सरंक्षण लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सरंक्षण लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

गुरुवार, 28 अप्रैल 2022

जैसलमेर हुरमुचो भारत की प्राचीन और पारम्परिक सिंध कशीदा शैली,सरंक्षण की दरकार

जैसलमेर हुरमुचो भारत की प्राचीन और पारम्परिक सिंध कशीदा शैली,सरंक्षण की दरकार


जैसलमेर  कशीदाकारी भारत का पुराना और बेहद खूबसूरत हुनर है । बेहद कम साधनों और नाममात्र की लागत के साथ शुरु किये जा सकने वाली इस कला के कद्रदान कम नहीं हैं । रंग बिरंगे धागों और महीन सी दिखाई देने वाली सुई की मदद से कल्पनालोक का ऎसा संसार कपड़े पर उभर आता है कि देखने वाले दाँतों तले अँगुलियाँ दबा लें । लखनऊ की चिकनकारी,बंगाल के काँथा और गुजरात की कच्छी कढ़ाई का जादू हुनर के शौकीनों के सिर चढ़कर बोलता है। इन सबके बीच सिंध शैली की कशीदाकारी ने  जैसलमेर की हस्तशिल्प कला  ,को  अलग पहचान है । तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी में जबकि हर काम मशीनों से होने लगा है, सिंधी कशीदाकारों की कारीगरी "हरमुचो" किसी अजूबे से कम नज़र नहीं आती । बारीक काम और चटख रंगों का अनूठा संयोजन सामान्य से वस्त्र को भी आकर्ष्क और खास बना देता है । हालाँकि वक्त की गर्द इस कारीगरी पर भी जम गई है । नई पीढ़ी को इस हुनर की बारीकियाँ सिखाने के लिये स्थानीय स्तर पर प्रशिक्षण कार्यक्रमों के जरिये इसका सरंक्षण आवश्यक हे वार्ना समय की मार के साथ हरमुचो बीते वक़्त की बात हो जाएगी । स्थानीय  सिंधी मुस्लिम महिलाए आज भी हरमुचो कला के कद्रदानों को सुई-धागे से रचे जाने वाले अनोखे संसार के दर्शन करा रही हैं  । हुरमुचो सिंधी भाषा का शब्द है जिसका शब्दिक अर्थ है कपड़े पर धागों को गूंथ कर सज्जा करना।

हुरमुचो भारत की प्राचीन और पारम्परिक कशीदा शैलियों में से एक है। अविभाजित भारत के सिंध प्रांत में प्रचलित होने के कारण इसे सिंधी कढ़ाई भी कहते हैं। सिंध प्रांत की खैरपुर रियासत और उसके आस-पास के क्षेत्र हरमुचो के जानकारों के गढ़ हुआ करते थे। यह कशीदा प्रमुख रूप से कृषक समुदायों की स्त्रियाँ फसल कटाई के उपरान्त खाली समय में अपने वस्त्रों की सज्जा के लिये करती थीं। आजादी के साथ हुए बँटवारे में सिंध प्रांत पाकिस्तान में चला गया किंतु वह कशीदा अब भी भारत के उन हिस्सों में प्रचलित है, जो सिंध प्रान्त के सीमावर्ती क्षेत्र हैं। पंजाब के मलैर कोटला क्षेत्र, राजस्थान के जैसलमेर ,बाड़मेर ,बीकानेर और श्री गंगानगर, गुजरात के कच्छ, महाराष्ट्र के उल्हासनगर तथा मध्य प्रदेश के ग्वालियर में यह कशीदा आज भी प्रचलन में है। जैसलमेर के मुस्लिम बाहुल्य गाँवो में आज भी महिलाए हरमुचो शैली की कशीदाकारी बड़े शौक से करती हैं ,अलबत्ता इस शैली का सरंक्षण किसी स्तर पर नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण हैं ,

