रविवार, 3 अप्रैल 2011

आओ मिलकर नव वर्ष मनाएँ नव ऊर्जा की जोत लगाएँ - भूपेन्द्र उपाध्याय ‘तनिक’


आओ मिलकर नव वर्ष मनाएँ
नव ऊर्जा की जोत लगाएँ
- भूपेन्द्र उपाध्याय ‘तनिक’
अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्ददायी पीयूष वर्षिणी भारतीय संस्कृति का यह पावन पर्व, पंचांग पूजन का पुनीत पर्व है जिसमें निहित तिथि, वार, योग-करण एवं नक्षत्रा के आधार पर भारतीय समाज अपने मंागलिक अनुष्ठानों के लिए मुहूर्त देखता है। बालक के नामकरण संस्कार के निमित राशि खोजता है। यह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता एवं गरिमा का प्रथम दिवस है। नव संवत्सर चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा, जिसे विक्रम संवत् का नवीन दिवस भी कहा जाता है।
            राष्ट्रीय चेतना के ऋषि स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ‘‘यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले परकीयों की दिनांकों पर आश्रित रहनेवाला अपना आत्म गौरव खो बैठता है।‘‘
            यह दिन हमारे मन में यह उद्बोध जगाता है कि हम पृथ्वी माता के पुत्रा हैं, सूर्य, चन्द्र व नवग्रह हमारे आधार हैं ‘प्राणी मात्रा हमारे पारिवारिक सदस्य हैं। तभी हमारी संस्कृति का बोध वाक्य ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का सार्थक्य सिद्ध होता है।
            सामाजिक विश्रृंखलता की विकृतियों ने भारतीय जीवन में दोष एवं रोग भर दिया, फलतः कमजोर राष्ट्र के भू भाग पर परकीय, परधर्मियों ने आक्रमण कर हमें गुलाम बना दिया। सदियों पराधीनता की पीड़ाएं झेलनी पड़ी। पराधीनता के कारण जिस मानसिकता का विकास हुआ, इससे हमारे राष्ट्रीय भाव का क्षय हो गया और समाज में व्यक्तिवाद, भय एवं निराशा का संचार होने लगा।
जिस समाज में भगवान श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध महावीर, नानक व अनेक ऋषि-मुनियों का आविर्भाव हुआ। जिस धराधाम पर परशुराम, विश्वामित्रा, वाल्मिकी, वशिष्ठ, भीष्म एवं चाणक्य जैसे दिव्य पुरुषों का जन्म हुआ। जहां परम प्रतापी राजा-महाराजा व सम्राटों की श्रृंखला का गौरवशाली इतिहास निर्मित हुआ उसी समाज पर शक, हुण, डच, तुर्क, मुगल, फ्रांसीसी व अंग्रेजांे जैसी आक्रान्ता जातियों का आक्रमण हो गया। यह पुण्यभूमि भारत इन परकीय लुटेरांे की शक्ति परीक्षण का समरांगण बन गया और भारतीय समाज के तेजस्वी, ओजस्वी और पराक्रमी कहे जाने वाले शासक आपसी फूट एवं निज स्वार्थवश पराधीन सेना के सेनापति की भांति सब कुछ सहते तथा देखते रहे।
जो जीत गये उन्होनें हम पर शासन किया और अपनी संस्कृति अपना धर्म एवं अपनी परम्परा का विष पिलाकर हमें कमजोर एवं रुग्ण किया।
किन्तु इस राष्ट्र की जिजीविषा ने, शास्त्रों में निहित अमृतरस ने इस राष्ट्र को मरने नहीं दिया। तभी भारत में जन्में प्रख्यात शायर इकबाल ने कहा था:           ‘‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहंी हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा।।
            आशा और विश्वास की प्रखर लौ जलाता गीता का यह बोधवाक्य ‘‘यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्, धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे’’ ने भारतीय समाज को धर्म की धुरी से जोड़े रखा और इस धर्म ने इस राष्ट्र को अमरत्व प्रदान किया।
            इस अमरत्व को अक्षुण्ण बनाने के निमित्त आवश्यक है, हम अपने पर थोपी परम्परा संस्कृति और सभ्यता की केंचुली उतार फेंक,े तथा राष्ट्र गौरव की पुरातन परम्परा का पुनः आश्रय धारण कर पूरी निष्ठा से इसका निर्वाह करें, तभी हम सम्प्रभुता सम्पन्न स्वाधीन भारत के नागरिक कहलाने का गौरव पा सकेंगे।
            हमें अपने ऋषि मुनियांे, दिव्य पुरुषों एवं इतिहास पुरुषों द्वारा स्थापित त्योहारों, पर्वों एवं परम्पराओं को उत्साहपूर्वक मनाने की ओर अग्रसर होना होगा।
भारतीय त्योहारों एवं पर्वों का श्रीगणेश दिवस चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा, महान प्रतापी, लोक हितकारी गौ ब्राह्मण रक्षक, समाज चेतना के दैदीप्यमान नक्षत्रा सम्राट विक्रमादित्य के राज्याभिषेक का दिन माना गया है।
