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शनिवार, 11 मार्च 2017

बाड़मेर ग्रुप फॉर पीपल ने जरूरतमंद गरीब बच्चो के साथ रंगों के त्यौहार की खुशियां बांटी।








बाड़मेर ग्रुप फॉर पीपल ने जरूरतमंद गरीब बच्चो के साथ रंगों के त्यौहार की खुशियां बांटी।


बाड़मेर सामाजिक सरोकार और नवाचार के प्रतीक ग्रुप फॉर पीपल बाड़मेर ने रंगोत्सव की खुशियां जरूरतमंद परिवारों के साथ मिल बनती।ग्रुप की महिला विंग की सदस्यो ने जरूरतमंद परिवार की महिलाओं के साथ खुशियों के रंग बांटे।उनके साथ गुलाल अबीर से होली खेली

शहर की कच्ची बस्ती जोगी बस्ती तिलक नगर में ग्रुप अध्यक्ष आज़ाद सिंह राठौड़ के निर्देशानुसार ग्रुप संयोजक चन्दन सिंह भाटी के नेतृत्व में महिला विंग सह संयोजिका श्रीमती ज्योति पनपालिया,श्रीमती अनीता सिंघल, श्रीमती निर्मल सिंघल ,सुचित्रा छंगाणी ,गीता माहेश्वरी,युवा समन्वयक ओमप्रकाश जोशी ,संजय शर्मा,रणवीर सिंह भादू,रमेश सिंह इंदा,स्वरुप सिंह भाटी,अमित सिंह भाटी ,दिग्विजय सिंह चुली ,धीरज गोटी,छगन सिंह चौहान,रतन भवानी,राजाराम सोलंकी , ,डॉ हरपाल सिंह राव,राजेंद्र लहुआ,बसंत कुमार सहित कई सदस्यो ने मोतीनगर पहुँच गरीब बच्चों और उनके परिवारों के साथ रंगोत्सव की खुशियां बांटी।इस अवसर पर आयुक्त श्रवण विश्नोई ने कहा कि ग्रुप जमीन से जुड़ा होने के कारन आमजन के साथ उनके सुख दुख में साथ खड़ा रहता हैं। होली का त्यौहार की खुशियां आपके साथ बांटते हुए अच्छा लग रहा हैं।उन्होंने कहा कि महत्वपूर्ण यह नही की त्यौहार मनाया जाये महत्वपूर्ण है आप लोगो के साथ मनाया जाये।।ग्रुप के सदस्यो का साधुवाद की उन्होंने आप लोगो के लिए खुशियों के पल निकाले।।एडवोकेट निर्मला सिंघल ने कहा कि हमारा उद्देश्य है आपके परिवार और बच्चों की सहूलियत मिले।उन्होंने कहा कि ग्रुप के सदस्यो की भावनाओं को सलाम हे की त्यौहार को आप लोगो के साथ मना कर एक सकारात्मक संदेश समाज में दे रहे।इस अवसर पर कच्ची बस्ती परिवारों को रंग,गुलाल,वस्त्र,खिलौने,कम्बल,बिस्किट और वाटर बेग आदि भी वितरित किये गए।श्रीमती ज्योति पनपालिया ने कहा कि ग्रुप ने जोगी बस्ती के विकास के लिए प्रयास शुरू किये है वो तारीफ के काबिल हैं।।आप लोग भी ग्रुप सदस्यो को शाहयोग करे ताकि सुविधाओं का लाभ आप लोगो को मिल सके।रणवीर सिंह भादू ने कहा कि नेक कार्य की अच्छी परंपराएं ग्रुप डाल रहा है जस्क अनुसरण अन्य लोगो को भी करना चाहिए।।नए सत्र में मोतीनगर और जोगी बस्ती में पूर्व प्राथमिक स्तर का विद्यालय ग्रुप द्वारा शुरू किया जायेगा।।आयुक्त श्रवण विश्नोई ने सरकारी योजनाओ की जानकारी प्रदान कर उन्हें हर संभव सहायता का भरोसा दिलाया ,

सोमवार, 21 मार्च 2016

फाग की मस्ती ,थार मरुस्थल में चंग बजने लगे

फाग की मस्ती ,थार मरुस्थल में चंग बजने लगे


बाड़मेर[चन्दन भाटी] बाड़मेर जिले में मदोत्सव एवं रंगोत्सव की मस्ती छाई हुई हैं।आधुनिकता की दौड़ के बावजूद थार मरुस्थल में लोक कला और संस्कृति से जुड़ी परम्पराओं का निर्वाह किया जा रहा हैं।ग्रामीण अंचलों में होली की धूम मची हैं।ग्रामीण अंचलों में रंगोत्सव की मदमस्ती बरकरार हैं।ग्रामीण चौपालों पर सूरज लते ही ग्रामीण चंग की थाप पर फाग गाते नजर आते हैं।वहीं फागुनी लूर गाती महिलाओं के दल फागोत्सव के प्रति दीवानगी का एहसास कराती हैं।

सीमावर्ती बाड़मेर जिले की लोक परम्पराओं का निर्वहन ग्रामीण क्षैत्रों में आज भी हो रहा हैं।रंग और मद के इस त्यौहार के प्रति ग्रामीण अंचलों में दीवानगी बरकरार हैं।ग्रामीण चौपालों परगा्रमीणों के दल सामुहिक रुप से चंग की थाप पर फाग गीत गाते नजर आते हैं।जिले में लगातार

पड़ रहे अकाल का प्रभाव अधिक नजर नहीं आ रहा ।अलबता होली के धमाल के लिए प्रसिद्ध सनावड़ा गांव के बुर्जुग रुपाराम ने बताया कि अकाल के कारण गांव के युवा रोजगार के लिए गुजरात गए हुए हैंअकाल के कारण हमारे गॉव में होली का रंग फीका नही। पडता।होली से

तीन चार रोज पूर्व रोजगार के लिए बाहर गए युवा पर्व मनाने अपने घर आएंगे  ।गांव की परम्परा हैं जो हम अपने बुजुर्गों के समय से देखते आ रहे हैं।इसकी पालना होती हैं।


होली से 15 दिन पूर्व गांव में होली का आलम शुरु होता हैं।चोपाल पर शाम होते होते गांव के बडे बुड़े जवान बच्चे सभी एकत्रित हो जाते हैं।चंग बजाने वालो की थाप पर गा्रमिण सामुहिक रुप से फाग गाते हैं।वहीं गांव की महिलाए रात्री में एक जगह एकत्रित हो कर बारी बारी से घरों के आगे फाग गाती हैं।जो महिलाऐं इस दल में नहीं आती उस महिला के घर के आगे जाकर महिला दल अश्लील फाग गाती हैं,जिसे सुनकर अन्दर बैठी महिला शर्माकर दल मे शामिल हो जाती हैं।


महिलाओं द्घारा दो दल बनाकर लूर फाग गाती हैं।लूर में दोनों महिला दल आपस में गीतों के माध्यम से सवालजवाब करती हैं।लूर थार की परम्परा हैं।लुप्त हो रही लूर परम्परा सनावडा तथा सिवाना क्षैत्र के ग्रामीण अंचलों तक सिमट कर रह गई हे ।फाग गीतों के साथ साथ डाण्डिया गेर नृत्य का भी आयोजन होता हैं।भारी भरकम घुंघरु पांवों में बांध कर हाथें में आठ आठ मीटर लम्बे डाण्डियेंल करोल की थाप और थाली टंकार पर जब गेरिऐं नृत्य करते हैं तों लोक संगीत की छटा माटी की सौंधी में घुल जाती हैं। सनावडा में होली के दूसरे दिन बडे स्तर पर गेर नृत्यो का आयोजन होता हैं।जिसमें आसपास के गांवों के कई दल हिस्सा लेते हैं।ग्रामीण क्षैत्रों में होली का रंग जमने लगा हैं।शहरी क्षैत्र में भी गेरियों के दल इस बार नजर आ रहे हैं।जो शहर की गलियों में चंग की थाप पर फाग गाते नजर आते हैं।

शनिवार, 19 मार्च 2016

foto..स्वर्णनगरी में होली की धूम शुरू





स्वर्णनगरी में होली की धूम शुरू

जैसलमेर. स्वर्णनगरी में होली का धमाल दिखाना शुरू हो गया है। होल्काष्टक से होली की धूम भी शुरू हो चुकी है। वहीं बुधवार से पारंपरिक गैर निकलनी शुरू होगी। इन दिनों दुर्ग स्थित नगर अराध्य लक्ष्मीनाथ मंदिर में फाग की धूम है। बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं सहित जैसलमेर की होली के रसिया मंदिर में चल रहे फागोत्सव में हिस्सा लेने पहुंच रहे है। मंदिर परिसर फाग के दौरान श्रद्धालुओं से खचाखच भरा नजर आता है। ब्रजभाषा सहित विभिन्न छंदों पर ठाकुरजी के साथ फाग के गीतों की धूम है।  हर दिन  शाम को पारंपरिक विभिन  समाज की गैर भी निकलेगी जो दो दिन भाई बंधुओं के घर जाकर होली के गीत गाएगी। उसके पश्चात होलिका दहन से एक दिन पूर्व गड़सीसर सरोवर पर गोठ का आयोजन होगा।


