गुजरात का बादशाह महमूद शाह अपने अहमदाबाद के किले में मारवाड़ से आई जवाहर पातुर की बेटी कंवल को समझा रहा था , " मेरी बात मान ले,मेरी रखैल बन जा | मैं तुझे दो लाख रूपये सालाना की जागीर दे दूंगा और तेरे सामने पड़े ये हीरे-जवाहरात भी तेरे | जिद मत कर मेरा कहना मान और मेरी रखैल बनना स्वीकार करले | कह कर बादशाह ने एक हीरों का हार कंवल के गले में डालने की कोशिश की , पर ये क्या ? इतने शक्तिशाली बादशाह की बात ठुकराते हुए कंवल ने हीरों का हार तोड़कर फैंक दिया |
उसकी माँ जवाहर पातुर ने बेटी की हरकत पर बादशाह से माफ़ी मांगते हुए बेटी कंवल को समझाने का थोडा समय माँगा | माँ ने कंवल को बहुत समझाया कि बादशाह की बात मान ले और उसकी रखैल बन जा तू पुरे गुजरात पर राज करेगी | पर कंवल ने माँ से साफ़ कह दिया कि वह "केहर" को प्यार करती है और उसकी हो चुकी है इसलिए गुजरात तो क्या,अगर कोई दुनियां का बादशाह भी आ जाये तो उसके किस काम का |
कँवर केहरसिंह चौहान महमूद शाह के अधीन एक छोटीसी जागीर "बारिया" का जागीरदार था और कंवल उसे प्यार करती थी | कंवल की माँ ने कंवल को खूब समझाया कि तू एक वेश्या की बेटी है एक पातुर है ,तुने किसी एक की चूड़ी नहीं पहन रखी | पर कंवल ने साफ कह दिया कि "केहर जैसे शेर के गले में बांह डालने वाली उस गीदड़ महमूद के गले कैसे लग सकती है |"
पास ही के कमरे में उपस्थित महमूद के कानों में जब ये शब्द पड़े तो वह गुस्से से भर गया उसने कंवल को महल में कैद करने के आदेश देने के साथ ही कंवल से कहा " अब तू देखना तेरे शेर को तेरे आगे ही पिंजरे में मैं कैसे कैद करके रखूँगा |
और बादशाह में अपने सिपहसालारों को बुला एलान कर दिया कि केहर को कैसे भी कैद करने वाले को केहर की जागीर बारिया जब्त कर दे दी जाएगी पर केहर जैसे राजपूत योद्धा से कौन टक्कर ले ,दरबार में उपस्थित उसके सामन्तो में से एक जलाल आगे आया उसके पास छोटी सी जागीर थी सो लालच में उसने यह बीड़ा उठा ही लिया |
योजना के अनुसार साबरमती नदी के तट पर शीतला माता के मेले के दिन महमूद शाह ने जल क्रीडा आयोजित की, जलाल एक तैराक योद्धा आरबखां को जल क्रीड़ा के समय केहर को मारने हेतु ले आया , जल क्रीड़ा शुरू हुई और आरबखां केहर पर पानी में ही टूट पड़ा पर केहर भी तैराकी व जल युद्ध में कम न था सो उसने आरबखां को इस युद्ध में मार डाला | केहर द्वारा आरबखां को मारने के बाद मुहमदशाह ने बात सँभालने हेतु केहर को शाबासी के साथ मोतियों की माला पहना शिवगढ़ की जागीर भी दी | बादशाह द्वारा आरबखां को मौत के घाट उतारने के बावजूद केहर को सम्मानित करने की बात केहर के सहयोगी सांगजी व खेतजी के गले नहीं उतरी वे समझ गए कि बादशाह कोई षड्यंत्र रच रहा है उन्होंने केहर को आगाह भी कर दिया,पर केहर को बादशाह ने यह कह कर रोक लिया कि दस दिन बाद फाग खेलेंगे और फाग खेलने के बहाने उसने केहर को महल के जनाना चौक में बुला लिया और षड्यंत्र पूर्वक उसे कैद कर एक पिंजरे में बंद कर कंवल के महल के पास रखवा दिया ताकि वह अपने प्रेमी की दयनीय हालत देख दुखी होती रहे |