            जिसका साम्राज्य पूरव में श्याम, बर्मा, तिब्बत, नेपाल, वियतनाम व जापान की सीमाओं तक निहित था। पश्चिम में गन्धार, अफगनिस्तान, काबूल व अरब के भू भाग को समेटे था। उत्तर में हिमालय पार रूस तथा दक्षिण में महासागर की उत्तंग तरंगांे तक व्याप्त था। जहां दूध-दहीं की नदियां बहती थीं तथा सोना-चांदी के भण्डार भरे रहते  थे, अर्थात्  अतुलित समृद्धि थी।
            जहां द्वारांे पर ताले नहीं, धर्म के ध्वज लहराते थे। कहीं कोई रोगी अथवा दोषी नागरिक ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलता था। अपनी  आस्था, विश्वास एवं परम्पराओं पर जीवन निर्वाह करने वाला समाज सुखी, समृद्ध तथा समत्व भाव से जीता था। जिसके दरबार में मानवीय नवरत्नों का मान सम्मान होता था। गुरु आज्ञा से शासक दास भाव से शासन करता था। भेदभाव रहित न्याय एवं योग्यतानुरुप प्रबन्ध तथा आत्म अनुशासन युक्त प्रजा विक्रमादित्य के शासन का आधार था। जहां ऋषियों का वह वरद वाक्य - ‘‘सर्वेभवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणी पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःख भाग भवेत।।’’ सार्थक होता था। जहाँ व्यक्ति गौरव से जीता था और गरिमा से मरता था। इन श्रेष्ठताओं को राष्ट्र की ऋचाओं में समेटने के लिए एवं जीवन में उत्साह व आनन्द भरने के लिये यह नव संवत्सर वर्ष प्रतिपदा प्रति वर्ष समाज जीवन में आत्म गौरव भरने के लिए आता है। आवश्यकता है, हम इसे पूरी निष्ठा के साथ आत्मसात करें।
            इस पर्व के साथ कुछ प्रागैतिहासिक तथा ऐतिहासिक स्मृतियों के ¬प्रेरणा तत्व जुडे़ हैं। पृथ्वी सूक्त व वाराह पुराण के अनुसार चैत्रा मास में जीव तत्व चेता। अतः यह चैत्रा मास कहा गया। पृथ्वी का प्राकट्य दिवस, ब्रह्मा के संकल्पसृष्टि के सृजन का प्रथम दिवस, त्रोता में भारतीय जीवन के आधार भगवान श्री राम के राज्याभिषेक का मुहूर्त दिवस, जिस दिन राम राज्य की स्थापना हुई। द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक एवं कलयुग के प्रथम सम्राट परीक्षित के सिंहासनारूढ़ होने का यही दिन रहा है। जिसे युगाब्द कहा जाता है। सम्प्रति पांच हजार एक सौ ग्यारहवां युगाब्द है।
            ऐतिहासिक घटनाओं में देव पुरुष भगवान झूलेलाल का जन्म दिवस, चेटीचन्द तथा गुड़ी पडवा भी आज के दिन है। समाज सुधार के युग प्रणेता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना भी आज के दिन की थी। श्क्ति पूजा का चैत्रा नवरात्रि का प्रथम दिवस तथा समाज संगठन के सूत्रा पुरुष व सामाजिक चेतना के प्रेरक डॉ. केशव बलिराम हेड़गेवार का जन्म दिवस भी आज ही के दिन है।
            ऐसे अनेक प्रेरणादायी ऊर्जा प्रदत्त प्रसंग इसके साथ जुडे़ हैं। इस महापर्व को हमें उत्साह, आनन्द एवं आस्था के साथ मनाते हुए, उत्सवित-उल्लसित तो होना ही है, भावी पीढ़ी को इस पारम्परिक सम्पदा का हस्तान्तरण करने का भाव जागृत करना है।
तभी हम स्वाधीन भारत के नागरिक होने का गौरव धारण कर सकेंगे। महात्मा गांधी ने 1944 की हरिजन पत्रिका में लिखा था ‘‘ स्वराज्य का अर्थ है - स्वसंस्कृति, स्वधर्म एवं स्वपरम्पराओं का हृदय से निर्वाह करना। पराया धन और परायी परम्परा को अपनाने वाला व्यक्ति न ईमानदार होता है न आस्थावान।
इस पर्व की महिमा में वागड़ के प्रख्यात उर्दू साहित्यकार स्व. मुज़तर सिद्दीकी ने लिखा है-
इसके दिनमान में सर्वदा सूर्य है,                   
इसके परिवार का देवता सूर्य है। इसके अस्तित्व में आत्मा सूर्य की,     
इसके आधार में व्याप्त सूर्य है।। चन्द्रमा की कलाओं की सूचक है,                    
यह वास्तव में बहुत ज्ञानवर्धक है। इसको अपनाए भारत का हर आदमी,
विश्वव्यापी हो संवत् सर विक्रमी।। हम मनाएँ संवत् सर विक्रमी।
भारतीय समाज में व्याप्त पराधीनता के कीटाणुआंे से मुक्त होने के लिये आवश्यक है- कि हम अपने पारंपरिक प्रेरणादायी पाथेय सम्पदा का आश्रय लेकर, नये राष्ट्रवादी समाज की पुनर्रचना करें, और इसका श्री गणेश ज्योतिषीय महापर्व नव संवत्सर को श्रद्धा भाव से मनाकर करेें। अतः बार-बार यही आग्रह है-
               ‘‘ सन् को छोड़ संवत अपनाओ, निज गौरव का मान जगाओ’’।।
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(भूपेन्द्र उपाध्याय ‘तनिक’)