फागोत्सव में झूमे रसिया
लक्ष्मीनाथ जी के मंदिर में अष्टमी से शुरू हुई फाग की धूम होली तक जारी रहेगी। इस दौरान विभिन्न फाग के गीतों के पर तबले व झांझ के साथ समा बांधा जाता है। बड़ी संख्या में होली के रसिया फागोत्सव में हिस्सा लेने पहुंचते है। फाग के दौरान मंदिर परिसर खचाखच भरा रहता है। तुझे किन होली खिलाई, होय होली खेले, हे लक्ष्मोरोनाथ, अंजनी सुत सहित विभिन्न भजनों पर लक्ष्मीनाथजी के साथ श्रद्धालु फाग खेलते है। माना जाता है कि फाग के दौरान खुद लक्ष्मीनाथ जी श्रद्धालुओं के साथ फाग खेलते है।


आज निकलेगी गेरपुष्करणा समाज की पारंपरिक गेरें शुक्ल पक्ष की एकादशी से प्रारंभ होती है। इस बार एकादशी बुधवार को है। लक्ष्मीनाथजी में फाग के समापन के पश्चात समाज के विभिन्न धड़ों की गेर निकलती है। जो भाई बंधुओं के घर जाकर चंदा प्रकट करती है साथ ही भाइयों की कुशल की कामना की जाती है। एकादशी के दिन जैसलमेर के महारावल सहित राजपरिवार के सदस्य भी फाग के दौरान उपस्थित रहते है। लक्ष्मीनाथजी के मंदिर से शुरू होने वाली गेरें पहले महारावल के निवास जाती है उसके पश्चात सभी के घरों पर दस्तक देती है।

मंगलवार, 3 मार्च 2015

फीकी पड़ रही चंग की रंगत थार में

फीकी पड़ रही चंग की रंगत थार में 


ओम प्रकाश सोनी 
बालोतरा। होली पर्व को लेकर बालोतरा में फाग की मस्ती को दुगुना करने वाले वाद्य यंत्र चंग कर ब्रिकी जोरोे पर है। शहर में चंग विक्रेताओ की दुकानो पर चंग खरीदने वाले लोगो की भीड़ उमड़ रही है। बाजार में मांग के अनुसार पांच सो रूपये से लेकर दो हजार रूपयो के चंग उपलब्ध है। विषेषकर ग्रामीण इलाको में होली पर चंग की थाप पर फाग गाने की प्रथा ओर रवायतो को लोग जीवीत रखे हुये है। इस बार मंहगाई की मार चंग पर भी दिखने लगी है। चंग को बनाने का वर्षो से काम करते आ रहे लोग बताते है कि आधुनिक संगीत यंत्रो ओर डीजे आदि के सामने चंग ओर ढोल जेसे परम्परागत वाद्य यंत्रो की चमक फीकी पड़ने लगी है। चंग बनाने में मेहनत बहुत लगती है पर मुनाफा नाम मात्र का होता है। मंहगाई की मार से चंग की किमते भी बढ गई है। चंग खरीदने आने वाले लोगो को चंग की उची कीमत एक बार खरीद करने से पहले सोचने को मजबूर करती है। चंग के निर्माताओ को कहना है कि वर्ष दर वर्ष चंग की बिक्री में कमी आ रही है। ऐसे में आने वाले समय में होली की मस्ती ओर चंग की थाप का आने वाली पीढी आनंद ही नही ले पायेगी।

रविवार, 1 मार्च 2015

बाड़मेर फाग की मस्ती छाई हैं थार मरुस्थल में,चंग बजने लगे


बाड़मेर फाग की मस्ती छाई हैं थार मरुस्थल में,चंग बजने लगे
चन्दन सिंह भाटी
बाड़मेर सीमावर्ती बाड़मेर जिले में मदोत्सव एवं रंगोत्सव की मस्ती छाई हुई हैं।आधुनिकता की दौड़ के बावजूद थार मरुस्थल में लोक कला और संस्कृति से जुड़ी परम्पराओं का निर्वाह किया जारहा हैं।ग्रामीण अंचलों में होली की धूम मची हैं।ग्रामीण अंचलों में रंगोत्सव की मदमस्ती बरकरारहैं।ग्रामीण चौपालों पर सूरज लते ही ग्रामीण चंग की थाप पर फाग गाते नजर आते हैं।वहीं फागुनी लूर गाती महिलाओं के दल फागोत्सव के प्रति दीवानगी का एहसास कराती हैं।सीमावर्ती बाड़मेर जिले की लोक परम्पराओं का निर्वहन ग्रामीण क्षैत्रों में आज भी हो रहा हैं।रंग और मद के इस त्यौहार के प्रति ग्रामीण अंचलों में दीवानगी बरकरार हैं।ग्रामीण चौपालों पर गा्रमीणों के दल सामुहिक रुप से चंग की थाप पर फाग गीत गाते नजर आते हैं।जिले में लगातार

पड़ रहे अकाल का प्रभाव अधिक नजर नहीं आ रहा ।अलबता होली के धमाल के लिए प्रसिद्धसनावड़ा गांव के बुर्जुग माधो सिंह दांता ने बताया कि अकाल के कारण गांव के युवा रोजगार के लिएगुजरात गए हुए हैं। के आभाव हमारे गॉव में होली का रंग फीका नही। पडता।होली सेतीन चार रोज पूर्व रोजगार के लिए बाहर गए युवा पर्व मनाने पहफॅच जाएगे।गांव की परम्परा हैंजो हम अपने बुजुर्गों के समय से देखते आ रहे हैं।इसकी पालना होती हैं।होली से 15 दिन पूर्व गांव में होली का आलम शुरु होता हैं।चोपाल पर शाम होते होते गांव के बडे बुे जवान बच्चे सभी एकत्रित हो जाते हैं।चंग बजाने वालो की थाप पर गा्रमिण सामुहिक रुप से फाग गाते हैं।वहीं गांव की महिलाए रात्री में एक जगह एकत्रित हो कर बारी बारी से घरों के आगे फाग गाती हैं।जो महिलाऐं इस दल में नहीं आती उस महिला के घर के आगे जाकर महिला दल अश्लील फाग गाती हैं,जिसे सुनकर अन्दर बैठी महिला शर्माकर दल मे शामिल हो जाती हैं।महिलाओं द्घारा दो दल बनाकर लूर फाग गाती हैं।लूर में दोनों महिला दल आपस में गीतों के माध्यम से सवालजवाब करती हैं।लूर थार की परम्परा हैं।लुप्त हो रही लूर परम्परा सनावडा तथा सिवाना क्षैत्र के ग्रामीण अंचलों तक सिमट कर रह गई हेैं।फाग गीतों के साथ साथ डाण्डिया गेर नृत्य का भी आयोजन होता हैं।भारी भरकम घुंघरु पांवों में बांध कर हाथें में आठ आठ मीटर लम्बे डाण्डियेंल े कर ोल की थाप और थाली िी टंकार पर जब गेरिऐं नृत्य करते हैं तों लोक संगीत की छटा माटी की सौंधी में घुल जाती हैं। सनावडा में होली के दूसरे दिन बडे स्तर पर गेर नृत्यो का आयोजन होता हैं।जिसमें आसपास के गांवों के कई दल हिस्सा लेते हैं।ग्रामीण क्षैत्रों में होली का रंग जमने लगा हैं।शहरी क्षैत्र में भी गेरियों के दल इस बार नजर आ रहे हैं।जो शहर की गलियों में चंग की थाप पर फाग गाते नजर आते हैं।

रविवार, 16 मार्च 2014

राजस्थान की होली के विविध रंग

राजस्थान की होली के विविध रंग 

राजस्थान के विभिन्न इलाकों में होली मनाने का अलग और खास अंदाज है। होली के मौके पर जानिए राज्य की होली से जुडी अनूठी परंपराओं के बारे में।