हुरमुचो कशीदा को आधुनिक भारत में बचाए रखने का श्रेय सिंधी समुदाय की वैवाहिक परंपराओं को जाता है। सिंधियों में विवाह के समय वर के सिर पर एक सफेद कपड़ा जिसे ’बोराणी’ कहते है, को सात रंगो द्वारा सिंधी कशीदे से अलंकृत किया जाता है। आज भी यह परम्परा विद्यमान है। सिंधी कशीदे की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें डिजाइन का न तो कपड़े पर पहले कोई रेखांकन किया जाता है और न ही कोई ट्रेसिंग ही की जाती है। डिजाइन पूर्णतः ज्यामितीय आकारों पर आधारित और सरल होते हैं। जिन्हें एक ही प्रकार के टांके से बनाया जाता है जिसे हुरमुचो टांका कहते हैं। यह दिखने में हैरिंघ बोन स्टिच जैसा दिखता है परंतु होता उससे अलग है। पारम्परिक रूप से हुरमुचो कशीदा वस्त्रों की बजाय घर की सजावट और दैनिक उपयोग में आने वाले कपड़ों में अधिक किया जाता था। चादरों,गिलाफों,रूमाल,बच्चों के बिछौने,थालपोश,थैले आदि इस कशीदे से सजाए जाते थे । बाद में बच्चों के कपड़े, पेटीकोट, ओढ़नियों आदि पर भी हरमुचो ने नई जान भरना शुरु कर दिया । आजकल सभी प्रकार के वस्त्रों पर यह कशीदा किया जाने लगा है।मैटी कशीदे की तरह सिंधी कशीदे में कपड़े के धागे गिन कर टांकों और डिजाइन की एकरूपता नहीं बनाई जाती। इसमें पहले कपड़े पर डिजाइन को एकरूपता प्रदान करने के लिए कच्चे टाँके लगाए जाते हैं। जो डिजाइन को बुनियादी आकार बनाते हैं। सिंधी कशीदा हर किस्म के कपड़े पर किया जा सकता है। सिंधी कशीदे के डिजाइन अन्य पारम्परिक कशीदो से भिन्न होते हैं।

रविवार, 22 मई 2016

फोटो बाड़मेर अब मोर आबू के पाडो में नहीं ,सीमा सुरक्षा बल की चौकियों में बोलते हैं




फोटो बाड़मेर अब मोर आबू के पाडो में नहीं ,सीमा सुरक्षा बल की चौकियों में बोलते हैं

सरहद पर सीमा सुरक्षा बल के सरंक्षण में राष्ट्रिय पक्षी का बढ़ता कुनबा

बल की कई अग्रिम पोस्ट के कई केम्पस में सेकड़ो मोरो सरंक्षण

चंदन सिंह भाटी 

बाड़मेर जैव विविधता थार के रेगिस्तान में खतरे में हैं ,इस मरुस्थलीय क्षेत्र में वन्य जीवो की कई प्रजातियां सरंक्षण के आभाव में विलुप्त हो गयी ,थार के ग्रामीण इलाको में कभी बहुतायत पाये जाने वाले राष्ट्रिय पक्षी मोरो की विलुप्ति पर्यावरण प्रेमियों के लिए चिंता का विषय बनी। फिर भी ना सरकारें गम्भीर हुई न ही वन विभाग ,




मोरो की मरुस्थलीय क्षेत्रो में बहुतायत का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता हे की राजस्थानी लोक गीतों में मोरो पर कई गीत बने ,हैं मोरिया आछो बोल्यो रे धरती ,मोर बोले रे ओ मलजी आबू रे पाडो में ,जैसे कई गीत मोर की सांस्कृतिक महत्वता को दर्शाते हैं ,




