चोल राजवंश, भारत का वो राजवंश जिनके राजाओं को "सूर्य पुत्र" कहा जाता है। इस राजवंश ने अपने शुरूआती दौर से ही इतिहास के जानकारों और उसमें रूचि रखने वालों को अपनी तरफ आकर्षित किया है। अतः भारत में ये राजवंश हमेशा से ही अपने यश, वैभव, बल और सेना के चलते इतिहासकारों के बीच आकर्षण का केंद्र रहा है। इस राजवंश के बारे में एक बड़ी ही प्रसिद्ध कहावत मशहूर है, कहा जाता है कि जहां कावेरी नदी की धार मुड़ती थी ये राजवंश वहां तक फैला था। एक मजबूत नौसेना का स्वामी ये राजवंश एक ज़माने में दक्षिण भारत का सबसे शक्तिशाली राजवंश रहा है। इस राजवंश के शासनकाल की अवधि 9 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी के बीच की थी। 9वीं से 13 वीं शताब्दी के शुरूआती दौर को देखें तो पता चलता है कि अपने सांस्कृतिक, आर्थिक और सैन्य मोर्चों की बदौलत चोल साम्राज्य दक्षिण एशिया और दक्षिण पूर्व एशिया का सुपर पावर था और उस समय किसी भी राजवंश या साम्राज्य में इतनी हिम्मत नहीं थि की वो इनका डट के मुकाबला कर सकें।सभी चोल राजाओं में सबसे प्रसिद्ध राजराजा चोल हैं और उनके बेटे राजेंद्र चोल हैं इन दोनों राजाओं के बारें में ये प्रसिद्ध था कि हर उगते सूरज के साथ इनके राज्य का विस्तार हुआ है। जिन्होंने प्रारम्भिक कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने के बाद क़रीब दो शताब्दियों न केवल एक मजबूत प्रशासन की नीव रखी बल्कि, निर्माण, कला और साहित्य को भी बहुत प्रोत्साहन दिया। अगर तमिल साहित्य को देखें तो मिलता है की संगम कवियों ने चोल शासकों और उनकी शासन व्यवस्था का बहुत अधिक मात्रा में प्रचार प्रसार किया है और पूरा का पूरा तमिल साहित्य चोल राजवंशों की गाथाओं से भरा पड़ा है। अगर बात इस राजवंश की कला के क्षेत्र में की गयी उपलब्धियों पर हो तो पता चलता है कि इन्होने कला और निर्माण को उसके सर्वोत्तम रूप में प्रसारित और प्रचारित किया। स्लाइड्स के माध्यम से देखिये क्यों ख़ास थी चोल राजवंश की कला शैली।
ऐरावतेश्वर मंदिर, दरासुरम ऐरावतेश्वर मंदिर दरासुरम का एक मुख्य आकर्षण है और भक्त यहाँ वर्ष भर आते हैं। पुराणों के अनुसार देवताओं के राजा इंद्र के सफ़ेद हाथी ऐरावत ने यहाँ भगवान शिव की पूजा की थी। दुर्वासा ऋषि द्वारा दिए गए श्राप से मुक्त होने के लिए ऐरावत ने भगवान शिव की आराधना की। हिंदुओं में मृत्यु के देवता माने जाने वाले भगवान् यम ने भी इस मंदिर में भगवान शिव की आराधना की थी। इस मंदिर में भगवान शिव की ऐरावतेश्वर के रूप में पूजा की जाती है। यह मंदिर प्रारंभिक द्रविड़ वास्तुकला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस मंदिर में पत्थरों पर सुंदर नक्काशी की गई है।
थिलाई नटराजर मंदिर, चिदंबरम थिलाई नटराजर मंदिर चिदंबरम का प्रमुख आकर्षण है। यह शैवों के लिए पूजा के सबसे महत्वपूर्ण केन्द्रों में से एक है और यह देश भर के यात्रियों को आकर्षित करता है। कई संतों ने इसकी प्रशंसा में गीत गाएं हैं। इसका निर्माण लगभग 2 सदी पहले किया गया था और तब से इस ने वास्तुकला, नृत्य और तमिलनाडु के अन्य कला रूपों को प्रभावित किया है। आज जिस रुप में यह मंदिर खड़ा है इसे विभिन्न समय पर विभिन्न राजवंशों ने पुनर्निर्मित किया था और उनके शैलीगत प्रभावों को मंदिर की वास्तुकला में देखा जा सकता है। इस मंदिर ने कई राजवंशों को बनते और नाश होते देखा है और इन में से हर एक ने इस पर अपनी छाप छोड़ी है। यहां भगवान शिव को थिलाई कोथन के रुप में पूजा जाता है और यहां स्थापित मुख्य मूर्ति नटराज या "ब्रह्मांडीय नर्तकी" की है।
ब्रहदीश्वर मंदिर, तंजावुर ब्रहदीश्वर मंदिर तमिल वास्तुकला में चोलों द्वारा की गई अद्भुत प्रगति का एक प्रमुख नमूना है। हिंदू देवता शिव को समर्पित मंदिर, भारत का सबसे बड़ा मंदिर होने के साथ-साथ, भारतीय शिल्प कौशल के आधारस्तम्भों में से एक है। मंदिर की भव्यता व बड़े पैमाने पर इसकी स्थापत्य दीप्ति व शांति से प्रेरित होकर इसे 'महानतम चोल मंदिर' के रूप में यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल बनने का गौरव प्राप्त हुआ है। इसे राजराजा चोल द्वारा बनाया गया था। वास्तुकला की द्रविड़ शैली में निर्मित, ब्रहदीश्वर मंदिर में नंदी बैल की प्रतिमा है, तथा यह हिंदुओं के बीच बड़ा पवित्र माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसे एक ही चट्टान के टुकड़े से बनाया गया है तथा माना जाता है कि इसका वजन लगभग 25 टन है।