लट्ठमार होली

भरतपुर के ब्रजांचल में फाल्गुन का आगमन कोई साधारण बात नहीं है। यहां की वनिताएं इसके आते ही गा उठतीं हैं "सखी री भागन ते फागुन आयौ, मैं तो खेलूंगी श्याम संग फाग।" ब्रज के लोकगायन के लिए कवि ने कहा है "कंकड" हूं जहां कांकुरी है रहे, संकर हूं कि लगै जहं तारी, झूठे लगे जहं वेद-पुराण और मीठे लगे रसिया रसगारी।" यह रसिया ब्रज की धरोहर है, जिनमें नायक ब्रजराज कृष्ण और नायिका ब्रजेश्वरी राधा को लेकर ह्वदय के अंतरतम की भावना और उसके तार छेडे जाते हैं। गांव की चौपालों पर ब्रजवासी ग्रामीण अपने लोकवाद्य "बम" के साथ अपने ढप, ढोल और झांझ बजाते हुए रसिया गाते हैं। डीग क्षेत्र ब्रज का ह्वदय है, यहां की ग्रामीण महिलाएं अपने सिर पर भारी भरकम चरकुला रखकर उस पर जलते दीपकों के साथ नृत्य करती हैं। संपूर्ण ब्रज में इस तरह आनंद की अमृत वर्षा होती है। यह परंपरा ब्रज की धरोहर है। रियासती जमाने में भरतपुर के ब्रज अनुरागी राजाओं ने यहां सर्वसाधारण जनता के सामने स्वांगों की परंपरा को संरक्षण दिया। दामोदर जैसे गायकों के रसिक आज भी भरतपुर के लोगों की जबान पर हैं जिनमें शृंगार के साथ ही अध्यात्म की धारा बहती थी। बरसाने, नंदगांव, कामां, डीग आदि स्थानों पर ब्रज की लट्ठमार होली की परंपरा आज भी यहां की संस्कृति को पुष्ट करती है। चैत्र कृष्ण द्वितीया को दाऊजी का हुरंगा भी प्रसिद्ध है। 

गेर नृत्य 

पाली के ग्रामीण इलाकों में फाल्गुन लगते ही गेर नृत्य शुरू हो जाता है। वहीं यह नृत्य डंका पंचमी से भी शुरू होता है। फाल्गुन के पूरे महीने रात में चौहटों पर ढोल और चंग की थाप पर गेर नृत्य किया जाता है। मारवाड गोडवाड इलाके में डांडी गैर नृत्य बहुत होता है और यह नृत्य इस इलाके में खासा लोकप्रिय है। यहां फाग गीत के साथ गालियां भी गाई जाती हैं। 

मुर्दे की सवारी 

मेवाड अंचल के भीलवाडा जिले के बरून्दनी गांव में होली के सात दिन बाद शीतला सप्तमी पर खेली जाने वाली लट्ठमार होली का अपना एक अलग ही मजा रहा है। माहेश्वरी समाज के स्त्री-पुरूष यह होली खेलते हैं। डोलचियों में पानी भरकर पुरूष महिलाओं पर डालते हैं और महिलाएं लाठियों से उन्हें पीटती हैं। पिछले पांच साल से यह परंपरा कम ही देखने को मिलती है। यहां होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती है, वहीं शीतला सप्तमी पर चित्तौडगढ वालों की हवेली से मुर्दे की सवारी निकाली जाती है। इसमें लकडी की सीढी बनाई जाती है और जिंदा व्यक्ति को उस पर लिटाकर अर्थी पूरे बाजार में निकालते हैं। इस दौरान युवा इस अर्थी को लेकर पूरे शहर में घूमते हैं। लोग इन्हें रंगों से नहला देते हैं। 

चंग-गींदड 

फाल्गुन शुरू होते ही शेखावाटी में होली का हुडदंग शुरू हो जाता है। हर मोहल्ले में चंग पार्टी होती है। होली के एक पखवाडे पहले गींदड शुरू हो जाता है। जगह- जगह भांग घुटती है। हालांकि अब ये नजारे कम ही देखने को मिलते हैं। जबकि, शेखावाटी में ढूंढ का चलन अभी है। परिवार में बच्चे के जन्म होने पर उसका ननिहाल पक्ष और बुआ कपडे और खिलौने होली पर बच्चे को देते हैं। 

तणी काटना 

बीकानेर क्षेत्र में भी होली मनाने का खास अंदाज है। यहां रम्मतें, अनूठे फागणियां, फुटबाल मैच, तणी काटने और पानी डोलची का खेल होली के दिन के खास आयोजन हैं। रम्मतों में खुले मंच पर विभिन्न कथानकों और किरदारों का अभिनय होता है। रम्मतों में शामिल होता है हास्य, अभिनय, होली ठिठोली, मौजमस्ती और साथ ही एक संदेश। 

कोडे वाली होली 

श्रीगंगानगर में भी होली मनाने का खास अंदाज है। यहां देवर भाभी के बीच कोडे वाली होली काफी चर्चित रही है। होली पर देवर- भाभी को रंगने का प्रयास करते हैं और भाभी-देवर की पीठ पर कोडे मारती है। इस मौके पर देवर- भाभी से नेग भी मांगते हैं।

