मंगलवार, 25 दिसंबर 2012

मुंहासे की क्रीम से सावधान रहें गर्भवती महिलाएं

मुंहासे की क्रीम से सावधान रहें गर्भवती महिलाएं

गर्भधारण करने की योजना बना रही या गर्भवती अथवा स्तनपान कराने वाली महिलाएं मुंहासों से निजात दिलाने वाली क्रीम चेहरे पर लगाना तो दूर उंगली से भी न छुएं क्योंकि इसका उनका गर्भस्थ शिशु हमेशा के लिए न सिर्फ पंगु हो सकता है, बल्कि उसके दिल में छेद तक होने का खतरा पैदा हो सकता है।

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अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) की स्त्री रोग विभाग की पूर्व प्रमुख डाक्टर कमल बख्शी तथा फिनिक्स अस्पताल की स्त्री रोग विशेषज्ञ शिवानी सचदेव समेत अनेक स्त्री रोग विशेषज्ञों का मानना है कि मुंहासों की क्रीम कैमिस्टों के पास खुले आम काउन्टर पर नहीं, बल्कि डाक्टर की सलाह पर ही पर्ची दिखा कर ही मिलनी चाहिए।

सचदेव का कहना है कि गर्भावस्था के दौरान अकसर उन महिलाओं को भी मुंहासे निकल आते हैं जिन्हें इसके पहले कभी नहीं निकले हों। इसलिए महिलाएं बिना सोचे समझे सीधे कैमिस्ट की सलाह से या विज्ञापनों पर भरोसा कर मुंहासों की क्रीम लगाना शुरू देती हैं। उन्होंने कहा कि न सिर्फ गर्भवती या स्‍तनपान कराने वाली, बल्कि गर्भधारण की योजना बना रही महिलाओं तक को मुंहासे से छुटकारा दिलाने वाली क्रीमें चेहरे पर ही नहीं लगानी चाहिए बल्कि उंगली से भी नहीं छूनी चाहिए।

डाक्टर सचदेव ने बताया कि दरअसल मुंहासों से छुटकारा दिलाने वाली क्रीमों में एजेलेक एसिड एडेपलेन, ट्रेटिनोइन, सोडियम सल्फासेटेमाइड, किलनडामाइसिन एरथ्रोमाइसिन, सेलीसाइलिक एसिड, हाइड्रोकाटिजोन तथा बेंजोइल पेरौक्साइड जैसे तत्व होते हैं। जिनके रक्त में पहुंचने के बाद इनसे गर्भस्थ शिशु के हाथ पैर सामान्य से छोटे होना, दिल में छेद, मानसिक रूप से विक्षिप्त, होंठ या तालु कटे होना, आंखों व कानों में दोष तथा मूत्राशय से संबंधित दोष हो सकते हैं।

उन्होंने बताया कि खासतौर पर ऐसी क्रीम जिसमें ट्रेटिनोइन तत्व मौजूद हो, उसे गर्भवती या स्तन पान कराने वाली महिलाएं या फिर गर्भधारण करने की योजना बनाने वाली महिलाएं इसलिए नहीं छुएं क्योंकि क्रीम लगाने के बाद उसके तत्व त्वचा के भीतर पहुंच कर रक्त में शामिल हो जाते हैं और फिर प्लेसेंटा के माध्यम से गर्भसथ शिशु के रक्त में पहुंच जाते हैं।

डाक्टर बख्शी ने कहा कि कई क्रीमें गर्भावस्था के प्रारंभिक दौर में इस्तेमाल करना घातक नहीं होता लेकिन ट्रेटिनोइन तत्व मौजूद होने वाली क्रीम लगाने से शिशु में जन्मजात विकृतियां पैदा हो जाने का खतरा रहता है। उन्होंने कहा कि सोडियम सल्फासेटेमाइड युक्त क्रीम भी गर्भावस्था के दूसरे महीने के बाद इस्तेमाल नहीं करनी चाहिए।

विशेषज्ञों का कहना है कि मुंहासों की क्रीमों में विश्वस्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित 'सी' तथा 'एक्स' श्रेणी की दवाएं होती हैं। जिनसे गर्भस्थ शिशु में विकृतियां पैदा हो सकती हैं। जबकि कुछ का मानना है कि इनके नियमित इस्तेमाल से गर्भपात तक होने की आशंका होती है। अमेरिका में कई ऐसे अध्ययन किए जा चुके हैं जिनसे पता चलता है कि मुंहासे दूर करने क्रीम बिना डाक्टर की सलाह के तो कभी नहीं लगानी चाहिए, क्योंकि इनके तत्व रक्त में पहुंचते हैं और गर्भस्थ शिशु के लिए खतरा बन सकते हैं।

डाक्टर शिवानी ने कहा कि मुंहासों की जिन क्रीमों में ट्रेटिनोइन हो उसे तो गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान के अलावा गर्भधारन करने की योजना बनाने के दौरान भी नहीं प्रयोग में लाना चाहिए। क्योंकि इस्तेमाल बंद कर देने के बाद भी इसका असर कम से कम एक माह तक रहता है। अमेरिकन एसोसिएशन आफ फिजीशियन्स का कहना है डाक्टरों को किसी भी महिला को मुंहासों की क्रीम लगाने की सलाह देने से पहले उनकी उम्र का ध्यान अवश्य करना चाहिए तथा गर्भधारण करने वाली उम्र (चाइल्ड बियरिंग एज) की महिलाओं को तो खासतौर पर ये क्रीम लगाने की सलाह नहीं देनी चाहिए। इसके अलावा जिस दौरान महिलाओं को ये क्रीमें लगाने की सलाह दी जाती है उस दौरान उन्हें कडा़ई से गर्भनिरोधक उपायों का इस्तेमाल करने की भी सलाह देनी चाहिए।

मिनी स्कर्ट पहनीं महिलाएं स्विटजरलैंड में होंगी गिरफ्तार

स्विटजरलैंड में महिलाओं को चेतावनी दी गई है कि मिनी स्कर्ट और टॉप पहनने पर उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है, क्योंकि ऐसे परिधान से महिलाओं के पेट का हिस्सा दिखाई देता है। स्विटजरलैंड दक्षिण अफ्रीका की सीमा से सटा एक साम्राज्य है, जो चारों ओर अन्य देशों से घिरा हुआ है।Image Loading

पुलिस प्रवक्ता वेंडी लेटा ने कहा कि पुलिस 1889 के एक कानून को लागू करेगी, जिसमें शिकायत मिलने पर अनैतिक तरीके से कपड़े पहनने के आरोप में गिरफ्तारी का प्रावधान है। समाचार पत्र टाइम्स ऑफ स्वाजीलैंड के मुताबिक लेटा ने कहा कि बलात्कारियों का काम आसान हो जाता है, क्योंकि आधे अधूरे वस्त्र पहनी महिलाओं के कपड़े हटाना आसान होता है।

लेटा के मुताबिक कम वस्त्र पहनने वाली महिलाएं अनावश्यक रूप से दूसरों का ध्यान खींचती हैं। नवंबर में दुष्कर्म के खिलाफ मिनी स्कर्ट में प्रदर्शन करने वाली महिलाओं को पुलिस ने आगे बढ़ने से रोक दिया था।

2000 में सरकार ने एक कानून बनाया था, जिसके मुताबिक 10 वर्ष या इससे अधिक उम्र की महिलाओं के लिए कम से कम घुटनों तक लंबी स्कर्ट पहनना अनिवार्य है। यह कानून व्यभिचार तथा एड्स का प्रसार रोकने के उद्देश्य से बनाया गया है। हालांकि स्तनपान या सांस्कृतिक परिधान पहनने को कानून के दायरे से बाहर रखा गया है।

बोलेरो चोरी के दो आरोपी पुलिस की गिरफ्त में



बोलेरो चोरी के दो  आरोपी पुलिस की गिरफ्त में

जैसलमेर बीस नवम्बर की रात्रि में इण्डेन गैस एजेन्सी के आगे से चोरी बोलेरो चोरी की वारदात में बोलेरो खरीदने वाले अभियुक्त की पूर्व में गिरफ्तारी की गई थी तथा जिला पुलिस अधीक्षक जैसलमेर ममता राहुल द्वारा उक्त मामले को गम्भीरता से लेते हुए, थानाधिकारी पुलिस थाना जैसलमेर वीरेन्द्रसिंह निपु को बोलेरो चोरी करने वाले चोरो को जल्द से जल्द गिरफतार करने के निर्देश दिये गये। जिसके बाद से बोलेरो चोरी करने वाले मुख्य आरोपीयों की तलाश जारी रखी गई थी। निर्देशानुसार वीरेन्द्र सिंह निपु थानाधिकारी पुलिस थाना जैसलमेर के नेतृत्व में प्रकरण में बोलेरो चोरी की वारदात में शेष अभियुक्त मांगीलाल पुत्र धुमालाराम व जयराम पुत्र नारायणराम जाति विश्नोई निवासीयान नया नगर पुलिस थाना गुड़ा मालानी जिला बाड़मेर को गठित टीम के सदस्य भगवानसिंह सउनि मय जाब्ता द्वारा अलगअलग जगह से गिरफ्तार किया गया हैं। जिनसे अन्य वाहन चोरी के वारदातों के बारे में पुछताछ जारी हैं।

पूर्व पत्नी की नाक काटी

पूर्व पत्नी की नाक काटी

इस्लामाबाद। पाकिस्तान में एक व्यक्ति ने कथित तौर पर एक साल पहले तलाक दे चुकी अपनी पूर्व पत्नी की नाक काट दी। व्यक्ति के बारे में बताया गया है कि वह नशेड़ी है।


उस व्यक्ति ने सोमवार को फैसलाबाद शहर में महिला पर हमला किया था। साजिदा बीबी ने कहा कि उसने फैज रसूल से चार साल पहले निकाह किया था। वह नशे का आदी था तथा उसे प्रताडित करता था इसलिए उसने पिछले साल साजिदा से तलाक ले लिया था।


फैज तभी से महिला को कथित तौर पर धमकी दे रहा था। महिला ने जियो न्यूज को बताया कि उसके पूर्व पति ने अपने एक सहयोगी के साथ उसका अपहरण किया उसके हाथ बांध दिए और उसकी नाक काट कर वह भाग गया।

जैसलमेर आकाशवाणी केन्द्र में पाँच दिवसीय वाणी कोर्स शुरू


जैसलमेर आकाशवाणी केन्द्र में पाँच दिवसीय वाणी कोर्स शुरू
       
जैसलमेर, 25 दिसम्बर/आकाशवाणी जैसलमेर में नवचयनित आकस्मिक उद्घोषकों और कम्पीयरों का पाँच दिवसीय वाणी कोर्स प्रशिक्षण सोमवार से प्रारम्भ हुआ।
आकाशवाणी के कार्यक्रम प्रमुख महेन्द्रसिंह लालस ने बताया कि केन्द्र द्वारा नवम्बर माह में स्वर परीक्षण आयोजित कर जिन आकस्मिक उद्घोषकों और कम्पीयरों का चयन किया गया थाउनमें से प्रथम बैच को पाँच दिवसीय वाणी कोर्स प्रशिक्षण दिया जा रहा है।
लालस ने बताया कि इस प्रशिक्षण में 17 आकस्मिक उद्घोषक और कम्पीयर शामिल किए गए हैं जिन्हें प्रशिक्षण के प्रथम दिवस सुचारू एवं स्पष्ट उच्चारण तकनीक की जानकारी दी गई। उन्होंने बताया कि यह प्रशिक्षण नवचयनित आकस्मिक उद्घोषकों और कम्पीयरों को गुणवत्तायुक्त आकर्षक प्रसारण के योग्य बनने के उपाय सुझाने के लिए आयोजित किया गया है। इसके माध्यम से जैसलमेर अंचल में भाषा के साफ उच्चारण की समझ पैदा करना भी एक उद्देश्य है।
      आकाशवाणी आज भी पहली पसन्द है
लालस के अनुसार इन पाँच दिनों में सम्भागियों को प्रसारण पूर्व तैयारियोंस्कि्रप्ट लेखनसूचनाओं के संग्रहण एवं सम्पादन के साथ-साथ प्रसारण की दृष्टि से अपडेट करने का प्रशिक्षण दिया जाएगा।
उन्होंने संभागियों को बताया कि समय की पाबन्दीविश्वसनीयता और प्रसारण की गुणवत्ता के कारण ही मनोरंजन,शिक्षा और सूचना के क्ष्ेात्र में आकाशवाणी आज भी श्रोताओं की पहली पसन्द है।
      उत्तरदायित्वों की जानकारी दी
प्रशिक्षण सत्र को सम्बोधित करते हुए आकाशवाणी जैसलमेर के वरिष्ठ उद्घोषक सुशील पीटर थॉमस ने आकस्मिक उद्घोषकों और कम्पीयरों को इनके उत्तरदायित्वों की जानकारी दी।
उन्होंने कहा कि स्थानीय स्तर से लेकर विश्व भर में घटित होने वाली नवीन जानकारियों और सूचनाओं श्रोताओं तक पूरी जिम्मेदारी एवं संजीदगी के साथ प्रसारित करना सबसे बड़ा दायित्व है। उन्होंने अच्छे आकस्मिक उद्घोषक और कम्पीयर की विशेषताओं और गुणों की जानकारी भी दी। मंगलवार को प्रशिक्षण के दौरान उन्होंने क्रिसमस की शुभकामनाएं भी दीं।
      ये हैं संभागी
आकाशवाणी जैसलमेर द्वारा आयोजित किए जा रहे पाँच दिवसीय वाणी कोर्स में भाग लेने वाले सम्भागियों में दीपिका जोशीप्रीति भाटियावीणा शर्माआरती व्यासजेठूदान चारणहनवंतसिंह चारणसुनीता व्यास और राखी व्यास शमिल है। इनके साथ ही नेहा व्यासअंकिता शर्माकोमल भाटियाअन्नपूर्णा पुरोहितआरती मिश्राप्रार्थना बिस्सामोनिका बिस्साप्रीति रामदेव और पूजा पुरोहित भी इस प्रथम प्रशिक्षण में शामिल है।