श्वेतरान्येशवरार मंदिर, तिरूवेनकाडु श्वेतरान्येशवरार मंदिर, नागापट्टिनाम जिले में तिरवेंकाडु में स्थित है। यह तमिलनाडु में स्थित नौ नवग्रह मंदिरों में से चौथा नवग्रह मंदिर है। इस मंदिर में बुद्ध ग्रह( बुध) स्थित है। भगवान शिव इस मंदिर के अधिष्ठात्री देवता हैं तथा यहां उनकी श्वेतरानेश्वरार के रूप में पूजा की जाती है। देवी पार्वती की यहां ब्रहविधानायकी के रूप में पूजा होती है। मंदिर में बुद्ध का पवित्र गर्भग्रह है, जो नौ नवग्रहों में से एक हैं तथा लोगों को सम्पदा व बुद्धि प्रदान करता है। श्वेतरानेश्वरार नाम दो शब्दों श्वेतरानयम तथा ईश्वरार से मिलकर बना है, और श्वेतरानयम दो शब्दों- श्वेतम तथा अरण्यम से मिलकर बना है। मंदिर के द्वार पर नंदी की एक मूर्ति भी इस मंदिर की खासियत है। उनके शरीर पर घाव के 9 निशान हैं तथा इस देवी मंदिर के द्वार पर ही स्थापित किया गया है। इसका मुख भगवान शंकर के मंदिर की ओर है तथा कान देवी की तरफ उन्मुख हैं, जो यह दर्शाते हैं कि नंदी दिव्य जोड़े शिव व पार्वती से आज्ञा लेने को तत्पर हैं।
आदि कुम्बेस्वर मन्दिर कुंभकोणम का कुम्बेस्वर मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है और महामहाम का वार्षिक उत्सव इसी मन्दिर में मनाया जाता है। मन्दिर कम से कम 1300 साल पुराना है। मन्दिर 7वीं शताब्दी से अस्तित्व में है जब शहर पर चोलों का शासन था। मन्दिर का उल्लेख 7वीं शताब्दी में तमिलनाडु के सन्त कवि द्वारा रचित साईवनायानार के श्लोकों में मिलता है। 15वीं से 17वीं शताब्दी के बीच नायक शासकों द्वारा इस मन्दिर में बहुत काम किया गया और इसका विस्तार भी किया गया। आज, यह शहर का सबसे बड़ा शिव मन्दिर है जिसमें कि एक 125 फीट ऊँचा नौ मन्जिला विशाल खम्भा राजागुपुरम् प्रवेशद्वार पर स्थित है। मन्दिर परिसर के अन्दर ही तीन विशाल सकेन्द्रीय परिसर हैं।
जम्बूलिंगेश्वर मंदिर,श्रीरंगम जम्बूलिंगेश्वर मंदिर श्रीरंगम के पास तिरुवनैकवल में स्थित है साथ ही ये मंदिर चोल वंश के राजाओं द्वारा कराये गए निर्माण का एक बेहतरीन नमूना है । इस मंदिर की दीवारों पर शिलालेख बने हुए है जो स्पष्ट रूप से बयां करते है कि वह चोल वंश के है। यह मंदिर लगभग 1800 साल पुराना है लेकिन आज भी इस मंदिर की स्थिति काफी बेहतर है। जम्बूकेश्वरा गर्भगृह के नीचे पानी का एक स्त्रोत भी खोजा गया है। समय के साथ - साथ, जल का यह स्त्रोत खाली हो गया, इसे भरने का काफी प्रयास किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी पार्वती ने भगवान शिव के लिए इसी स्थान पर तपस्या की थी। इस स्थान पर देवी पार्वती ने अखिलेश्वरी देवी का रूप धारण किया था और जंगल में तपस्या शुरू कर दी थी।
त्यागराजस्वामी मंदिर, तिरूवरूर त्यागराजस्वामी मंदिर, तमिलनाडू के सबसे प्राचीन मंदिरों में से एक है। इसे लगभग एक सौ साल पहले चोल वंश के द्वारा बनाया गया था। इस मंदिर का परिसर 33 एकड़ के क्षेत्रफल में फैला हुआ है और इस क्षेत्र में कई छोटे - छोटे मंदिर बने हुए है। इस मंदिर का मुख्य भाग, दो हिस्सों में विभाजित है, एक भाग में भगवान शिव के वाल्मिकीनाथर स्वरूप की पूजा की जाती है। जबकि दूसरे भाग में त्यागराजर की पूजा की जाती है। यह दोनों ही भाग, दर्शनार्थियों के लिए हमेशा खुले रहते है। दोनों ही भागों में भगवान शिव के रूपों की आराधना होती है। वाल्मिकीनाथर श्राइन में पुतुरू को शिवलिंग के स्थान पर रखा गया है। इस मंदिर में यहां गाएं जाने भजन काफी लोकप्रिय होते है। जिन्हे 7 वीं सदी के सेवा नयाम्मर्स द्वारा बनाया गया था।
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