अच्छे घर और वर की चाहत में पूजी जाती है गणगौर






अच्छे घर और वर की चाहत में पूजी जाती है गणगौर

होलिका दहन के दूसरे दिन से शुरू हुए गणगौर त्योहार में कुंवारी कन्याएं और विवाहिताएं पूजन इत्यादि में जुट गई है। गणगौर का पर्व शुरू होने के साथ ही कुंवारी कन्याएं और महिलाएं सुबह-सुबह फूल चुनने के बाद गड़सीसर तालाब का पवित्र जल कलश में भर कर ला रही है। प्रति दिन ईसर और गणगौर की पूजा हो रही है। सुबह-सुबह महिलाएं बगीचे में जाती है और दूब एकत्रित करती है। इस दौरान वे गीत गाती है-बाड़ी वाला बाड़ी खोल, म्हैं आया थारी दोब ने...। बाद में महिलाएं निश्चित स्थान पर एकत्रित होकर दो-दो का जोड़ा बनाकर गणगौर की पूजा करती है।

अच्छे घर और वर की चाहत में पूजी जाती है गणगौर

कुंवारी कन्याएं अच्छे घर और वर की चाह में गणगौर का त्योहार मनाती है। गणगौर का त्योहार पूरी तरह से कुंवारी कन्याओं और महिलाओं का होता है। गणगौर मनाने के प्रति कुंवारी कन्याओं की यह धारणा है कि उसे अच्छा पति मिले और अच्छा घराना मिले।

महिलाओं का उत्साह उमड़ा

गणगौर के त्योहार में महिलाएं जुट गई है। सुबह-शाम महिलाओं की सार्वजनिक स्थानों, मंदिरों, छायादार व पुराने पेड़ों के नीचे भीड़ लगी रहती है। सजी-धजी महिलाएं गणगौर की आरती और पूजा में संलग्न देखी जा रही है।

गली-मोहल्ले में गणगौर की धूम

होलिका दहन के दूसरे दिन से शुरू होने वाली गणगौर पूजा 15 दिन तक चलती है। इसमें कुंवारियां व नवविवाहिताएं बढ़-चढ़कर भाग ले रही है। इन दिनों चल रही गणगौर पूजा की धूम स्वर्णनगरी के प्रत्येक मोहल्ले में देखने को मिल रही है। सुबह-सुबह हाथ में कलश लिए कन्याएं गणगौर पूजन स्थल पर पहुंचती है और विधिवत ईसर-गणगौर की पूजा करती दिखाई दे रही है।

शाम के समय सुनाई पड़ते हैं पारंपरिक गीत

गणगौर उत्सव शुरू होते हैं शहर में पारंपरिक गीतों की गूंज सुनाई देने लगी है। शाम के समय किसी भी गली-मोहल्ले से निकलने पर गणगौर के गीत ही सुनाई पड़ते हैं। सुबह की पूजा के बाद कन्याएं एवं महिलाएं शाम को एक बार एकत्र होकर पूजा-अर्चना करती है और गणगौर के पारंपरिक गीत गाती है।ड्ड

शीतला माता को ठंडे का भोग चढ़ाया

शीतला सप्तमी का त्योहार हर्षोल्लास से मनाया गया। मान्यताओं के अनुसार संक्रामक रोगों से मुक्ति दिलाने वाली और चेचक रोग से बचाने वाली शीतला माता को ठंडे का भोजन और पकवानों का भोग लगाया गया। घरों में ठंडे की तैयारियां शनिवार से ही होनी शुरू हो गई थी। रविवार को जल्दी उठकर घर केे सदस्यों ने सज-धजकर शहर में स्थित शीतला माता मंदिरों में पूजा-अर्चना की और शीतला माता को ठंडे पकवानों का भोग लगाया।

परींडा पूजा हुई

जो श्रद्धालु मंदिर नहीं जा सके उन्होंने अपने-अपने घरों में पेयजल स्थल 'परींडेÓ पर मटकी की पूजा-अर्चना की। मटकी पर स्वास्तिक बनाया गया और ठंडे भोजन और भांति-भांति के पकवान माता को प्रसन्न करने के लिए चढ़ाए गए।

शीतला सप्तमी पर बासी भोजन का भोग लगाया

शीतला सप्तमी पर बासी भोजन का महत्त्व है। शीतला सप्तमी के दिन अधिकांश घरों में चूल्हे नहीं जले । भगवती को बासी भोजन का ही भोग लगाया जाता है। एक दिन पूर्व गृहिणियों ने खाना बनाकर रख दिया था। भोजन में दही, छाछ और घी के भांति-भांति के पकवान बनाए गए। शीतला सप्तमी के दिन माता को भोग चढ़ाकर प्रसाद स्वरूप भोजन ग्रहण किया गया।

राजपरिवार भी शामिल होता था शीतला सप्तमी पूजन में

रोगनाशिनी देवी शीतला की आराधना आम आदमी ही नहीं, राजपरिवार भी करता आया है। राज परिवार की परंपरा के अनुसार शीतला सप्तमी के दिन गाजे-बाजे के साथ देदानसर जाकर पूजा-अर्चना की जाती थी। इसके पीछे यह धारणा होती थी कि राज परिवार ही नहीं जनता भी स्वस्थ एवं सानंद रहे।

कहीं सप्तमी, कहीं अष्टïमी

रोग विनाशिनी शीतला की पूजा का लोक पर्व पारंपरिक रूप से कहीं सप्तमी तो कहीं अष्टïमी को मनाया जाता है। जैसलमेर के मूल निवासी शीतला सप्तमी को ही शीतला की पूजा करते हैं। जबकि जैसलमेर को छोड़ कर मारवाड़ और देश भर के अन्य भागों से आए गृहस्थ अष्टïमी को भी इस पर्व को पारंपरिक रूप से मनाते हैं।ड्ड