एक परिचय ..भारत की महान विभूति आमिर खुसरो


  .एक परिचय ..भारत की महान विभूति आमिर खुसरो 

जन्म।।।।।इनका वास्तविक नाम था - अबुल हसन यमीनुद्दीन मुहम्मद। अमीर खुसरो को बचपन से ही कविता करने का शौक़ था। इनकी काव्य प्रतिभा की चकाचौंध में, इनका बचपन का नाम अबुल हसन बिल्कुल ही विस्मृत हो कर रह गया। अमीर खुसरो दहलवी ने धार्मिक संकीर्णता और राजनीतिक छल कपट की उथल-पुथल से भरे माहौल में रहकर हिन्दू-मुस्लिम एवं राष्ट्रीय एकता, प्रेम, सौहादर्य, मानवतावाद और सांस्कृतिक समन्वय के लिए पूरी ईमानदारी और निष्ठा से काम किया। प्रसिद्ध इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी ने अपने ऐतिहासिक ग्रंथ 'तारीखे-फिरोज शाही' में स्पष्ट रुप से लिखा है कि बादशाह जलालुद्दीन फ़ीरोज़ खिलजी ने अमीर खुसरो की एक चुलबुली फ़ारसी कविता से प्रसन्न होकर उन्हें 'अमीर' का ख़िताब दिया था जो उन दिनों बहुत ही इज़ज़त की बात थी। उन दिनों अमीर का ख़िताब पाने वालों का एक अपना ही अलग रुतबा व शान होती थी।

अमीर खुसरो दहलवी का जन्म उत्तर-प्रदेश के एटा जिले के पटियाली नामक ग्राम में गंगा किनारे हुआ था। गाँव पटियाली उन दिनों मोमिनपुर या मोमिनाबाद के नाम से जाना जाता था। इस गाँव में अमीर खुसरो के जन्म की बात हुमायूँ काल के हामिद बिन फ़जलुल्लाह जमाली ने अपने ऐतिहासिक ग्रंथ 'तज़किरा सैरुल आरफीन' में सबसे पहले कही।
बचपन

अमीर खुसरो की माँ दौलत नाज़ हिन्दू (राजपूत) थीं। ये दिल्ली के एक रईस अमीर एमादुल्मुल्क की पुत्री थीं। ये बादशाह बलबन के युद्ध मंत्री थे। ये राजनीतिक दवाब के कारण नए-नए मुसलमान बने थे। इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बावजूद इनके घर में सारे रीति-रिवाज हिन्दुओं के थे। खुसरो के ननिहाल में गाने-बजाने और संगीत का माहौल था। खुसरो के नाना को पान खाने का बेहद शौक था। इस पर बाद में खुसरो ने 'तम्बोला' नामक एक मसनवी भी लिखी। इस मिले जुले घराने एवं दो परम्पराओं के मेल का असर किशोर खुसरो पर पड़ा। जब खुसरो पैदा हुए थे तब इनके पिता इन्हें एक कपड़े में लपेट कर एक सूफ़ी दरवेश के पास ले गए थे। दरवेश ने नन्हे खुसरो के मासूम और तेजयुक्त चेहरे के देखते ही तत्काल भविष्यवाणी की थी - "आवरदी कसे राके दो कदम। अज़ खाकानी पेश ख्वाहिद बूद।" अर्थात तुम मेरे पास एक ऐसे होनहार बच्चे को लाए हो खाकानी नामक विश्व प्रसिद्ध विद्वान से भी दो कदम आगे निकलेगा। चार वर्ष की अल्प आयु में ही खुसरो अपने पिता के साथ दिल्ली आए और आठ वर्ष की अवस्था तक अपने पिता और भाइयों से शिक्षा पाते रहे। अमीर खुसरो के पहले भाई एज्जुद्दीन (अजीउद्दीन) (इजजुद्दीन) अली शाह (अरबी-फारसी विद्वान) थे। दूसरे भाई हिसामुद्दीन कुतलग अहमद (सैनिक) थे। तीन भाइयों में अमीर खुसरो सबसे अधिक तीव्र बुद्धि वाले थे। अपने ग्रंथ गुर्रतल कमाल की भूमिका में अमीर खुसरो ने अपने पिता को उम्मी अर्थात् अनपढ़ कहा है। लेकिन अमीर सैफुद्दीन ने अपने सुपुत्र अमीर खुसरो की शिक्षा-दीक्षा का बहुत ही अच्छा (नायाब) प्रबंध किया था। अमीर खुसरो की प्राथमिक शिक्षा एक मकतब (मदरसा) में हुई। वे छ: बरस की उम्र से ही मदरसा जाने लगे थे। स्वयं खुसरो के कथनानुसार जब उन्होंने होश सम्भाला तो उनके वालिद ने उन्हें एक मकतब में बिठाया और खुशनवीसी की महका के लिए काजी असुदुद्दीन मुहम्मद (या सादुद्दीन) के सुपुर्द किया। उन दिनों सुन्दर लेखन पर काफी बल दिया जाता था। अमीर खुसरो का लेखन बेहद ही सुन्दर था। खुसरो ने अपने फ़ारसी दीवान तुहफतुसिग्र (छोटी उम्र का तोहफ़ा - ६७१ हिज्री, सन १२७१, १६-१९ वर्ष की आयु) में स्वंय इस बात का ज़िक्र किया है कि उनकी गहन साहित्यिक अभिरुचि और काव्य प्रतिभा देखकर उनके गुरु सादुद्दीन या असदुद्दीन मुहम्मद उन्हें अपने साथ नायब कोतवाल के पास ले गए। वहाँ एक अन्य महान विद्वान ख़वाजा इज्जुद्दीन (अज़ीज़) बैठे थे। गुरु ने इनकी काव्य संगीत प्रतिभा तथा मधुर संगतीमयी वाणी की अत्यंत तारीफ की और खुसरो का इम्तहान लेने को कहा। ख्वाजा साहब ने तब अमीर खुसरो से कहा कि 'मू' (बाल), 'बैज' (अंडा), 'तीर' और 'खरपुजा' (खरबूजा) - इन चार बेजोड़, बेमेल और बेतरतीब चीज़ों को एक अशआर में इस्तमाल करो। खुसरो ने फौरन इन शब्दों को सार्थकता के साथ जोड़कर फारसी में एक सद्य:: रचित कविता सुनाई - 'हर मूये कि दर दो जुल्फ़ आँ सनम अस्त, सद बैज-ए-अम्बरी बर आँ मूये जम अस्त, चूँ तीर मदाँ रास्त दिलशरा जीरा, चूँ खरपुजा ददांश मियाने शिकम् अस्त।' अर्थातः उस प्रियतम के बालों में जो तार हैं उनमें से हर एक तार में अम्बर मछली जैसी सुगन्ध वाले सौ-सौ अंडे पिरोए हुए हैं। उस सुन्दरी के हृदय को तीर जैसा सीधा-सादा मत समझो व जानो क्योंकि उसके भीतर खरबूजे जैसे चुभनेवाले दाँत भी मौजूद हैं।

ख्वाजा साहब खुसरो की इस शानदार रुबाई को सुनकर चौंक पड़े और जी भर के खूब तारीफ़ की, फ़ौरन गले से लगाया और कहा कि तुम्हारा साहित्यिक नाम तो 'सुल्तानी' होना चाहिए। यह नाम तुम्हारे लिए बड़ा ही शुभ साबित होगा। यही वजह है कि खुसरो के पहले काव्य संग्रह 'तोहफतुसिग्र' की लगभग सी फ़ारसी गज़लों में यह साहित्यिक नाम हैं। बचपन से ही अमीर खुसरो का मन पढ़ाई-लिखाई की अपेक्षा शेरो-शायरी व काव्य रचना में अधिक लगता था। वे हृदय से बड़े ही विनोदप्रिय, हसोड़, रसिक, और अत्यंत महत्वकांक्षी थे। वे जीवन में कुछ अलग हट कर करना चाहते थे और वाक़ई ऐसा हुआ भी। खुसरो के श्याम वर्ण रईस नाना इमादुल्मुल्क और पिता अमीर सैफुद्दीन दोनों ही चिश्तिया सूफ़ी सम्प्रदाय के महान सूफ़ी साधक एवं संत हज़रत निजामुद्दीन औलिया उर्फ़े सुल्तानुल मशायख के भक्त अथवा मुरीद थे। उनके समस्त परिवार ने औलिया साहब से धर्मदीक्षा ली थी। उस समय खुसरो केवल सात वर्ष के थे। अमीर सैफुद्दीन महमूद (खुसरो के पिता) अपने दोनों पुत्रों को लेकर हज़रत निजामुद्दीन औलिया की सेवा में उपस्थित हुए। उनका आशय दीक्षा दिलाने का था। संत निजामुद्दीन की ख़ानक़ाह के द्वार पर वे पहुँचे। वहाँ अल्पायु अमीर खुसरो को पिता के इस महान उद्देश्य का ज्ञान हुआ। खुसरो ने कुछ सोचकर न चाहते हुए भी अपने पिता से अनुरोध किया कि मुरीद 'इरादा करने' वाले को कहते हैं और मेरा इरादा अभी मुरीद होने का नहीं है। अत: अभी केवल आप ही अकेले भीतर जाइए। मैं यही बाहर द्वार पर बैठूँगा। अगर निजामुद्दीन चिश्ती वाक़ई कोई सच्चे सूफ़ी हैं तो खुद बखुद मैं उनकी मुरीद बन जाऊँगा। आप जाइए। जब खुसरो के पिता भीतर गए तो खुसरो ने बैठे-बैठे दो पद बनाए और अपने मन में विचार किया कि यदि संत आध्यात्मिक बोध सम्पन्न होंगे तो वे मेरे मन की बात जान लेंगे और अपने द्वारा निर्मित पदों के द्वारा मेरे पास उत्तर भेजेंगे। तभी में भीतर जाकर उनसे दीक्षा प्राप्त कर्रूँगा अन्यथा नहीं। खुसरो के ये पद निम्न लिखित हैं -

'तु आँ शाहे कि बर ऐवाने कसरत, कबूतर गर नशीनद बाज गरदद। गुरीबे मुस्तमंदे बर-दर आमद, बयायद अंदर्रूँ या बाज़ गरदद।।'

अर्थात: तू ऐसा शासक है कि यदि तेरे प्रसाद की चोटी पर कबूतर भी बैठे तो तेरी असीम अनुकंपा एवं कृपा से बाज़ बन ज़ाए।

खुसरो मन में यही सोच रहे थे कि भीतर से संत का एक सेवक आया और खुसरो के सामने यह पद पढ़ा - 'बयायद अंद र्रूँ मरदे हकीकत, कि बामा यकनफस हमराज गरदद। अगर अबलह बुअद आँ मरदे - नादाँ। अजाँ राहे कि आमद बाज गरदद।।'

अर्थात - "हे सत्य के अन्वेषक, तुम भीतर आओ, ताकि कुछ समय तक हमारे रहस्य-भागी बन सको। यदि आगुन्तक अज्ञानी है तो जिस रास्ते से आया है उसी रास्ते से लौट जाए।' खुसरो ने ज्यों ही यह पद सुना, वे आत्मविभोर और आनंदित हो उठे और फौरन भीतर जा कर संत के चरणों में नतमस्तक हो गए। इसके पश्चात गुरु ने शिष्य को दीक्षा दी। यह घटना जाने माने लेखक व इतिहासकार हसन सानी निज़ामी ने अपनी पुस्तक तजकि-दह-ए-खुसरवी में पृष्ठ ९ पर सविस्तार दी है।

इस घटना के पश्चात अमीर खुसरो जब अपने घर पहुँचे तो वे मस्त गज़ की भाँती झूम रहे थे। वे गहरे भावावेग में डूबे थे। अपनी प्रिय माताजी के समक्ष कुछ गुनगुना रहे थे। आज क़व्वाली और शास्रीय व उप-शास्रीय संगीत में अमीर खुसरो द्वारा रचित जो 'रंग' गाया जाता है वह इसी अवसर का स्मरण स्वरुप है। हिन्दवी में लिखी यह प्रसिद्ध रचना इस प्रकार है - "आज रंग है ऐ माँ रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री। अरे अल्लाह तू है हर, मेरे महबूब के घर रंग है री। मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया। अलाउद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया। कुताबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया, मुइनुद्दीन औलिया मुहैय्योद्दीन औलिया। आ मुहैय्योदीन औलिया, मुहैय्योदीन औलिया। वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री। अरे ऐ री सखी री, वो तो जहाँ देखो मोरो (बर) संग है री। मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, आहे, आहे आहे वा। मुँह माँगे बर संग है री, वो तो मुँह माँगे बर संग है री। निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो, जग उजियारो जगत उजियारो। वो तो मुँह माँगे बर संग है री। मैं पीर पायो निजामुद्दीन औलिया। गंज शकर मोरे संग है री। मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखयो सखी री। मैं तो ऐसी रंग। देस-बदेस में ढूढ़ फिरी हूँ, देस-बदेस में। आहे, आहे आहे वा, ऐ गोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन। मुँह माँगे बर संग है री। सजन मिलावरा इस आँगन मा। सजन, सजन तन सजन मिलावरा। इस आँगन में उस आँगन में। अरे इस आँगन में वो तो, उस आँगन में। अरे वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री। आज रंग है ए माँ रंग है री। ऐ तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन। मैं तो तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन। मुँह माँगे बर संग है री। मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी सखी री। ऐ महबूबे इलाही मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी। देस विदेश में ढूँढ़ फिरी हूँ। आज रंग है ऐ माँ रंग है ही। मेरे महबूब के घर रंग है री।

