पाक में पीथौरा पीर,भारत में जेता की जाल
बाड़मेर मजहब के नाम पर होने वाले बंटवारे के वक्त धार्मिक सद्भावना की किसे परवाह रहती है। यहीं दंश सरहदी गांवों के लोग आज भी भुगत रहे है। भारत-पाक विभाजन के वक्त पीथौरा पीर एवं जेता की जाल धार्मिक स्थल के बीच एक लकीर खींच दी गई। लेकिन मौजूदा परिदृश्य में आ रहे बदलाव से सरहदी लोगों को उम्मीद जगी है कि वे अपने रिश्तदारों से मिलने के साथ इन धार्मिक स्थानों पर आसानी से जा सेंगे।
पा में कूनरी स्थित पीथौरा पीर एवं भारत में जेता की जाल दोनों देशों के बाशिंदों के लिए आस्था का केन्द्र रहे है। विभाजन के दौरान इने अलग होने के बावजूद आस्था में किसी तरह की कमी नहीं आई। अब तक इने मुरीद दर्शनार्थ वीजा के जरिए जाते रहे है। सबसे हटकर यह बात है कि जेता मुसलमान धर्म से ताल्लुकात रखती है। लेकिन हिन्दू उसको कुलदेवी के बतौर पूजा करते है। भारत-पाक सीमा पर स्थित स्वरूपे का तला में जेता की जाल है। इसकी स्थापना 1912 में हुई थी। उस दरिम्यान टिड्डियां अक्सर फसल बर्बाद कर देती थी। ऐसे में तत्कालीन अड़बलियार निवासी शोभजी मेघवाल ने मनौती मांगी थी कि अगर टिड्डियों ने उसे खोत में खराबा नहीं किया तो वे जेता की जाल की स्थापना करेंगे। सुबह उन्होंने पाया कि टिड्डियों ने उनकी फसल को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। जबकि अन्य खेतों में काफी खराबा हुआ। रूगोणियों की डेरी में जाल की स्थापना की गई। इसे आज भी इसी नाम से पुकारा जाता है। भारत-पाक विभाजन के समय वे अड़बलियार में रह गए। रूगोणियों की डेरी भारतीय सीमा में रह गई।
कुलदेवी जेता के बारे में मान्यता है कि वह समेजी जाति की मुसलमान महिला थी। एक बार वह अपने दूध पीते बच्चे को जाल के पेड़ में झुला बांधकर पीलू चुगने गई थी। इस दौरान प्यास लगने से उसे बेटे की मौत हो गई। जेता ने भी पुत्र मोह में अपनी ईहलीला समाप्त कर दी। इसे बाद परचे देने के साथ ही जेता के नाम से मनौतियां मांगने का सिलसिला शुरू हुआ। जब लोगों की मनौती पूरी होने लगी तो उसको कुलदेवी के रूप में पूजा जाने लगा। कुलदेवी जेता की जाल पर हर साल भादवा, माघ, चेत्र की दूज को विशेष रूप से मेला भरता है। इसमें पाकिस्तान से आकर लोग शरीक होते है।
डा.एम.आर.गढ़वीर के मुताबिक जब अन्य विस्थापितों के साथ शाभजी मेघवाल का परिवार भारत पहुंचा तब तक यह खेत इस्माइल समेजा को आबंटित कर दिया गया। शुरूआत में इस्माइल ने ध्यान नहीं दिया। जब उसको नुकसान होने लगा तो बाकायदा उसने भी धार्मिक श्रद्वा जताते हुए दो बीघा जमीन जायरीनों के लिए छोड़ रखी है। जहां सालाना लोग मनौती मांगकर घी का धूप, नारियल एवं बकरे एवं घेटे की बलि चढ़ाते है। जेता को मेघवालों की कुलदेवी के बतौर माना जाता है। पाकिस्तान में इब्राहिम का तला, चारणोर, कितारी, मिठड़िया, तिगुसर, चेलार, कांकईया,संग्रासी का तला, कठा, नगरपारकर एवं खावड़ समेत कई गांवों में कुलदेवी जेता के मुरीद रहते है। उने मुरीदों का कहना है कि अगर बस शुरू होती है तो फिर सद्भावना की मिसाल को बल मिलेगा। उमरकोट निवासी किशनराम ख्याला दो मर्तबा यहां आ चुके है। इसी तरह पाक में अमरकोट से आगे कूनरी के पास पीर पीथौरा की मजार है। जहां पर मुख्य पुजारी परपंरागत मेघवाल समाज से होता है। सरहदी गौहड़ का तला, भुरावा, स्वरूपे का तला, आंगनशाह की ढाणी, गुमाने का तला, मिठड़ाऊ, बीजासर एवं बुहरान का तला के लोग पीर पीथौरा के मुरीद है। उनकी मजार पर जाने का सिलसिला विभाजन से पहले एवं बाद भी जारी है।