सूर्यदेव को रोटे का भोग लगाया

होली के बाद आने वाले पहले रविवार को अदीत रोटे का व्रत हर्षोल्लास से मनाया गया। यह त्योहार सूरज भगवान को समर्पित होता है। रविवार (आदित्यवार) को महिलाओं ने सूरज भगवान को भोग चढ़ाने के लिए रोटा बनाया और पूजा-अर्चना व कथा वाचन के साथ भगवान को भोग लगाकर उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया। जैसलमेर में यह पर्व परंपरागत रूप से मनाया जाता रहा है। इस त्योहार पर भाई अपनी बहिनों को मिठाई या मिठाई के लिए पैसे देते हैं। यह त्योहार मां और बेटी साथ मिलकर मनाते हैं। इस त्योहार को मनाने के पीछे सुख-समृद्धि की कामना छिपी है। इस दिन महिलाएं गेहूं के आटे का बड़ा-सा रोटा बनाती है। इस रोटे पर भारी मात्रा में घी और शक्कर चुपड़कर सबसे पहला कौर सूरज भगवान को चढ़ाया जाता है।

अदीत रोटे की कहानी

मां-बेटी सामूहिक रूप से अदीत रोटा मना रही थी। मां का रोटा बन चुका था और बेटी का बना नहीं था। तभी साधू आता है। बेटी मां के रोटे से कुछ हिस्सा साधू को दे देती है। मां गुस्सा होती है। बेटी अपने रोटे का कुछ भाग देना चाहती है, मगर मां कहती है ला मेरे सागी रोटे का कोर..बेटी दु:खी होकर घर से निकल जाती है। जंगल में उसे राजकुमार मिलता है और उससे ब्याह रचा लेता है। अगले साल फिर अदीत रोटा का त्योहार आता है। रानी बनी बेटी रोटा बनाती है। रोटा सोने का बन जाता है। राजकुमार इसका कारण पूछता है। बेटी कहती है, मेरे पीहर से आया है। राजकुमार कहता है मैंने तो तुझे जंगल से उठाया था, चल मुझे पीहर दिखा। रानी भगवान सूरज से प्रार्थना करती है। जंगल में बस्ती बस जाती है। राजा वहां पहुंचता है तो उसका खूब आदर सत्कार होता है। बाद में राजा लौट आता है तो बस्ती भी उठ जाती है। राजा के सैनिक शिकायत करते हैं कि वहां तो कुछ भी नहीं है। राजा सारी बात रानी से पूछता है। रानी पूरी कहानी सच-सच बता देती है। तब से अदीत रोटे से सभी लड़कियां राजकुमार जैसे वर और राजघराने जैसे घर की कामना में यह व्रत करती आ रही है।

घोड़ों ने दिखाए करतब कलाकारों ने जमाया रंग




घोड़ों ने दिखाए करतब कलाकारों ने जमाया रंग
बाड़मेर
तिलवाड़ा मल्लीनाथ पशु मेले में शनिवार को अश्व प्रतियोगिताओं का आयोजन हुआ।कार्यक्रम में पूर्वगृह राज्यमंत्री अमराराम चौधरी, पूर्व जोधपुर नरेश गजेसिंह, संयुक्त निदेशक पशुपालन विभाग एसके श्रीवास्तव, उपखंड अधिकारी ओमप्रकाश विश्नोईव सिवाना तहसीलदार धन्नाराम भादू बतौर अतिथि मौजूद थे।

मेला अधिकारी बीआर जेदिया ने बताया कि पशु प्रतियोगिताओं के तहत आयोजित अश्व वंश प्रतियोगिता में प्रजनन योग्य मादा घोड़ी में मोहनसिंह पुत्र वागसिंह प्रथम व गिरवरसिंह पुत्र शंभूसिंह द्वितीय स्थान पर रहे।बछेरा-बछेरी प्रतियोगिता में जितेंद्रसिंह पुत्र अमरसिंह प्रथम, मोहनसिंह पुत्र बागसिंह द्वितीय, नरघोड़ा प्रतियोगिता में गणपतसिंह पुत्रमूलसिंह प्रथम व नारायण सिंह पुत्र प्रतापसिंह द्वितीय स्थान पर रहे। इसी प्रकार अखिल भारतीय मारवाड़ी अश्व संस्थान की ओर से भी प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया।

इसके तहत अदंत बछेरी प्रतियोगिता में मोहम्मद रफीक प्रथम व किशनसिंह द्वितीय, अदंत बछेरा प्रतियोगिता में रघुनाथ पुत्र भंवरसिंह प्रथम व निखिल माथुर द्वितीय, दो दंत बछेरी प्रतियोगिता में मोहनसिंह पुत्रबाघसिंह प्रथम व गौरव पुत्र ज्योतिसिंह द्वितीय स्थान पर रहे।बछेरा दो दंत प्रतियोगिता में जितेंद्र पुत्र अमरसिंह प्रथम, बल्लू पुत्र सदीक खां द्वितीय स्थान पर रहे।प्रतियोगिताओं के दौरान आयोजित सर्वश्रेष्ठ अश्व का पुरस्कार शौर्य घोड़े ने जीता।घोड़े के मालिक जितेंद्र पुत्र अमरसिंह सतलाना हाउस जोधपुर का अतिथियों ने स्वागत किया।