सन १२६४ ई. में जब खुसरो केवल सात वर्ष के थे तब इनके बहादुर पिता ८५ वर्ष की आयु में एक लड़ाई में शहीद हो गए। तब इनकी शिक्षा का भार इनके रईस नाना अमीर नवाब एमादुलमुल्क रावत अर्ज़ ने अपने ऊपर ले लिया। इनकी माँ न इन्हें नाज़ो नियामत से पाला। वे स्वंय पटियाली में रहती थीं या फिर दिल्ली में अमीर रईस पिता की शानदार बड़ी हवेली में। नाना ने थोड़े ही दिनों में अमीर खुसरो को ऐसी शिक्षा-दीक्षा दी कि ये कई विधाओं में विभूषित, निपुण, दक्ष एवं पारांगत हो गए। युद्ध कला की बारीकियाँ भी खुसरो ने पहले अपने पिता और फिर नाना से सीखीं। इनके नाना भी युद्ध के मैदान में अपना जलवा अनेकों बार प्रदर्शित कर चुके थे। वे स्वंय बहुत ही साहसी, बहादुर और निडर थे और खुसरो को भी वैसी ही शिक्षा उन्होंने दी। एमादुलमुल्क खुसरो से अक्सर कहा करते थे कि डरपोक और कमज़ोर सिपाही किसी देशद्रोही से कम नहीं। यही वह ज़माना अथवा दौर था जब खुसरो अपने समय के बहुत से बुद्धिजीवियों और शासकों से सम्पर्क में आए। खुसरो ने बिना किसी हिचक व संकोच के अनेक सर्वोत्तम गुणों को आत्मसात किया। खुसरो में लड़कपन से ही काव्य रचना की प्रवृत्ति थी। किशोरावस्था में ही उन्होंने फ़ारसी के महान और जानेमाने कवियों का गहन अध्ययन शुरु कर दिया था और उनमें से कुछ के अनुकरण में काव्य रचने का प्रयास भी किया था। अभी वह २० वर्ष के भी नहीं हुए थे कि उन्होंने अपना पहला दीवान (काव्य संग्रह) तुहफतुसिग्र (छोटी उम्र का तोहफ़ा, ६७१ हिज्री सन १२७१, १६-१९ वर्ष) (जवानी के आरंभ काल में रचित यह दीवान फ़ारसी के प्रसिद्ध कवि अनवरी, खाकानी, सनाई आदि उस्तादों से प्रभावित है। इसकी भूमिका में बचपन की बातें, जवानी के हालात का ज़िक्र है तथा प्रत्येक कसीदे के आरम्भ में शेर है जो कसीदे के विषय को स्पष्ट करता है। इन तमाम शेरों को जमा करने से एक कसीदा हो जाता है जो खुसरो की ईजाद है। ये ज़यादातर सुल्तान गयासुद्दीन बलबन और उसके बड़े बेटे सुल्तान नसीरुद्दीन की प्रशंसा में लिखे गए हैं। एक तरक़ीब बंद में अपने नाना इमादुल मुल्क का मर्सिया लिखा है जो सुल्तान गयासुद्दीन के करीबी सलाहकारों और हमराजों में से एक थे। उनके पास कई नाज़ुक व गुप्त सियासी जानकारियाँ व सूचनाएँ रहती थीं। इस ग्रंथ में खुसरो ने अपना तखल्लुस या उपनाम सुल्तानी रखा है।) पूर्ण कर लिया। बावजूद इसके कि अमीर खुसरो ने कुछ फ़ारसी कवियों की शैली का अनुक्रम करने का प्रयत्न किया था उनकी इन कविताओं में भी एक विशेष प्रकार की नवीनता और नूतनता थी। इस पर उनकी अभिनव प्रतिभा की स्पष्ट छाप है। उस समय खुसरो केवल एक होनहार कवि के रुप में नहीं उभरे थे बल्कि उन्होंने संगीत सहित उन तमाम विधाओं का ज्ञान भी भली भाँति प्राप्त कर लिया था जो उस समय और दौर के किसी भी सुसभ्य व्यक्ति के लिए अनिवार्य था। वह एक प्रखर, संवेदनशील, हाज़िर जवाब और जीवन्त व्यक्ति थे। इसी कारण बहुत जल्दी ही, राजधानी में हर एक व्यक्ति के वे प्रेम पात्र बन गए। हर व्यक्ति को उनकी रोचक और आनंदमय संगति प्रिय थी। अमीर खुसरो ने अपनी पुस्तक तुहफतुस्सग्र की भूमिका में स्वंय लिखा है कि - "ईश्वर की असीम कृपा और अनुकंपा से मैं बारह वर्ष की छोटी अवस्था में ही रुबाई कहने लगा जिसे सुनकर बड़े-बड़े विद्वान तक आश्चर्य करते थे और उनके आश्चर्य से मेरा उत्साह बढ़ता था। मुझे और अधिक क्रियात्मक कविता लिखने की प्रेरणा मिलती थी। उस समय तक मुझे कोई काव्य गुरु नहीं मिला था जो मुझे कविता की उच्च शिक्षा देकर मेरी लेखनी को बेचाल चलने से रोकता। मैं प्राचीन और नवीन कवियों के काव्यों का गहराई व अति गम्भीरता से मनन करके उन्हीं से शिक्षा ग्रहण करता रहा।" इससे यह साफ़ स्पष्ट होता है कि कविता करने की प्रतिभा खुसरो में जन्मजात थी तथा इसे उन्होंने स्वंय सीखा, किसी गुरु से नहीं। आशु कविता करना उनके लिए बाँए हाथ का खेल था।

यह भी सर्वमान्य है कि खुसरो सत्रह वर्ष की छोटी आयु में ही एक उत्कृष्ट कवि के रुप में दिल्ली के साहित्यिक क्षेत्र में छा गए थे। उनकी इस अद्भुत काव्य प्रतिभा पर उनके गुरु हज़रत निजामुद्दीन औलिया को भी फक्र था। इनका मधुर कंथ इनकी सरस एवं प्रांजल कविता का ॠंगार था। जिस काव्य गोष्ठी अथवा कवि सम्मेलन में अमीर अपनी कविता सुनाते थे उसमें एक गम्भीर सन्नाटा छा जाता था। निसंदेह अमीर खुसरो दहलवी जन्मजात कवि थे। इन्होंने कविता लिखने व पढ़ने का ढंग किसी से नहीं सीखा, किन्तु इनके काव्य गुरु ख़वाजा शमशुद्दीन माने जाते हैं। इसका कारण यह बताया जाता है कि ख्वारिजी ने खुसरो के विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ 'पंचगंज' अथवा ख़म्साऐ खुसरो को शुद्ध किया था।

खम्साऐ खुसरो - या पंचगंज या खुसरो की पंचपदी। अमीर खुसरो की विशाल और सार्वभौमिक प्रतिभा ने 'खुदाए सुखन' अर्थात काव्य कला के ईश्वर माने जाने वाले कवि निजामी गंजवी के खम्स के जवाब में इसे लिखा है। यह उन्होंने ६९८ हिज्री से ७०१ हिज्री के बीच लिखा यानी (१२९८ ई. - १३०१ ई. तक) इसमें कुल पाँच मसनवियाँ हैं – (१) मतला उल अनवार - निजामी के 'मखजनुल असरार' का जवाब है। ६९८ हि. १२९८ ई. (अर्थात रोशनी निकालने की जगह) कवि जामी ने इसी के अनुकरण पर अपना तोहफतुल अबरार (अच्छे लोगों का तोहफा) लिखा था। इसमें अधिकांश धार्मिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक बातें हैं। इसमें खुसरों ने अपनी इकलौती लड़की को सीख दी है। उम्र ४५ वर्ष। (२) शीर व खुसरो - निजामी के खुसरो व शीरीं का जवाब है। ६९८ हिज्री। सन १२९८ ई. उम्र ४५। खुसरो ने प्रेम की पीर को तीव्रतर बना दिया है। इसमें खुसरो ने अपने बड़े बेटे को सीख दी है। (३) मजनूँ व लैला - निजामी के लैला मजनूँ का जवाब। ६९९ हिज्री (१२९९ ई.) उम्र ४६ प्रेम तथा ॠंगार की भावनाओं का चित्रण। (४) आइने सिकंदरी - निज़ामी के सिकंदरनामा का जवाब। ६९९ हिज्री। (सन १२९९ ई.) वीर रस। इसमें सिकंदरे आजम और खाकाने चीन की लड़ाई का विस्तृत वर्णन है। इसमें खुसरो अपने सबसे छोटे लड़के को सीख देते हैं। इसमें रोजी कमाने, हुनर (कला) सीखने, मज़हब की पाबंदी करने और सच बोलने की वह तरक़ीब है जो उन्होंने अपने बड़े बेटे को अपनी मसनवी शीरी खुसरो में दी है।

(५) हश्त-बहिश्त - निजामी के हफ्त पैकर का जवाब। (१७०१ हिज्री। १३०१ ई.) फ़ारसी की सर्वश्रेष्ठ कृति। इसमें इरान के बहराम चोर और एक चीनी हसीना (सुन्दरी) की काल्पनिक प्रेम गाथा है। कहानी विदेशी है। अत: भारत से संबंधित बातें बहुत कम हैं। इसका वह भाग बेहद ही महत्वपूर्ण है जिसमें खुसरो ने अपनी बेटी को संबोधित कर उपदेशजनक बातें लिखी हैं। अमीर खुसरो ने स्वंय अपने गुरुओं के नामों का उल्लेख किया है जिनका उन्होंने अनुसरण किया है अथवा उनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रुप से इन पर प्रभाव पड़ा है। गज़ल के क्षेत्र में सादी, मसनवी के क्षेत्र में निज़ामी, सूफ़ी और नीति संबंधी काव्यक्षेत्र में खाकानी और सनाई एवं कसीदे के क्षेत्र में कमाल इस्माइल हैं। खुसरो की गज़लें तो भाव और कला की दृष्टि से इतनी उत्तम हैं कि बड़े-बड़े संगीतज्ञ उन्हें गा गा कर लोगों को आनंद विभोर करते थे। उनमें अनेक स्थलों पर उदात्त प्रेम के दर्शन होते हैं। इन सभी काव्यों में काव्य का मनोज्ञ रुप हमें दृष्टिगोचर होता है। खुसरो ने स्वयं अपनी कविता की अनेक स्थलों पर प्रशंसा की है। वे अपने दीवान गुर्रतुल कमाल (शुक्ल पक्ष की पहली कलाम की रात) (६९३ हिज्री। सन १२९३ ई. तीसरा दीवान ३४-४३ वर्ष, सबसे बड़ा दीवान, इसकी भूमिका काफ़ी बड़ी एवं विस्तृत है। इसमें खुसरो ने अपने जीवन संबंधी बहुत सी रोचक बातें दी हैं, कविता के गुण, अरबी से फ़ारसी कविता की श्रेष्ठता, भारत की फ़ारसी अन्य देशों के मुक़ाबले शुद्ध व श्रेष्ठ हैं, काव्य और छंदों के भेद आदि अनेक बातों पर प्रकाश डाला गया है। इस दीवान में व मसनवियाँ, बहुत सी रुबाइयाँ, कते, गज़लें, मरसिये, नता और कसीदे हैं। मसनवियों में मिफताहुल फ़तूह बहुत प्रसिद्ध है। मरसियों में खुसरो के बेटे तथा फ़ीरोज़ खिलजी के बड़े लड़के या साहबज़ादे महमूद ख़ानखाना के मरसिए उल्लेखनीय हैं। एक बड़ी नात (स्तुति काव्य : मुहम्मद साहब की स्तुति) है जो खाकानी से प्रभावित ज़रुर है पर अपना अनोखा व नया अंदाज लिए है। कसीदों में खुसरो का सबसे अधिक प्रसिद्ध क़सीदा 'दरियाए अबरार' (अच्छे लोगों की नदी) इसी में है। इसमें हज़रत निजामुद्दीन औलिया की तारीफ़ है। अन्य कसीदे जलालुद्दीन और अलाउद्दीन खिलजी से संबंधित है। इसमें अरबी - और तुर्की शब्दों का प्रयोग है।)

अमीर खुसरो गुर्रतुल कमाल की भूमिका में गर्व से, शान से लिखते हैं -

"जब मैं केवल आठ बरस का था मेरी कविता की तीव्र उड़ाने आकाश को छू रहीं थीं तथा जब मेरे दूध के दाँत गिर रहे थे, उस समय मेरे मुँह से दीप्तिमान मोती बिखरते थे।" यही कारण है कि वे शीघ्र ही तूत-ए-हिन्द के नाम से मशहूर हो गए थे। यह नाम खुसरो को ईरान देश के लोगों ने दिया है। यों तो खुसरो में प्रतिभा नैसर्गिक थी तथापि कविता में सर्वत: सौंदर्य और माधुर्य ख़वाजा निजामुद्दीन औलिया के वरदान का भी परिणाम माना जाता है। उन्हीं के प्रभाव से खुसरो के काव्य में सूफ़ी शैली एवं भक्ति की गहराई तथा प्रेम की उदात्त व्यंजन उपलब्ध होती है। वास्तव में औलिया साहब के आर्शीवाद ने उन्हें ईश्वरीय दूत ही बना दिया था। इतना असीमित व गहरा प्रेम। अद्भुत।