शनिवार, 15 मार्च 2014

होली के अदभूत देवता - र्इलोजी


होली के अदभूत देवता - र्इलोजी


होली का त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास, उमंग, विशेष उत्साह एवं उछड़कूद के साथ देश के कौने-कौने में मनाया जाता है । चारों ओर रंग-बिरंगी पिचकारियों की बौछारे बरसती नजर आती है । अनेकों रंगों, गुलाल एवं अबीर होली के आकर्षण बने रहते हैं । विशाल देश जिसमें अनकों धर्म, जाति, सम्प्रदाय के लोग निवास करते है लेकिन होली के इस रंगीन त्यौहार को सभी मिल जुलकर मनाते है । राष्ट्रीय एकता, आत्मीयता, बन्धुत्व की भावना इस त्यौहार में दिखार्इ देती है । यह त्यौहार देश के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न तौर तरीकों के साथ मनाया जाता है । कहीं लठ मार होली चलती है, तो कहीं रंग गुलाल उड़ते है । कहीं भाभी देवरों के बीच होली है तो कहीं बेत की मार देखने को मिलती है । कहीं कीचड़ एवं धूल भरी होली खेली जाती है तो कहीं पत्थरों की बौछारे भी होती है । विभिन्न प्रकार की होली खेलने पर भी अनेकों रंग इस त्यौहार में रंगीनी ले ही आते है । राग फाग, संग का साथ, नृत्यों की थरकन, मस्ती की मल्हार, गधों की सवारी, जिन्दों का जनाजा इस त्यौहार के अलबेले आकर्षण होते है । वहां इस त्यौहार पर अदभूत देवता र्इलोजी का पूजन राजस्थान प्रदेश के अनेकों स्थानों पर बड़े ही चाव से किया जाता है । र्इलोजी होली के देवता है जिसे फागण देवता से भी राजस्थान में सम्बोधित किया जाता है । जो शहरों एवं कस्बों के मध्य भाग में, आम चौराहों पर और जहां जनमानस का अधिकाधिक आवागमन होता है वहां इसकी स्थापना की जाती है । यह र्इलोजी एक विशाल बैठी हुर्इ प्रतिमा होती है । कहीं पर भी र्इलोजी की खड़ी अथवा सोर्इ हुर्इ प्रतिमा का निर्माण देखने को नहीं मिला है । यह पाषाणों, र्इटों आदि की चुनार्इ से इसका निर्माण किया जाता है । जिस पर प्लास्टर कर इसे मनुष्य की आकृति में बदल दिया जाता है । सिर पर सुन्दर पाग-साफा, कानों में कुण्डल, गले में हार, गोल मटोल चेहरा, चमकती हुर्इ विशाल आंखें, हाथों की भुजाओं पर बाजुबन्द, कलार्इयों में कंगन, भारी भरकम शरीर, फैला हुआ पेट, विशाल पैरों के घुटनों को आगे किये हुए यह र्इलोजी होते है । लिंग का स्थान विशेष तौर से बनाया जाता है । इनके शरीर पर विभिन्न रंगों की रंगीनी की जाती है । जो प्रतिमा की सुन्दरता में चार चांद जड़ देते है । होली के दिन इस प्रतिमा को सुन्दर वस्त्रों से भी सुशोभित किया जाता है और कहीं-कहीं पर वस्त्रों के स्थान पर रंग ही प्रतिमा पर पोत दिये जाते है जिससे प्रतिमा अति आकर्षक दिखार्इ देती है । सिर पर बनी पाग में दुल्हों की भांति कलंगी, तुरे, मोर आदि लगाये जाते है और गले में हार पहनाया जाता है । हाथों में नारियल थमा देते है । यह र्इलोजी कौन थे, इनका पूजन क्यों किया जाता है, इनको इतना सजाया और संवारा क्यों जाता है यह विचारणीय प्रश्न सामने खड़ा होना स्वाभाविक है । बड़े बजुर्गो के कथनासुार र्इलोजी नासितक राजा हिरण्यकश्यप के होने वाले बहनोर्इ थे । जो इसकी बहन होलिका से शादी करने के लिये दुल्हे की वेशभूषा में बनठनकर विशाल बरात लेकर आये थे । लेकिन निर्दयी राजा हिरण्यकश्यप प्रहलाद को जिन्दा जलाने के लिये अगिन से न जलने का वरदान प्राप्त अपनी बहन होलिका की गोद में उसे धधकती चित्ता में बिठा दिया । अगिन की धूं-धूं में होलिका जलकर राख हो गर्इ और प्रहलाद सकुशल बच गया । आसितक प्रहलाद ने नासितक राजा हिरण्यकश्यप पर विजय अवश्य ही प्राप्त की लेकिन र्इलोजी ने अपने होने वाली वधु को सदा-सदा के लिये खो दिया । इस गम में इन्होंने जली हुर्इ होलिका की राख को अपने शरीर पर मलकर अपनी इच्छा को पूर्ण किया और आजीवन अखण्ड कुंवारे रह गये । इसी कारण होली का दूसरा दिन धूलेली अर्थत धूलभरी होली के रूप में मनाया जाता है । इसी प्रकार दंतकथाओं के अनुसार ये शहर एवं कस्बों के रक्षक देवता के रूप में इनकी स्थापना की जाती है । कहा जाता है कि ये क्षेत्रपाल, भैरू का रूप है । जो कि अक्सर बांझ महिलाओं को पुत्र दिया करते है । इस सम्बन्ध में अनेकों कथाऐं विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित हैं । कहा जाता है कि एक सेठ के कार्इ पुत्र नहीं हुआ । र्इलोजी की होली के दिन लिंग पूजा की गर्इ और उसे पुत्र की प्रापित हुर्इ । याचना के अनुसार उसे जीवित पाडे-भैसे की बलि देनी थी लेकिन सेठ ने हत्या न करके भैसे को र्इलोजी-क्षेत्रपाल-भैरू की प्रतिमा के बांध कर चला गया । कुछ समय पश्चात भैसा रस्सी समेत प्रतिमा को उखाड़ कर घसीटता हुआ भागने लगा । रास्ते में एक देवी ने र्इलोजी की यह दशा देखी तो वह खिलखिलाकर हंसने लगी और मजाक करने लगी । तब र्इलोजी ने आवेश में आकर कहा कि तू तो मठ में बैठी मटका करे है सेठ ने बेटा कोनी दिया । मैं दिया जको म्हारो हाल देख । उसी दिन से र्इलोजी मजाक का प्रतीक बन बैठा । आज भी र्इलोजी को होली के कुछ दिन पूर्व में ही हर्षोल्लास के साथ सजाया संवारा जाता है । अनेकों राग फाग इनके जीवन पर गार्इ जाती है । जिसमें \र्इलोजी रो विया आयो लगनिया कुण लिखसी रे आदि राग फाग के तौर पर अपने सगे सम्बनिधयों, मित्रों, हमझोलियों की मजाक को जोड़कर गाते है । होलिका के जलने के कारण र्इलोजी डोकरो गले रे बांध्यों टोकरों । इन्हीं र्इलोजी की होली के दिन खूब पूजा की जाती है । कहा जाता है कि र्इलोजी का एक ही चमत्कार प्रसिद्ध है कि यह बांझ सित्रयों को पुत्र देते है जिसके कारण इनके लिंग की पूजा की जाती है । होली के दिन र्इलोजी की पूजा हेतु नारियल चढाये जाते है । अगरबत्तियों का धूप किया जाता है । लिंग पर कुंकुम के छींटे दिये जाते है और उन पर पुष्प बरसाये जाते है । लेकिन आजकल युवा वर्ग द्वारा भददी गालियों में राग फाग गाने के कारण महिलाओं द्वारा र्इलोजी का पूजन कम होने लगा है । कहीं-कहीं अंध श्रद्धालू महिलाएं इन भददी हरकतों के बीच भी र्इलोजी का पूजन करती हंै । मजाक का मजमा होली के दूसरे दिन नता खोकर राग फाग में अश्लील, भददी एवं बेहुदी मजाकों की समा बांध देते हैं । र्इलोजी की प्रतिमा के पास जमा रहता है । यदि वृद्धावस्था में किसी की पत्नी मर जाय और दूसरी पत्नी मिलनी दुर्लभ हो जाय, किसी लम्बी उम्र में शादी न हो और न होने की पूर्ण सम्भावना हो तो मजाक में कहते है कि र्इलोजी रो लिंग पूज नहीं तो इणोरी तरह कंवारो रह जासी । गन्दे गीत, गाली गलौच भरी फाग राग र्इलोजी के जीवन को अंकित करते हुए गार्इ जाती है । जिसमें संभोग की विभिन्न क्रियाओं का चित्रण बेहुदी तरीके से किया जाता है । र्इलोजी के पास चंग बजाने वालों की अपार भीड़ रहती है जो शादी के समय साज की प्रतीक दिखार्इ देते है । रंगों की बौछार इनकी शादी की खुशी का वातावरण बताती है । इनकी सजावट दुल्हे की याद दिलाती है और होलिका की याद में चिर समाधि इसकी चित्ता के पास लगाकर आजीवन कंवारा रहने की स्मृति ताजा करती है । अज्ञान, अंधविश्वासी बांझ सित्रयां पुत्र प्रापित हेतु इनकी पूजा करती है वहीं युवा वर्ग ऐसे समय में अपनी शालीनता खोकर राग फाग में अश्लील, भददी एवं बेहुदी मजाकों की समा बांध देते हैं । कुछ भी हो र्इलोजी वास्तव में र्इलोजी है । जिनकी स्मृति होली के दिन स्वत: ही हो आती है । यह मजाकिया दिलवालों के राजा है वहां अपनी शक्ल-सूरत से राह चलने वालों को स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहते । जिन पर प्रतिवर्ष इनकी साज-सजावट के लिये हजारों रूपया व्यय किया जाता है । इनकी प्रतिमाएं चौराहों पर, अनेकों मार्ग निकलने वालों स्थानों पर, मूल बाजार में बनी हुर्इ होती हैं । अक्सर मूत्र्तियां खुली रहती है । कहीं-कहीं इनकी सुरक्षा हेतु जालीदार किवाड़ बना दिये जाते है । लिंग केवल वर्ष भर में होली के दिन ही लगाया जाता है । जहां इनकी विशाल प्रतिमा