: गणगौर त्यौहार पर आज भी कायम है घुड़ला घुमाने की परम्परा.....
लड़कियां घुड़ला लेकर अपने चाचा, ताऊ, और निकटतम परिजनों के घरों में जाती है। वहां गीत गाती हैं। इसके पीछे की दृष्टि यह है कि लड़की परिजनों को अहसास करवाती है कि मेरी सुरक्षा की जिम्मेदारी आप पर है। इस अवसर पर वे अपने रिश्तोंं को भी समझती है। घुड़ला उसी घर ले जाया जाता है जहां लडकी अपनी सुरक्षा समझती है।
पुराने शहर में घुड़ला घुमाने की परम्परा कायम है। समाज शा?ी सुधा आचार्य ने बताया कि घुडला घुमाने के पीछे समाज का मनोविज्ञान है। किवदंती है कि जोधपुर के पीपाड़ गांव में गणगौर की पूजा करती लडकियों को यौवन हमलावार घोड़ेल खां उठाकर ले गया। इन लडकियों को छुड़ाने के लिए तत्कालीन राजा ने उससे युद्ध किया।
इससे राजा का शरीर तीरोंं से बींध गया। राजा लड़कियों को छुडाकर ले आया। अब गणगौर के साथ घड़े में छेद करके दीपक रखा जाता है। इसे घुडैले के रूप में परिजनों के यहां यह संदेश देने के लिए घुमाया जाता है कि उनकी रक्षा की जिम्मेदारी परिजनों की है। लड़कियां गणगौर के साथ उनकी रक्षा करने वाले को प्रतीकात्मक दीपक की ज्योति के रूप में रखती है।
घुड़ला नृत्य
घुड़ले की कथा के साथ नृत्य भी शुरू हो गया है। घुड़ले को सिर पर रखकर महिला घुड़ला नृत्य करती है। इस नृत्य को कोमल कोठारी ने राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के मंच से अन्तरराष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया। वैसे बीकानेर में भी मानसी सिंह पंवार सिर पर घुड़ला रखकर नृत्य करती है।
घुडले के गीत
बीकानेेर में लडकियां घुडेले के गीत गाती हुई समूह में घरों में जाती है। जब वे घरों के आगे गीत गाती है तो परिजन उपहार के रूप में घुड़ेले में रुपए डालते हैं। जब गणगौर की पूजा समाप्त हो जाती है तो गणगौर ससुराल चली जाती है और लड़किया आखिरी दिन पूजा करके इस एकत्रित राशि से सामूहिक भोज (गोठ) का आयोजन करती है।
यह पारिवारिक एवं सामाजिक रिश्तों की सनातन संस्कृति को सबल बनाती है। घुडैल के माध्यम से बहिन-बेटी के प्रति समाज में सनातन संस्कृति की जोत जलती रहने का संदेश दिया जाता है।
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