पिछले एक दशक में जिले के ग्रामीण इलाको में मोर विलुप्त हो गए ,कभी गाँवो की रौनक थे मोर। घटते पेड़ों ने मोरो को विलुप्ति के कगार पर ले आये ,मगर अब मोर आबू के पाड़ों में नहीं सीमा सुरक्षा बल के कैम्पसों में बोलते ,हैं आपको यकीन नहीं होगा मगर जिले में सरहद पर सीमा सुरक्षा बल मोरो के सरंक्षक बने , सीमावर्ती अग्रिम पोस्टो पर बल के अधिकारियो और जवानों की दिन चर्या मोरो के साथ शुरू होती , मुनाबाव ,तामलोर ,गडरा ,मिठडाऊ ,देवा ,बी के डी ,केलनोर ,स्वरूपें का टला ,हुर्रो का तला ,जैसी सेकड़ो पोस्ट हे जंहा दो सौ से सौ से अधिक मोरो का सरंक्षण होता ,हैं ,बल के जवान और अधिकारी अपने हाथो से मोरो को चुगा खिलते ,हैं हर केम्पस में मोरो के लिए पानी ,दाना और छाया की अलग से व्यवस्था कर रखी हैं ,




मोर इन जवानों और अधिकारियो के परिवार का हिस्सा हो गए ,हैं मोर जवानों की हर गतिविधि का हिस्सा बनते हैं ,बल के कैम्पसों में प्रतिदिन सुबह शाम मंदिर में होने वाली आरती के समय मंदिर परिसर में पहुँच जाते हैं ,अकेले में पंख फैलाकर नाचने वाल मोर इन कैम्पसों में बल के जवानों की उपस्थिति में निडर होकर नृत्य करते हैं ,जवान विशेष आवाज़ से मोरो को बुलाकर एक जगह एकत्रित कर लेते हैं ,




सीमा सुरक्षा बल राष्ट्रिय पक्षी मोरो का हमदर्द और सरंक्षक बन कर उभर हैं ,सीमा सुरक्षा बल के सरंक्षण का ही कमाल हैं की मोरो का कुनबा इन कैम्पसों में लगातार बढ़ रहा हैं ,




सीमा सुरक्षा बल के सेकड़ो परिसरों में हज़ारो मोरो का सरंक्षण परिवार की तरह हो रहा हैं , राज्य सरकार और केंद्र सरकार को राष्ट्रिय पक्षियों के सुरक्षा और सरंक्षण की विधिवत जिम्मेदारी देनी चाहिए




तामलोर स्थित सीमा सुरक्षा बल की अग्रिम पोस्ट के सहायक उप समादेष्टा भूपेंद्र सिंह भाटी ने बताया की केम्पस में करीब तीन सौ से अधिक मोर हैं ,इन मोरो के लिए दाना ,पानी और छाया की अतिरिक्त व्यवस्था कर रखी हैं ,मोरो का सरंक्षण हमारी दिनचर्या में शामिल हैं ,यहाँ मोरो को पूरी सुरक्षा और सरंक्षण मिल रहा हैं इसीलिए इनकी तादाद भी लगातार बढ़ रही हैं




हुर्रो का तल्ला पोस्ट में कार्यरत जवां विमलेश कुमार ने बताया की मुझे आये छ माह ही हुए हैं ,मगर इस केम्पस में चार सौ से अधिक मोर हैं ,दिन उगते हैं ये मोर मेरे क्वार्टर के आगे आ जाते हैं ,इन्हे अपने हाथ से दाना खिलता हूँ ,सभी मोरो के लिए दाने पानी की व्यवस्था की हुई हैं ,परिवार तो मेरा इलाहबाद हैं मगर ये मोर उनकी कमी को कुछ हद तक पूरा करते हे,

