संक्षिप्त रामायण कथा...........सुन्दरकाण्ड....
सम्पाति की बात सुनकर हनुमान और अंगद आदि वानरों ने समुद्र की ओर देखा। फिर वे कहने लगे- “कौन समुद्र को लाँघकर समस्त वानरों को जीवन-दान देगा?” वानरों की जीवन-रक्षा और श्रीरामचन्द्र जी के कार्य की प्रकृष्ट सिद्धि के लिये पवन कुमार हनुमान जी सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघ गये। लाँघते समय अवलम्बन देने के लिये समुद्र से मैनाक पर्वत उठा। हनुमान जी ने दृष्टिमात्र से उसका सत्कार किया। फिर (छायाग्राहिणी) सिंहिका ने सिर उठाया। (वह उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती थी, इसलिये) हनुमानजी ने उसे मार गिराया।
समुद्र के पार जाकर उन्होंने लंकापुरी देखी। राक्षसों के घरों में खोज की; रावण के अन्त:पुर में तथा कुम्भकर्ण, विभीषण, इन्द्रजित तथा अन्य राक्षसों के गृहों में जा-जाकर तलाश की; मद्यपान के स्थानों आदि में भी चक्कर लगाया; किंतु कहीं भी सीता उनकी दृष्टि में नहीं पड़ीं। अब वे बड़ी चिन्ता में पड़े। अन्त में जब अशोक वाटिका की ओर गये तो वहाँ शिंशपा-वृक्ष के नीचे सीता जी उन्हें बैठी दिखायी दीं। वहाँ राक्षसियाँ उनकी रखवाली कर रही थीं। हनुमान जी ने शिंशपा-वृक्ष पर चढ़कर देखा।
रावण सीता जी से कह रहा था - “तू मेरी स्त्री हो जा”; किंतु वे स्पष्ट शब्दों में 'ना' कर रही थीं। वहाँ बैठी हुई राक्षसियाँ भी यही कहती थीं- “तू रावण की स्त्री हो जा।”
जब रावण चला गया तो हनुमान जी ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया- “अयोध्या में दशरथ नाम वाले एक राजा थे। उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण वनवास के लिये गये। वे दोनों भाई श्रेष्ठ पुरुष हैं। उनमें श्रीरामचन्द्र जी की पत्नी जनक कुमारी सीता तुम्हीं हो। रावण तुम्हें बलपूर्वक हर ले आया है। श्रीरामचन्द्र जी इस समय वानर राज सुग्रीव के मित्र हो गये हैं। उन्होंने तुम्हारी खोज करने के लिये ही मुझे भेजा है। पहचान के लिये गूढ़ संदेश के साथ श्रीरामचन्द्र जी ने अँगूठी दी है। उनकी दी हुई यह अँगूठी ले लो।”
सीता जी ने अँगूठी ले ली। उन्होंने वृक्ष पर बैठे हुए हनुमान जी को देखा। फिर हनुमान जी वृक्ष से उतर कर उनके सामने आ बैठे, तब सीता ने उनसे कहा- “यदि श्रीरघुनाथ जी जीवित हैं तो वे मुझे यहाँ से ले क्यों नहीं जाते?”
इस प्रकार शंका करती हुई सीता जी से हनुमान जी ने इस प्रकार कहा- “देवि सीते! तुम यहाँ हो, यह बात श्रीरामचन्द्र जी नहीं जानते। मुझसे यह समाचार जान लेने के पश्चात सेना सहित राक्षस रावण को मार कर वे तुम्हें अवश्य ले जायँगे। तुम चिन्ता न करो। मुझे कोई अपनी पहचान दो।”
तब सीता जी ने हनुमान जी को अपनी चूड़ामणि उतार कर दे दी और कहा- “भैया! अब ऐसा उपाय करो, जिससे श्रीरघुनाथ जी शीघ्र आकर मुझे यहाँ से ले चलें। उन्हें कौए की आँख नष्ट कर देनेवाली घटना का स्मरण दिलाना; आज यहीं रहो कल सबेरे चले जाना; तुम मेरा शोक दूर करने वाले हो। तुम्हारे आने से मेरा दु:ख बहुत कम हो गया है।”
चूड़ामणि और काक वाली कथा को पहचान के रूप में लेकर हनुमान जी ने कहा- “कल्याणि! तुम्हारे पतिदेव अब तुम्हें शीघ्र ही ले जायेँगे। अथवा यदि तुम्हें चलने की जल्दी हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ। मैं आज ही तुम्हें श्रीराम और सुग्रीव के दर्शन कराऊँगा।” सीता बोलीं- “नहीं, श्रीरघुनाथ जी ही आकर मुझे ले जायेँ।”
