वादे और इरादे
शब्दकोश में अगर मजबूरी शब्द नहीं होता तो हमारी सरकारों का क्या होता? पांच साल तक वह जनता को क्या जवाब देतीं? सरकार आज कोई वादे को पूरा करने में नाकाम रहती है तो अदालत हो या जनता की अदालत में मजबूरी का बहाना लेकर अपना पीछा छुड़ाना चाहती है। आज भले केन्द्रीय मंत्री संसद में कोई भी बयान क्यों न दे लेकिन सरकार आने पर सौ दिन में विदेशों से काला धन वापस लाने का वादा करने वाली सरकार भी उसी पुरानी परिपाटी पर चलती नजर आ रही है।
भाजपा सरकार भी पिछली सरकार की तरह अपनी मजबूरियां गिना कर काला धन वापस लाने में असमर्थता जता रही है। वित्त मंत्री अरूण जेटली संसद में बयान दे रहे हैं कि सरकार काला धन लाने के मुद्दे पर गंभीर है लेकिन उसे अंतरराष्ट्रीय संधियों की पालना करनी पड़ती है। वे अब कह रहे हैं कि कुछ खाताधारकों ने बैंकों से अपनी रकम निकाल ली। लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी, तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और स्वयं जेटली जब सौ दिन में काला धन वापस लाने की बात कह रहे थे तब क्या उन्हें अंतरराष्ट्रीय संधियों से वचनबद्धता की जानकारी नहीं थी?
काला धन वापस लाने में यदि इतनी मजबूरियां हैं तो क्या ये मजबूरियां मनमोहन सिंह सरकार के सामने नहीं रहीं होंगी? भाजपा नेता इस मुद्दे पर तब सरकार को संसद में क्यों घेरते थे? क्या जनता को यह बताने के लिए कि यूपीए सरकार में काला धन वापस लाने की इच्छाशक्ति नहीं है या फिर वह काले धन कुबेरों को बचाना चाहती है। विपक्ष में रहकर सरकार पर आरोप लगाना आसान होता है क्योंकि उसमें कुछ बिगड़ता नहीं है। भाजपा नेताओं को अब पता चल रहा होगा कि आरोप लगाने और उसे साबित करने में कितना अंतर होता है? पूरे बहुमत के साथ सरकार में बैठकर भी यदि जोर-शोर से किए गए वादे को पूरा करने में नाकामी हाथ लगे तो मतदाता कथनी और करनी के अंतर को भी साफ समझ लेते हैं।
काले धन का मुद्दा भाजपा पिछले चार-पांच साल से जोर-शोर से उठाती रही है और उसने जनता को यह विश्वास दिला दिया था कि उसके सत्ता में आने के सौ दिन में काला धन वापस आ जाएगा। देश खुशहाल हो जाएगा और लोगों पर टैक्स की मार कम हो जाएगी। अब तो दो सौ दिन पूरे होने जा रहे हैं। फिर भी सरकार मजबूरियों का रोना रो रही है तो कैसे लगे कि "अच्छे दिन" आने वाले हैं।
शब्दकोश में अगर मजबूरी शब्द नहीं होता तो हमारी सरकारों का क्या होता? पांच साल तक वह जनता को क्या जवाब देतीं? सरकार आज कोई वादे को पूरा करने में नाकाम रहती है तो अदालत हो या जनता की अदालत में मजबूरी का बहाना लेकर अपना पीछा छुड़ाना चाहती है। आज भले केन्द्रीय मंत्री संसद में कोई भी बयान क्यों न दे लेकिन सरकार आने पर सौ दिन में विदेशों से काला धन वापस लाने का वादा करने वाली सरकार भी उसी पुरानी परिपाटी पर चलती नजर आ रही है।
भाजपा सरकार भी पिछली सरकार की तरह अपनी मजबूरियां गिना कर काला धन वापस लाने में असमर्थता जता रही है। वित्त मंत्री अरूण जेटली संसद में बयान दे रहे हैं कि सरकार काला धन लाने के मुद्दे पर गंभीर है लेकिन उसे अंतरराष्ट्रीय संधियों की पालना करनी पड़ती है। वे अब कह रहे हैं कि कुछ खाताधारकों ने बैंकों से अपनी रकम निकाल ली। लोकसभा चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी, तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और स्वयं जेटली जब सौ दिन में काला धन वापस लाने की बात कह रहे थे तब क्या उन्हें अंतरराष्ट्रीय संधियों से वचनबद्धता की जानकारी नहीं थी?
काला धन वापस लाने में यदि इतनी मजबूरियां हैं तो क्या ये मजबूरियां मनमोहन सिंह सरकार के सामने नहीं रहीं होंगी? भाजपा नेता इस मुद्दे पर तब सरकार को संसद में क्यों घेरते थे? क्या जनता को यह बताने के लिए कि यूपीए सरकार में काला धन वापस लाने की इच्छाशक्ति नहीं है या फिर वह काले धन कुबेरों को बचाना चाहती है। विपक्ष में रहकर सरकार पर आरोप लगाना आसान होता है क्योंकि उसमें कुछ बिगड़ता नहीं है। भाजपा नेताओं को अब पता चल रहा होगा कि आरोप लगाने और उसे साबित करने में कितना अंतर होता है? पूरे बहुमत के साथ सरकार में बैठकर भी यदि जोर-शोर से किए गए वादे को पूरा करने में नाकामी हाथ लगे तो मतदाता कथनी और करनी के अंतर को भी साफ समझ लेते हैं।
काले धन का मुद्दा भाजपा पिछले चार-पांच साल से जोर-शोर से उठाती रही है और उसने जनता को यह विश्वास दिला दिया था कि उसके सत्ता में आने के सौ दिन में काला धन वापस आ जाएगा। देश खुशहाल हो जाएगा और लोगों पर टैक्स की मार कम हो जाएगी। अब तो दो सौ दिन पूरे होने जा रहे हैं। फिर भी सरकार मजबूरियों का रोना रो रही है तो कैसे लगे कि "अच्छे दिन" आने वाले हैं।