वीर भूमि मेवाड़ जौहर: चित्तौड़गढ़ (मेवाड़)
चित्तौड़गढ़ राजस्थान राज्य का प्रमुख शहर है । वीर भूमि मेवाड़ का यह प्रसिद्ध नगर रहा है, जो भारत के इतिहास में सिसोदिया राजपूतों की वीरगाथाओं के लिए अमर है । प्राचीन नगर चित्तौड़गढ़ रेल्वे जंक्शन से चार कि.मी. दूर है । भूमितल से 508 फुट एवं समुद्रतल से 1338 फुट की ऊँचाई पर एक विशाल ह्वेल आकार का दुर्ग इस नगर के गौरव का प्रमुख केन्द्र है । दुर्ग के भीतर ही चित्तौड़गढ़ का प्राचीन नगर बसा है। जिसकी लम्बाई साढ़े तीन मील और चौड़ा है एक मील है । किले के परकोटे की परिधि 12 मील है । कहा जाता है कि चित्तौड़गढ़ से 8 मील उत्तर की ओर नगरी नामक प्राचीन बस्ती है जो महाभारतकालीन माध्यमिका है । चित्तौड़गढ़ का निर्माण इसी के खंडहरों से प्राप्त सामग्री से किया गया था ।
चित्तौड़गढ, वह वीरभूमि है, जिसने समूचे भारत के सम्मुख अपूर्व शौर्य, विराट बलिदान और स्वातंत्र्य प्रेम का अनूठा उदाहरण प्रस्तुत किया । बेड़च की लहरों में यहाँ के असंख्य राजपूत वीरों ने अपने देश तथा धर्म की रक्षा के लिए असिधारा रूपी तीर्थ में स्नान किया । वहीं राजपूत वीरांगनाओं ने कई अवसर पर अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने बाल-बच्चों सहित जौहर की अग्नि में प्रवेश कर आदर्श उपस्थित किए । स्वाभिमानी देशप्रेमी योद्धाओं से भरी पड़ी यह भूमि पूरे भारत वर्ष के लिए प्रेरणा स्रोत बनकर देश प्रेम का ज्वार उत्पन्न करने में अपनी भूमिका आज भी अदा करती है । वीरांगनाओं की स्मृति स्वरूप खड़े दुर्ग के ये स्मारक अपनी मूक भाषा में अतीत की गौरव गाथाएँ सुनाते दिखाई पड़ते हैं ।
प्रथम जौहर:- रानी पद्मिनी ने चित्तौड़गढ़ में दुर्ग स्थित विजय स्तम्भ व गौ-मुख कुण्ड़ के पास विक्रम संवत् 1360 भादवा शुक्ला तेरस 25 अगस्त 1303 में सौलह हजार क्षत्राणियों के साथ अग्नि प्रवेश किया।
द्वितीय जौहर:- महाराणा संग्रामसिंह (महाराणा सांगा) की पत्नी राजमाता महाराणा विक्रमादित्य की माता कर्णावती का विक्रम संवत 1592 में चैत्र शुक्ल चतुर्थी सोमवार, 8 मार्च 1535 को 23,000 क्षत्राणियों के साथ अग्नि प्रवेश किया। यह जौहर चित्तौड़गढ़ में दुर्ग स्थित विजय स्तम्भ व गौ-मुख कुण्ड़ के पास हुआ।
तृतीय जौहर:- महाराणा उदयसिंह के समय जयमल मेड़तिया राठौड़ फत्ताजी के नेतृत्व में चार माह के युद्ध के बाद सांवतों की स्त्रियों ने फत्ताजी की पत्नी ठकुराणी
फूलकंवर जी के नेतृत्व में विक्रम संवत 1624 चैत्र कृष्णा एकादशी सोमवार 13 फरवरी सन् 1568 को सात हजार क्षत्राणियों के साथ चित्तौड़गढ़ में दुर्ग स्थित विजय स्तम्भ व गौ-मुख कुण्ड़ के पास अपनी-अपनी हवेलियों में अग्नि प्रवेश किया। फत्ताजी वंशज मुख्य ठिकाना आमेर आदि ठिकाने में जयमल जी चित्तौड़गढ़ के सेनानायक अथवा किले के दरवाजों के चाबीदार थे। इनको महाराणा संग्रामसिंह जी ने बदनोर, माही गांव दिये। जयमल जी को उनके चाचा रतनसिंह जी की पुत्री मीराबाई का विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ कुंवर भोजराज के साथ हुआ। मीराबाई पूर्ण रूप से भगवान कृष्ण की सेविका थी। मीराबाई का जन्म कुड़की बाजोली में हुआ। इनकी माता कुसुम कंवर का स्वर्गवास मीराबाई के बाल्यकाल में ही हो गया था। मीरा राव दूदा मेड़तिया के पौत्री थी। राव दूदा का ज्येष्ठ पुत्र विरमदेव जी थे और विरमदेव जी के ज्येष्ठ पुत्र जयमल जी थे। राव दूदाजी के पांच संतानें थी। विरमदेव जी के 10 पुत्र और 3 पुत्रियां थीं।
