राजस्थान : लोक कलाएँ, लोक नाट्य, लोक नृत्य, लोक गीत, लोक वाद्य एवं लोक चित्रकलालोक कलाएँ
राजस्थान लोक कला के विविध आयामों का जनक रहा है। लोक कला के अन्तर्गत लोकगीत, लोकनाट्य, लोकनृत्य, लोकवाद्य और लोक चित्रकला आती है, इसका विकास मौखिक स्मरण और रूढ़ियों के आधार पर दीर्घ काल से चला आ रहा है। ये लोक कलाएँ हमारी संस्कृति के प्राण है। मनोंरजन का साधन है। लोक जीवन का सच्चा स्वरूप है।
लोक नाट्य मेवाड़, अलवर, भरतपुर, करौली और जयपुर में लोक कलाकारों द्वारा लोक भाषा में रामलीला तथा रासलीला बड़ी लोकप्रिय है। बीकानेर ओर जैसलमेर में लोक नाट्यों में ‘रम्मत’ प्रसिद्ध है। इसमें राजस्थान के सुविख्यात लोकनायकों एवं महापुरूषों की ऐतिहासिक एवं धार्मिक काव्य रचना का मंचन किया जाता है। इन रम्मतों के रचियता मनीराम व्यास, फागु महाराज, सुआ महाराज, तेज कवि आदि है। मारवाड़ में धर्म और वीर रस प्रधान कथानकों का मंचन ‘ख्याल’(खेलनाटक) परम्परागत चला आ रहा है, इनमें अमरसिंह का ख्याल, रूठिराणी रो ख्याल, राजा हरिशचन्द्र का ख्याल प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय है। राजस्थान में ‘भवाईनाट्य’ अनूठा है जिसमें पात्र व्यंग वक्ता होते है। संवाद, गायन, हास्य और नृत्य इसकी प्रमुख विषेषताएँ है। मेवाड़ में प्रचलित ‘गवरी’ एक नृत्य नाटिका है जो रक्षाबन्धन से सवा माह तक खेली जाती है। गवरी वादन संवाद, प्रस्तुतिकरण आरै लोक-संस्कृति के प्रतीकों में मेवाड़ की ‘गवरी’ निराली है। गवरी का उद्भव षिव-भस्मासुर की कथा से माना जाता है। इसका आयोजन रक्षाबन्धन के दूसरे दिन से शुरू होता है। गवरी सवा महिने तक खेली जाती है। इसमें भील संस्कृति की प्रमुखता रहती है। यह पर्व आदिवासी जाति वर पौराणिक तथा सामाजिक प्रभाव की अभिव्यक्ति है। गवरी में पुरूष पात्र होते है। इसके खेलों में गणपति कान-गुजरी, जोगी, लाखा, बणजारा इत्यादि के खेल होते है।
लोक नृत्य
राजस्थान में लाके नृत्य की परम्परा सदा से उन्नत रही है। यहाँ विभिन्न क्षेत्रों में लोकनृत्यों का विकास हुआ जिससे जनजीवन में आनन्द, जीवट और शौर्य के भावों की अभिवृद्धि हुई है।
(अ) गैर नृत्य - आदिवासी क्षेत्रों में होली के अवसर पर ढोल, बांकिया तथा थाली की संगत में पुरूष अंगरखी, धोती, पगड़ी पहनें हाथ में छड़िया लेकर गोल घेरे में नृत्य में भीली संस्कृति के दर्षन होते हैं।
(ब) गीदड़ नृत्य - शेखावाटी क्षेत्र में लोग होली का डण्डा रोपने से सप्ताह भर तक नंगाडे की ताल पर पुरूष दो छोटे डंडे लके र गीतों के साथ सुन्दर परिधान पहन कर नृत्य करतें है जिसे ‘गीदड़नृत्य’ कहा जाता है।
(स) ढोल नृत्य - मरूस्थलीय प्रदेष जालारे में शादी के समय माली, ढ़ोली, सरगड़ा और भील जाति के लोग ‘थाकना’ शैली में ढोलनृत्य करते हैं।
(द) बम नृत्य - अलवर और भरतपुर में फागुन की मस्ती मंे बड़े नगाड़े को दो बड़े डण्डों से बजाया जाता है, जिसे ‘बम’ कहते है। इसी कारण इसे ‘बमनृत्य’ कहते हैं।