कंवल रोज पिंजरे में कैद केहर को खाना खिलाने खुद आती और मौका देख केहर से निकलने के बारे में चर्चा करती, एक दिन कंवल ने एक कटारी व एक छोटी आरी केहर को लाकर दी व उसी समय केहर की दासी टुन्ना ने वहां सुरक्षा के लिए तैनात फालूदा खां को जहर मिली भांग पिला बेहोश कर दिया इस बीच मौका पाकर केहर पिंजरे के दरवाजे को काट आजाद हो गया और किसी तरह महल से बाहर निकल अपने साथियों सांगजी व खेतजी के साथ अहमदाबाद से बाहर निकल आया |
उसकी जागीर बारिया तो बादशाह ने जब्त कर जलाल को दे दी थी सो केहर मेवाड़ के एक सीमावर्ती गांव बठूण में आ गया और गांव के मुखिया गंगो भील से मिलकर आपबीती सुनाई | गंगो भील ने अपने अधीन साठ गांवों के भीलों का पूरा समर्थन केहर को देने का वायदा किया |
अब केहर बठूण के भीलों की सहायता से गुजरात के शाही थानों को लुटने लगा, सारा इलाका केहर के नाम से कांपने लगा बादशाह ने कई योद्धा भेजे केहर को मारने के लिए पर हर मुटभेड में बादशाह के योद्धा ही मारे जाते, महमूदशाह का कोई सामंत केहर के आगे आने की हिम्मत नहीं करता सो वह बार बार जलाल को ख़त लिखता कि केहर को ख़त्म करे पर एक दिन बादशाह को समाचार मिला कि केहर की तलवार के एक बार से जलाल के टुकड़े टुकड़े हो गए |
कंवल केहर के ज्यों ज्यों किस्से सुनती,उतनी ही खुश होती और उसे खुश देख बादशाह को उतना ही गुस्सा आता पर वह क्या करे बेचारा बेबस था | केहर को पकड़ने या मारने की हिम्मत उसके किसी सामंत व योद्धा में नहीं थी |
कंवल महमूद शाह के किले में तो रहती पर उसका मन हमेशा केहर के साथ होता वह महमूद शाह से बात तो करती पर उपरी मन से | केहर की वीरता का कोई किस्सा सुनती तो उसका चेहरा चमक उठता और वह दिन रात किले से भागकर केहर से जा मिलने के मनसूबे बनाती |
छगना नाई की बहन कंवल की नौकरानी थी एक दिन कंवल ने एक पत्र लिख छगना नाई के हाथ केहर को भिजवाया | केहर ने कंवल का सन्देश पढ़ा - " मारवाड़ के व्यापारी मुंधड़ा की बारात अजमेर से अहमदाबाद आ रही है रास्ते में आप उसे लूटना मत और उसी बारात के साथ वेष बदलकर अहमदाबाद आ जाना | पहुँचने पर मैं दूसरा सन्देश आपको भेजूंगी | ईश्वर ने चाहा तो आपका और मेरा मनोरथ सफल होगा |"
अजमेर अहमदाबाद मार्ग पर मुंधड़ा की बारात में केहर व उसके चार साथी बारात के साथ हो लिए केहर जोगी के वेष में था उसके चारों राजपूत साथी हथियारों से लैस थे | मुंधड़ा भी खुश था कि इन चार हथियारों लैस बांके राजपूतों को देख रास्ते में बारात को लुटने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ेगी |
केहर को चिट्ठी लिखने के बाद कंवल ने बादशाह के प्रति अपना रवैया बदल लिया वह उससे कभी मजाक करती कभी कभार तो केहर की बुराई भी कर देती पर महमूद शाह को अपना शरीर छूने ना देती | उधर मुंधड़ा जी की बारात अहमदबाद पहुँच चुकी थी कंवल ने अपनी दासी को बारात देखने के बहाने भेज केहर को सारी योजना समझा दी |
बारात पहुँचने से पहले ही कंवल ने महमूद शाह से कहा - "हजरत केहर का तो कोई अता-पता नहीं आखिर आपसे कहाँ बच पाया होगा, उसका इंतजार करते करते मैं भी थक गई हूँ अब तो मेरी जगह आपके चरणों में ही है | लेकिन हुजुर मैं आपकी रखैल,आपकी बांदी बनकर नहीं रहूंगी अगर आप मुझे वाकई चाहते है तो आपको मेरे साथ विवाह करना होगा और विवाह के बारे में मेरी कुछ शर्तें है वह आपको माननी होगी |"