गुरुवार, 31 मार्च 2011

राजस्थान दिवस पर जैसलमेर में साँस्कृतिक संध्या खूब जमी


राजस्थान दिवस पर जैसलमेर में साँस्कृतिक संध्या खूब जमी
        जैसलमेर, 31 मार्च/राजस्थान दिवस के उपलक्ष्य में जैसलमेर के सोनार दुर्ग स्थित अखेप्रोल प्रांगण में बुधवार रात आयोजित साँस्कृतिक संध्या खूब जमी और इसने राजस्थानी लोक रंगों और रसों की सरिताएं बहाते हुए रसिकों को खूब आनंदित किया।
        सांस्कृतिक संध्या की अध्यक्षता जिला कलक्टर गिरिराजसिंह कुशवाहा ने की जबकि विधायक छोटूसिंह भाटी मुख्य अतिथि तथा जैसलमेर नगरपालिकाध्यक्ष अशोक तँवर विशिष्ट अतिथि थे। सांस्कृतिक संध्या का संचालन ओजस्वी संचालक, व्याख्याता मनोहर महेचा ने किया।
        आरंभ में अतिथियों ने सरस्वती की तस्वीर पर पुष्पहार अर्पित कर एवं दीप प्रज्वलित कर सांस्कृतिक संध्या का शुभारंभ किया। सांस्कृतिक संध्या में जिला शिक्षा अधिकारी श्रीमती गिरिजा शर्मा, जैसलमेर नगरपालिका आयुक्त मूलाराम लोहिया सहित अनेक अधिकारी, प्रबुद्धजन, स्कूली बच्चे और देशी-विदेशी पर्यटकों ने गीत-संगीत-नृत्यों आदि का आनंद लिया।
        संध्या की शुरूआत इमाम खां के सुरणाई वादन से हुई। ढोलक पर गुले खां, हारमोनियम पर करीम खां ने संगत की। नाद स्वरम संस्था के कलाकारों ने मशहूर राजस्थानी गीतकार कन्हैयालाल सेठिया के प्रसिद्ध गीत ‘धरती धोरां री....’’ की सुमधुर प्रस्तुति पर सोनार किले की घाटी गूंजा दी। इनमें मुख्य गायक शोभा हर्ष एवं रवि शर्मा के साथ तबले पर जयप्रकाश हर्ष, हारमोनियम पर अनिल पुरोहित ने साथ दिया।
        लिटिल हार्ट स्कूल के नन्हें कलाकारों ने ‘केसरिया बालम आवो नी पधारों म्हारे देस...’ की माण्ड गायकी के साथ ही सर पर मंगल कलश लिए फूलों की वृष्टि करते हुए भावपूर्ण नृत्य पेश कर खूब वाहवाही लूटी।
        लोकगायक लुकमान खां एवं साथियों द्वारा ‘हिण्डो सावण रो..’ लोक गीत की मधुर प्रस्तुति दी। चरवाहों के परम्परागत लोकवाद्य ‘अलगोजा’ पर मोहनराम लोहार ने माधुर्य भरी लोक धुनों पर रसिकों को खूब रिझाया।
        प्रतापसिंह भाटी एवं शिवा द्वारा कच्छी घोड़ी नृत्य की सुन्दर प्रस्तुति करते हुए पूरे माहौल को तरंगायित कर दिया। लोक नृत्यांगना दुर्गा और रानी ने चरी नृत्य की धूम मचाते हुए सभी को मंत्रमुग्ध कर दिया। खेते खां, रईस खां ने मोरचंग वादन की स्वर लहरियों पर मस्त कर दिया। ढोलक पर संगत बीरबल खां ने की।
        लोकगायक थाने खां द्वारा वर्तमान दौर के प्रसिद्ध लोक गीत ‘‘जद देखूं बना री लाल लाल अंखियाँ, मैं नहीं डरूं सा...’’ ने प्रेम और श्रृंगार रस की बारिश करा दी।
        घासीराम और उनकी जोड़ायत ने ‘चम चम चमके चुनरी’’ के बोल पर भोपा-भोपी नृत्य पर लोक नृत्य और गायन की विशिष्ट विधाओं से समा बाँध दिया।



        ढोलक और खड़ताल की जुगलबंदी पर खेते खां, देव खां, लतीफ खां ,गुलाम खां, पेपे खां ने दोनों लोक वाद्यों के समवेत स्वरों पर श्रोताओं को खूब आनंदित किया। अनु और शिवा एवं पार्टी द्वारा घुटना चकरी नृत्य और चक्का नृत्य पेश कर अनूठी भाव-भंगिमाओं और मुद्राओं से भरपूर मनोरंजन किया।

Rajasthani song Thane Kajaliyo banalyu thane Nina me ramalyu raj palka m...

hane Kajaliyo banalyu Thane Nina me ramalyu raj palka me band kar rakhuli

घुड़लो घूमे ला जी, घुमेला


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घुड़लो घूमे ला जी, घुमेला 


बाडमेर माट में माटोळी घूमे, कोठी में ज्वारा रे.... गणणौर के ये गीत अब बाडमेर जैसलमेर की गलियों में सुनाई दे रहे हैं। लड़कियों और महिलाओं का इस त्योहार के प्रति आकर्षण देखते ही बन रहा है। घुड़ले के तहत शाम के समय लड़कियां एकत्रित होकर सिर पर छिद्र किया हुआ घड़ा लेकर, जिसमें दीपक जला सिर पर धारण कर समूह में घूमती है और गवर के गीत गाती है। इस त्योहार के प्रति बालिकाओं में ज्यादा उत्साह रहता है। बालिकाएं १५-२० की संख्या में झुंड में गली-गली में घुड़ले के गीत गाती है। 
गली गली घुम रहा है घुड़ला
शहर के कई गली मोहल्लें में घुड़ला लिए बालिकाएं एवं महिलाएं देखी जा सकती है। घुड़ले को मोहल्लें में घुमाने के बाद बालिकाएं एवं महिलाएं अपने परिचितों एवं रिश्तेदारों के यहां घुड़ला लेकर जाती है। घुड़ला लिए बालिकाएं मंगलगीत गाती हुई सुख व समृद्धि की कामना करती है।
रखा जाता है उपवास
इन दिनों कई लड़कियों द्वारा गणगौर माता का उपवास भी रखा जाता है। जो महिलाएं और लड़कियां परंपरागत ढंग से उपवास रखती आ रही हैं। उन्होंने तो इस बाद उपवास रखा ही साथ ही कई नई लड़कियों ने भी इस पूजा में अपना सहयोग दिया। हाल ही में जिनकी शादी हुई उन महिलाओं ने अपनी पहली गणगौर अपने मायके में मनाई। साथ ही गली-गली में गूंजने वाले लोक गीतों में अपनी सहभागिता निभाई। शहर के साथ ग्रामीण क्षेत्रों में भी गणगौर की धूम देखी जा सकती है