अमीर खुसरो बहुमुखी प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे। वे एक महान सूफ़ी संत, कवि (फारसी व हिन्दवी), लेखक, साहित्यकार, निष्ठावान राजनीतिज्ञ, बहुभाषी, भाषाविद्, इतिहासकार, संगीत शास्री, गीतकार, संगीतकार, गायक, नृतक, वादक, कोषकार, पुस्तकालयाध्यक्ष, दार्शनिक, विदूषक, वैध, खगोल शास्री, ज्योतषी, तथा सिद्ध हस्त शूर वीर योद्धा थे। सन १२७३ ई. में खुसरो जब बीस वर्ष के थे तब ११३ वर्ष की आयु में उनके नाना एमादुलमुल्क रावत अर्ज़ का स्वर्गवास हो गया। ऐसे समय में जब कि खुसरो को इतनी अधिक लोकप्रियता मिल रही थी, उनके नाना के देहावसान से उन्हें जीवन का एक अति प्रचंड आघात पहुँचा क्योंकि उनके वालिद तो पहले ही परलोक सिधार चुके थे। अब खुसरो को अपनी रोज़ी रोटी की चिन्ता हुई। अत: अब उन्हें अपने लिए एक स्थाई रोज़गार खोजने पर विवश होना पड़ा। शीघ्र ही खुसरो को एक स्नेही और उदारचेता संरक्षक प्राप्त हो गया। ये था दिल्ली का सुलतान गयासुद्दीन बलबन का भतीजा अलाउद्दीन मुहम्मद किलशी खाँ उर्फ़े मलिक छज्जू। (सन १२७३ ई. कड़ा इलाहबाद का हाकिम) ये अपनी वीरता और उदारता के लिए विख्यात था। इसकी वीरता के चर्चे सुनकर और वर्च के दवाब के कारणवश प्रसिद्ध और शक्ति संपन्न मंगोल हलाकू ने उसे आधे इराक की गर्वनरी प्रस्ताव दिया था और उसकी स्वीकृति चाही थी। अमीर खुसरो ने उसे एक आदर्श व्यक्ति तथा शासक पाया और दो वर्ष वे उसके राजदरबार में शान बने रहे। मलिक छज्जू भी खुसरो से बड़ी कृपा और प्रेम का व्यवहार करता था। एक बार अमीर खुसरो उसके दरबार में बहुत ही देर से पहुँचे। बादशाह बहुत गुस्से में था क्योंकि कुछ चुगलखोर व खुसरो से जलने वाले दरबारियों ने खुसरो के ख़िलाफ़ बादशाह के कान भर दिए थे। इन दरबारियों ने बादशाह को भड़का दिया कि आजकल खुसरो अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की सेवा में अधिक समय व्यतीत करते हैं और राजदरबार से उन्हें कोई मतलब नहीं। बादशाह ने जरा सख्ती से खुसरो से दरबार में देर से आने का कारण पुछा। खुसरो ने अपने विनोद प्रिय, चुलबुले स्वभाव व हाज़िर जवाबी का सबूत देते हुए तुरन्त बादशाह की तारीफ़ और प्रश्न के जवाब में एक फ़ारसी का चुलबुला व हास्यजनक क़सीदा सुनाया। ये है - "सुभा राव गुफ्तम कि खुर्शीद अद खुजास्त, आस्मां रुहे मलिक छज्जो नमोद।"

अर्थात - आज जब मैं घर से दरबार के लिए बाहर निकला तो मेरी सुबह से मुलाक़ात हो गई। मैंने सुबह से पूछा कि बता तेरा सूरज कहाँ है? तो आसमान ने मुझे मलिक छज्जू की सूरत दिखा दी।" यह वाक़या कसीदे के रुप में सुनकर बादशाह के चेहरे पर अचानक ही मुस्कुराहट आ गई और उसका सारा गुस्सा काफ़ेूर हो गया। दरबारियों के मुँह से भी वाह निकली। अमीर खुसरो से जलने वाले समस्त दरबारी बहुत ही मायूस हुए तथा हतप्रभ रह गए। बादशाह ने प्रसन्न होकर अमीर खुसरो को दरबार में देर से आने के लिए माफ़ ही नहीं किया बल्कि इस हास्यजनक क़िस्से को सुनाकर हँसाने के लिए इनाम भी दिया। मलिक छज्जू के राजदरबार में खुसरो केवल दो वर्ष ही टिक पाए। हुआ यूँ कि एक रात शहनशाह हिन्दुस्तान गयासुद्दीन बलबन का बड़ साहबज़ादा, 'बुगरा खाँ' मिलने आया मलिक छज्जू से। उसने तत्काल फ़रमाइश की, "मेरे अज़ीज़ भाई छज्जू तुम्हारा बड़ा नाम है। अरे एक से एक नामवर तुम्हारे सामने गर्दन झुका कर बैठता है। सूरमाँ, गवैये और शायर भी। हम भी तो ज़रा इसकी झलक देखें।" यह सुनकर मलिक छज्जू ने हुक्म दिया - "यमीनुद्दीन खुसरो अपना कलाम पेश करें, हमारे मेहमाने अजीज के सामने"। तब अमीर खुसरो ने अपनी एक ताजा फ़ारसी की गज़ल सुनाई – "सर इन खदुदु जुई न दौरत की तिदौरी। इन नरगिसी जौबई न दौलत कि तिदौरी। इ नुशते अमा जुल खबमा श्यास खरामा इन हल्केई गेसूई न दौरत की तिदौरी।"

अर्थात - तेरी इन नरगिसी आँखों और काली हसीन जुल्फों के आगे दौलत क्या चीज है। यह मधुर व कर्णप्रिय गज़ल सुनकर बुगरा खाँ बोला - "वाह ! अरे ऐसे हीरे लिए बैठे हो जाने ब्रादर। अरे ऐसे आबदार हीरे मोती तो हमारे खजाने में भी नहीं। हम बहुत ख़ुश हुए। अशर्किफ़यों का ये थाल हमारी ओर से शायर खुसरो को ससम्मान दिया जाए। खुसरो अभी तो हम सफ़र में हैं, खुद ही मेहमान हैं। कभी हमारी तरफ़ समाना आओ तो तुम्हें और भी इनाम देंगे। क्यों मेरे भाई छज्जो तुम्हें नागवारा तो नहीं गुज़रा कि तुम्हारे दरबारी शायर को हमारी सरकार की ओर से इनाम दिया जाए। और वो भी तुम्हारी मौजूदगी में तथा तुमसे बिना पूछे।" ऊपर से तो मलिक छज्जू ने कह दिया कि उसे बुरा नहीं लगा पर अंदर से उसे अमीर खुसरो पर बेहद गुस्सा आया कि उसके दरबार में बिना उसकी इजाज़त के अमीर खुसरो ने दूसरी सरकार से ईनाम लिया। कड़ा के होने वाले सूबेदार मलिक छज्जू की कड़ी नज़रें अमीर खुसरो ने पहचान ली थीं। इससे पहले कि मलिक छज्जू के गुस्से का तीर, खुसरो को निशाना बनाता, वे तीर की तरह उसकी कमान से निकल गए। और सीधे बलबन के छोटे लड़के बुगरा खाँ (सन १२७६ ई.) के यहाँ गए जो मुलतान (पंजाब) के निकट सामाना में बलबन की छावनी का शासक व संरक्षक था जो अब मौजूदा दौर में पटियाला (पंजाब) में है। बुगरा खाँ ने अमीर खुसरो को अपना 'नमीदे खास' (मित्र) बना कर रखा। बुगरा खाँ ने खुसरो को बुलबले-हजार-दास्तान की उपाधि दी। मौज़-मस्ती, शरो-शायरी, किताबखानी और शग्ले जवानी के रात-दिन चल रहे थे कि अचानक ही बंगाल से बगावत की खबर आई। बुगरा खाँ ने कहा - "सामाने शफर को रुख करो। तख्ते देहली से यह हुक्म पहुँचा है कि पंजाब की फौज ले कर बंगाल पहुँचो। हम खुद लश्कर ले कर जाएँगे। शायर खुसरो साथ जाऐगा। फिर सामाना से लखनऊ की ओर कूच करेंगे।" मैदाने जंग में भयंकर युद्ध हुआ। जितनी जबरदस्त बगावत थी उतनी ही बेरहमी से कुचली गयी। देहली और पंजाब की फौजों ने खड़े खेत जला दिए। बागियों को गधे की खाल में भरवाकर सरे बाज़ार जलाया गया। फाँसियाँ, कत्लगाहें हुई। खुद शहज़ादा बुगरा खाँ ने अपने पिता बलबन से इस बेदर्द, चीड़-फाड़ और अंधाधुंध लूटमार की शिकायत की। अमीर खुसरो ने अपनी जिंदगी में पहली बार इतने करीब से जंग को देखा तथा उसके दर्द को गहराई से महसूस किया। उन्होंने बड़े पैमाने पर तबाही को महसूस किया। एक कलाकार, शायर, लेखक के नाते उनके नाजुक व भावुक दिल को बहुत दुख हुआ। परन्तु खुसरो के होंठ सिले रहे। इस दर्दनाक मं पर खुसरो ने कुछ नहीं लिखा। उनकी लेखनी मौन रही। खुसरो जैसे प्रेमी जीव को शायरी का कहाँ होश था? इस खूनी मं में। लखनौती में विजय प्राप्त करने के पश्चात बलबन ने बुगरा खाँ को लखनौती व बंगाल का मार्शल लौ (एडमिनिस्ट्रेटर) मुकरर्र कर के वहीं छोड़ दिया। शाहजादे को सलाह और राय देने के लिए प्रसिद्ध कवि शमशुद्दीन दबीर को नियुक्त किया गया था। उसने व बुगरा खाँ ने दरबारी शायर खुसरो को बहुत रोका मगर वो हज़ार बहाने कर के शाही लश्कर के साथ दिल्ली चले आए। अपनी माँ दौलत नाज और गुरु निजामुद्दीन औलिया के कदमों में। खुसरो ने बुगरा खाँ और कलशी खाँ की शत्रुता के कारण वहाँ रहना उचित न समझा और तत्काल सरकारी सेना के साथ दिल्ली चले आए। दिल्ली में इस विजय की खुशी में घर-घर दीप जलाए गए थे। स्वंय अमीर खुसरो अपने एक दीवान में, इस विषय में विस्तार से लिखते हैं कि - "माँ की ममता, गुरु का आध्यात्मिक लगाव, और देहली की मोहब्बत, गंगा-जमुना के किनारे मुझे हर जगह से, हर एक कदरदान से खेंच लाती थी। मेरी शायरी तो उड़ी फिरती थी और मैं खुद उड़ फिर कर देहली या पटियाल चला आता था। मगर आखिर घर बढ़ा, खर्चे बढ़े, और दरबारी आना-बान व ठाट-बाट के तो कहने ही क्या?"

इस दौरान अमीर खुसरो की मित्रा हसन सिज्जी देहलवी से हुई। हसन भी फारसी में किवता करता था। उसकी नानबाई की दुकान थी। वह खुसरो की तरह रईस नहीं था पर फिर भी खुसरो ने उसके नैसर्गिक गुण देख कर उससे मित्रता की। ये जग प्रसिद्ध कृष्ण और सुदामा की मित्रता से किसी भी प्रकार कम न थी। समय-समय पर खुसरो ने अपने मित्र के लिए कपट सहे। इसका ज़िक्र आगे करेंगे। पहले यह देखें कि यह मित्रता व मुलाकात कैसे हुई? हसन अपनी दुकान पर रोटियाँ बेच रहा था। तँदूर से गरम-गरम गदबादी रोटियाँ थाल में आ रहीं थीं। ग्राहक हाथों हाथ खरीद रहे थे। अमीर खुसरो दुकान के सामने से गुजरे तो उनकी दृष्टि हसन सिज्जी पर पड़ी। अमीर खुसरो बचपन से ही हँसी-मज़ाक़ व शरारत में आनंद लेने वाले बेहद ही विनोद प्रिय व्यक्ति थे। उन्होंने हँसते हुए हसन से पूछा - 'नानबाई रोटियाँ क्या भाव दी हैं?' हसन ने भी बहुत सोच समझ कर तत्काल उत्तर दिया - 'मैं एक पलड़े में रोटी रखता हूँ और ग्राहक से कहता हूँ दूसरे पलड़े में सोना रख। सोने का पलड़ा झुकता है तो रोटी ख़रीददार को देता हूँ।' खुसरो ने प्रश्न किया कि ग्राहक गरीब हो तब? हसन ने बेहद ही सहजता से जवाब दिया - 'तब आर्शीवाद के बदले रोटी बेचता हूँ।' इस प्रश्नोत्तर के परिणामस्वरुप हसन और खुसरो में ऐसी घनिष्ठ व अटूट मित्रता हुई कि वे जन्म भर साथ-साथ रहे। शरीर दो थे पर आत्मा एक। इस मित्रता के लिए खुसरो को अनेक लांछन सहने पड़े पर मित्रता में किसी प्रकार की कोई कमी न आई। दोनों मित्रों को गयासुद्दीन बलबन के दरबार में उच्च स्थान मिला।

