िए साफा क्यों है सिरमौर*
राजस्थान की समृद्ध संस्कृति एवं रीति-रिवाज आधुनिकता की इस अंधी दौड़ में खोते जा रहे हैं। आधुनिकता और पाश्चात्य सभ्यता के साथ आये बदलाव ने परम्परागत रीति-रिवाजों को न केवल बदलकर रख दिया, अपितु राजस्थान की समृद्ध संस्कृति अपना आकार खोती जा रही हैं।
रोजमर्रा की भागदौड़ और पहियों पर घूमती वातानुकूलित जिन्दगी के बीच समारोह के दौरान साफा उपलब्ध नहीं होने अथवा इस ओर किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं होने पर ऐसे मौके पर इसका प्रबन्ध नहीं हो पाता है। चुनिन्दा स्थानों से साफा लाने की जहमत कोई नहीं करता, लेकिन साफे का स्थान बरकरार है। इस स्थान को बदला नहीं जा सकता। दुनिया के कानून, संविधान तो बदले जा सकते हैं। मगर ‘साफे’ का स्थान नहीं बदला जा सकता। इसका महत्व इसी कारण बरकरार हैं। विभिन्न समारोहों में अतिथियों का साफा पहनाकर स्वागत करने की परम्परा है।
‘साफा’ राजस्थान की समृद्ध संस्कृति और परम्परा का अभिन्न हिस्सा हैं। लेकिन, राजपूती आन-बान-शान का प्रतीक साफा अब सिरों से सरकता जा रहा है। युवा पीढ़ी आधुनिक होकर ‘साफे’ का महत्व समझ नहीं पा रही है। इसके विपरीत ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी ‘पाग-पगड़ी-साफे’ को इज्जत और ओहदे का प्रतीक माना जाता है। साफे को आदमी के ओहदे व खानदान से जोड़कर देखा जाता हैं। साफा पहन कर बड़े-बुजुर्ग अपने आपको सम्पूर्ण व्यक्तित्व का मालिक समझते हैं। ‘साफा’ व्यक्ति के समाज का प्रतीक माना जाता हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में अलग-अलग समाज में अलग-अलग तरह के साफे पहने जाते हैं। साफे से व्यक्ति की जाति व समाज का स्वतः पता चल जाता हैं।
‘पगड़ी’ आदमी के व्यक्तित्व की निशानी समझी जाती है। ‘पगड़ी’ की खातिर आदमी स्वयं बरबाद हो जाता है, मगर उस पर आंच नहीं आने देता। ‘साफा’ ग्रामीण क्षेत्रों में सदा ही बांधा जाता है। खुशी और गम के अवसरों पर भी ‘साफे’ का रंग व आकार बदल जाता हैं। खुशी के समय रंगीन साफे पहने जाते हैं। जैसे शादी-विवाह, सगाई या अन्य उत्सवों, त्यौहारों पर विभिन्न रंगो के साफे पहने जाते हैं। मगर, गम के अवसर पर खाकी अथवा सफेद रंग के साफे पहने जाते हैं, ये शोक का प्रतीक होते हैं। हालांकि, मुस्लिम समाज (सिन्धी) में सफेद साफे शौक से पहने जाते हैं। सिन्धी मुसलमान सफेद ‘पाग’ का ही प्रयोग करते हैं।
ग्रामीण क्षेत्रों में आपसी मनमुटाव, लडाई-झगडों का निपटारा ‘साफा’ पहनकर किया जाता है। जैसलमेर व बाड़मेर जिलों के कई गांवो में आज भी अनजान व्यक्ति अथवा मेहमानों को ‘नंगे’ सिर आने की इजाजत नहीं हैं। राजपूत बहुल गांवों में साफे का अत्यधिक महत्व है। इन गांवो में सामंतशाहों के आगे अनुसूचित जाति, जनजाति (मेघवाल, भील आदि) के लोग साफा नहीं पहनते, अपितु सिर पर तेमल (लूंगी) अथवा टवाल बांधते हैं।
विवाह, सगाई अथवा अन्य समारोह में साफे के प्रति परम्पराओं में तेजी से गिरावट आई है। अभिजात्य परिवारों में साफा आज भी ‘स्टेटस सिम्बल’ बना हुआ हैं। अभिजात्य वर्ग में साफे के प्रति मोह बढ़ता जा रहा है। शादी विवाह या अन्य समारोह में ‘साफे’ के प्रति छोटे-बड़ों का लगाव आसानी से देखा जा सकता है।
हाथों से बांधने वाले ‘साफे’ का जवाब नहीं होता। हाथों से साफे को बांधना एक हुनर व कला है। इस कला को जिंदा रखने वाले कुछ लोग ही बचे हैं। आजकल चुनरी के साफों का अधिक प्रचलन है। लहरियां साफा भी प्रचलन में है। मलमल, जरी, तोता, परी कलर के साफे भी पसन्द किए जा रहे हैं। जोधपुरी साफा पहनना युवा पसन्द करते हैं, जबकि बड़े-बुजुर्ग जैसलमेरी साफा, जो गोल होता है, पहनना पसन्द करते हैं। महारावल बृजराज सिंह द्वारा वर्तमान में बांधे जा रहे साफे को सर्वाधिक पसन्द किया जाता है।
जिले के पहले केबिनेट मंत्री सालेह मोहम्मद ने भी जेसलमेरी गोल साफा पहनकर विधानसभा में शपथ ग्रहण की थी।।
केसरिया रंग का गोल साफा पहनने का प्रचलन अधिका हैं। बहरहाल, साफे का महत्व आज भी कायम हैं।