मंगलवार, 5 मार्च 2013

बुधवार को सेकड़ो लोग देंगे जिला कलेक्टर और आयुक्त को ज्ञापन

ऐतिहासिक कारेली नाडी के सरंक्षण का बीड़ा उठाया जनता ने

बुधवार को सेकड़ो लोग देंगे जिला कलेक्टर और आयुक्त को ज्ञापन

बाड़मेर बाड़मेर जिला मुख्यालय पर स्थित ऐतिहासिक कारेली नाडी का कायाकल्प करने की जिम्मेदारी आम जन ने ली हें ,इसके लिए जल्द एक कमेटी का गठन कर लिया गया हें .कमिटी इसके सरंक्षण के लिए अभियान छेड़ रही हें ,प्रथम चरम में बुधवार को प्रातः ग्यारह बजे जिला कलेक्टर को ज्ञापन सौंप नाडी के सरंक्षण की मांग की जायेगी .कमिटी के सरंक्षक माधो सिंह दांता ने बताया की बुधवार को सेकड़ो की तादाद में महावीर पार्क में विभिन्न समाजो के लोग एकत्रित होकर जिला कलेक्टर को ज्ञापन सौंपेंगे . .इस आशय की जानकारी देते हुए सांग सिंह लुणु ने बताया की बाड़मेर की परंपरागत पेयजल स्रोतों में कारेली नाडी अहम् थी .आसपास के पचासों गाँवो के लोग इस नाडी के पानी से प्यास बुझाते थे .वहीं इस तालाब की बड़ी मान्यता थी ,लोगो की इस तालाब के प्रति गहरी आस्था थी ,आज इस तालाब की दुर्दशा कर इसे कचरा पात्र बना दिया ,उन्होंने बताया की जिला प्रशासन द्वारा कारेली नाडी के सौन्दर्यकरण के नाम पर विदेशी कंपनियों से पैसा भी लिया मगर उसका इस नाडी पर कोई उपयोग नहीं किया .आज तालाब गन्दगी से भरा पडा हें ,जिला प्रशासन और नगर परिषद् लगातार इस नाडी की उपेक्षा कर रहे हें जबकि सरकार ने परंपरागत पेयजल स्रोतों के विकास के लिए कई योजनाए बना रखी हें .रिड़मल सिंह दांता ने बताया की सोमवार को जिला कलेक्टर से मिलकर इस नाडी के विकास की मांग की जायेगी ,यदी जिला प्रशासन सकारात्मक नहीं हुआ तो युवा इसके विकास का कार्य अपने हाथ में लेंगे .चन्दन सिंह भाटी ने बताया की कारेली नाडी के पुराने स्वरुप को पुनः लौटाने के सतत सामूहिक प्रयास किये जायेंगे .आज इस नाडी के आगे से आम आदमी गुजर नहीं सकता इस तालाब में मृत पशु तक डाले जा रहे हें वही इसे कचरा पात्र बना दिया इसके लिए एक कमेटी का गठन किया गया हें जिसकी देखरेख में कारेली नाडी के सौन्दर्यकरण और विकास का कम होगा .बुधवार को नगर पालिका आयुक्त तथा जिला कलेक्टर को तत्काल कारेली नाडी की सफाई करने के लिए कहा जाएगा .बुधवार को बड़ी तादाद में ग्रामीणों तथा शहरी क्षेत्र के जागरूक नागरिको से संपर्क कैलाश बेनीवाल ,इन्दर प्रकाश पुरोहित ,अशोक सिंह राजपुरोहित ,दुर्जन सिंह गुडीसर ,मान सिंह भाटी ,रघुवीर सिंह तामलोर ,रमेश सिंह इन्दा ,मोती सिंह मारुडी ,खमीशा खान लुणु ,ओम सिंह दोहट ,गनपत सिंह लुनु ,भोम सिंह बलाई ,अशोक सारला ने संपर्क कर उन्हें परम्परागत पेयजल स्रोतों को बचने के लिए आगे आने के लियेलिये कहा .

शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

foto....मुग़ल कालीन शैली के इस दुर्ग पर पाकिस्तान की सेना ने 1965 के भारत के युद्ध के दौरान कब्जा किया था










मुग़ल कालीन शैली के इस दुर्ग पर पाकिस्तान की सेना ने 1965 के भारत के युद्ध के दौरान कब्जा किया था

किशनगढ़ दुर्ग को सरंक्षित स्मारक तो घोषित कर दिया मगर सरंक्षित करने के प्रयास नहीं हुए