प्रारंभिक दिनों में खुसरो ने बलबन की प्रशंसा में अनेक कसीदे लिखे। दिल्ली लौटने पर गयासुद्दीन बलबन ने अपनी जीत के उपलक्ष्य में उत्सव मनाया। उसका बड़ा लड़का सुल्तान मोहम्मद अहमद (मुल्तान, दीपालपुर की सरहदी छावनी) भी उत्सव में सम्मलित हुआ। खुसरो को अब दूसरे आश्रयदाता की ज़रुरत थी। उन्होंने सुल्तान मुहम्मद को अपनी कविता सुनाई। उसने खुसरो की कविताएँ बहुत पसंद की और उन्हें अपने साथ मुलतान ले गया। यह सन १२८१ का वाक़या है। वहाँ सिंध के रास्ते सूफ़ियों, दरवेशों, साधुओं और कवियों का अच्छा आना जाना था। मुल्तान में पंजाबी-सिन्धी बोलियाँ मिली-जुली चलती थीं। खुसरो ने यहाँ लगभग पाँच साल शायरी और संगीत के नए-नए तजुर्बे किए। शहज़ादे की परख गज़ब की थी। हर कमाल की जी खोल कर तारीफ़ करता, दिल बढ़ाता था। सुल्तान मोहम्मद ने ईरान के प्रसिद्ध फ़ारसी कवि शेख़ सादी को अपने दरबार में आने के लिए आमंत्रित किया। शेख़ सादी ने अपनी वृद्धावस्था के कारण आने में असमर्थता व्यक्त की और कहा कि हिन्दुस्तान में अमीर खुसरो जैसा कमाल का शायर मौजूद है। उनकी जगह अत: खुसरो को बुलाया जाए। खुसरो के लिए सादी की यह सिफ़ारिश उनकी महानता का ही परिचायक है। इससे पता चलता है कि उस समय खुसरो की ख्याति व प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली थी। बीच में खुसरो प्रति वर्ष दिल्ली आते जाते रहे। अंतिम वर्ष मंगोलों के एक लश्कर ने अचानक ही हमला कर दिया। बादशाह के साथ अमीर खुसरो भी अपने मित्र हसन सिज्जी के साथ लड़ाई में सम्मलित हुए। कितनी रोचक बात है कि एक शायर युद्ध के मैदान में जंग लड़ रहा है। कहते हैं कि अमीर खुसरो जंग के मैदान में एक हाथ में तलवार तो दूसरे हाथ में किताबदान लिए बड़ी शान से निकला करते थे। खैर, इस युद्ध में दुश्मन की ताक़त का पता बहुत देर से चला। हिन्दुस्तानी फ़ौज बेख़बरी का शिकार हो गई। हवा पलट गई। शाहज़ादा जंग के मैदान में मारा गया। खुसरो और हसन भी मैदाने जंग में गिरफ्तार हुए। एक मंगोल सरदार खुसरो को घोड़े के पीछे दौड़ाता हुआ और फिर घसीटता हुआ हिरात और बलख ले गया। वहाँ खुसरो को क़िले में बंदी बना लिया गया। कारागार में रहते समय खुसरो ने अनेक शोक गीत (मर्सिये) लिखे जिनमें मंगोलों के साथ युद्ध करते समय राजकुमार सुलतान मोहम्मद की वीरतापूर्ण मृत्यु का उल्लेख था। खुसरो ने अपनी कारावास कथा बड़ी ही मार्मिक शैली में लिखी है - "शहीदों के रक्त ने जल की तरह धरती को लीप दिया। क़ैदियों के चेहरों को रस्सियों से इस तरह बाँध दिया जैसे हार में फूल गूँदे जाते हैं। ज़ीन के तस्मों की गाँठ से उनके सिर टकराते थे और लगाम के फन्दे में उनकी गर्दन घुटती थी। मुझे जल प्रवाह के समान तेज़ी से भागना पड़ा और लम्बी यात्रा के कारण मेरे पैरों में बुदबदों की तरह फफोले उठ आए तथा पैर छलनी हो गए। इन मुसीबतों के कारण जीवन तलवार की मूठ की तरह कठोर जान पड़ने लगा। और शरीर कुल्हाड़ी के हत्थे के समान सूख गया।" दो वर्ष पश्चात किसी प्रकार अपने कौशल और साहस के बल पर अमीर खुसरो शत्रुओं के चुंगल से छूट कर वापस दिल्ली लौटे। लौटने पर वे गयासुद्दीन बलबन के दरबार में गए और सुलतान मोहम्मद की मृत्यु पर बड़ा करुण मर्सिया पढ़ा। इसे सुनकर बादशाह इतना रोये कि उन्हें बुखार आ गया और तीसरे दिन उसका देहांत हो गया। (सन १२८७)।

इसके पश्चात खुसरो दिल्ली में नहीं रहे। अपनी माँ के पास पटियाली ग्राम चले गए। वहाँ कुछ समय चिंतन में बिताया। स्वंय खुसरो लिखते हैं-"मैं इन्हीं अमीरों की सोहबत से कट कर माँ के साए में रहा। दुनियादारी से आँख मूँद कर गरमा गरम गजल लिखी, दोहे लिखे। अपने भाई के कहने से पहला दीवान तोहफतुस्सिग्र तो तैयार हो चुका था। दूसरा दीवान वस्तुल हयात (जिंदगी के बीच का भाग - ६८४ हिज्री सन १२८४) पूरा करने में लगा था। एक तरफ किनारे पड़ा हुआ दिलों को गरमाने वाली गजलें लिखता रहता था। राग-रगानियाँ बुझाता था।" वसतुल हयात में १८-२४ वर्ष और बत्तीस से तैंतीस साल की उम्र तक का कलाम है। कसीदे ज्यादातर सुलतान मोहम्मद, ह. निजामुद्दीन औलिया, कशलू खाँ, बलबन, कैकुबाद, बुगरा खाँ, शमशुद्दीन दबीर तथा जलालुद्दीन खिलजी की तारीफ में हैं। सुल्तान मोहम्मद पर मर्सिया भी है। कसीदों में खाकानी और कमाल अस्फहानी की काव्य शैली को अपनाने की कोशिश की गई है।

इसके बाद सन १२८६ ई. में खुसरो अवध के गवर्नर (सूबेदार) खान अमीर अली सृजनदार उर्फ हातिम खाँ के यहाँ दो वर्ष तक रहे। यहाँ खुसरो ने इन्हीं अमीर के लिए 'अस्पनामा' नामक पुस्तक लिखी। खुसरो लिखते हैं - "वाह क्या सादाब सरजमीं है ये अवध की। दुनिया जहान के फल-फूल मौजूद। कैसे अच्छे मीठी बोली के लोग। मीठी व रंगीन तबियत के इंसान। धरती खुशहाल जमींदार मालामाल। अम्मा का खत आया था। याद किया है। दो महिने हुए पाँचवा खत आ गया। अवध से जुदा होने को जी तो नहीं चाहता मगर देहली मेरा वतन, मेरा शहर, दुनिया का अलबेला शहर और फिर सबसे बढ़कर माँ का साया, जन्नत की छाँव। उफ्फो ओ दो साल निकल गए अवध में। भई बहुत हुआ। अब मैं चला। हातिमा खाँ दिलो जान से तुम्हारा शुक्रिया मगर मैं चला। जरो माल पाया, लुटाया, खिलाया, मगर मैं चला। वतन बुलाता धरती पुकारती है। अब तक अमीर खुसरो की भाषा में बृज व खड़ी (दहलवी) के अतिरिक्त पंजाबी, बंगला और अवधी की भी चाश्नी आ गई थी। अमीर खुसरो की इस भाषा से हिन्दी के भावी व्यापक स्वरुप का आधार तैयार हुआ जिसकी सशक्त नींव पर आज की परिनिष्ठित हिन्दी खड़ी है। सन १२८८ ई. में खुसरो दिल्ली आ गए और बुगरा खाँ के नौजवान पुत्र कैकुबाद के दरबार में बुलाए गए। कैकुबाद का पिता बुगरा खाँ बंगाल का शासक था। जब उसने सुना कि कैकुबाद गद्दी पर बैठने के बाद स्वेच्छाचारी और विलासी हो गया है तो अपने पुत्र को सबक सिखाने के लिए सेना ले कर दिल्ली पहुँचा। लेकिन इसी बीच अमीर खुसरो ने दोनों के बीच शांति संधि कराने में एक महत्वपूर्ण भूमिक निभाई। इसी खुशी में कैकुबाद ने खुसरो को राजसम्मान दिया। खुसरो ने इसी संदर्भ में किरानुस्सादैन (दो शुभ सितारों का मिलन) नाम से एक मसनवी लिखी जो ६ मास में पूरी हुई। (६८८ हिज्री। सन १२८८ उम्र ३५ वर्ष, मूल विषय है बलबन के पुत्र कैकुबाद का गद्दी पर बैठना, फिर पिता बुगरा खाँ से झगड़ा और अंत में दोनों में समझौता। उस समय के रहन सहन, तत्कालीन इमारतें, संगीत, नृत्य आदि कि चित्रण। इसमें दिल्ली की विशेष रुप से तारीफ है। अत: इसे मसनवी दर सिफत-ए-देहली भी कहते हैं। शेरों की भरमार है। अमीर खुसरो अपनी इस मसनवी में लिखते हैं कि कैकुबाद को उनके गुरु निजामुद्दीन औलिया का नाम भी सुनना पसंद नहीं था। खुसरो आगे लिखते हैं - "क्या तारीखी वाकया हुआ। बेटे ने अमीरों की साजिश से तख्त हथिया लिया, बाप से जंग को निकला। बाप ने तख्त उसी को सुपुर्द कर दिया। बादशाह का क्या? आज है कल नहीं। ऐसा कुछ लिख दिया है कि आज भी लुत्फ दे और कल भी जिंदा रहे। अपने दोस्तों, दुश्मनों की, शादी की, गमी की, मुफलिसों और खुशहालों की, ऐसी-ऐसी रंगीन, तस्वीरें मैंने इसमें खेंच दी है कि रहती दुनिया तक रहेंगी। कैसा इनाम? कहाँ के हाथी-घोड़े? मुझे तो फिक्र है कि इस मसनवी में अपनी पीरो मुरशिद हजरत ख्वाजा निजामुद्दीन का जिक्र कैसे पिरोऊँ? मेरे दिल के बादशाह तो वही हैं और वही मेरी इस नज्म में न हों, यह कैसे हो सकता है? ख्वाजा से बादशाह खफा है, नाराज हैं, दिल में गाँठ है, जलता है। ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया ने शायद इसी ख्याल से उस दिन कहा होगा कि देखा खुसरो, ये न भूलो कि तुम दुनियादार भी हो, दरबार सरकार से अपना सिलसिला बनाए रखो। मगर दरबार से सिलसिला क्या हैसियत इसकी। तमाशा है, आज कुछ कल कुछ।" खुसरो को किरानुस्सादैन मसनवी पर मलिकुश्ओरा की उपाधि से विभूषित किया गया। सन १२९० में कैकुबाद मारा गया और गुलाम वंश का अंत हो गया।