मल्लीनाथ पशु मेला तिलवाडा




मल्लीनाथ पशु मेला तिलवाडा
मेलों से बढ़ती हैअपणायत’
बाडमेर जिला कलेक्टर गौरव गोयल ने कहा कि ये मेला प्रदेश में ही नहीं बल्कि पूरे देश में विख्यात है।प्रशासनिक स्तर पर इस मेले का वेबसाइट बनाकर प्रचार-प्रसार किया जाएगा ताकि विदेशी पर्यटक भी ज्यादा संख्या में यहां आकर मेले का लुत्फ उठा सकें।पशुपालकों की सुविधा के लिए मेला अवधि के दौरान तिलवाड़ा स्टेशन पर रेलों के ठहराव के संबंध में डीआरएम से बात की है।
मेले हमारी संस्कृति के प्रतीक है,मेलों के आयोजन से आपसी अपणायत बढ़ती है।
ये बात बाड़मेर-जैसलमेर क्षेत्र के सांसद हरीश चौधरी ने निकटवर्तीतिलवाड़ा में मल्लीनाथ पशु मेले के झंडारोहण के अवसर पर मेले में उपस्थित पशुपालकों को संबोधित करते हुए कही। उन्होंने कहा कि आमजन का जुड़ाव मेलों से रहता है।लगभग ७५० साल पुराने इस मेले की परंपरा को आज भी क्षेत्र के ग्रामीण बचाये रखे हुए हैं।ये एक गौरव का विषय है।मालाणी की परंपरा रही हैकि यहां मेहमान का सत्कार तन-मन-धन से किया जाता है।मेले में आने वाले पड़ोसी राज्यों के पशुपालकों को पूरी अपणायत दें जिससे कि वो प्रभावित होकर बार-बार इस मेले में आएं।उन्होंने मेले में दिनोंदिन घटने वाले पशुओं की संख्या पर चिंता जताते हुए ग्रामीणों को पशुपालन की ओर रूझान रखने की बात कही।विधायक मदन प्रजापत ने कहा कि सरकार ऐसे मेलों को प्रोत्साहन देने में कोईकसर नहीं रख रही है।उन्होंने कहा कि आगामी वर्षतक नदी के बीच बने मार्ग पर सीसी रोड का निर्माण करवा दिया जाएगा।उन्होंने कहा कि मेले मे आने वाले पशुपालकों को पेयजल समस्या का सामना करना पड़ रहा है।आगामी वर्ष तक इस समस्या के समाधान के लिए भी पुख्ता प्रबंध कर दिए जाएंगे।

मंगलवार, 29 मार्च 2011

foto...राजस्थान दिवस बाड़मेर: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि...राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त का ंिसंहद्वार बाड़मेर











पधारो म्हारे देश.









राजस्थान दिवस पर सभी को हार्दिक बधाई ओर शुभ कामनाऐं.......

आपणों राजस्थान आपण्ी राजस्थानी


बाड़मेर: ऐतिहासिक पृष्ठभूमि



राजस्थान के पश्चिमी सीमान्त का ंिसंहद्वार बाड़मेर बहु-आयामी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से सम्पन्न रहा है। पारम्परिक काव्य-साहित्य, समकालीन अभिलेख तथा विविध साक्ष्य इसके प्रमाण है। थार के इस मरु प्रान्त के परिपेक्ष्य में रामायण एवं महाभारत के अन्तर्गत निर्देश समुपलब्ध होते है। रामायण के युद्व काण्ड में सेतु-बन्ध प्रसंग के अन्तर्गत सागर-शोषण हेतु चढ़े अमोध राम बाण के उत्तरवर्त्ति द्रुमकुल्य प्रदेश के आभीरो पर सन्धन से मरुभूमि की उत्पत्ति का वर्णन है।


महाभारत के अश्वमेधिक पर्वान्तर्गत भारत युद्वोपरान्त श्री कृष्ण के द्वारिका प्रत्यागमन प्रसंग की उनकी इसी मरुभमि में उत्तक ऋषि से भेंट और यहां जल की दुर्लभता विषयक उल्लेख मिलते है। मौर्यकाल में सौराष्ट्र से संयुक्त क्षेत्र के रुप यह प्रान्त चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य के अन्तर्गत था। तत्पश्चात इस पर इण्डोग्रिक शासको, मिलिन्द तथा महाक्षत्रप रुद्रदमन का शासन रहा। कतिपय इतिहासज्ञो के अनुसार यूनानियों द्वारा उल्लेख श्ग्व्।छ।श् दुर्ग सम्भवतः सिवाना क्षेत्रान्तर्गत था।


परवर्ती काल में इस क्षेत्र का गुप्त साम्राज्य के अन्तर्गत होना मीरपुर खास में गुप्तकालीन बौद्व स्मारक प्राप्त होने से प्रमाणित होता है।