राव दूदाजी के वंशजों के नाम:- रावदूदा की दो रानियां थीं जिनमें प्रथम रानी देवलिया प्रतापगढ़ के नरसिंह की पुत्री सिसोदणी चंद्र कुंवरी और दूसरी रानी बबावदा के मानसिंह की पुत्री चौहान मृगकुंवरी। इन दोनों रानियों से राव दूदा के पांच पुत्र और एक पुत्री गुलाब कुंवरी उत्पन्न हुई। राव दूदा के पुत्रों में प्रथम विरमदेव, दूसरे रायमल, ये रायसलोत शाखा के मूल पुरूष थे। इनके वंशजों में अधिकार में मारवाड़ के भण्डाणा, बांसणी, जीलारी आदि ठिकाने हैं तथा मेवाड़ राज्य में हुरड़ा प्रांत के कुछ ग्रामों में भौम है। तीसरे पुत्र पंचायणजी, जिनके कोई संतान नहीं थी और इनका कोई वृतान्त उपलब्ध नहीं हो सका। चौथा पुत्र रतनसिंह थे, जिनके सिर्फ एक पुत्री थी जो मीराबाई के नाम से विख्यात हुई। मीराबाई का विवाह चित्तौड़ के प्रसिद्ध महाराणा संग्रामसिंह के युवराज भोजराज से हुआ। रतनसिंह को निर्वाह के लिये मेड़ता राज्य से कुड़की, बाजोली सहित कुल 12 गांव दिये गये।
विक्रम संवत् 1584 चैत्र शुक्ला चतुर्दशी, 17 मार्च सन् 1527 को महाराणा संग्रामसिंह का मुगल बादशाह बाबर से जो प्रसिद्ध युद्ध हुआ
था, उसमें मुसलमानों से बड़ी वीरता से लड़ते हुए रतनसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ। मीराबाई के पिता रतनसिंह के पांचवे पुत्र रायमल थे, जो जोधपुर नरेश राव गंगाजी ने बयाने के युद्ध में महाराणा की सहायता के लिये जो सेना भेजी थी, उसके प्रधान सेनापति थे। ये भी उस युद्ध में बड़ी बहादुरी से लड़कर मारे गये। मारवाड़ में इनके वंशजों के अधिकार में मुख्य ठिकाने रेण और रायरा थे। वीरमदेव की रानियों में प्रथम रानी निवरवाड़ा के राणा केशवदास की पुत्री चालुक्य सोलंकी कल्याण कुंवरी, दूसरी रानी निवरवाड़ा अथवा बीसलपुर के राव फतहसिंह की पुत्री चालुक्या गंग कुंवरी, तीसरी रानी चित्तौड़ के महाराणा रायमल की पुत्री सिसोदिनी गोरज्या कुंवरी, चौथी रानी जयपुर राज्य के कालवाड़ा के महाराजा किशनदास की पुत्री कछवाहा रानी मान कुंवरी थी।
वीरमदेव के तीन पुत्रियां थी जिनमें प्रथम पुत्री राजकुमारी श्यामकुंवरी, जिनका विवाह मदारिया के रावत सागाजी शिशोदिया से हुआ। दूसरी पुत्री राजकुमारी फुलकुंवरी, इनका विवाह केलवा के सुविख्यात वीर सामंत रावत फत्ताजी शिशोदिया से किया गया। वीरवर रावत फत्ताजी ने चित्तौड़ के युद्ध में अकबर के विरूद्ध बड़ी बहादुरी से लड़कर वीरगति प्राप्त की। आजकल मेवाड़ में रावत फत्ताजी के वंशजों का मुख्य ठिकाना आमेट है। तीसरी राजकुमारी अभयकुंवरी का विवाह गंगराव के राव राघवदेव चौहान से हुआ था।