बीच में कुछ समय के लिए शमशुद्दीन कैमुरस बादशाह बना पर अंतत: सत्तर वर्षीय जलालुद्दीन खिलजी सन १२९० में दिल्ली के तख़त पर आसीन हुआ। खुसरो से इसका संबंध पहले से ही था। इन्होंने भी अपने दरबार में खुसरो को सम्मान दिया। ये प्रेम से खुसरो को हुदहुद (एक सुरीला पक्षी) कह कर पुकारते थे। इन्होंने अमीर की पदवी खुसरो को दी। अब अबुल हसन यमीनुद्दीन 'अमीर खुसरो' बन गए। इनका वज़ीफ़ा १२,००० तनका सालाना तय हुआ और बादशाह के ये ख़ास मुहासिब हो गए। जलालुद्दीन सत्य, निष्ठा, साधु प्रकृति, विधा एवं कला प्रेमी तथा पारखी था। फ़ारसी कवि ख़वाजा हसन, संगीतज्ञ मुहम्मद शाह, इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी, संगीतज्ञाएँ फुतूहा, नुसरत नर्तकी, शम्शा खातून और तुर्मती आदि का उनके दरबार से संबंध था। जालालुद्दीन की तारीफ़ में अमीर खुसरो ने कसीदे लिखे जो गुर्रतुल कमाल में हैं। खुसरो ने अपनी प्रसिद्ध मसनवी मफ्ताहुल फ़तूह (विजयों की कंजी) (६९० हिज्री/ सन १२९० ई., उम्र ३७ में जलालुद्दीन की चार विजयों का वर्णन, मलिक छज्जू की बगावत और उसको सजा, अवध की जीत, मुगलों को हराना, छाइन की विजय आदि का वर्णन है। इसमें शेरों की भरमार है। जलालुद्दीन खिलजी ने खुसरो को मुसहफदार (प्रमुख लाइब्रेरियन) और क़ुरान की शाही प्रति का रक्षक बना दिया। जलालुद्दीन ने अपनी इस अधिक आयु में भी अपनी रुचियों को नहीं बदला था। खुसरो हर शाम उसकी महफ़िल में एक गज़ल प्रस्तुत करते और जब साक़ी जाम भर देता, सुन्दर किशोरी ललनाएँ नृत्य करने लगती तो अमीर खुसरो की गज़लें मधुर स्वर लहरियों पर उच्चारित हो उठतीं। लेकिन इसके बावजूद भी खुसरो अपनी सूफ़ी वाले पक्ष से पूर्णत: न्याय करते। खुसरो अपेक्षाकृत एक धार्मिक व्यक्ति थे। उन्हीं के एक कसीदे से यह विदित होता है कि वे मुख्य-मुख्य धार्मिक नियमों का पालन करते थे, नमाज पढ़ते थे तथा उपवास रखते थे। वे शराब नहीं पीते थे और न ही उसके आदि थे। बादशाहों की अय्याशी से उन्होंने अपने दामन को सदा बचाए रखा। वे दिल्ली में नियमित औलिया साहब की ख़ानक़ाह में जाते थे फिर भी वे नीरस संत नहीं थे। वे गाते थे, हँसते थे, नर्तकियों के नृत्य एवं गायन को भी देखते थे और सुनते थे, तथा शाहों और शहजादों की शराब-महफ़िलों में भाग ज़रुर लेते थे मगर तटस्थ भाव से। यह कथन खुसरो के समकालीन इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी का है। खुसरो अब तक अपने जीवन के अड़तीस बसंत देख चुके थे। इस बीच मालवा में चित्तौड़ में रणथम्भोर में बगावत की ख़बर बादशाह जलालुद्दीन को एक सिपाही ने ला कर दी। बगावत को कुचलने के लिए बादशाह स्वंय मैदाने जंग में गया। बादशाह ने जाने से पूर्व भरे दरबार में ऐलान किया-'हम युद्ध को जाएँगे। तलवार और साज़ों की झंकार साथ जाएगी। कहाँ है वो हमारा हुदहुद। वो शायर। वो भी हमारे साथ रहेगा साये की तरह। क्यों खुसरो?' खुसरो अपने स्थान से उठ खड़े हुए और बोले-"जी हुजूर। आपका हुदहुद साये की तरह साथ जाएगा। जब हुक्म होगा चहचहाएगा सरकार। जब तलवार और पायल दोनों की झंकार थम जाती है, जम जाती है तब शायर का नगमा गूँजाता है, कलम की सरसराहट सुनाई देती है। अब जो मैं आँखों देखी लिखूँगा वो कल सैकड़ों साल तक आने वाली आँखें देखेंगी हुजूर।" बादशाह ख़ुश हुए और बोले-शाबाश खुसरो। तुम्हारी बहादुरी और निडरता के क्या कहने। मैदाने जंग और महफ़िलें रंग में हरदम मौजूद रहना। तुम को हम अमीर का ओहदा देते हैं। तुम हमारे मनसबदार हो। बारह सौ तनगा सालाना आज से तुम्हारी तन्ख्वा होगी। सन १२९६ ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने राज्य के लोभ और लालच में अपने चाचा जलालुद्दीन खिलजी की हत्या कर दी और दिल्ली का राज सिंहासन हड़प लिया। स्वंय अमीर खुसरो ने एक इतिहासकार के नाते अपने ग्रंथ में इसका वर्णन इस प्रकार किया है-"अरे कुछ सुना अलाउद्दीन खिलजी सुलतान बन बैठा। सुलतान बनने से पहले इसने क्या-क्या नए करतब दिखाए। हाँ वहीं कड़ा से देहली तक सड़क के दोनों तरफ़ तोपों से दीनार और अशर्किफ़याँ बाँटता आया। लोग कहते हैं अलाउद्दीन ख़ून बरसाता हुआ उठा और ख़ून की होली खेलता हुआ तख़ते शाही तक पहुँच गया। हाँ भई, खल्के खुदा को राजा प्रजा को देखो। लोग अशर्किफ़यों के लिए दामन फैलाए लपके और ख़ून के धब्बे भूल गए। हे लक्ष्मी सब तेरी माया है।" अलाउद्दीन रिश्ते में जलालुद्दीन का भतीजा और दामाद था। अलाउद्दीन ने खुसरो के प्रति बड़ा उदार दृष्टिकोण अपनाया। खुसरो ने उस काल की ऐतिहासिक घटनाओं का आँखों देखा उल्लेख अपनी गद्य रचना खजाइनुल फतूह (तारीखे-अलाई, ६९५ हिज्री/७११ हिज्री, कन १२९५-सन-१३११ ई. तक की घटनाएँ। अर्थात फ़तहों का ख़ज़ाना। (इस ग्रंथ में देवगिरी, देहली, गुजरात, मालवा, चितौड़ आदि के आक्रमणों एवं विजयों का वर्णन है। साथ ही अलाउद्दीन का शासन प्रबंध, भवन निर्माण, जनता की सुख शांति हेतु उसके द्वारा किए गए यत्न आदि का उल्लेख है। अमीर खुसरो की विशाल और सार्वभौमिक प्रतिमा ने 'खुदाए सुखन' अर्थात 'काव्य कला के ईश्वर माने जाने वाले कवि निजामी गंजवी के खम्स का जवाब लिखा है। जो खम्साए खुसरो के नाम से मशहूर है। खम्स का अर्थ है पाँच। खुसरो ने यह उन्हीं छंदों में, उन्हीं विषयों पर लिखा है। खुसरो अपने इस खम्से को निजामी के खम्से से अच्छा मानते हैं। कुछ ने इसे एक शेर को निजामी के पूरे खम्से से अच्छा माना है। इसे पंचगंज भी कहते हैं। इसमें कुल मिलाकर १८,००० पद हैं। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि इसे खुसरो ने सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के कहने पर लिखा है। इसमें बादशाहों की प्रशंसा भी है। इतना ही नहीं इसमें खुसरो ने अपने कवि उचित कर्तव्यों का पालन करते हुए अलुउद्दीन जैसे धर्माद, सनकी, जालिम व हठी बादशाह को जनता की भलाई और उदारता का व्यवहार करने का सुझाव दिया है। एक स्थान पर खुसरो ने लिखा है कि जब खुदा ने तुझे यह शाही तख्त प्रदान किया तो तुझे भी जनता के कल्याण का ख्याल रखान चाहिए। ताकि तू भी प्रसन्न रहे और खुदा भी तुझसे प्रसन्न रहे। यदि तू अपने खास लोगों पर कृपा करता है तो कर किन्तु उन लोगों की भी उपेक्षा मत कर जो लोग बेचारे भूखे-प्यासे सोते हैं। खुसरो की जलालुद्दीन खिलजी जैसे बादशाहों को ऐसी हिदायद करना निश्चित ही खुसरो के नैतिक बल का प्रतीक है तथा उनकी दिलेरी का पिरचायक है। अमीर खुसरो ने अपना पंचगंज ६९८ हिज्री से ७०१ हिज्री के बीच लिखा यानि सन १२९८ ई. से १३०१ ई. तक। इसमें पाँच मसनवियाँ हैं। इन्हें खुसरो की पंचपदी भी कहते हैं। ये इस प्रकार है –

(१) मतला-उल-अनवार : निजामी के मखजनुल असरार का जवाब है। (६९८ हि./सन १२९८ ई.) अर्थात रोशनी निकलने की जगह। उम्र ४५ कवि जामी ने इसी के अनुकरण पर अपना 'तोहफतुल अबरार' (अच्छे लोगों का तोहफा) लिखा था। इसमें खुसरो ने अपनी इकलौती लड़की को सीख दी है जो बहुत सुन्दर थी। विवाह के फस्चात जब बेटी विदा होने लगी तो खुसरो ने उसे उपदेश दिया था - खबरदार चर्खा कभी न छोड़ना। झरोखे के पास बैठकर इधर-उधर न झाँकना।

प्राचीन काल में यह रिवाज़ था कि जब कोई बादशाह अथवा शाहज़ादा अपने हमराहों के साथ सैर-सपाटा करने को निकलते थे तो जो भी युवती अथवा कन्या पसंद आ जाती थी तो वह अपने सिपहसालारों के माध्यम से उनके अभिभावक अथवा पति अथवा कन्या के पिता के पास भेज कर कहलवाते थे कि उनकी पुत्री, कन्या अथवा पत्नी को राजदरबार में भेज दें। यदि कोई तैयार नहीं होता था तो अपने सिपहसालारों के ज़रिये उसको उठवाकर अपने हरम में डाल देते थे तथा वह पहले बाँदियों के रुप में और बाद में रखैल बन कर रखी जाती थी। अत: वह बादशाहों व शाहजादों की बुरी नज़र से उसे बचा कर रखना चाहते थे। अमीर खुसरो ने अपनी बेटी को फ़ारसी के निम्न पद में सीख दी है -

"दो को तोजन गुज़ाश्तन न पल अस्त, हालते-परदा पोकिंशशे बदन अस्त। पाक दामाने आफियत तद कुन, रुब ब दीवारो पुश्त बर दर कुन। गर तमाशाए-रोज़नत हवस अस्त, रोज़नत चश्मे-तोजने तो बस अस्त।।

भावार्थ यह है कि - बेटी! चरखा कातना तथा सीना-पिरोना न छोड़ना। इसे छोड़ना अच्छी बात नहीं है क्योंकि यह परदापोशी का, जि ढकने का अच्छा तरीक़ा है। औरतों को यही ठीक है कि वे घर पर दरवाज़े की ओर पीठ कर के घर में सुकून से बैठें। इधर-उधर ताक-झाँक न करें। झरोखे में से झाँकने की साध को 'सुई' की नकुए से देखकर पूरी करो। हमेशा परदे में रहा करो ताकि तुम्हें कोई देख न सके। उपर्युक्त प्रथम पंक्ति में यह संदेश था कि जब कभी आने जाने वाले को देखने का मन करे तो ऊपरी मंज़िल में परदा डालकर सुई के धागा डालने वाले छेद को आँख पर लगाकर बाज़ार का नज़ारा देखा करो। चरखा कातना इस बात को इंगित करता है कि घर में जो सूत काता जाए उससे कढ़े या गाढ़ा (मोटा कपड़ा) बुनवाकर घर के सभी मर्द तथा औरतें पहना करें। महात्मा गाँधी जी ने तो बहुत सालों के बाद सूत कातकर खादी तैयार करके खादी के कपड़े पहनने पर ज़ोर दिया था। लेकिन हमारे नायक अमीर खुसरो ने बहुत पहले तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में ही खादी घर में तैयार करके खादी कपड़े पहनने के लिए कह दिया था। मतला-उल-अनवार मसनवी पंद्रह दिन की अवधी में लिखी बताई जाती है। इसमें ३३२४ पद हैं। इसका विषय नैतिकता और सूफ़ी मत है। खुदाबख्श पुस्तकालय पटना में इसकी एक पांडुलिपि सुरक्षित रखी है।

(२) शीरी व खुसरो - यह कवि निजामी की खुसरो व शीरी का जवाब है। यह ६९८ हिज्री/ सन १२९८ ई., उम्र ४५ वर्ष में लिखी गई। खुसरो ने इसमें प्रेम की पीर को तीव्रतर बना दिया है। इसमें बड़े बेटे को सीख दी है। इस रोमांटिक अभिव्यक्ति में भावात्मक तन्मयता की प्रधानता है। मुल्ला अब्दुल कादिर बादयूनी, फैजी लिखते हैं कि ऐसी मसनवी इन तीन सौ वर्षों में अन्य किसी ने नहीं लिखी। डॉ. असद अली के अनुसार यह रचना अब उपलब्ध नहीं तथा इसकी खोज की जानी चाहिए।

(३) मजनूँ व लैला - निजामी के लैला मजनूँ का जवाब ६९९ हिज्री, सन १२९९ ई. उम्र ४६ वर्ष। प्रेम तथा ॠंगार की भावनाओं का चित्रण। इसमें २६६० पद हैं। इसका प्रत्येक शेर गागर में सागर के समान है। यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। कुछ विद्वान इसका काल ६९८ हिज्री भी मानते हैं। कलात्मक दृष्टि से जो विशेषताएँ 'मजनूँ व लैला' में पाई जाती हैं, वें और किसी मसनवी में नहीं हैं। प्रणय के रहस्य, प्रिय व प्रिया की रहस्यमयी बातें, प्रभाव और मनोभाव जिस सुन्दरता, सरलता, सहजता, रंगीनी और तड़प तथा लगन के साथ खुसरो ने इसको काव्य का रुप दिया है, उसका उदाहरण खुसरो के पूर्व के कवियों के काव्यों में अप्राप्य है। हम यहाँ अमीर खुसरो की इस रुमानी मसनवी - 'मजनूँ व लैला' का संक्षिप्त वर्णन करते हैं –

मजनूँ के काल्पनिक होने के संबंध में कई कथन वर्णित हैं। इन सबका तात्पर्य यह है कि बनी उम्मिया के खानदान का कोई शहज़ादा किसी परीरुप सुन्दरी पर आशिक़ था। अपने प्रेम के रहस्य को छिपाने के लिए वह जो अश्आर दीवानगी में कहता, वह 'मजनूँ' के नाम से कहता। यह सत्य है कि लैला और मजनूँ वास्तव में इस दुनिया में थे। नज्द इनका वतन था। यह अरब का एक भाग है जो शाम से मिला हुआ है। यह स्थल बहुत ही हरा-भार तथा खूबसूरत वादियों वाला है। इसके हरे-भरे पहाड़ तरह-तरह की खुशबू में महकते हैं। लैला और मजनूँ दोनों भी बनी अमीर नामक कबीले से संबंधित थे। बचपन में दोनों अपने-अपने घर में मवेशी (पशु) चराया करते थे। इस स्थिति में प्रेम भावना ने सर उठाया। जब दोनो ज़रा बड़े हुए और उसके हुस्न व खूबसूरती की चारों तरफ़ ज़ोर-शोर से चर्चा होने लगी तो लैला पर्दानशीन हो गई। मजनूँ को ये नागवारा गुज़रा। आखिर वह अब कैसे अपनी प्रियतमा को निहारे। उसके विरह ने मजनूँ के पागलपन को और तेज कर दिया जिसके कारण दोनों की प्रेम कहानी भी आग हो गई। यानी कि मशहूर हो गई। मजनूँ के माता-पिता ने ममता के भाव से लैला के घर शादी का पैगाम भेजा लेकिन लैला के माता-पिता ने बदनामी के डर से शादी से इंकार कर दिया। बदनामी का डर यह था कि मजनूँ कुछ रोजी रोटी कमाता न था और एक आवारा के रुप में पूरे शहर में मशहूर था। इस इंकार से मजनूँ के संयम का खलिहान जलकर खाक हो गया। मानों उसके अरमानों का गला घोंट दिया गया हो। अंतत: और कोई सकारात्मक परिस्थिति की कोई गुंजाइश जब नहीं न आई तब मजनूँ अपने सारे कपड़े फाड़कर दीवाना सा जंगल को निकल गया। वह जंगल में मारा-मारा फिरने लगा। जंगल में भ्रमर करते हुए प्रेम के चमत्कार प्रकट हुए। प्रेम अग्नि ने इस दिशा में उससे जो दर्द भरे अशआर कहलवाए हैं वे प्रेम की विविध भावनाओं का दपंण है। इस भ्रमण में सहरा के हिरन मजनूँ के खास राजदार थे। पुत्र की इस तबाही और बरबादी से माता-पिता का दिल कुढ़ता था। एक दफा वह उसको हरमे-मोहतरम में ले गए और कहा कि काबे का गिलाफ थामकर लैला के प्रेम से मुक्ति पाने की प्रार्थना करो। मजनूँ ने गिलाफ पकड़ कर कहा - "ऐ मेरे रब। लैला की मुहब्बत मेरे दिल से कभी न निकालना। खुदा की रहमत हो उस बंदे पर जो मेरी इस दुआ पर आमीन कहे।" (अरबी शेर का रुपांतर) सितम बलाए सितम यह हुआ कि लैला के कठोर माता-पिता ने उसकी शादी किसी और जगह कर दी। उस समय मजनूँ पर जो संकट का पहाड़ टूट गिरा होगा उसका वर्णन जरुरी नहीं। लैला की बेचैनी और विकलता ने उसके पति का जीवन दूभर कर दिया। उसने तंगा आ कर उससे संबंध तोड़ दिया। मजनूँ कभी कभार दीवानगी के जोश में अपनी प्रिया की गली में निकल आता और अपने दर्द भरे अशआर से लैला तथा उसके कबीले वालों को तड़पा जाता। परिणाम स्वरुप लैला ने इसी विरही दशा में अपने प्राण दे दिए। लैला की मृत्यु की दर्द भरी खबर सुनकर मजनूँ कब जीवित रह सकता था। अमीर खुसरो ने अपनी मसनवी में कला की दृष्टि से आवश्यक बातें, हम्द, नात, और मुनाजात आदि के अतिरिक्त कई दिलचस्प शीर्षक कायम किए हुए हैं। इनके किस्से की संक्षिप्त रुपरेखा निम्नलिखित है -