पूर्व मध्यकालिन इतिहास के परिप्रेक्ष्य में डॉ. गोपीनाथ शर्मा के अनुसार यह प्रदेश गुर्जरत्रा कहलाता था। चीनी यात्री हेंनसांग ने इसी गुर्जर राज्य की राजधानी का नाम पीलो मोलो भीनमाल अथवा बाड़मेर बताया है। डॉ. जे एन आसोपा क ेमत में गुर्जर शब्द अरब यात्रियों द्वारा गुर्जर प्रतिहारो हेतु प्रयुक्त सम्बोधन जुर्ज का समानार्थक है। जिसकी व्युत्पति मरुभूमि में प्रवाही जोजरी नदी से बताई गई है। इस प्रकार प्रतिहारो से सम्बन्ध गुर्जर विशेषण भौगोलिक महत्व का सूचक है। जो यहां गुर्जर प्रतिहार अधिराज्य को निर्दिष्ट करता है। इस तथ्य की पुष्टि 936 ई. के चेराई अभिलेख से होती है। गुर्जर प्रतिहारो के उपरान्त यहां परमारो का अधिपत्य रहा।


मरुमण्डल के ये परमार आबू के परमारो से पृथक माने जाते है। 1161 ई. के किराडू अभिलेख औरा 1183 ई. के मांगता ताम्रपत्र के अन्तर्गत सिन्धुराज (956ई.) को ‘सम्भून मरुमण्डले‘ कहकर यहां के परमारो का आदिपुरुष निर्दिष्ट किया गया है। इनकी राजधानी किरात कूप (किराडू) थी। फिर यहां गुजरात के चालुक्यों का अधिकार ज्ञात होता है।


1152 ई. के कुछ पूुर्व किराडूु पर कुमारपाल चाणक्य के सामंत अल्हण चाहमान का अधिकार था। किन्तु 1161 ई. के किराडू अभिलेख के अनुसार सिंधुराज के वंशज (9वीं पीढ़ी) सोमेश्वर परमार द्वारा अधीनता मानने से संतुष्ट कुमारपाल द्वारा उसे किराडू पुनः प्रदान कर दिया गया। 1171 ई से 1183 ई. तक क्रमशः कीर्त्तिपाल चौहान, मुहम्मद गौरी (1178ई) भीमदेव सोलकी द्वितीय तथा जैसलमेर के भाटियो के किराडू पर अनवरत आक्रमणो एवं तत्कालीन शासको आसलराज और बन्धुराज के अक्षम प्रतिरोध से यहां का परमार राज्य शनै‘ शनै निःशेष होता चला गया।


किराडू राज्य के अवसान का समानान्तर सुन्धामाता मंदिर में चौहान चाचिगदेव के शिलालेख में विर्णत वाग्भट्ट मेरु अथवा बाहड़मेर का उत्थान प्रायः बारहवी शती ई. के उत्तरार्द्व में होना विदित होता है। इसकी संस्थापना का श्रेय क्षमाकल्याण रचित खरतरगच्छ पट्टावली के अनुसार सिद्वराज जयसिंह (1094-1142ई) के मन्त्री उदयन के पुत्र वाग्भट्ट अथवा बाहड़देव परमार को प्रदान किया गया है।


स्थापना के पश्चात यहां जैन श्रावको द्वारा मन्दिर एवं वाटिकाओं के निर्माण तथा 1252 में आचार्य जिनेश्वर सूरि के आगमन की जानकारी मेरुतुग कृत प्रबन्ध चिन्तामणि से मिलती है। बाहड़मेर के आदिनाथ मन्दिर अभिलेख (1295 ई) से हयां परमारो के उपरान्त चौहानो के शासन के संकेत प्राप्त होते है।


कान्हड़ दे प्रबन्ध (पद्मनाम रचित) के अन्तर्गत 1308-09 में अलाउदीन खिलजी की सेनाओं द्वारा जालौर सिवाना अभियान के क्रम में बाहड़मेर पर भी आक्रमण किये जाने सम्बन्धी उल्लेख है।


इस अराजकता का लाभ उठाकर राव धूहड़ राठौड़ के पुत्र राव राजपाल ने लगभग 1309-10ई में यहां के परमारो के प्रायः 560 ग्रामो पर अधिकार कर लिया। इसी के पराक्रमी वंशज रावल मल्लीनाथ के नाम पर इस क्षेत्र को मालानी की संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा।