जयमल निवरवाड़ा के भाणेज और जयलोत राजपूतों के मूल पुरूष थे। प्रथम पुत्र जयमल जी, दूसरे पुत्र ईसरदास जी थे। जयमल जी के दूसरे नम्बर के भाई चित्तौड़ में संवत् 1624 में वीरगति को प्राप्त हुए। वे मुसलमानों के विरूद्ध लड़ाई में सुरजपोल पर काम आ गये। तीसरा पुत्र जगमाल जी, चौथा पुत्र चांदाजी, पांचवां पुत्र करण जी, छठा पुत्र अचला जी, सातवां पुत्र बिकाजी, आठवां पुत्र पृथ्वीराज जी, नोवां पुत्र सारंगदेव जी, दसवां पुत्र प्रतापसिंह जी।
जयमल जी का जन्म विक्रम संवत् 1564 आश्विन शुक्ला एकादशी, 17 सितम्बर सन् 1507 को शुक्रवार के दिन रात्रि दस ृृबजकर दस मिनट पर हुआ, तब राव दूदा और प्रथम कुंवर विरमदेव जिन्दा थे। जयमल जी की प्रथम रानी लुणावाड़ा के राणा रणधीर सिंह जी की पुत्री थी, दूसरी रानी खंड़ेला के राजा केशवदास जी की पुत्री विनयकुंवरी, तीसरी रानी देसुरी के राव केसरीसिंह जी की पुत्री सोलंकी पद्मकुंवरी थी।
जयमल की पुत्रियों का विवाह:- प्रथम राजकुमारी गुमानकुंवर का विवाह गंगरार राव बख्तावर सिंह जी चौहान से हुआ। दूसरी राजकुमारी गुलाब कुंवरी का पाणिग्रहण शिशोदिया रावत पंचायणजी के साथ हुआ।
जयमल जी के प्रथम पुत्र सुलतान सिंह को संवत् 1631, सन् 1574 को बादशाह अकबर ने इनको बीकानेर के राजा रायसिंह जी के साथ जोधपुराधीश राव चंद्रसेनजी के विरूद्ध करने के लिये भेजा और दूसरे ही वर्ष बादशाह अकबर ने गुजरात पर चढ़ाई की, उसमें सुलतान सिंह जी ने वीरगति पाई।
जयमलजी का दूसरा पुत्र शार्दुलजी, तीसरा पुत्र केशवदास जी, चौथा माधवदास जी, पांचवां मुकुंद दास जी, छठा हरिदासजी, सातवां कल्याणदास जी, आठवां रामदास जी, जो कि महाराणा प्रताप की सेना में थे और अकबर की सेना से लड़ते हुए हल्दीघाटी के युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। नौवां पुत्र गोचंद दास जी, दसवां विट्ठलदास जी, ग्यारहवां नरसिंहदास जी, बारहवां श्यामदास जी, तेरहवां द्वारिकादास जी, चौदहवां अनोपसिंहजी, पंद्रहवां नारायणदासजी, सोलहवां अचलदास जी थे। इस प्रकार जयमलजी के दो राजकुमारियां और सोलह पुत्र थे।
जयमल फत्ता चित्तौड़गढ़ के सेनानायक थे। विदेशी हमलावर ने मांड़लगढ़ की ओर कूच किया। विक्रम संवत् 1624, माघ कृष्णा छठ, 23 अक्टूबर सन् 1567, गुरूवार को चित्तौड़ से तीन कोस दूरी पर उत्तर में स्थित नगरी गांव में ड़ेरा ड़ाला। उस समय आकाश मेघाच्छन्न हो रहा था। बादलों की भीषण गर्जना से पृथ्वी कम्पायमान हो रही थी। बिजलियां झकाझक चमक रहीं थी और बड़ी तेज हवा चल रही थी। इसी कारण बादशाह को किला दिखाई नहीं दिया परंतु आधे घण्टे बाद आकाश के मेघरहित हो जाने पर बादशाह को चित्तौड़ का गगन सुगढ़ दुर्ग दिखाई दिया। बादशाह ने दुर्ग के समीप पहुंच कर पहाड़ी के नीचे ड़ेरा ड़ाल दिया। किले पर घेरा ड़ालने का काम बरिन्शयों को सौंपा गया जो एक महीने में समाप्त हुआ। इसी माह के अंत में बादशाह ने आसफ खां को रामपुरा के दुर्ग पर भेजा जिसको उसने विजय कर लिया। महाराणा के उदयपुर, अजमेर या कुंभलगढ़ की ओर चले जाने की खबर पाकर अकबर ने हुसैन कुली खां को बड़ी सेना देकर उधर भेजा। हुसैन कुली खां ने उदयपुर पहुंचकर बहुत लुटमार की। उसने आसपास के प्रदेश में महाराणा का पता लगाने की बहुत कोशिश की परंतु कहीं भी पता नहीं लगने से अंत में वह निराश होकर बादशाह के पास लौट गया। इधर बादशाह ने चित्तौड़ पर अपना अरमान पूरा न होता देखकर साबात और सुरंगें बनाने का हुक्म दिया तथा जगह-जगह मोर्चा कायम करके तोपखाने से उनकी रक्षा की गई।