"लैला व मजनूँ का पाठशाला में एकत्रित बैठना, प्रेम पाठ की पुनरावृत्ति भेद प्रकट होना, माँ का लैला को उपदेश, पर्दा-नशीनी, मजनूँ का पागलपन, पिता का मजनूँ को समझाकर जंगल से लाना, लैला के यहाँ शादी का पैगाम भेजना, उसके माता-पिता का इंकार करना, कबीले के सरदार नौफिल का लैला के परिवार से लड़ना, इस लड़ाई में मजनूँ की ओर से कस्बों की दावत, मजनूँ के पागलपन का और बढ़ना, नौफिल की पुत्री से मजनूँ का निकाह, लैला के निकाह की खबर सुनकर मजनूँ को खत लिखना, मजनूँ का उत्तर देना, दोस्तों द्वारा मजनूँ को बाग में ले जाना, परन्तु उसका दीवानगी में भाग खड़ा होना, मजनूँ का बुलबुल से बातें करना, लैला के कुत्ते से मजनूँ की मुलाकात, लैला का सपने में ऊँटनी में सवार हो कर मजनू के पास पहुँचना, लैला का सखियों के साथ बाग में जाना, मजनूँ के एक मित्र का लैला को पहचान कर दर्द भरे स्वर में मजनूँ की गजल गाना, लैला का विकल हो कर घर लौटना और मृत्यु शैय्या पर फँस जाना, लैला की बीमारी का समाचार सुनकर मजनूँ का उसके पुर्से को आना और उसकी अर्थी देखना, मजनूँ का मस्त होकर गीत गाना, लैला के अंतिम संस्कार के समय मजनूँ का दम तोड़ देना और साथ ही दफन होना।" मजनूँ व लैला के क़िस्से की ऊपर दी हुई रुपरेखा में बड़ी ही सरलता और सहजता है, प्रेम अग्नि तथा विरह का यह अफ़साना मन को अति प्रभावित करता है और यह वन भ्रमण की एक आकर्षक दास्तान है। इसके लिए भगवान की ओर से खुसरो को एक दर्द भरा दिल प्राप्त हुआ था। हज़रत निजामुद्दीन औलिया प्रार्थना करते समय उनके हृदय की तड़प का वास्ता देते थे और उनका चिश्ती वंश से संबंधित होना उनके इस उत्साह का कारण था। मजनूँ की इस दास्तान में गज़ल की तमाम विशेषताएँ पाई जाती हैं। अत: वास्तववादिता अमीर खुसरो का वैशिष्टय था। मसनवी के हर क़िस्से पर हमको सत्य का आभास होता है। खुसरो के काव्य में प्राकृतिक चित्रकारी है। उनकी लेखनी ने जो शब्द चित्र खीचें हैं, वे 'माना' तथा बहजाद का चित्र कोष ही तो है।

(४) आइने-सिकंदरी-या सिकंदर नामा - निजामी के सिकंदरनामा का जवाब (६९९ हिज्री/सन १२९९ ई.) इसमें सिकन्दरे आजम और खाकाने चीन की लड़ाई का वर्णन है। इसमें अमीर खुसरो ने अपने छोटे लड़के को सीख दी है। इसमें रोज़ीरोटी कमाने, व कुवते बाज़ू की रोटी को प्राथमिकता, हुनर (कला) सीखने, मज़हब की पाबंदी करने और सच बोलने की वह तरक़ीब है जो उन्होंने अपने बड़े बेटे को अपनी मसनवी शीरी खुसरो में दी है। इस रचना के द्वारा खुसरो यह दिखाना चाहते थे कि वे भी निजामी की तरह वीर रस प्रधान मसनवी लिख सकते हैं। (५) हशव-बहिश्त- निजामी के हफ्त पैकर का जवाब (७०१ हिज्री/सन १३०१ ई.) फ़ारसी की सर्वश्रेष्ठ कृति। इसमें इरान के बहराम गोर और एक चीनी हसीना (सुन्दरी) की काल्पनिक प्रेम गाथा का बेहद ही मार्मिक चित्रण है जो दिल को छू जाने वाली है। इसमें खुसरो ने मानो अपना व्यक्तिगत दर्द पिरो दिया है। कहानी मूलत: विदेशी है अत: भारत से संबंधित बातें कम हैं। इसका वह भाग बेहद ही महत्वपूर्ण है जिसमें खुसरो ने अपनी बेटी को संबोधित कर उपदेशजनक बातें लिखी हैं। मौलाना शिबली (आजमगढ़) के अनुसार इसमें खुसरो की लेखन कला व शैली चरमोत्कर्ष को पहुँच गई है। घटनाओं के चित्रण की दृष्टि से फ़ारसी की कोई भी मसनवी, चाहे वह किसी भी काल की हो, इसका मुक़ाबला नहीं कर सकती।

आज के संदर्भ में खुसरो की कविता का अनुशीलन भावात्मक एकता के पुरस्कर्ताओं के लिए भी लाभकारी होगा। खुसरो वतन परस्तों अर्थात देश प्रेमियों के सरताज कहलाए जाने योग्य हैं। उनका सम्पूर्ण जीवन देश भक्तों के लिए एक संदेश है। देश वासियों के दिलों को जीतने के लिए जाति, धर्म, आदि की एकता की कोई आवश्यकता नहीं। अपितु धार्मिक सहिष्णुता, विचारों की उदारता, मानव मात्र के साथ प्रेम का व्यवहार, सबकी भलाई (कल्याण) की कामना तथा राष्ट्रीय एकता की आवश्यकता होती है। इस लेख में उद्घृत खुसरो की विभिन्न मसनवियों के उद्धरणों से यह बात भली-भाँति प्रभावित होती है तथा उनके भारत विषयक आत्यंतिक प्रेम का परिचय मिलता है।

अमीर खुसरो दरबारों से संबंधित थे और उसी तरह का जीवन भी व्यतीत करते थे जो साधारणतया दरबारी का होता था। इसके अतिरिक्त वे सेना के कमांडर जैसे बड़े-बड़े पदों पर भी रहे किन्तु यह उनके स्वभाव के विरुद्ध था। अमीर खुसरो को दरबारदारी और चाटुकारिता आदि से बहुत चिड़ व नफ़रत थी और वह समय समय पर इसके विरुद्ध विचार भी व्यक्त किया करते थे। उनके स्वंय के लिखे ग्रंथों के अलावा उनके समकालीन तथा बाद के साहित्यकारों के ग्रंथ इसका जीता जागता प्रमाण है। जैसे अलाई राज्य के शाही इतिहासकार अमीर खुसरो ने ६९० हिज्री (१२९१ ई.) में मिफताहुल फुतूह, ७११ हिज्री (१३११-१२ ई.) में खजाइनुल फुतूह, ७१५ हिज्री (१३१६ ई.) में दिवल रानी खिज्र खाँ की प्रेम कथा ७१८ हिज्री (१३१८-१९ ई.) में नुह सिपहर, ७२० हिज्री (१३२० ई.) में तुगलकनामा लिखा। इसके अलावा एमामी ने रवीउल अव्वल ७५१ हिज्री (मई १३५० ई.) ४० वर्ष की आयु में 'फुतूहुस्सलातीन', फिरदौसी का शाहनामा, (एमामी ने अमीर खुसरो के ऐसे ग्रंथ भी पढ़े थे जो इस समय नहीं मिलते। उसने अमीर खुसरो की कविताओं का अध्ययन किया था। जियाउद्दीन बरनी का तारीख़ें फ़ीरोज़शाही ७४ वर्ष की अवस्था में ७५८ हिज्री (१३७५ ई.) में समाप्त की। चौदहवीं शताब्दी ई. के तानजीर का प्रसिद्ध यात्री अबू अब्दुल्लाह मुहम्मद इब्ने बतूता (७३७ हिज्री / १३३३ई.) में सिंध पहुँचा। भारत वर्ष लौटने पर उसकी यात्रा का वर्णन इब्बे-तुहफनुन्नज्जार फ़ी गराइबिल अमसार व अजाइबुल असफार रखा गया। मेंहंदी हुसैन ने इसका नाम रेहला रखा। (REHLA (BARODA १९५३) अनुवाद में केवल अनाइबुल असफार रखा गया है। मुहम्मद कासिम हिन्दू शाह अस्तराबादी जो फ़रिश्ता के नाम से प्रसिद्ध है सोलहवीं शती का बड़ा ही विख्यात इतिहासकार है। उसने अपने ग्रंथ 'गुलशने इब्राहीमी' (जो तारीख़ें फ़रिश्ता के नाम से प्रसिद्ध है) की रचना १०१५ हिज्री (१६०६-०७ ई.) में समाप्त की।

बीते दिनों के संत फकीरों का संक्षिप्त परिचय - बुल्ला शाह (1680 - 1757)


बीते दिनों के संत फकीरों का संक्षिप्त परिचय - बुल्ला शाह (1680 - 1757)
 
बुल्लेशाह जिला कसूर (पाकिस्तान) में एक फकीर हुये हैं इनका जन्म बहावलपुर सिंध के गांव उच गैलानीयां में शाह मुहम्मद दरवेश के घर हुआ, जो मुसलमानों में ऊंची जाति के सैय्यद थे। जन्म के बाद का इनका जीवन जिला कसूर में बीता। वर्तमान में भारत पाकिस्तान सीमा पर स्थित जिला कसूर एक विशेष प्रकार कि मेथी के लिए जाना जाता है इसे 'कसूरी मेथी' कहते हैं। बुल्लेशाह बचपने से ही अध्यात्म से जुड़े रहे और उन्होंने कुछ गैबी (न दिखने वाली) ताकत हासिल कर ली कि अधपके फलों को पेड़ से बिना छुए गिरा दे पर उनको तलाश थी एक ऐसे मुर्शिद की जो उन्हें खुदा से मिलवा दे। एक दिन अराईं (छोटी मुसलिम जात) के बाग के पास से गुज़रते हुए, बुल्ले की नजऱ शाह इनायत पर पड़ी। उन्हें लगा शायद मुर्शिद की तलाश पूरी हुई। मुर्शिद को आज़माने के लिए बुल्ले ने अपनी गैबी ताकत से आम गिरा दिए। शाह इनायत ने कहा, नौजवान तुमने चोरी की है। बुल्ले ने चतुराई दिखाई, ना छुआ ना पत्थर मारा कैसी चोरी? शाह इनायत ने इनायत भरी नजऱों से देखा, हर सवाल लाजवाब हो गया। बुल्ला पैरों पर नतमस्तक हो गया। झोली फैला खैर मांगी मुर्शिद मुझे खुदा से मिला दे। मुर्शिद ने कहा, मुश्किल नहीं है,बस खुद को भुला दे। फिर क्या था बुल्ला मुरशद का मुरीद हो गया, लेकिन अभी इम्तिहान बाकी थे। पहला इम्तिहान तो घर से ही शुरू हुआ। सैय्यदों का बेटा अराईं का मुरीद हो, तो तथाकथित समाज में मौलाना की इज्ज़त खाक में मिल जाएगी। बहनें-भाभीयां समझाती हैं कि अराईं का संग छोड़ दो,
बुल्ले नू समझावण आइयां भैणां ते भरजाइयां l
बुल्ले तूं की लीकां लाइयां छड्ड दे पल्ला अराइयां ll
पर बुल्ला कहां जाति को जानता है। कहां पहचानता है समाज के मजहबों वाले मुखौटे।

शाह इनायत पूर्ण पुरुष थे| लोग महात्माओं के चरणों में जाते है तो लोक लाज में बंधे हुए जाते हैं | बुल्ले के परिवार में शादी थी, बुल्ले ने मुर्शिद को आने का न्यौता दिया। फकीर तबियत इनायत शाह खुद तो गए नहीं अपने एक मुरीद को भेज दिया। अराईं मुरीद फटे पुराने कपड़ों में शादी में पहुंचा। बुल्लेशाह के सम्मान को धक्का लगा | लोगों ने ताना दिया कि तुम्हारे गुरु भाई तुमसे मिलने आये हैं | बुल्लेशाह ने लोक लाज के डर से कहा कि ये मेरे गुरु भाई नहीं हैं | वह मुरीद लौट कर शाह इनायत के पास पहुंचा और उन्हें सारी बातें बता दी | गुरु जी ने कहा कि कोई बात नहीं|