१-शादी मुंधड़ा जी की बारात के दिन ही हों |
२-विवाह हिन्दू रितिरिवाजानुसार हो | विनायक बैठे,मंगल गीत गाये जाए ,सारी रात नौबत बाजे |
३- शादी के दिन मेरा डेरा बुलंद गुम्बज में हों |
४- आप बुलंद गुम्बज पधारें तो आतिशबाजी चले,तोपें छूटें.ढोल बजें |
५- मेरी शादी देखने वालों के लिए किसी तरह की रोक टोक ना हो और मेरी मां जवाहर पातुर पालकी में बैठकर बुलन्द गुम्बज के अन्दर आ सके |
उस खुबसूरत कंवल को पाने हेतु उस कामुक बादशाह ने उसकी सारी शर्तें स्वीकार कर ली और मुंधड़ा जी की बारात के दिन अपनी व कंवल की शादी का दिन तय कर दिया |
शादी के दिन साँझ ढले कंवल की दासी टुन्ना पालकी ले जवाहर पातुर को लेने उसके डेरे पर पहुंची वहां योजनानुसार केहर शस्त्रों से सुसज्जित हो पहले ही तैयार बैठा था टुन्ना ने पालकी के कहारों को किसी बहाने इधर उधर कर दिया और उसमे चुपके से केहर को बिठा पालकी के परदे लगा दिए | पालकी के बुलन्द गुम्बज पहुँचने पर सारे मर्दों को वहां से हटवाकर कंवल ने केहर को वहां छिपा दिया |
थोड़ी ही देर में महमूद शाह हाथी पर बैठ सजधज कर बुलंद गुम्बज पहुंचा, कंवल की दासी टुन्ना चांदी का कलश ले बधाई को आई और कंवल ने आगे बढ़कर बादशाह को मुजरा किया व आदाब बजाई |
महमूद शाह के बुलंद गुम्बज में प्रवेश करते ही बाहर आतिशबाजी होने लगी,पटाखे छूटने लगे,तोपों की आवाज गूंजने लगी और ढोल पर जोरदार थाप की गडगडाहट से बुलंद गुम्बज थरथराने लगी | तभी छिपा हुआ केहर बाहर निकल आया और उसने बादशाह को ललकारा -" आज देखतें है शेर कौन है और गीदड़ कौन ? तुने मेरे साथ बहुत छल कपट किया सो आज तुझे मारकर मैं अपना वचन पूरा करूँगा|"
और दोनों योद्धा भीड़ गए,दोनों में भयंकर युद्ध हुआ | खड्ग,गुरंज,कटार,तलवार सभी हथियारों का खुलकर प्रयोग हुआ और फिर दोनों मल्ल-युद्ध करने लगे | उनके पैरों के धमाकों से बुलंद गुम्बज थरथराने लगा पर बाहर हो रही आतिशबाजी के चलते अन्दर क्या हो रहा है किसी को पता न चल सका | चूँकि केहर मल्ल युद्ध में भी प्रवीण था इसलिए महमूद शाह थोड़ी देर में ही केहर के घुटनों के निचे था,केहर ने महमूद शाह को अपने मजबूत घुटनों से कुचल दिया बादशाह के मुंह से खून का फव्वारा छुट पड़ा और कुछ ही देर में उसकी जीवन लीला समाप्त हो गयी |
दासी टुन्ना ने केहर व कंवल को पालकी में बैठा पर्दा लगाया और कहारों और सैनिकों को हुक्म दिया कि - जवाहरबाई की पालकी तैयार है उसे उनके डेरे पर पहुंचा दो और बादशाह आज रात यही बुलंद गुम्बज में कंवल के साथ विराजेंगे |
कहार और सैनिक पालकी ले जवाहरबाई के डेरे पहुंचे वहां केहर का साथी सांगजी घोड़ों पर जीन कस कर तैयार था | केहर ने कंवल को व सांगजी ने टुन्ना को अपने साथ घोड़ों पर बैठा एड लगाईं और बठूण गांव का रास्ता लिया | जवाहरबाई को छोड़ने आये कहार और शाही सिपाही एक दुसरे का मुंह ताकते रह गए |
नोट : यह मूल कहानी राजस्थानी भाषा की मूर्धन्य साहित्यकार पद्मश्री डा.लक्ष्मीकुमारी जी चुण्डावत की लिखी हुई है जिसे यहाँ छोटे रूप में प्रस्तुत किया गया|
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