जैसलमेर खो गया होली का धमाल
जैसलमेर प्रकृति के श्रृंगार के लिए हर ओर पुष्प मंजरी, वसंत की अंगड़ाई, पछुआ हवा की सरसराहट फाल्गुन का स्पष्ट संकेत दे रही है। प्रकृति ने अपना नियम तो नहीं बदला, लेकिन आधुनिकता की दौड़ में हमारी परंपराएं जरूर निढाल हो गई हैं।
फाल्गुन महीने में पहले शहरों से लेकर गांवों तक में फाग गीतों की धूम मचती थी, लेकिन अब फाग का राग शहरों में ही नहीं, गांवों की चौपालों से भी नदारद हो गया है। महाशिवरात्रि पर्व के गुजरने के बाद ही इस मौसम मेंचंग , ढोल, मंजीरे और करताल की ध्वनि के बीच फगुआ के गाने शुरू हो जाते थे। लेकिन अब ये नदारद है। यही नहीं, पहले जैसे लूर नृत्य फाग और सामूहिक गाने की भी परंपरा दम तोड़ रही है।
कई लोग इसका कारण समाज में बढ़ते बैर, भेदभाव, कटुता और वैमनस्य को मानते है तो कई लोग आधुनिक जीवनशैली और पश्चिमी संस्कृति का हावी हो जाना मुख्य कारण बताते है।जैसलमेर शहर में विभिन्न समाजो की गैर निकलती थी उससे पहले ठाकुरजी और लक्ष्मीनाथ बाबे की गैर निकलती थी .सामूहिक गैरो के प्रति सामान उत्साह युवा और बुजुर्गो में होता था .गैरियो की टोलियाँ जब अशुद्ध फाग गाती थी तो सुनाने वालो की भरी भीड़ उमड़ पड़ती थी .
जैसलमेर के प्रसिद्ध फाग गायक फकीरा खान बताते है कि प्रेम सौहार्द के पर्व होली में लोग दुश्मन के भी गले लग जाते थे। यह परंपरा समाज के दरके रिश्ते को जोड़ने में काफी सहायक होती थी। वह कहते है कि होली पहले एक दिन का त्योहार नहीं था, यह एक महीने तक चलने वाला त्योहार था, जिसमें बाहर रहने वाले लोग भी आकर शामिल होते थे।
पूरे गांव के लोग एक जगह चोगान पर एकत्रित हो जाते थे और फिर होली के हुड़दंग में मस्त हो जाते थे। हर गांव में एक महीने तक ढोल और मंजीरे बजते थे। लेकिन अब एक-दूसरे में सामंजस्य का अभाव, गायकों के कद्रदानों की कमी, एक -दूसरे के बीच बढ़ता वैमनस्य सहित कई कारणों से हमारी यह पुरानी परंपरा दम तोड़ रही है। सच तो यह है कि हमारी युवा पीढ़ी फगुआ गीतों की लय, सुर, ताल भी भूल गई है।
होली के एक माह पूर्व ही जोगीड़ा के लिए एक पुरुष का चयन कर उसे नर्तकी के वेश में सजाया जाता था। स्त्री वेशधारी वह पुरुष लोगों के बीच फाग गायकों के बोल पर नृत्य करता था। चौधरी कहते है कि फाग गीतों में पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका, देवर-भाभी के रिश्तों में हास्य-पुट तो दिए ही जाते है, धार्मिक गीतों का भी समावेश किया जाता है। लेकिन अब स्थिति बदल गई है। केवल होली के दिन ही कहीं-कहीं ढोल बजते है। फगुआ के बाद चैती गीत गाने की भी परंपरा थी।
फगुआ के मौके पर डेढ़ ताल, चौताल, बेलवरिया गीत गाए जाते थे, लेकिन अब गायन की यह परंपरा टूटती जा रही है। अब इनकी जगह फूहड़ गीतों पर डांस करते युवक नजर आते है। गांव के बुजुर्ग कहते है कि पहले गांवों की चौपालों से निकाले जाने गैरों में बुजुर्ग से लेकर युवा तक शामिल होते थे। इसके माध्यम से समाज के लोग एकता के सूत्र में बंधे होने के संकेत भी देते थे।हिली और धुलंडी के सामूहिक फागियो की सामूहिक गैर निकलती थी फाग गाते हुए महारावल के यंहा जम कर फाग गाते और उनसे होली की गोठ लेते .
बुजुर्ग कहते है कि युवा पीढ़ी तो इन परंपराओं से ही अनभिज्ञ है। जैसलमेर के बुजुर्ग एवं संगीत के जानकार मंगल सिंह भाटी कहते है कि कुछ दशक पहले तक रईसों और जमींदारों के यहां होली के मौके पर ध्रुपद-धमार की महफिलें जमती थीं। ध्रुपद शैली में गाई जाने वाली संगीत विद्या 'धमार' वस्तुत: होरी ही है।
वह कहते है कि अब न लोगों के पास समय है और न ही अपनी परंपराओं को जीवित रखने की ललक। धमार का अर्थ ही होता है, जो फड़कता हुआ, प्रेरित करता हुआ चले। अब न ध्रुपद-धमार की महफिल ही जमती है और न ही फगुआ की मस्ती ही दिखाई देती है।भाटी कहते है कि पूर्व में जहां होली पर पूरे गांव के लोग एकत्र होकर पर्व मनाया करते थे, लेकिन अब यह पर्व अन्य पर्वो की तरह परिवारों तक सीमित होकर कर रह गया है।
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