साबात और सुरंगें बनाने के काम में शाही सैनिक बड़ी मुस्तैदी के साथ कटिबद्ध होकर लग गये। अनेक स्थानों पर मोर्चाबंदी की गई। दो सुरंगें किले की दीवार के नीचे तक पहुंच गईं जिनमें से एक में 120 मन और दूसरी में 80 मन बारूद भर दिया गया। विक्रम संवत् 1624, माघ कृष्णा एकम्, 17 दिसम्बर सन् 1567 को एक सुरंग में आग ड़ाली गई जिससे 50 राजपूतों सहित किले की एक बुर्ज उड़ गई फिर दूसरी सुरंग भी उड़ गई जिसमें 500 शाही सैनिक जो दुर्ग में प्रवेश कर रहे थे और कुछ दुर्ग के राजपूत तत्काल मारे गये।
सुरंग के विस्फोट का धमाका 50 कोस तक सुनाई दिया। इस धमाके में मारे गये लगभग 100 राजपूत सैनिकों में से 20 प्रसिद्ध तोपची और अन्य उच्च सैनिक कर्मचारी थे जिन्हें स्वयं बादशाह भी अच्छी तरह से जानता था।
राव जयमलजी ने दुर्ग का प्रबंध ऐसी तरीकेबद्ध योजना से कर रखा था कि किले की जो दीवारें विपक्षियों के द्वारा गिराई गई थी उसी जगह पर तुरंत पहले जैसी नई दीवार बना ली गई। उसी दिन बीका खोह और मोहर मंगरी की तरफ आसफ खां के मोर्चे में जो एक तीसरी सुरंग खुदी हुई थी, वह भी उड़ गई परंतु उससे किले के केवल 30 सैनिक ही मारे गये और दुर्ग को कोई विशेष क्षति नहीं पहुंची। बादशाह को उस समय तक भी कोई विशेष सफलता नहीं मिल पाई।
जयमलजी राठौड बदनोरा मेड़तिया़ की आयु उस समय 60 वर्ष 5 माह और 17 दिन थी। इस अवस्था में भी चित्तौड़ के प्रसिद्ध संग्राम में आर्य जाति की स्वाधीनता की रक्षा करते हुए वीरगति प्राप्त की। इन्होंने 24 वर्ष राज्य किया।
राव जयमल जी का कद लम्बा, शरीर पुष्ट, विशाल नेत्र, चौड़ा वक्षस्थल, गेहुंआ रंग और प्रतिभाशाली चेहरा था। इनकी बड़ी-बड़ी मुंछें थी परंतु ये दाढ़ी नहीं रखते थे।
अकबर के साथ युद्ध के समय राव जयमल जी को रात्रि के समय लाकोटा दरवाजे के पास दीवार की मरम्मत कराते समय अकबर ने संग्राम नाम की बंदुक से गोली चलाई जो जयमलजी की जांघ में लगी और वो जख्मी हो गये। इसके बाद सामंतों ने आपस में सलाह कर चित्तौड़ दुर्ग के दरवाजे खोल दिये। दशामाता के दूसरे दिन एकादशमी को केसरिया बाना धारण करके बड़ी बहादुरी से लड़ते हुए जयमल फत्ता, जो कि कलाकुंवर जयमलजी के कुटुंब के थे, ने अपनी पीठ पर बिठाकर चारों हाथों में तलवारें चलाते हुए हनुमान पोल और भैडू पोल के बाच वीरगति पाई।
विक्रम संवत् 1927 में आसोज सुदी एकम्, सोमवार को इनकी छतरी पर श्री प्रतापसिंह जी राठौड़ ने आगे वाले खंभे पर एक खिलालेख खुदवाया जो आज भी मौजूद है। इनके वंशज बदनोर, मेड़ता अजमेर भीलवाड़ा आदि में है जिनमें धौली कुंवर उम्मेदसिंह जी आदि का ठिकाना है। जयमल वंशावली प्रथम भाग अथवा दूसरे भाग में कर्नल डाड के द्वारा उल्लेख किया गया है।