रविवार, 3 अप्रैल 2011

आओ मिलकर नव वर्ष मनाएँ नव ऊर्जा की जोत लगाएँ - भूपेन्द्र उपाध्याय ‘तनिक’


आओ मिलकर नव वर्ष मनाएँ
नव ऊर्जा की जोत लगाएँ
- भूपेन्द्र उपाध्याय ‘तनिक’
अखण्ड, अनादि, अनन्त, आनन्ददायी पीयूष वर्षिणी भारतीय संस्कृति का यह पावन पर्व, पंचांग पूजन का पुनीत पर्व है जिसमें निहित तिथि, वार, योग-करण एवं नक्षत्रा के आधार पर भारतीय समाज अपने मंागलिक अनुष्ठानों के लिए मुहूर्त देखता है। बालक के नामकरण संस्कार के निमित राशि खोजता है। यह हमारी राष्ट्रीय अस्मिता एवं गरिमा का प्रथम दिवस है। नव संवत्सर चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा, जिसे विक्रम संवत् का नवीन दिवस भी कहा जाता है।
            राष्ट्रीय चेतना के ऋषि स्वामी विवेकानन्द ने कहा था - ‘‘यदि हमें गौरव से जीने का भाव जगाना है, अपने अन्तर्मन में राष्ट्र भक्ति के बीज को पल्लवित करना है तो राष्ट्रीय तिथियों का आश्रय लेना होगा। गुलाम बनाए रखने वाले परकीयों की दिनांकों पर आश्रित रहनेवाला अपना आत्म गौरव खो बैठता है।‘‘
            यह दिन हमारे मन में यह उद्बोध जगाता है कि हम पृथ्वी माता के पुत्रा हैं, सूर्य, चन्द्र व नवग्रह हमारे आधार हैं ‘प्राणी मात्रा हमारे पारिवारिक सदस्य हैं। तभी हमारी संस्कृति का बोध वाक्य ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्’’ का सार्थक्य सिद्ध होता है।
            सामाजिक विश्रृंखलता की विकृतियों ने भारतीय जीवन में दोष एवं रोग भर दिया, फलतः कमजोर राष्ट्र के भू भाग पर परकीय, परधर्मियों ने आक्रमण कर हमें गुलाम बना दिया। सदियों पराधीनता की पीड़ाएं झेलनी पड़ी। पराधीनता के कारण जिस मानसिकता का विकास हुआ, इससे हमारे राष्ट्रीय भाव का क्षय हो गया और समाज में व्यक्तिवाद, भय एवं निराशा का संचार होने लगा।
जिस समाज में भगवान श्रीराम, कृष्ण, बुद्ध महावीर, नानक व अनेक ऋषि-मुनियों का आविर्भाव हुआ। जिस धराधाम पर परशुराम, विश्वामित्रा, वाल्मिकी, वशिष्ठ, भीष्म एवं चाणक्य जैसे दिव्य पुरुषों का जन्म हुआ। जहां परम प्रतापी राजा-महाराजा व सम्राटों की श्रृंखला का गौरवशाली इतिहास निर्मित हुआ उसी समाज पर शक, हुण, डच, तुर्क, मुगल, फ्रांसीसी व अंग्रेजांे जैसी आक्रान्ता जातियों का आक्रमण हो गया। यह पुण्यभूमि भारत इन परकीय लुटेरांे की शक्ति परीक्षण का समरांगण बन गया और भारतीय समाज के तेजस्वी, ओजस्वी और पराक्रमी कहे जाने वाले शासक आपसी फूट एवं निज स्वार्थवश पराधीन सेना के सेनापति की भांति सब कुछ सहते तथा देखते रहे।
जो जीत गये उन्होनें हम पर शासन किया और अपनी संस्कृति अपना धर्म एवं अपनी परम्परा का विष पिलाकर हमें कमजोर एवं रुग्ण किया।
किन्तु इस राष्ट्र की जिजीविषा ने, शास्त्रों में निहित अमृतरस ने इस राष्ट्र को मरने नहीं दिया। तभी भारत में जन्में प्रख्यात शायर इकबाल ने कहा था:           ‘‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहंी हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्ता हमारा।।
            आशा और विश्वास की प्रखर लौ जलाता गीता का यह बोधवाक्य ‘‘यदा यदाहि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम्, धर्म संस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे’’ ने भारतीय समाज को धर्म की धुरी से जोड़े रखा और इस धर्म ने इस राष्ट्र को अमरत्व प्रदान किया।
            इस अमरत्व को अक्षुण्ण बनाने के निमित्त आवश्यक है, हम अपने पर थोपी परम्परा संस्कृति और सभ्यता की केंचुली उतार फेंक,े तथा राष्ट्र गौरव की पुरातन परम्परा का पुनः आश्रय धारण कर पूरी निष्ठा से इसका निर्वाह करें, तभी हम सम्प्रभुता सम्पन्न स्वाधीन भारत के नागरिक कहलाने का गौरव पा सकेंगे।
            हमें अपने ऋषि मुनियांे, दिव्य पुरुषों एवं इतिहास पुरुषों द्वारा स्थापित त्योहारों, पर्वों एवं परम्पराओं को उत्साहपूर्वक मनाने की ओर अग्रसर होना होगा।
भारतीय त्योहारों एवं पर्वों का श्रीगणेश दिवस चैत्रा शुक्ल प्रतिपदा, महान प्रतापी, लोक हितकारी गौ ब्राह्मण रक्षक, समाज चेतना के दैदीप्यमान नक्षत्रा सम्राट विक्रमादित्य के राज्याभिषेक का दिन माना गया है।