बिठार्इ जाती है उसके आसपास में यदि कोर्इ बाजार है तो उसका नामकरण र्इलोजी के नाम पर होगा । ऐसे र्इलोजी मार्केट, र्इलोजी चौराहा, र्इलोजी मार्ग, र्इलोजी चौक राजस्थान के अनेकों शहरों एवं कस्बों में हंै । ऐसे होली के अदभूत देवता र्इलोजी राजस्थान प्रदेश के अनेकों नगरों एवं कस्बों में स्थापित है जहां इनका होली एवं धुलेली के दिन बड़ा महत्व समझा जाता है । बाड़मेर की पत्थर मार होली भारतवर्ष धार्मिक तीज त्यौहारों के लिये जगत विख्यात है । अनेकों धर्म, सम्प्रदायों के नाना प्रकार के त्यौहार इस देश की पुण्य भूमि में मनाये जाते हैं । त्यौहारों की पंकित में होली एक अनोखा त्यौहार है, जो सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग अवश्य मनाते है लेकिन मनाने के तरीके अवश्य ही भिन्न-भिन्न है । विशाल देश में होली का त्यौहार कहीं रंग के बौछारों के बीच मनाया जाता है तो कहीं लठ मारकर होली का आनन्द लूटा जाता है । कहीं पर भाभीदेवरों के बीच रंग के साथ होली खेली जाती है तो कहीं पर चंग साज के साथ नाचकूदकर होली का उल्लास प्रकट किया जाता है । होली एक होते हुए भी इसके रूप अनेक बने हुए है । राजस्थान के पशिचमी सीमावत्र्ती बाड़मेर नगर में होली का त्यौहार पत्थरों की लड़ार्इ के बीच मनाया जाता था, जो आजकल रंग की बौछारों, गुलाल की उड़ान के रूप में बदल गया है । होली का यह रंगीला त्यौहार 80-90 वर्ष पूर्व बाड़मेर नगर में पत्थरों की लड़ार्इ से मनाया जाता था । आपसी वैमनस्य, वैरभाव, दुश्मनी को दूर रखते हुए होली का त्यौहार परस्पर पत्थरों की मार के बीच हर्षोल्लास एवं स्नेह के साथ खेला जाता था । इस त्यौहार को खेलने के लिये एक पखवाड़ा पहले तैयारियां आरम्भ हो जाती थी । दो दलों, दो मौहल्लों के बीच यह मोहब्बत की पत्थर मार होली खेली जाती थी । दोनों दलों के लोग अपने मकानों, दुकानों, धार्मिक प्रतिष्ठानों, मनिदरों आदि ऊंची-ऊंची छतों पर पहले से ही पत्थरों के ठेर एकत्रित करके रखते थे और इन पत्थरों की मार से बचने के लिये युद्ध मैदानों में जिस ढ़ाल का उपयोग करते थे उसकी सार सम्भाल की जाती थी । लेकिन यह पत्थर मार होली, होली दहन के दूसरे दिन धूलेड़ी के दिन खूब तबियत के साथ खेली जाती थी । होली दहन के दिन दोनों दलों, दोनों मौहल्लों के बीच अपार स्नेह मिलन होता था और एक-दूसरे को पराजित करने की शर्त लगाते थे । इस दिन चंग के साथ सामूहिक रूप से खूब नाचते एवं गाते भी थे और जैसे ही दूसरे दिन का प्रभात हुआ कि आकाश में पत्थरों की बौछारे चलनी आरम्भ हो जाती थी । मकान, दुकान, धर्मशालाएं, मनिदरों की छतों पर बाड़मेर की गोलाकार रंग-बिरंगी पगड़ी बांधे धोती-तेवटा पहने, कमर कसे, ढ़ाल लिये लोगों की झलकियां देखने को मिलती थी । दो दलों के बीच दोनों ओर से हवा को चीरते हुए पत्थर चलते थे । घरों में भूल से बाहर रखे बर्तन इन पत्थरों के निशान बनकर चकना चूर हो जाते थे । छोटे बालक-बालिकाएं एवं गृहणियां इस लड़ार्इ के दौरान बाहर नहीं निकलती थी । पत्थरों की विचित्र लड़ार्इ के बीच किसी को सिर, हाथ-पांव, आंख आदि पर चोटे लगती थी । लेकिन वे तनिक भी इसकी परवाह किये बिना सामने वाले दल पर पत्थरों की बौछारे करने में अति व्यस्त रहते थे । इस स्नेह पत्थर लड़ार्इ के बीच कर्इ लोग काने बन गये और कर्इयों के सिर भी फूट गये लेकिन इनकी प्रेम की पत्थर मार होली चलती रहती । यदि इस बीच पत्थरों का संग्रह खत्म होता था तो अपनी छतों से कूदकर पुन: पत्थर एकत्रित करने पड़ते थे । इस बीच दूसरे दल वाला मौका पाकर उसे धर दबोचता और लाठियों से पिटार्इ करता । यदि वह अपनी हार स्वीकार करता तो उसे छोड़ दिया जाता । इस हार को स्वीकार न करने वाले कर्इ लोगों ने छत से कूदने पर अपने पैर तुड़वा लिये और जीवन भर लंगड़े बने रहे । लेकिन होली का हार नहीं मानते थे । पत्थरों की यह विचित्र पत्थर मार होली धूलेड़ी के दोपहर तक चलती । उसके पश्चात दोनों दलों के लोग उसी सस्नेह, उल्लास एवं आनन्द के एक-दूसरे से मिलते । घायल मित्रों की मरहम पटटी करने के साथ-साथ सामूहिक रूप से मिष्ठान खाकर खूब गले मिलते थे । यही पत्थरों की होली धीरे-धीरे धूल एवं कीचड़ उछालकर मनार्इ जाने लगी । जो आज भी कहीं-कहीं नगर में देखी जाती है । यह भी विचित्र रूप लिये रहती है । राहगीरों पर खूब दिन खोलकर धूल बरसाने का आनन्द लिया जाता है और कीचड़ से उसके सारे शरीर को पोत दिया जाता है । इस अवसर पर खूब खुलकर होली की फागों में गन्दे गीतोें को गाया जाता है । पुरूषों द्वारा पत्थरों की परस्पर लड़ार्इ की होली, धूल एवं कीचड़ में बदली वहां औरतों द्वारा भी होली के कर्इ दिन पूर्व गालियों में फागे नियमित रूप से रात्रि में गाती थी । कर्इ-कर्इ स्थानों पर जो महिलाएं देर रात तक गालियों भरी फागों गाने के साथ-साथ अभद्र तरीके से नाचकर अपना उल्लास प्रकट करती थी । लेकिन आजकल महिलाओं में कुछ विशेष जाति समुदाय को छोड़कर गाली-गलोच की फागे नहीं गार्इ जाती है । होली पत्थरों की लड़ार्इ से नीचे उतरती हुर्इ शहर का सबसे गन्दे पानी संग्रहित नरगासर तालाब के कीचड़ पोतने एवं हलवार्इयों की भटिटयों की राख और गली की धूल के बीच मनार्इ जाने लगी । ज्यों-ज्यों व्यकित आधुनिक परिवेश में आया त्यों-त्यों इसमें रददोबदल होने लग गया । अब होली पर गन्दी गालियों के स्थान पर राष्ट्रीय गीत, विकास के बोल एवं हास्य भरी फागों की धुन छार्इ रहती है । वहां गली की धूल, भटिटयों की राख एवं नरगासर के कीचड़ के स्थान पर रंग और गुलाल ने ले लिया है । धूलेड़ी के दिन अब रंग व गुलाल का ही आमतौर पर प्रयोग किया जाता है लेकिन मजाक के तौर पर आज से शताब्दी पूर्व गधे की सवारी का उपयोग हास्य के रूप में किया जाता था आज भी जारी है । विवाह में विदार्इ के गीत, मजाक के बोल जो महिलाएं गाती है उसे पुरूष, महिलाओं के अदभूत वेष बनाकर गाते और मनोरंजन करते है । श्मशान यात्रा के दृश्य उपसिथत कर इस दिन खूब मजाक किया जाता है । धूलभरी होली, कीचड़ की गन्दी होली से लेकर अब रंग भरी सुहावनी होली में भाभी देवर के बीच बड़े ही उत्साह एवं उमंग के बीच खेली जाती रही है । रंग एवं गुलाल भरी होली से पूर्व भाभी पर देवर पानी की बौछार से तीखी मार करता तब भाभी रस्सी अथवा कपड़े से तैयार सोटे से देवर की खूब तबीयत से पिटार्इ करती है । देवर भाभी की मार एवं तीखी पानी के बौछार से छटपटा जाती तब देवरों की बन आती और जब देवर महाशय की पानी की बाल्टी लुढक जाती तब भाभी के सोटे की बौछार उसे पीडि़त करती । आजकल भाभी देवरों के बीच यह होली खूब जमकर खेली जाती है । आजकल पानी के साथ खूब गहरा रंग डालकर भाभी के बदन के हर अंग को रंग रंगने में देवर आनन्द लेते है । होली के दिन बाड़मेर नगर में एक विराट बैठी हुर्इ आदमकद र्इलोजी की प्रतिमा की रचना की जाती है । उसे खूब सजाया संवारा जाता है । इस र्इलोजी की प्रतिमा की शानदार बट वाली मूछों, दाड़ी बनाने के साथ-साथ शरीर के प्रत्येक अंग को सजाने का सुन्दर प्रयास किया जाता है । सिर पर पाग धारण करार्इ जाती है और उसमें कलंगी और तुरों को बांधा जाता है । इस प्रतिमा के आगे धूप एवं अगरबत्तियां जलार्इ जाती है । मजाक के तौर पर खूब र्इलोजी के गीत गाते है और बांझ महिलाऐं को बच्चा प्रापित के लिये इस प्रतिमा के आगे नारियल चढ़ाने के लिये प्रेरित करते है । धूलेड़ी के दिन इस आकर्षक प्रतिमा का खंडन-मंडन किया जाता था लेकिन आजकल इसे तोड़ा नहीं जाता है । र्इलोजी पर रचे अनेकों प्रकार के गीत लोग खूब नाचते हुए चंग के साथ गाते है । बाड़मेर की विचित्र पत्थर मार होली बदलती हुर्इ आज रंग की बौछारों, राष्ट्रीय एवं विकास गीतों, हास्यपूर्ण वेशभूषा, गधे की सवारी के साथ खूब नाचकूद के साथ मनार्इ जाती है । इस रंगीले होली त्यौहार का आनन्द बड़े, बूढ़े, बालक- बालिकाएं, जवान युवक-युवतियां सभी मिलकर लेते हैं