तदनन्तर हनुमान जी ने रावण से मिलने की युक्ति सोच निकाली। उन्होंने रक्षकों को मार कर उस वाटिका को उजाड़ डाला। फिर दाँत और नख आदि आयुधों से वहाँ आये हुए रावण के समस्त सेवकों को मारकर सात मन्त्रि कुमारों तथा रावण पुत्र अक्षय कुमार को भी यमलोक पहुँचा दिया। तत्पश्चात इन्द्रजीत ने आकर उन्हें नागपाश से बाँध लिया और उन वानर वीर को रावण के पास ले जाकर उससे मिलाया। उस समय रावण ने पूछा- “तू कौन है?” तब हनुमान जी ने रावण को उत्तर दिया- “मैं श्रीरामचन्द्र जी का दूत हूँ। तुम श्री सीताजी को श्री रघुनाथजी की सेवा में लौटा दो; अन्यथा लंका निवासी समस्त राक्षसों के साथ तुम्हें श्रीराम के बाणों से घायल होकर निश्चय ही मरना पड़ेगा।”
यह सुनकर रावण हनुमान जी को मारने के लिये उद्यत हो गया; किंतु विभीषण ने उसे रोक दिया। तब रावण ने उनकी पूँछ में आग लगा दी। पूँछ जल उठी। यह देख पवन पुत्र हनुमान जी ने राक्षसों की पूरी लंका को जला डाला और सीता जी का पुन: दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया। फिर समुद्र के पार आकर अंगद आदि से कहा- “मैंने सीता जी के दर्शन कर लिए हैँ।”
तत्पश्चात् अंगद आदि के साथ सुग्रीव के मधुवन में आकर, दधिमुख आदि रक्षकों को परास्त करके, मधुपान करने के अनन्तर वे सब लोग श्रीरामचन्द्र जी के पास आये और बोले- “सीताजी के दर्शन हो गये।” तब श्रीरामचन्द्र जी अत्यन्त प्रसन्न होकर हनुमान जी से बोले- “कपिवर! तुम्हें सीता के दर्शन कैसे हुए? उसने मेरे लिये क्या संदेश दिया है? मैं विरह की आग में जल रहा हूँ। तुम सीता की अमृतमयी कथा सुनाकर मेरा संताप शान्त करो।”
यह सुनकर हनुमान जी ने रघुनाथ जी से कहा- “भगवान्! मैं समुद्र लाँघकर लंका में गया था! वहाँ सीता जी के दर्शन करके, लंकापुरी को जलाकर यहाँ आ रहा हूँ। यह सीताजी की दी हुई चूड़ामणि लीजिये। आप शोक न करें; रावण का वध करने के पश्चात निश्चय ही आपको सीता जी की प्राप्ति होगी।”
श्रीरामचन्द्र जी उस मणि को हाथ में ले, विरह से व्याकुल होकर रोने लगे और बोले- “इस मणि को देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो मैंने सीता को ही देख लिया। अब मुझे सीता के पास ले चलो; मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता।” उस समय सुग्रीव आदि ने श्रीरामचन्द्र जी को समझा-बुझाकर शान्त किया।
उसके बाद श्रीरघुनाथ जी समुद्र के तट पर गये। वहाँ उनसे विभीषण आकर मिले। विभीषण के भाई दुरात्मा रावण ने उनका तिरस्कार किया था। विभीषण ने इतना ही कहा था कि “भैया! आप सीता को श्रीरामचन्द्र जी की सेवा में समर्पित कर दीजिये।” इसी अपराध के कारण उसने इन्हें ठुकरा दिया था। अब वे असहाय थे। श्रीरामचन्द्र जी ने विभीषण को अपना मित्र बनाया और लंका के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया।
इसके बाद श्रीराम ने समुद्र से लंका जाने के लिये रास्ता माँगा। जब उसने मार्ग नहीं दिया तो उन्होंने बाणों से उसे बींध डाला। अब समुद्र भयभीत होकर श्रीरामचन्द्र जी के पास आकर बोला- “भगवन्! नल के द्वारा मेरे ऊपर पुल बँधाकर आप लंका में जाइये। पूर्वकाल में आप ही ने मुझे गहरा बनाया था।” यह सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने नल के द्वारा वृक्ष और शिलाखण्डों से एक पुल बँधवाया और उसी से वे वानरों सहित समुद्र के पार गये। वहाँ सुवेल पर्वत पर पड़ाव डाल कर वहीं से उन्होंने लंका पुरी का निरीक्षण किया।
