चंग है होली की शान,नहीं रहे अब कद्रदान
जैसलमेर। स्वर्णनगरी में होली पर्व के आगाज के साथ ही गेरियाें व होली के रसियाें का उन्माद झलकना शुरू हो जाता है, लेकिन इस बार न तो चंग की थाप पर झूमने वाले दीवाने दिखाई दे रहे हैं और न ही वाद्य यंत्र चंग के कद्रदान। ऎसे में चंग बनाने वाले कारीगर सिमटती परम्पराओं व घटती कद्रदानाें की संख्या से काफी मायूस है। हालांकि शहर के मुख्य बाजाराें व गलियाें में होली का रंग जमना शुरू हो गया है, फिर भी चंग बजाते व होली गीताें को मस्ताना अंदाज में गाते व मचलते लोग इक्का -दुक्का जगह ही दिखाई दे रहे हैं।
ऎसे में होली का खास वाद्य माने जाने वाले चंग को बनाने वाले हाथ भी थम से गए है। चंग बनाने वाले कारीगराें को वो दिन भी याद है जब वे अपने पिता के साथ चंग बनाते थे। उस दौरान चंग खरीदने सैकड़ाें लोग उसके पास प्रतिदिन आते थे। समय के करवट बदलने के साथ लोगाें की जीवन शैली बदली, मानवीय मूल्याें में कमी आई व त्योहाराें के प्रति रूझान घटा। ऎसे में चंग की उपेक्षा से इनका निर्माण बहुत कम रह गया है।
यही कारण है कि इन दिनाें वे चंग बनाने का कार्य परम्पराओं को जीवित रखने व मांग के आधार पर ही करते हैं। पुरखाें से मिले हुनर को ईमानदारी व व्यवसायिक रूप में लेने वाले इन कारीगराें को भय है कि कहीं यह कला उनके जीवन काल में ही सिमट न जाए।
यूं बनता है चंग
मृत नर भेड़ के चमड़े को सूखाकर व धूप में कठोर होने के लिए छोड़ दिया जाता है। इसके बाद लकड़ी के वृताकार वलय में इस खाल को चढ़ा कर चंग का निर्माण किया जाता है। पूर्ण निर्माण के बाद इस पर हल्दी व इच्छानुसार व अन्य खुशबूदार रसायनाें का लेप किया जाता है।
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