बुधवार, 27 मार्च 2013

राहुल गांधी होंगे प्रधानमंत्री .....शिंदे



राहुल गांधी होंगे प्रधानमंत्री .....शिंदे

राहुल ही बनेंगे अगले पीएम: सुशील कुमार शिंदे 


जैसलमेर जवानों के साथ होली मनाने के लिए जैसलमेर की एक भारतीय चौकी पर पहुंचे
गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी कहा कि आगामी चुनावों में कांग्रेस
फिर से सत्ता मेंआएगी और राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री होंगे। दिग्विजय सिंह और
राशिद अल्वी के बाद अब सुशील कुमार शिंदे ने भी माना है कि राहुल गांधी
ही पीएम पद के उम्मीदवार होंगे।। इससे पहले पार्टी प्रवक्ता राशिद अल्वी
ने मंगलवार को कहा, 'हमें यकीन है कि सिर्फ राहुल ही प्रधानमंत्री
बनेंगे केंद्रीय गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने आज राजस्थान के
जैसलमेर जिले में भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ)
की चौकी पर तैनात जवानों के साथ जमकर होली खेली और वह जवानों के साथ
रूबरू होकर उनकी हौसला अफजाई की .शिंदे ने यहाँ बल के अधिकारियो और
जवानो के साथ होली खेली . खुशिया बांटी ,शिंदे ने जवानो को होली के उपहार
स्वरुप मिठाईया भी भेंट कर होली की शुभकामनाए दी .यह पहला अवसर हें जब
देश के गृहमंत्री ने पश्चिमी सरहद पर सीमा सुरक्षा बल के जवानो के साथ
होली खेली .प्रायः अपने परिवार से दूर जवान होली अकेले ही खेलते थे .इस
बार गृहमंत्री के साथ होली खेल जवानो में उत्साह का संचार हुआ .शिंदे ने
जवानो के साथ बैठकर उनकी समस्याओ पर चर्चा भी की उसके बाद शिंदे ने
बॉर्डर पर सीमा चोकियो का जायजा लिया और ऊठ पर बैठकर बॉर्डर का निरक्षण
या इस मोके जवानो में भी शिंदे के साथ होली मानाने का उत्सह देखा गया इस
मोके पर जब शिंदे से राहुल गाँधी के बार मेंपूछा गया तो शिंदे ने भी माना है कि राहुल गांधी ही पीएम पद के उम्मीदवार होंगे--

गृह मंत्री शिंदे ने जवानो के साथ सरहद पर खेली होली

गृह मंत्री शिंदे ने जवानो के साथ सरहद पर खेली होली

जवानो के साथ होली की खुशिया बांटी

जैसलमेर देश के गृह मंत्री सुशिल कुमार शिंदे ने होली का त्यौहार बुधवार को सीमा सुरक्षा बल के जवानो के साथ पाकिस्तान की सरहद के सामने बावार वाला में मनाई .गृह मंत्री सिंदे बुधवार सुबह साढ़े आठ बजे जैसलमेर पहुँच गए जहां बल के अधिकारियो ने उनका स्वागत किया .जैसलमेर से शिंदे सीधे तनोट के लिए रवाना ,तनोट से वे बावर वाला सीमा चौकी पौंचे ,जन्हा जवानो ने उनका गर्म जोशी के साथ स्वागत किया .शिंदे ने यहाँ बल के अधिकारियो जवानो के साथ होली खेली . खुशिया बांटी ,शिंदे ने जवानो को होली के उपहार स्वरुप मिठाईया भी भेंट कर होली की शुभकामनाए दी .यह पहला अवसर हें जब देश के गृहमंत्री ने पश्चिमी सरहद पर सीमा सुरक्षा बल के जवानो के साथ होली खेली .प्रायः अपने परिवार से दूर जवान होली अकेले ही खेलते थे .इस बार गृहमंत्री के साथ होली खेल जवानो में उत्साह का संचार हुआ .शिंदे ने जवानो के साथ बैठकर उनकी समस्याओ पर चर्चा भी की ..

सोमवार, 25 मार्च 2013

चंग है होली की शान,नहीं रहे अब कद्रदान

चंग है होली की शान,नहीं रहे अब कद्रदान

जैसलमेर। स्वर्णनगरी में होली पर्व के आगाज के साथ ही गेरियाें व होली के रसियाें का उन्माद झलकना शुरू हो जाता है, लेकिन इस बार न तो चंग की थाप पर झूमने वाले दीवाने दिखाई दे रहे हैं और न ही वाद्य यंत्र चंग के कद्रदान। ऎसे में चंग बनाने वाले कारीगर सिमटती परम्पराओं व घटती कद्रदानाें की संख्या से काफी मायूस है। हालांकि शहर के मुख्य बाजाराें व गलियाें में होली का रंग जमना शुरू हो गया है, फिर भी चंग बजाते व होली गीताें को मस्ताना अंदाज में गाते व मचलते लोग इक्का -दुक्का जगह ही दिखाई दे रहे हैं।

ऎसे में होली का खास वाद्य माने जाने वाले चंग को बनाने वाले हाथ भी थम से गए है। चंग बनाने वाले कारीगराें को वो दिन भी याद है जब वे अपने पिता के साथ चंग बनाते थे। उस दौरान चंग खरीदने सैकड़ाें लोग उसके पास प्रतिदिन आते थे। समय के करवट बदलने के साथ लोगाें की जीवन शैली बदली, मानवीय मूल्याें में कमी आई व त्योहाराें के प्रति रूझान घटा। ऎसे में चंग की उपेक्षा से इनका निर्माण बहुत कम रह गया है।

यही कारण है कि इन दिनाें वे चंग बनाने का कार्य परम्पराओं को जीवित रखने व मांग के आधार पर ही करते हैं। पुरखाें से मिले हुनर को ईमानदारी व व्यवसायिक रूप में लेने वाले इन कारीगराें को भय है कि कहीं यह कला उनके जीवन काल में ही सिमट न जाए।

यूं बनता है चंग
मृत नर भेड़ के चमड़े को सूखाकर व धूप में कठोर होने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके बाद लकड़ी के वृताकार वलय में इस खाल को चढ़ा कर चंग का निर्माण किया जाता है। पूर्ण निर्माण के बाद इस पर हल्दी व इच्छानुसार व अन्य खुशबूदार रसायनाें का लेप किया जाता है।

रविवार, 24 मार्च 2013

होली के अदभूत देवता - र्इलोजी

होली के अदभूत देवता - र्इलोजी
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होली का त्यौहार बड़े ही हर्षोल्लास, उमंग, विशेष उत्साह एवं उछड़कूद के साथ देश के कौने-कौने में मनाया जाता है । चारों ओर रंग-बिरंगी पिचकारियों की बौछारे बरसती नजर आती है । अनेकों रंगों, गुलाल एवं अबीर होली के आकर्षण बने रहते हैं । विशाल देश जिसमें अनकों धर्म, जाति, सम्प्रदाय के लोग निवास करते है लेकिन होली के इस रंगीन त्यौहार को सभी मिल जुलकर मनाते है । राष्ट्रीय एकता, आत्मीयता, बन्धुत्व की भावना इस त्यौहार में दिखार्इ देती है । यह त्यौहार देश के विभिन्न स्थानों पर विभिन्न तौर तरीकों के साथ मनाया जाता है । कहीं लठ मार होली चलती है, तो कहीं रंग गुलाल उड़ते है । कहीं भाभी देवरों के बीच होली है तो कहीं बेत की मार देखने को मिलती है । कहीं कीचड़ एवं धूल भरी होली खेली जाती है तो कहीं पत्थरों की बौछारे भी होती है । विभिन्न प्रकार की होली खेलने पर भी अनेकों रंग इस त्यौहार में रंगीनी ले ही आते है । राग फाग, संग का साथ, नृत्यों की थरकन, मस्ती की मल्हार, गधों की सवारी, जिन्दों का जनाजा इस त्यौहार के अलबेले आकर्षण होते है । वहां इस त्यौहार पर अदभूत देवता र्इलोजी का पूजन राजस्थान प्रदेश के अनेकों स्थानों पर बड़े ही चाव से किया जाता है ।

र्इलोजी होली के देवता है जिसे फागण देवता से भी राजस्थान में सम्बोधित किया जाता है । जो शहरों एवं कस्बों के मध्य भाग में, आम चौराहों पर और जहां जनमानस का अधिकाधिक आवागमन होता है वहां इसकी स्थापना की जाती है । यह र्इलोजी एक विशाल बैठी हुर्इ प्रतिमा होती है । कहीं पर भी र्इलोजी की खड़ी अथवा सोर्इ हुर्इ प्रतिमा का निर्माण देखने को नहीं मिला है । यह पाषाणों, र्इटों आदि की चुनार्इ से इसका निर्माण किया जाता है । जिस पर प्लास्टर कर इसे मनुष्य की आकृति में बदल दिया जाता है । सिर पर सुन्दर पाग-साफा, कानों में कुण्डल, गले में हार, गोल मटोल चेहरा, चमकती हुर्इ विशाल आंखें, हाथों की भुजाओं पर बाजुबन्द, कलार्इयों में कंगन, भारी भरकम शरीर, फैला हुआ पेट, विशाल पैरों के घुटनों को आगे किये हुए यह र्इलोजी होते है । लिंग का स्थान विशेष तौर से बनाया जाता है । इनके शरीर पर विभिन्न रंगों की रंगीनी की जाती है । जो प्रतिमा की सुन्दरता में चार चांद जड़ देते है । होली के दिन इस प्रतिमा को सुन्दर वस्त्रों से भी सुशोभित किया जाता है और कहीं-कहीं पर वस्त्रों के स्थान पर रंग ही प्रतिमा पर पोत दिये जाते है जिससे प्रतिमा अति आकर्षक दिखार्इ देती है । सिर पर बनी पाग में दुल्हों की भांति कलंगी, तुरे, मोर आदि लगाये जाते है और गले में हार पहनाया जाता है । हाथों में नारियल थमा देते है ।