(य) घूमर नृत्य - यह राजस्थान का सर्वाधिक प्रसिद्ध लोकनृत्य है, इसे मांगलिक पर्वों पर महिलाओं द्वारा हाथों के लचकदार संचालन से ढ़ोलनगाड़ा, शहनाई आदि संगत में किया जाता है।
(र) गरबा नृत्य - महिला नृत्य में गरबा भक्तिपूर्ण नृत्य कला का अच्छा उदाहरण है। यह नृत्य शक्ति की आराधना का दिव्य रूप है जिसे मुख्य रूप से गुजरात मंे देखा जाता है। राजस्थान में डूंगरपुर और बाँसवाड़ा में इसका व्यापक पच्र लन हैं।इस तरह गजु रात आरै राजस्थान की संस्कृति के समन्वय का सुन्दर रूप हमें ‘गरबा’ नृत्य में देखने को मिलता है।
अन्य लोक नृत्य
जसनाथी सिद्धों का अंगारा नृत्य, भीलों का ‘राईनृत्य’ गरासिया जाति का ‘वालरनृत्य’ कालबेलियाजाति का ‘कालबेलियानृत्य’ प्रमुख है। पेशेवर लोकनृत्यों में ‘भर्वाइ नृत्य’ 'तेरह ताली नृत्य ' चमत्कारी कलाओं के लिए विख्यात है।
लोक गीत
राजस्थानी लाके गीत मौखिक परम्परा पर आधारित मानस पटल की उपज हैं जो शेडस संस्कारों, रीतिरिवाजों, संयोगवियोग के अवसरों पर लोक भाषा में सुन्दर अभिव्यक्ति करते है। उदाहरणार्थ -‘खेलण दो गणगौर’, म्हारी घूमर छे नखराली एमाय, चिरमी आदि है।
लोक वाद्य
लोककला में राजस्थान के लाके वाद्यों का बड़ा महत्व है, इनके बिना नृत्य, संगीत भी अधूरा लगता है। यहाँ के प्रमुख लोक वाद्यों में ‘रावण हत्था’, तंदूरा, नंगाड़े, तीनतारा, जोगिया सारंगी, पूंगी और भपंग उल्लेखनीय हैं।
लोक चित्रकला
1. पथवारी - गांवो में पथरक्षक रूप में पूजा जाने वाला स्थल जिस पर विभिन्न प्रकार के चित्र बने होते हैं।
2. पाना - राजस्थान में कागज पर जो चित्र उकेरे जाते हैं, उन्हें पाना कहा जाता है।
3. मांडणा - राजस्थान में लोक चित्रकला की यह एक अनुठी परम्परा है। त्योहारों एवं मांगलिक अवसरों पर पूजास्थल चैक पर ज्यामितीयवतृ , वर्ग या आडी़ तिरछी रेखाआंे के रूप में ‘मांडणा’ बनाये जाते हैं।
4. फड़ - कपड़ों पर किये जाने वाले चित्राकं न को ‘फड़’ कहा जाता है।
5. सांझी - यह गोबर के घर के आंगन, पूजास्थल अथवा चबुतरें पर बनाया जाता है।
लाके गीत, लाके नाटय् , लोकवाद्य, लाके चित्रकला राजस्थानी संस्कृति एवं सम्यता के प्रमुख अंग है। आदिकाल से लेकर आज तक इन कलाआंे का विविध रूपों में विकास हुआ है। इन विधाआंे के विकास में भक्ति, प्रेम, उल्लास और मनोरंजन का प्रमुख स्थान रहा है। इनके पल्लवन में लोक आस्था की प्रमुख भूमिका रही है। बिना आस्था और विष्वास के इन लोक कलाआंे के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती। आज भी लोककला के मूल तत्त्व जन जीवन में विद्यमान हैं। त्योहार, नृत्य, संगीत, लोकवाद्य, लोक कलाआंे, विभिन्न बोलियों एवं परिणाम के कारण ही राजस्थान को ‘रंगीला राजस्थान’ की संज्ञा दी जाती है। राजस्थान की सांझी संस्कृति के दर्षन यहाँ के जन-जीवन के साथ साहित्य में भी देखे जा सकते हैं। धर्म समभाव एवं सुलह-कुल की नीति यहाँ के धार्मिक जीवन का इतिहास के काल से ही मूल मंत्र रहा है।