            जिसका साम्राज्य पूरव में श्याम, बर्मा, तिब्बत, नेपाल, वियतनाम व जापान की सीमाओं तक निहित था। पश्चिम में गन्धार, अफगनिस्तान, काबूल व अरब के भू भाग को समेटे था। उत्तर में हिमालय पार रूस तथा दक्षिण में महासागर की उत्तंग तरंगांे तक व्याप्त था। जहां दूध-दहीं की नदियां बहती थीं तथा सोना-चांदी के भण्डार भरे रहते  थे, अर्थात्  अतुलित समृद्धि थी।
            जहां द्वारांे पर ताले नहीं, धर्म के ध्वज लहराते थे। कहीं कोई रोगी अथवा दोषी नागरिक ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलता था। अपनी  आस्था, विश्वास एवं परम्पराओं पर जीवन निर्वाह करने वाला समाज सुखी, समृद्ध तथा समत्व भाव से जीता था। जिसके दरबार में मानवीय नवरत्नों का मान सम्मान होता था। गुरु आज्ञा से शासक दास भाव से शासन करता था। भेदभाव रहित न्याय एवं योग्यतानुरुप प्रबन्ध तथा आत्म अनुशासन युक्त प्रजा विक्रमादित्य के शासन का आधार था। जहां ऋषियों का वह वरद वाक्य - ‘‘सर्वेभवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया, सर्वे भद्राणी पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःख भाग भवेत।।’’ सार्थक होता था। जहाँ व्यक्ति गौरव से जीता था और गरिमा से मरता था। इन श्रेष्ठताओं को राष्ट्र की ऋचाओं में समेटने के लिए एवं जीवन में उत्साह व आनन्द भरने के लिये यह नव संवत्सर वर्ष प्रतिपदा प्रति वर्ष समाज जीवन में आत्म गौरव भरने के लिए आता है। आवश्यकता है, हम इसे पूरी निष्ठा के साथ आत्मसात करें।
            इस पर्व के साथ कुछ प्रागैतिहासिक तथा ऐतिहासिक स्मृतियों के ¬प्रेरणा तत्व जुडे़ हैं। पृथ्वी सूक्त व वाराह पुराण के अनुसार चैत्रा मास में जीव तत्व चेता। अतः यह चैत्रा मास कहा गया। पृथ्वी का प्राकट्य दिवस, ब्रह्मा के संकल्पसृष्टि के सृजन का प्रथम दिवस, त्रोता में भारतीय जीवन के आधार भगवान श्री राम के राज्याभिषेक का मुहूर्त दिवस, जिस दिन राम राज्य की स्थापना हुई। द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक एवं कलयुग के प्रथम सम्राट परीक्षित के सिंहासनारूढ़ होने का यही दिन रहा है। जिसे युगाब्द कहा जाता है। सम्प्रति पांच हजार एक सौ ग्यारहवां युगाब्द है।
            ऐतिहासिक घटनाओं में देव पुरुष भगवान झूलेलाल का जन्म दिवस, चेटीचन्द तथा गुड़ी पडवा भी आज के दिन है। समाज सुधार के युग प्रणेता स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना भी आज के दिन की थी। श्क्ति पूजा का चैत्रा नवरात्रि का प्रथम दिवस तथा समाज संगठन के सूत्रा पुरुष व सामाजिक चेतना के प्रेरक डॉ. केशव बलिराम हेड़गेवार का जन्म दिवस भी आज ही के दिन है।
            ऐसे अनेक प्रेरणादायी ऊर्जा प्रदत्त प्रसंग इसके साथ जुडे़ हैं। इस महापर्व को हमें उत्साह, आनन्द एवं आस्था के साथ मनाते हुए, उत्सवित-उल्लसित तो होना ही है, भावी पीढ़ी को इस पारम्परिक सम्पदा का हस्तान्तरण करने का भाव जागृत करना है।
तभी हम स्वाधीन भारत के नागरिक होने का गौरव धारण कर सकेंगे। महात्मा गांधी ने 1944 की हरिजन पत्रिका में लिखा था ‘‘ स्वराज्य का अर्थ है - स्वसंस्कृति, स्वधर्म एवं स्वपरम्पराओं का हृदय से निर्वाह करना। पराया धन और परायी परम्परा को अपनाने वाला व्यक्ति न ईमानदार होता है न आस्थावान।
इस पर्व की महिमा में वागड़ के प्रख्यात उर्दू साहित्यकार स्व. मुज़तर सिद्दीकी ने लिखा है-
इसके दिनमान में सर्वदा सूर्य है,                   
इसके परिवार का देवता सूर्य है। इसके अस्तित्व में आत्मा सूर्य की,     
इसके आधार में व्याप्त सूर्य है।। चन्द्रमा की कलाओं की सूचक है,                    
यह वास्तव में बहुत ज्ञानवर्धक है। इसको अपनाए भारत का हर आदमी,
विश्वव्यापी हो संवत् सर विक्रमी।। हम मनाएँ संवत् सर विक्रमी।
भारतीय समाज में व्याप्त पराधीनता के कीटाणुआंे से मुक्त होने के लिये आवश्यक है- कि हम अपने पारंपरिक प्रेरणादायी पाथेय सम्पदा का आश्रय लेकर, नये राष्ट्रवादी समाज की पुनर्रचना करें, और इसका श्री गणेश ज्योतिषीय महापर्व नव संवत्सर को श्रद्धा भाव से मनाकर करेें। अतः बार-बार यही आग्रह है-
               ‘‘ सन् को छोड़ संवत अपनाओ, निज गौरव का मान जगाओ’’।।
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(भूपेन्द्र उपाध्याय ‘तनिक’)

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