यह र्इलोजी कौन थे, इनका पूजन क्यों किया जाता है, इनको इतना सजाया और संवारा क्यों जाता है यह विचारणीय प्रश्न सामने खड़ा होना स्वाभाविक है । बड़े बजुर्गो के कथनासुार र्इलोजी नासितक राजा हिरण्यकश्यप के होने वाले बहनोर्इ थे । जो इसकी बहन होलिका से शादी करने के लिये दुल्हे की वेशभूषा में बनठनकर विशाल बरात लेकर आये थे । लेकिन निर्दयी राजा हिरण्यकश्यप प्रहलाद को जिन्दा जलाने के लिये अगिन से न जलने का वरदान प्राप्त अपनी बहन होलिका की गोद में उसे धधकती चित्ता में बिठा दिया । अगिन की धूं-धूं में होलिका जलकर राख हो गर्इ और प्रहलाद सकुशल बच गया । आसितक प्रहलाद ने नासितक राजा हिरण्यकश्यप पर विजय अवश्य ही प्राप्त की लेकिन र्इलोजी ने अपने होने वाली वधु को सदा-सदा के लिये खो दिया । इस गम में इन्होंने जली हुर्इ होलिका की राख को अपने शरीर पर मलकर अपनी इच्छा को पूर्ण किया और आजीवन अखण्ड कुंवारे रह गये । इसी कारण होली का दूसरा दिन धूलेली अर्थत धूलभरी होली के रूप में मनाया जाता है ।

इसी प्रकार दंतकथाओं के अनुसार ये शहर एवं कस्बों के रक्षक देवता के रूप में इनकी स्थापना की जाती है । कहा जाता है कि ये क्षेत्रपाल, भैरू का रूप है । जो कि अक्सर बांझ महिलाओं को पुत्र दिया करते है । इस सम्बन्ध में अनेकों कथाऐं विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित हैं । कहा जाता है कि एक सेठ के कार्इ पुत्र नहीं हुआ । र्इलोजी की होली के दिन लिंग पूजा की गर्इ और उसे पुत्र की प्रापित हुर्इ । याचना के अनुसार उसे जीवित पाडे-भैसे की बलि देनी थी लेकिन सेठ ने हत्या न करके भैसे को र्इलोजी-क्षेत्रपाल-भैरू की प्रतिमा के बांध कर चला गया । कुछ समय पश्चात भैसा रस्सी समेत प्रतिमा को उखाड़ कर घसीटता हुआ भागने लगा । रास्ते में एक देवी ने र्इलोजी की यह दशा देखी तो वह खिलखिलाकर हंसने लगी और मजाक करने लगी । तब र्इलोजी ने आवेश में आकर कहा कि तू तो मठ में बैठी मटका करे है सेठ ने बेटा कोनी दिया । मैं दिया जको म्हारो हाल देख । उसी दिन से र्इलोजी मजाक का प्रतीक बन बैठा ।

आज भी र्इलोजी को होली के कुछ दिन पूर्व में ही हर्षोल्लास के साथ सजाया संवारा जाता है । अनेकों राग फाग इनके जीवन पर गार्इ जाती है । जिसमें ''र्इलोजी रो विया आयो लगनिया कुण लिखसी रे आदि राग फाग के तौर पर अपने सगे सम्बनिधयों, मित्रों, हमझोलियों की मजाक को जोड़कर गाते है । होलिका के जलने के कारण 'र्इलोजी डोकरो गले रे बांध्यों टोकरों । इन्हीं र्इलोजी की होली के दिन खूब पूजा की जाती है । कहा जाता है कि र्इलोजी का एक ही चमत्कार प्रसिद्ध है कि यह बांझ सित्रयों को पुत्र देते है जिसके कारण इनके लिंग की पूजा की जाती है । होली के दिन र्इलोजी की पूजा हेतु नारियल चढाये जाते है । अगरबत्तियों का धूप किया जाता है । लिंग पर कुंकुम के छींटे दिये जाते है और उन पर पुष्प बरसाये जाते है । लेकिन आजकल युवा वर्ग द्वारा भददी गालियों में राग फाग गाने के कारण महिलाओं द्वारा र्इलोजी का पूजन कम होने लगा है । कहीं-कहीं अंध श्रद्धालू महिलाएं इन भददी हरकतों के बीच भी र्इलोजी का पूजन करती हंै ।

 मजाक का मजमा होली के दूसरे दिन नता खोकर राग फाग में अश्लील, भददी एवं बेहुदी मजाकों की समा बांध देते हैं । र्इलोजी की प्रतिमा के पास जमा रहता है । यदि वृद्धावस्था में किसी की पत्नी मर जाय और दूसरी पत्नी मिलनी दुर्लभ हो जाय, किसी लम्बी उम्र में शादी न हो और न होने की पूर्ण सम्भावना हो तो मजाक में कहते है कि 'र्इलोजी रो लिंग पूज नहीं तो इणोरी तरह कंवारो रह जासी । गन्दे गीत, गाली गलौच भरी फाग राग र्इलोजी के जीवन को अंकित करते हुए गार्इ जाती है । जिसमें संभोग की विभिन्न क्रियाओं का चित्रण बेहुदी तरीके से किया जाता है । र्इलोजी के पास चंग बजाने वालों की अपार भीड़ रहती है जो शादी के समय साज की प्रतीक दिखार्इ देते है । रंगों की बौछार इनकी शादी की खुशी का वातावरण बताती है । इनकी सजावट दुल्हे की याद दिलाती है और होलिका की याद में चिर समाधि इसकी चित्ता के पास लगाकर आजीवन कंवारा रहने की स्मृति ताजा करती है । अज्ञान, अंधविश्वासी बांझ सित्रयां पुत्र प्रापित हेतु इनकी पूजा करती है वहीं युवा वर्ग ऐसे समय में अपनी शालीनता खोकर राग फाग में अश्लील, भददी एवं बेहुदी मजाकों की समा बांध देते हैं ।

कुछ भी हो र्इलोजी वास्तव में र्इलोजी है । जिनकी स्मृति होली के दिन स्वत: ही हो आती है । यह मजाकिया दिलवालों के राजा है वहां अपनी शक्ल-सूरत से राह चलने वालों को स्वत: ही अपनी ओर आकर्षित किये बिना नहीं रहते । जिन पर प्रतिवर्ष इनकी साज-सजावट के लिये हजारों रूपया व्यय किया जाता है । इनकी प्रतिमाएं चौराहों पर, अनेकों मार्ग निकलने वालों स्थानों पर, मूल बाजार में बनी हुर्इ होती हैं । अक्सर मूत्र्तियां खुली रहती है । कहीं-कहीं इनकी सुरक्षा हेतु जालीदार किवाड़ बना दिये जाते है । लिंग केवल वर्ष भर में होली के दिन ही लगाया जाता है । जहां इनकी विशाल प्रतिमा बिठार्इ जाती है उसके आसपास में यदि कोर्इ बाजार है तो उसका नामकरण र्इलोजी के नाम पर होगा । ऐसे र्इलोजी मार्केट, र्इलोजी चौराहा, र्इलोजी मार्ग, र्इलोजी चौक राजस्थान के अनेकों शहरों एवं कस्बों में हंै । ऐसे होली के अदभूत देवता र्इलोजी राजस्थान प्रदेश के अनेकों नगरों एवं कस्बों में स्थापित है जहां इनका होली एवं धुलेली के दिन बड़ा महत्व समझा जाता है ।

जैसलमेर खो गया होली का धमाल

जैसलमेर खो गया होली का धमाल

जैसलमेर प्रकृति के श्रृंगार के लिए हर ओर पुष्प मंजरी, वसंत की अंगड़ाई, पछुआ हवा की सरसराहट फाल्गुन का स्पष्ट संकेत दे रही है। प्रकृति ने अपना नियम तो नहीं बदला, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में हमारी परंपराएं जरूर निढाल हो गई हैं।

फाल्गुन महीने में पहले शहरों से लेकर गांवों तक में फाग गीतों की धूम मचती थी, लेकिन अब फाग का राग शहरों में ही नहीं, गांवों की चौपालों से भी नदारद हो गया है। महाशिवरात्रि पर्व के गुजरने के बाद ही इस मौसम मेंचंग , ढोल, मंजीरे और करताल की ध्वनि के बीच फगुआ के गाने शुरू हो जाते थे। लेकिन अब ये नदारद है। यही नहीं, पहले जैसे लूर नृत्य फाग और सामूहिक गाने की भी परंपरा दम तोड़ रही है।

कई लोग इसका कारण समाज में बढ़ते बैर, भेदभाव, कटुता और वैमनस्य को मानते है तो कई लोग आधुनिक जीवनशैली और पश्चिमी संस्कृति का हावी हो जाना मुख्य कारण बताते है।जैसलमेर शहर में विभिन्न समाजो की गैर निकलती थी उससे पहले ठाकुरजी और लक्ष्मीनाथ बाबे की गैर निकलती थी .सामूहिक गैरो के प्रति सामान उत्साह युवा और बुजुर्गो में होता था .गैरियो की टोलियाँ जब अशुद्ध फाग गाती थी तो सुनाने वालो की भरी भीड़ उमड़ पड़ती थी .