सम्पाति की बात सुनकर हनुमान और अंगद आदि वानरों ने समुद्र की ओर देखा। फिर वे कहने लगे- “कौन समुद्र को लाँघकर समस्त वानरों को जीवन-दान देगा?” वानरों की जीवन-रक्षा और श्रीरामचन्द्र जी के कार्य की प्रकृष्ट सिद्धि के लिये पवन कुमार हनुमान जी सौ योजन विस्तृत समुद्र को लाँघ गये। लाँघते समय अवलम्बन देने के लिये समुद्र से मैनाक पर्वत उठा। हनुमान जी ने दृष्टिमात्र से उसका सत्कार किया। फिर (छायाग्राहिणी) सिंहिका ने सिर उठाया। (वह उन्हें अपना ग्रास बनाना चाहती थी, इसलिये) हनुमानजी ने उसे मार गिराया।
समुद्र के पार जाकर उन्होंने लंकापुरी देखी। राक्षसों के घरों में खोज की; रावण के अन्त:पुर में तथा कुम्भकर्ण, विभीषण, इन्द्रजित तथा अन्य राक्षसों के गृहों में जा-जाकर तलाश की; मद्यपान के स्थानों आदि में भी चक्कर लगाया; किंतु कहीं भी सीता उनकी दृष्टि में नहीं पड़ीं। अब वे बड़ी चिन्ता में पड़े। अन्त में जब अशोक वाटिका की ओर गये तो वहाँ शिंशपा-वृक्ष के नीचे सीता जी उन्हें बैठी दिखायी दीं। वहाँ राक्षसियाँ उनकी रखवाली कर रही थीं। हनुमान जी ने शिंशपा-वृक्ष पर चढ़कर देखा।
रावण सीता जी से कह रहा था - “तू मेरी स्त्री हो जा”; किंतु वे स्पष्ट शब्दों में 'ना' कर रही थीं। वहाँ बैठी हुई राक्षसियाँ भी यही कहती थीं- “तू रावण की स्त्री हो जा।”
जब रावण चला गया तो हनुमान जी ने इस प्रकार कहना आरम्भ किया- “अयोध्या में दशरथ नाम वाले एक राजा थे। उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण वनवास के लिये गये। वे दोनों भाई श्रेष्ठ पुरुष हैं। उनमें श्रीरामचन्द्र जी की पत्नी जनक कुमारी सीता तुम्हीं हो। रावण तुम्हें बलपूर्वक हर ले आया है। श्रीरामचन्द्र जी इस समय वानर राज सुग्रीव के मित्र हो गये हैं। उन्होंने तुम्हारी खोज करने के लिये ही मुझे भेजा है। पहचान के लिये गूढ़ संदेश के साथ श्रीरामचन्द्र जी ने अँगूठी दी है। उनकी दी हुई यह अँगूठी ले लो।”
सीता जी ने अँगूठी ले ली। उन्होंने वृक्ष पर बैठे हुए हनुमान जी को देखा। फिर हनुमान जी वृक्ष से उतर कर उनके सामने आ बैठे, तब सीता ने उनसे कहा- “यदि श्रीरघुनाथ जी जीवित हैं तो वे मुझे यहाँ से ले क्यों नहीं जाते?”
इस प्रकार शंका करती हुई सीता जी से हनुमान जी ने इस प्रकार कहा- “देवि सीते! तुम यहाँ हो, यह बात श्रीरामचन्द्र जी नहीं जानते। मुझसे यह समाचार जान लेने के पश्चात सेना सहित राक्षस रावण को मार कर वे तुम्हें अवश्य ले जायँगे। तुम चिन्ता न करो। मुझे कोई अपनी पहचान दो।”
तब सीता जी ने हनुमान जी को अपनी चूड़ामणि उतार कर दे दी और कहा- “भैया! अब ऐसा उपाय करो, जिससे श्रीरघुनाथ जी शीघ्र आकर मुझे यहाँ से ले चलें। उन्हें कौए की आँख नष्ट कर देनेवाली घटना का स्मरण दिलाना; आज यहीं रहो कल सबेरे चले जाना; तुम मेरा शोक दूर करने वाले हो। तुम्हारे आने से मेरा दु:ख बहुत कम हो गया है।”
चूड़ामणि और काक वाली कथा को पहचान के रूप में लेकर हनुमान जी ने कहा- “कल्याणि! तुम्हारे पतिदेव अब तुम्हें शीघ्र ही ले जायेँगे। अथवा यदि तुम्हें चलने की जल्दी हो, तो मेरी पीठ पर बैठ जाओ। मैं आज ही तुम्हें श्रीराम और सुग्रीव के दर्शन कराऊँगा।” सीता बोलीं- “नहीं, श्रीरघुनाथ जी ही आकर मुझे ले जायेँ।”