जैसलमेर। अविभाजित पाकिस्तान का हिसा रहा राजस्थान के जैसलमेर जिले के सरहदी क्षेत्र किशनगढ़ का ऐतिहासिक दुर्ग सरंक्षण के  में जर्जर हालत में पहुँच गया ,हें भारतीय सरहद की सुरक्षा का अहम् भागीदार रहा यह दुर्ग समय और प्रशासनिक अनदेखी के चलते अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा हें .अपने आप में अनोखा हें किशनगढ़ दुर्ग जो राज्य सरकार और जिला प्रशासन की अनदेखी का दंश भोग रहा हें ..कहने को तो यह दुर्ग सरंक्षित स्मारक हें मगर सरंक्षण के नाम पर इस दुर्ग में एक ईंट भी राखी गई हें नहीं लगता .इस दुर्ग की खूबसूरती देखते ही बनती हें ,


पुरे भारत में इस शैली का दुर्ग कंही नहीं हें ,इस शैली के दुर्ग अब सिर्फ पाकिस्तान में हें ,किशनगढ़ किले जैसा हुबहू दुर्ग बहावलपुर सिंध पाकिस्तान में हें जो किशनगढ़ के सामने पाकिस्तान की तरफ हें .मुग़ल कालीन शैली के इस दुर्ग पर पाकिस्तान की सेना ने 1965 के भारत के युद्ध के दौरान कब्जा किया था पाकिस्तानी सेना ने इसी दुर्ग में अपनी सीमा चौकी स्थापित की थी ,बाद में भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को वापस खदेड़ दिया था .


गौरतलब है कि कला, साहित्य, संस्कृति व पुरातत्व विभाग की ओर से घोटारू, गणेशिया के साथ किशनगढ़ फोर्ट को संरक्षित स्मारक घोषित करने के लिए इसका निरीक्षण कर इसकी रिपोर्ट तैयार करने के लिए एक दल भी भेजा गया था, जिसमे बीकानेर पुरातत्व अधीक्षक किशनलाल, जैसलमेर संग्रहालय अध्यक्ष निरंजन पुरोहित व शिवरतन पुरोहित शामिल थे। रिपोर्ट के आधार पर अधिसूचना जारी कर 10 जून 2011 को आपत्तियां मांगी गई थी।


आपत्तियां नहीं मिलने की स्थिति मे कला, साहित्य, संस्कृति व पुरातत्व विभाग की प्रमुुख शासन सचिव उषा शर्मा ने राजस्थान स्मारक पुरावशेष स्थान तथा प्राचीन वस्तु अधिनियम, 1961 के तहत राज्य सरकार की ओर से घोटारू, गणेशिया के साथ-साथ किशनगढ़ फोर्ट को संरक्षित स्मारक घोषित करने संबंधी अधिसूचना 22 नवंबर 2011 मे जारी की थी। ऎसे मे उपेक्षा का दंश झेल रहे इस ऎतिहासिक दुर्ग के सुनहरे दिन लौटने की उम्मीद जगने लगी थी, लेकिन ऎसा हुआ नहीं। हकीकत यह है कि संरक्षित स्मारक बनने के बाद भी किशनगढ़ की किस्मत नहीं संवर पाई है और यह गढ़ अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहा है।


इतिहास के पन्नो मे किशनगढ़ फोर्ट

जैसलमेर से करीब डेढ़ सौ किमी दूर व भायलपुर (पाकिस्तान) की सीमा के नजदीक, जैसलमेर के प्राचीन किशनगढ़ परगने का मार्ग देरावल व मुल्तान की ओर से जाता था। इस गढ़ का निर्माण बूटे (भुट्टे) दावद खां उर्फ दीनू खां ने करवाया। यही कारण है कि इसका नाम दीनगढ़ था। बताते हैं कि दावद खां के पौत्रो से हुई संधि के बाद महारावल मूलाराम के समय इसका नाम किशनगढ़ (कृष्णगढ़) रखा गया। अठारहवीं शताब्दी का यह दुर्ग वास्तुशिल्प संरचना का सुंदर नमूना है। यह गढ़ पक्की ईटो से बना हुआ है, जिसमे दो मंजिले बनी है। फोर्ट मे मस्जिद व महल तथा कोट मे एक दरवाजा व पानी का कुआ बना है। कोट की बनावट मुस्लिम संस्कृति की प्रतीक है और क्षेत्र मे टीबे ही टीबे हैं। इस परगने मे केवल दो ही गांव है।