बाड़मेर मजहब के नाम पर होने वाले बंटवारे के वक्त धार्मिक सद्भावना की किसे परवाह रहती है। यहीं दंश सरहदी गांवों के लोग आज भी भुगत रहे है। भारत-पाक विभाजन के वक्त पीथौरा पीर एवं जेता की जाल धार्मिक स्थल के बीच एक लकीर खींच दी गई। लेकिन मौजूदा परिदृश्य में आ रहे बदलाव से सरहदी लोगों को उम्मीद जगी है कि वे अपने रिश्तदारों से मिलने के साथ इन धार्मिक स्थानों पर आसानी से जा सेंगे।
पा में कूनरी स्थित पीथौरा पीर एवं भारत में जेता की जाल दोनों देशों के बाशिंदों के लिए आस्था का केन्द्र रहे है। विभाजन के दौरान इने अलग होने के बावजूद आस्था में किसी तरह की कमी नहीं आई। अब तक इने मुरीद दर्शनार्थ वीजा के जरिए जाते रहे है। सबसे हटकर यह बात है कि जेता मुसलमान धर्म से ताल्लुकात रखती है। लेकिन हिन्दू उसको कुलदेवी के बतौर पूजा करते है। भारत-पाक सीमा पर स्थित स्वरूपे का तला में जेता की जाल है। इसकी स्थापना 1912 में हुई थी। उस दरिम्यान टिड्डियां अक्सर फसल बर्बाद कर देती थी। ऐसे में तत्कालीन अड़बलियार निवासी शोभजी मेघवाल ने मनौती मांगी थी कि अगर टिड्डियों ने उसे खोत में खराबा नहीं किया तो वे जेता की जाल की स्थापना करेंगे। सुबह उन्होंने पाया कि टिड्डियों ने उनकी फसल को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। जबकि अन्य खेतों में काफी खराबा हुआ। रूगोणियों की डेरी में जाल की स्थापना की गई। इसे आज भी इसी नाम से पुकारा जाता है। भारत-पाक विभाजन के समय वे अड़बलियार में रह गए। रूगोणियों की डेरी भारतीय सीमा में रह गई।
कुलदेवी जेता के बारे में मान्यता है कि वह समेजी जाति की मुसलमान महिला थी। एक बार वह अपने दूध पीते बच्चे को जाल के पेड़ में झुला बांधकर पीलू चुगने गई थी। इस दौरान प्यास लगने से उसे बेटे की मौत हो गई। जेता ने भी पुत्र मोह में अपनी ईहलीला समाप्त कर दी। इसे बाद परचे देने के साथ ही जेता के नाम से मनौतियां मांगने का सिलसिला शुरू हुआ। जब लोगों की मनौती पूरी होने लगी तो उसको कुलदेवी के रूप में पूजा जाने लगा। कुलदेवी जेता की जाल पर हर साल भादवा, माघ, चेत्र की दूज को विशेष रूप से मेला भरता है। इसमें पाकिस्तान से आकर लोग शरीक होते है।
डा.एम.आर.गढ़वीर के मुताबिक जब अन्य विस्थापितों के साथ शाभजी मेघवाल का परिवार भारत पहुंचा तब तक यह खेत इस्माइल समेजा को आबंटित कर दिया गया। शुरूआत में इस्माइल ने ध्यान नहीं दिया। जब उसको नुकसान होने लगा तो बाकायदा उसने भी धार्मिक श्रद्वा जताते हुए दो बीघा जमीन जायरीनों के लिए छोड़ रखी है। जहां सालाना लोग मनौती मांगकर घी का धूप, नारियल एवं बकरे एवं घेटे की बलि चढ़ाते है। जेता को मेघवालों की कुलदेवी के बतौर माना जाता है। पाकिस्तान में इब्राहिम का तला, चारणोर, कितारी, मिठड़िया, तिगुसर, चेलार, कांकईया,संग्रासी का तला, कठा, नगरपारकर एवं खावड़ समेत कई गांवों में कुलदेवी जेता के मुरीद रहते है। उने मुरीदों का कहना है कि अगर बस शुरू होती है तो फिर सद्भावना की मिसाल को बल मिलेगा। उमरकोट निवासी किशनराम ख्याला दो मर्तबा यहां आ चुके है। इसी तरह पाक में अमरकोट से आगे कूनरी के पास पीर पीथौरा की मजार है। जहां पर मुख्य पुजारी परपंरागत मेघवाल समाज से होता है। सरहदी गौहड़ का तला, भुरावा, स्वरूपे का तला, आंगनशाह की ढाणी, गुमाने का तला, मिठड़ाऊ, बीजासर एवं बुहरान का तला के लोग पीर पीथौरा के मुरीद है। उनकी मजार पर जाने का सिलसिला विभाजन से पहले एवं बाद भी जारी है।