तदनन्तर हनुमान जी ने रावण से मिलने की युक्ति सोच निकाली। उन्होंने रक्षकों को मार कर उस वाटिका को उजाड़ डाला। फिर दाँत और नख आदि आयुधों से वहाँ आये हुए रावण के समस्त सेवकों को मारकर सात मन्त्रि कुमारों तथा रावण पुत्र अक्षय कुमार को भी यमलोक पहुँचा दिया। तत्पश्चात इन्द्रजीत ने आकर उन्हें नागपाश से बाँध लिया और उन वानर वीर को रावण के पास ले जाकर उससे मिलाया। उस समय रावण ने पूछा- “तू कौन है?” तब हनुमान जी ने रावण को उत्तर दिया- “मैं श्रीरामचन्द्र जी का दूत हूँ। तुम श्री सीताजी को श्री रघुनाथजी की सेवा में लौटा दो; अन्यथा लंका निवासी समस्त राक्षसों के साथ तुम्हें श्रीराम के बाणों से घायल होकर निश्चय ही मरना पड़ेगा।”
यह सुनकर रावण हनुमान जी को मारने के लिये उद्यत हो गया; किंतु विभीषण ने उसे रोक दिया। तब रावण ने उनकी पूँछ में आग लगा दी। पूँछ जल उठी। यह देख पवन पुत्र हनुमान जी ने राक्षसों की पूरी लंका को जला डाला और सीता जी का पुन: दर्शन करके उन्हें प्रणाम किया। फिर समुद्र के पार आकर अंगद आदि से कहा- “मैंने सीता जी के दर्शन कर लिए हैँ।”
तत्पश्चात् अंगद आदि के साथ सुग्रीव के मधुवन में आकर, दधिमुख आदि रक्षकों को परास्त करके, मधुपान करने के अनन्तर वे सब लोग श्रीरामचन्द्र जी के पास आये और बोले- “सीताजी के दर्शन हो गये।” तब श्रीरामचन्द्र जी अत्यन्त प्रसन्न होकर हनुमान जी से बोले- “कपिवर! तुम्हें सीता के दर्शन कैसे हुए? उसने मेरे लिये क्या संदेश दिया है? मैं विरह की आग में जल रहा हूँ। तुम सीता की अमृतमयी कथा सुनाकर मेरा संताप शान्त करो।”
यह सुनकर हनुमान जी ने रघुनाथ जी से कहा- “भगवान्! मैं समुद्र लाँघकर लंका में गया था! वहाँ सीता जी के दर्शन करके, लंकापुरी को जलाकर यहाँ आ रहा हूँ। यह सीताजी की दी हुई चूड़ामणि लीजिये। आप शोक न करें; रावण का वध करने के पश्चात निश्चय ही आपको सीता जी की प्राप्ति होगी।”
श्रीरामचन्द्र जी उस मणि को हाथ में ले, विरह से व्याकुल होकर रोने लगे और बोले- “इस मणि को देखकर ऐसा जान पड़ता है, मानो मैंने सीता को ही देख लिया। अब मुझे सीता के पास ले चलो; मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकता।” उस समय सुग्रीव आदि ने श्रीरामचन्द्र जी को समझा-बुझाकर शान्त किया।
उसके बाद श्रीरघुनाथ जी समुद्र के तट पर गये। वहाँ उनसे विभीषण आकर मिले। विभीषण के भाई दुरात्मा रावण ने उनका तिरस्कार किया था। विभीषण ने इतना ही कहा था कि “भैया! आप सीता को श्रीरामचन्द्र जी की सेवा में समर्पित कर दीजिये।” इसी अपराध के कारण उसने इन्हें ठुकरा दिया था। अब वे असहाय थे। श्रीरामचन्द्र जी ने विभीषण को अपना मित्र बनाया और लंका के राजपद पर अभिषिक्त कर दिया।
इसके बाद श्रीराम ने समुद्र से लंका जाने के लिये रास्ता माँगा। जब उसने मार्ग नहीं दिया तो उन्होंने बाणों से उसे बींध डाला। अब समुद्र भयभीत होकर श्रीरामचन्द्र जी के पास आकर बोला- “भगवन्! नल के द्वारा मेरे ऊपर पुल बँधाकर आप लंका में जाइये। पूर्वकाल में आप ही ने मुझे गहरा बनाया था।” यह सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने नल के द्वारा वृक्ष और शिलाखण्डों से एक पुल बँधवाया और उसी से वे वानरों सहित समुद्र के पार गये। वहाँ सुवेल पर्वत पर पड़ाव डाल कर वहीं से उन्होंने लंका पुरी का निरीक्षण किया।