जैसलमेर के प्रसिद्ध फाग गायक फकीरा खान बताते है कि प्रेम सौहार्द के पर्व होली में लोग दुश्मन के भी गले लग जाते थे। यह परंपरा समाज के दरके रिश्ते को जोड़ने में काफी सहायक होती थी। वह कहते है कि होली पहले एक दिन का त्योहार नहीं था, यह एक महीने तक चलने वाला त्योहार था, जिसमें बाहर रहने वाले लोग भी आकर शामिल होते थे।

पूरे गांव के लोग एक जगह चोगान पर एकत्रित हो जाते थे और फिर होली के हुड़दंग में मस्त हो जाते थे। हर गांव में एक महीने तक ढोल और मंजीरे बजते थे। लेकिन अब एक-दूसरे में सामंजस्य का अभाव, गायकों के कद्रदानों की कमी, एक -दूसरे के बीच बढ़ता वैमनस्य सहित कई कारणों से हमारी यह पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है। सच तो यह है कि हमारी युवा पीढ़ी फगुआ गीतों की लय, सुर, ताल भी भूल गई है।

होली के एक माह पूर्व ही जोगीड़ा के लिए एक पुरुष का चयन कर उसे नर्तकी के वेश में सजाया जाता था। स्त्री वेशधारी वह पुरुष लोगों के बीच फाग गायकों के बोल पर नृत्य करता था। चौधरी कहते है कि फाग गीतों में पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, देवर-भाभी के रिश्तों में हास्य-पुट तो दिए ही जाते है, धार्मिक गीतों का भी समावेश किया जाता है। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। केवल होली के दिन ही कहीं-कहीं ढोल बजते है। फगुआ के बाद चैती गीत गाने की भी परंपरा थी।

फगुआ के मौके पर डेढ़ ताल, चौताल, बेलवरिया गीत गाए जाते थे, लेकिन अब गायन की यह परंपरा टूटती जा रही है। अब इनकी जगह फूहड़ गीतों पर डांस करते युवक नजर आते है। गांव के बुजुर्ग कहते है कि पहले गांवों की चौपालों से निकाले जाने गैरों में बुजुर्ग से लेकर युवा तक शामिल होते थे। इसके माध्यम से समाज के लोग एकता के सूत्र में बंधे होने के संकेत भी देते थे।हिली और धुलंडी के सामूहिक फागियो की सामूहिक गैर निकलती थी फाग गाते हुए महारावल के यंहा जम कर फाग गाते और उनसे होली की गोठ लेते .

बुजुर्ग कहते है कि युवा पीढ़ी तो इन परंपराओं से ही अनभिज्ञ है। जैसलमेर के बुजुर्ग एवं संगीत के जानकार मंगल सिंह भाटी कहते है कि कुछ दशक पहले तक रईसों और जमींदारों के यहां होली के मौके पर ध्रुपद-धमार की महफिलें जमती थीं। ध्रुपद शैली में गाई जाने वाली संगीत विद्या 'धमार' वस्तुत: होरी ही है।

वह कहते है कि अब न लोगों के पास समय है और न ही अपनी परंपराओं को जीवित रखने की ललक। धमार का अर्थ ही होता है, जो फड़कता हुआ, प्रेरित करता हुआ चले। अब न ध्रुपद-धमार की महफिल ही जमती है और न ही फगुआ की मस्ती ही दिखाई देती है।भाटी कहते है कि पूर्व में जहां होली पर पूरे गांव के लोग एकत्र होकर पर्व मनाया करते थे, लेकिन अब यह पर्व अन्य पर्वो की तरह परिवारों तक सीमित होकर कर रह गया है।

मंगलवार, 12 मार्च 2013

फाग की मस्ती छाई हैं थार मरुस्थल में,चंग बजने लगे



फाग की मस्ती छाई हैं थार मरुस्थल में,चंग बजने लगे
चन्दन सिंह भाटी

बाड़मेर सीमावर्ती बाड़मेर जिले में मदोत्सव एवं रंगोत्सव की मस्ती छाई हुई हैं।आधुनिकता की दौड़ के बावजूद थार मरुस्थल में लोक कला और संस्कृति से जुड़ी परम्पराओं का निर्वाह किया जारहा हैं।ग्रामीण अंचलों में होली की धूम मची हैं।ग्रामीण अंचलों में रंगोत्सव की मदमस्ती बरकरारहैं।ग्रामीण चौपालों पर सूरज लते ही ग्रामीण चंग की थाप पर फाग गाते नजर आते हैं।वहीं फागुनी लूर गाती महिलाओं के दल फागोत्सव के प्रति दीवानगी का एहसास कराती हैं।सीमावर्ती बाड़मेर जिले की लोक परम्पराओं का निर्वहन ग्रामीण क्षैत्रों में आज भी हो रहा हैं।रंग और मद के इस त्यौहार के प्रति ग्रामीण अंचलों में दीवानगी बरकरार हैं।ग्रामीण चौपालों पर गा्रमीणों के दल सामुहिक रुप से चंग की थाप पर फाग गीत गाते नजर आते हैं।जिले में लगातार
पड़ रहे अकाल का प्रभाव अधिक नजर नहीं आ रहा ।अलबता होली के धमाल के लिए प्रसिद्धसनावड़ा गांव के बुर्जुग माधो सिंह दांता ने बताया कि अकाल के कारण गांव के युवा रोजगार के लिएगुजरात गए हुए हैं। के आभाव हमारे गॉव में होली का रंग फीका नही। पडता।होली सेतीन चार रोज पूर्व रोजगार के लिए बाहर गए युवा पर्व मनाने पहफॅच जाएगे।गांव की परम्परा हैंजो हम अपने बुजुर्गों के समय से देखते आ रहे हैं।इसकी पालना होती हैं।होली से 15 दिन पूर्व गांव में होली का आलम शुरु होता हैं।चोपाल पर शाम होते होते गांव के बडे बुे जवान बच्चे सभी एकत्रित हो जाते हैं।चंग बजाने वालो की थाप पर गा्रमिण सामुहिक रुप से फाग गाते हैं।वहीं गांव की महिलाए रात्री में एक जगह एकत्रित हो कर बारी बारी से घरों के आगे फाग गाती हैं।जो महिलाऐं इस दल में नहीं आती उस महिला के घर के आगे जाकर महिला दल अश्लील फाग गाती हैं,जिसे सुनकर अन्दर बैठी महिला शर्माकर दल मे शामिल हो जाती हैं।महिलाओं द्घारा दो दल बनाकर लूर फाग गाती हैं।लूर में दोनों महिला दल आपस में गीतों के माध्यम से सवालजवाब करती हैं।लूर थार की परम्परा हैं।लुप्त हो रही लूर परम्परा सनावडा तथा सिवाना क्षैत्र के ग्रामीण अंचलों तक सिमट कर रह गई हेैं।फाग गीतों के साथ साथ डाण्डिया गेर नृत्य का भी आयोजन होता हैं।भारी भरकम घुंघरु पांवों में बांध कर हाथें में आठ आठ मीटर लम्बे डाण्डियेंल े कर ोल की थाप और थाली िी टंकार पर जब गेरिऐं नृत्य करते हैं तों लोक संगीत की छटा माटी की सौंधी में घुल जाती हैं। सनावडा में होली के दूसरे दिन बडे स्तर पर गेर नृत्यो का आयोजन होता हैं।जिसमें आसपास के गांवों के कई दल हिस्सा लेते हैं।ग्रामीण क्षैत्रों में होली का रंग जमने लगा हैं।शहरी क्षैत्र में भी गेरियों के दल इस बार नजर आ रहे हैं।जो शहर की गलियों में चंग की थाप पर फाग गाते नजर आते हैं।