15 वीं शती ई के पूर्वाद्व में मल्लीनाथ के पौत्र मण्डलीक द्वारा बाहड़मेर और चौहटन के शासको क्रमश मुग्धपाल (माम्पा) तथा सूंजा को परास्त करा अपने अनुज लूणकर्ण राठौड़ा (लूंका) को वहां का राज्य सौप दिया गया। इस प्रकार जसोल बाड़मेर एवं सिणदरी जहां मल्लीनाथ के वंशाजो द्वारा शासित हुए वही नगर और गुढ़ा उनके सबसे छोटे भाई जैतमाल की सन्तति के अधिकार मेें रहे। जबकि मंझले भाई वरीमदेव के पुत्र चूण्डा ने परिहारो से मण्डोर छीना। बाहड़मेर में लुंका जी की चौथी पीढी के शासक राव भीमाजी रत्नावत को जोधपुर नरेश राव मालदेव के सामान्तो जैसा भैैर व दासोत और पृथ्वीराज जैैतावत द्वारा लगभग 1551-52 ई. में पराजित किया गया। जैसलमेर के रावल हरराय की सहायता के पश्चात भी पुनः हार जाने एवं बाहड़मेर के राठौड़ो की रतनसी तथा खेतसी के धड़ो में बट जाने पर भीमाजी ने बाहड़मेर छोड़कर बापड़ाऊ क्षेत्रान्तर्गत नवीन बाहड़मेर अथवा जूना और नवीन बाहड़मेर बसाया तभी से पुराना बाड़मेर जुना बाड़मेर कहा जाने लगा। परवर्ती काल में जैसलमेर के सहयोग से भीमाजी ने जुना बाहड़मेर तथा शिव आदि अपने खोए प्रदेश पुनः प्राप्त कर लिए। उपयुक्त तथ्यों की जानकारी विविध ख्यातो विशेषतः नेनसी की और राठौड़ वंश के इतिहास ग्रन्थ से समुचित रुप से हो जाती है। बाड़मेर की वणिका पहाड़ी की तलहटी के जैन मन्दिर के शिलालेख के अन्तर्गत 1622 ई यहां उदयसिंह का शासन निर्दिष्ट है। परवर्ती शासको रावत मेघराज, रामचन्द्र और साहबाजी, भाराजी आदि के सघर्ष प्रायः 19 वी शती ई. के आरम्भ तक यहां की राजनीति तथा समाज को प्रभावित करते रहें। तब मालानी परगने में प्रायः 460 ग्राम 14918 वर्ग किमी क्षेत्रान्तर्गत थे। मारवाड़ नरेश मानसिंह (1804-43 ई) के काल में यहां के सरदारो एवं भोमियों द्वारा गुजरात कच्छ तथा सिंध में उत्पाद मचाने एवं ब्रिटिश कम्पनी सरकार के आदेश के बाबजूद मानसिंह के उन्हे नियत्रित करने में विफल रहने पर रावत भभूतसिंह के समय 1836 ई. में चौहटन मालानी को बम्बई सरकार के अन्तर्गत ब्रिटिश अधिकार में ले लिया गया। सभी उत्पादी सरदारो को कैद कर राजकोट एवं कच्छ भुज भेज दिया गया। क्षेत्र में शान्ति और व्यवस्था स्थापित होने पर मालानी को प्रशासन 700/- मासिक वेतन प्राप्त एक अधीक्षक को सौंपा गया, जिसकी सहायतार्थ मुम्बई रेग्यूलर केवेलरी का दस्ता तथा गायकवाड़ इन्फेन्ट्री के 100 घोड़े बाड़मेर मुख्यालय में रहते थे। (कच्छ भुज के रावल देसुल जी की जमानत से मुक्त हुए रावत भभूतसिंह भी अंग्रेजो से हुए समझौते के अनुसार बाड़मेर आ गए।) 1839 ई में मालानी परगना मुम्बई सरकार से ए.जी.जी. राजस्थान को स्थानान्तरित कर दिया गया। 1844 ई में गायकवाड़ केवेलरी का स्थान 150 मारवाड़ के घुड़सवारो ने ले लिया। अन्तिम स्थानीय अधीक्षक कैप्टन जैकसन के यहां से लौटने पर मारवाड़ के पोलिटीकल एजेन्ट की सता आरम्भ हुई। इस अतिरिक्त प्रभार हेतु उसके लिए 100/- मासिक भत्ता नियत था। 1865 ई में नियुक्त पोलिटिकल एजेन्ट कैप्टन इम्पे के तत्वावधान में मालानी के विस्तृत सामाजिक आर्थिक सर्वेक्षण के प्रभाव स्वरुप जसोल तथा बाड़मेर में 1867 ई में वर्नाक्यूलर स्कलो के माध्यम से आधुनिक शिक्षा का समारम्भ हुआ। सर्वे रिपोर्ट 4 मई 1868 को प्रकाशित हुई। परवर्त्ती काल में इस क्षेत्र के ठाकुरो द्वारा प्रत्यक्षतः मारवाड़-प्रशासन के अधीन होने की इच्छा पर। 1 अगस्त 1891 को मालानी परगना मारवाड़ राज्य के अन्तर्गत आ गया। आगामी छः वर्षो में मालानी प्रशासन सुचारु एवं सुव्यवस्थित रहने, अपराधो में कमी होने और किसी भी प्रकार की शिकायत न आने पर जोधपुर में महाराजा सरदार सिंह को 1898 ई में यहां के सम्पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिये गये। 22 दिसम्बर 1900 ई को मालानी के हृदयस्थल से गुजरने वाली बालोतरा सादीपाली रेल्वे लाइन का शुभारम्भ हुआ।


स्वतन्त्रता प्राप्ति तक जोधपुर प्रशासन के अधीनस्थ रहते हुए देशी रियासतो के भारतीय सघ में विलीनीकरण के उपरान्त मालानी परगना 1949 ई में बाड़मेर जिले के रुप में अस्तित्व मान हुआ। जो आधुनिक बाड़मेर कहलाया।

सोमवार, 28 मार्च 2011

. नाग ने लिया बदला ...


सांप को दिन में मारा था पत्थर, रात में आकर डस लिया

बाड़मेर शिव कस्बे में खेल-खेल में 3 बच्चों का सांप को पत्थर मारकर भगाना भारी पड़ गया। बच्चों से परेशान होकर उस वक्त भागे सांप ने देर रात आकर उन्हें डस लिया इससे एक बच्ची की मौत हो गई वहीं दो पर विष का असर बढ़ने से उनका का इलाज बाड़मेर अस्पताल में चल रहा है।

 ग्रामीणों के अनुसार सुगलाराम मेघवाल के घर शनिवार को दिन के समय इन बच्चों ने सांप को देखने के बाद पत्थर मार उसे भगाने की कोशिश की, इस पर सांप वहां से निकल गया। इसके बाद देर रात वह फिर लौटा और आंगन में सो रहे इन तीनों बच्चों को डस लिया, जिससे एक बालिका की मौत हो गई और दो अन्य पर विष का असर रहा । 

जानकारी मिलने पर परिजन बच्चों को सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ले गए। जहां एक बालिका को मृत घोषित कर दिया। जबकि एक बालक व बालिका को उपचार के लिए बाड़मेर रेफर किया गया।

OM MANGALAM OMKAR MANGALAM BY JATIN

Laad ladaavo lala ne - Shrinathji ni jhankhi