बुल्लेशाह साधना करते थे और रूहानी तरक्की भी अच्छी थी उस दिन से उनकी रूहानी तरक्की बंद हो गई | वे बड़े परेशान हुये | गुरु भी इनके प्रति उदासीन दिखाई पड़ने लगे तो खूब रोये | सोचा कि अब क्या किया जाये ? गलती मालूम हो गई थी | परमार्थ के रास्ते पर चलने वालों को अहं को मिटाना पड़ता है , लोक लाज समाप्त करनी पड़ती है, तानेकशी बर्दाश्त करनी पड़ती है | गुरु को खुश करना आसान बात नहीं थी | उन्होंने देखा कि शाह इनायत को गाना पसंद था | बुल्लेशाह ने मुर्शिद को खुश करने के लिए कंजरों से गाना सीखना शुरू कर दिया| मान अपमान से बड़ी चीज रूहानी तरक्की छिन गई थी बंद हो गई थी | साधकों का साधन रुक जाय, जो दिखाई या सुनाई पड़ता है बंद हो जाय तो ऐसी विरह और तड़प पैदा होती है कि मरना बेहतर समझते हैं| तो वेश्या के यहाँ गाना सीखने लगे | कुछ दिन बीत गये | लगन से काम किया जाय तो सफलता जल्दी मिलने लगती है | बुल्लेशाह एक अच्छे गायक बन गये और नाचने वाले भी | गुरु के प्यार ने उन्हें इस स्तर तक पहुंचा दिया | सारी लोक लज्जा कुल मर्यादा समाप्त हो गई | गुरु खुश हो जांय और कुछ नहीं चाहिए | मुर्शिद जिसको चाहे आलिम (अक्लमंद) कर दे, जिसे चाहे अक्ल से खाली कर दे।

एक दिन नाचने वाली एक स्त्री (कंजरी) शाह इनायत के यहाँ कव्वाली के लिए जाने लगी - तो बुल्लेशाह ने उससे कहा कि अपने कपड़े मुझे दे दे तेरी जगह मैं कव्वाली करूँगा| बुल्लेशाह वहां पहुंचे और गाना शुरू कर दिया। चेहरे पर घूंघट था | गाने के साथ नाचने भी लगे।

दिल में दर्द हो तो जुबां में भी दर्द कि तासीर होती है| बाहर से कितना ही बनाव करो बात नहीं बनती | जिसके दिल में विरह है तो उसकी जबान भी दर्द भरी होगी| बुल्लेशाह ने अपने गाने में सारा दर्द उड़ेल दिया था| शाह इनायत ने उठकर, स्त्री भेष में बुल्ले को गले लगा लिया | लोग शाह इनायत के इस कृत्य पर आश्चर्यचकित थे कि ये क्या हो गया ? शाह इनायत ने कहा कि भाई बुल्ले अब पर्दा उठा ले | बुल्ले ने चरणों पर गिर कर कहा कि मैं बुल्ला नहीं भुल्ला हूँ अर्थात भूला हुआ हूँ | मुरशिद ने सीने से लगाकर भुल्ले को जग के बंधनों से मुक्त कर अल्हा की रमज़ से मिला दिया।

गुरु का खुश होना है भारी सत्तपुरुष निज किरिया धारी|
गुरु प्रसन्न होंय जा ऊपर वही जीव है सबके ऊपर ||

बुल्ला ने अलाह को पाने को जो रास्ता अपनाया वो इश्क मिज़ाजी (इंसान से मोहब्बत) से होते हुए इश्क हकीकी (खुदा से मोहब्बत) को जाता है। बुल्ले ने एक (मुरशद) से इश्क किया और उस एक (खुदा) को पा लिया। बुल्ला कहता है,

राझां राझां करदी नी मैं आपे रांझा होई
सद्दो नी मैंनू धीदो रांझा हीर ना आखो कोई

नाम-जाति-पाति, क्षेत्र, भाषा, पाक-नापाक, नींद-जगने, आग-हवा, चल-अचल के दायरे से खुद को बाहर करते हुए खुद के अंदर की खुदी को पहचानने की बात बुल्ले शाह यूं कहते हैं-

बुल्ला की जाना मैं कौन
ना मैं मोमन विच मसीतां न मैं विच कुफर दीयां रीतां
न मैं पाक विच पलीतां, न मैं मूसा न फरओन
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं अंदर वेद किताबां, न विच भंगा न शराबां
न रिंदा विच मस्त खराबां, न जागन न विच सौण
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं शादी न गमनाकी, न मैं विच पलीती पाकी
न मैं आबी न मैं खाकी, न मैं आतिश न मैं पौण
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं अरबी न लाहौरी, न मैं हिंदी शहर नगौरी
न हिंदू न तुर्क पिशौरी, न मैं रहंदा विच नदौन
बुल्ला की जाना मैं कौन

न मैं भेत मजहब दा पाया, न मैं आदम हव्वा जाया
न मैं अपना नाम धराएया, न विच बैठण न विच भौण
बुल्ला की जाना मैं कौन

अव्वल आखर आप नू जाणां, न कोई दूजा होर पछाणां
मैंथों होर न कोई स्याना, बुल्ला शौह खड़ा है कौन
बुल्ला की जाना मैं कौन




 

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संत कँवर राम पर पाकिस्तान में शोध

संत कँवर राम पर पाकिस्तान में शोध


सिंध के सुप्रसिद्ध लोकप्रिय संत कँवर राम (1885-1939) पर पाकिस्तान के कई लेखकों द्वारा शोध किया जा रहा है। संत कँवर राम के विशिष्ट योगदान से युवा पीढ़ी को अवगत कराने के लिए भारत की कई राज्य सरकार उनकी प्रेरक-जीवनी स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल कर रहीं हैं।लखनाउ में संत कँवर राम की 125वीं जयंती के मौके पर उक्त जानकारी दी गई। 17 व 18 जुलाई को आयोजित इस संगोष्ठी में हिन्दी और सिंधी के लगभग 150 लेखकों ने हिस्सा लिया।

उल्लेखनीय है कि इसी वर्ष भारत सरकार द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप के इस विलक्षण संत पर डाक टिकट भी जारी किया गया है। विभाजन के पश्चात भारत में बसे सिंधी-हिन्दू लंबे समय से इसकी माँग कर रहे थे। संत कँवर राम जी की 1 नवंबर 1939 को आतंकवादियों ने हत्या कर दी थी। सिंधी कथा गायन शैली 'भगत' को लोकप्रियता प्रदान करने का श्रेय भी संत कँवर राम को जाता है।



PRलखनऊ में संपन्न इस संगोष्ठी का आयोजन हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा किया गया। संगोष्ठी में ‍समाज सुधार के लिए संत कँवर राम द्वारा किए गए प्रयासों का स्मरण किया गया। संत कँवर राम ने तत्कालीन सिंध में सामाजिक समरसता के प्रसार तथा जनजागृति के क्षेत्र में विशेष रूप से कार्य किए।

सबसे महत्वपूर्ण, देश की आजादी के लिए वातावरण निर्मित करने में उनका अहम योगदान रहा। संत कँवर राम के लोकगायक, जनप्रिय नेता, समाज सुधारक और एक संत के रूप में दिए गए अवदान पर संगोष्ठी में लगभग 60 शोध पत्रों का वाचन किया गया। लखनऊ के संत असुदा राम आश्रम के प्रमुख चाँदूरामजी ने लेखकों को प्रशस्ति पत्र दिए।

उन्नत खेती का पैगाम, पहुँचा सरहद, ढाँणी-गाँव खुशहाली लाए खेत-खलिहान, धरती पुत्र हुए निहाल


उन्नत खेती का पैगामपहुँचा सरहदढाँणी-गाँव
खुशहाली लाए खेत-खलिहानधरती पुत्र हुए निहाल
डॉ. दीपक आचार्य
जिला सूचना एवं जनसंपर्क अधिकारी,
जैसलमेर
राजस्थान की पश्चिमी सरहद पर अवस्थित  रेतीली धरा जैसलमेर जिले में बहुसंख्यक लोगों की आजीविका कृषि और पशुपालन पर आधारित रही है। सरकार की कृषि व इससे संबंधित योजनाओं की वजह से परम्परागत कृषि में बदलाव आने लगा है तथा काश्तकार नवाचारों को अपना रहे हैं।
इंदिरा गांधी नहर का पानी प्यासे खेतों में पहुँचकर खुशहाली के स्वप्नों को साकार कर रहा है। वर्तमान सरकार के कार्यकाल में पिछले चार वर्ष में कृषि विकास व विस्तार के क्षेत्र में ढेरों उपलब्धियाँ हासिल की गई हैं।
खेतों में खिले नवाचारों के फूल
इस अवधि में कृषि विभाग द्वारा किसानों के यहां 370.51 लाख रुपये व्यय कर 14 हजार 704 फसल प्रदर्शन आयोजित किये गये। इनमें से राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के तहत पोषण सुरक्षा के लिये कृषकों के यहां कलस्टरों में 12860 हैक्टर क्षेत्र में बाजरा प्रदर्शनों का निःशुल्क आयोजन किया गया। इस अवधि में 29.4 लाख रुपए लागत के 57 हजार 736मिनिकिट्स का निःशुल्क वितरण ग्राम पंचायत स्तरीय शिविरों में किया गया। इसी तरह 235 किसानों को कृषि यंत्र की खरीद के लिये 20.98 लाख रुपए  अनुदान स्वरूप उपलब्ध कराये गये।
उपकरणों ने बदली खेतों की तस्वीर
जिले में हजार 255 किसानों को पौध संरक्षण यंत्र खरीद के लिये 11.17 लाख रुपए की अनुदान राशि उपलब्ध कराई गई। 137 किसानों को जल हौज निर्माण के लिये 68.50लाख रुपए का अनुदान तथा नहरी क्षेत्र में 292 किसानों को डिग्गी निर्माण के लिये 348 लाख रुपए की अनुदान राशि उपलब्ध करवाकर बहुत बड़ी राहत पहुँचाई गई है। इसी प्रकार 35किसानों को सामुदायिक पौण्ड निर्माण के लिये 244 लाख रुपए की अनुदान राशि प्रदान की गई।
बूँद-बूँद सिंचाई पद्धति ने भरे भण्डार
जिले में हजार 891 हैक्टर क्षेत्र में फव्वारा संयत्र लगाने के लिये 228.89 लाख रुपए की अनुदान राशि उपलब्ध कराई गई। इससे हजार 961 किसान लाभान्वित हुए। बूँद-बूँद सिंचाई को प्रोत्साहन करने के लिये 348 हैक्टर क्षेत्र में किसानों के यहाँ बूंद-बूँद संयत्र स्थापित किये गये एवं उन्हें 205.50 लाख रुपए की अनुदान राशि उपलब्ध कराई गई। जबकि167 हैक्टर क्षेत्र में मिनी स्पि्रंकलर लगाये जाकर किसानों को 123 लाख रुपए का अनुदान दिया गया। वर्ष 2011 में राज्य सरकार ने न्यून अन्तराल पर बूँद-बूँद संयंत्र स्थापित करने पर अनुदान को 70 से बढ़ाकर 90 प्रतिशत किया गया।
खजूर और बेर उत्पादन को बढ़ावा
इस अवधि में जिले में 45.88 हैक्टर में 90 प्रतिशत अनुदान पर टिश्यू कल्चर से तैयार आयातित खजूूर पौधों पर कृषकों को 110.17 लाख राशि का अनुदान उपलब्ध करवाया गया। कुल 105 हैक्टर में बेर पौधारोपण किया गया। इस दौरान किसानों को जिप्सम पर अनुदान के रूप में 4.99 लाख रुपए राशि व्यय की गई।
भ्रमणों ने निखारा काश्तकारों के हुनर को
जिले में 21 हजार 725 कृषकों को कृषक प्रशिक्षणोंभ्रमण व मेलों इत्यादि से लाभान्वित किया गया। इन गतिविधियों पर 29.57 लाख की धन राशि व्यय की गई। कृषकों को अनुदान पर पाईप लाईन स्थापित कराकर उन्हें 30 कि.मी. पाईप लाईन पर 10.18 लाख रुपए की राशि अनुदान स्वरूप उपलब्ध कराई गई। जिले में हजार 920 किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड का वितरण किया गया। जिले में चलाये गये रबी अभियान ने किसानों को खेती-बाड़ी के मामले में नई दिशा प्रदान की है।
जैसलमेर जिले में कृषि की विपुल संभावनाओं और सिंचित क्षेत्र में निरन्तर वृद्धि को दृष्टिगत रखते हुए वर्तमान सरकार के कार्यकाल में उपनिदेशक कृषि (विस्तार) जिला परिषद्का नया पद सृजित किया गया। इसी प्रकार जिला मुख्यालय पर मृदा परीक्षण प्रयोगशाला की स्थापना की गई।
प्रगतिशील किसानों को मिला प्रोत्साहन
जिले में पहली बार आत्मा योजनान्तर्गत वर्ष 2009-10 से प्रत्येक पंचायत समिति पर दो प्रगतिशील कृषकों का चयन कर 10-10 हजार रुपए का पुरस्कार एवं जिला स्तर पर प्रगतिशील कृषकों को 25-25 हजार रुपए का पुरस्कार दिलाया गया। अब तक 18 किसानों को 2.70 लाख रु पए पुरस्कार स्वरूप मिल चुके हैं। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन के तहत पहली बार वर्ष 2010-11 में 200 कृषकों के यहाँ चना प्रदर्शन किया गया एवं उन्हें 1000 मिनिकिट्स निःशुल्क वितरित किये गये।
सौर ऊर्जा का इस्तेमाल
जवाहरलाल नेहरु सौर ऊर्जा मिशन एवं राष्ट्रीय कृषि विकास योजना अन्तर्गत जिले में वर्ष 2011-12 में पहली बार 31 कृषकों के यहां 86 प्रतिशत अनुदान पर सोलर पम्प स्थापित कर 150 लाख अनुदान राशि उपलब्ध करवाई गई।
रबी एवं खरीफ अभियान से किसानों ने पायी नई जानकारी
राज्य सरकार द्वारा किसानों को कृषि की नवीन तकनीक की जानकारी देने एवं उन्नत किस्म के बीजों का वितरण कराने के लिये खरीफ एवं रबी अभियानों का संचालन किया गया। चार वर्षीय कार्यकाल में जिले में कृषि विभाग द्वारा खरीफ अभियान शिविरों का आयोजन किया जाकर किसानों को खेती-बाड़ी की नवीन कृषि तकनीक की जानकारी दी गई।
आलोच्य अवधि में 128 ग्राम पंचायतों में प्रतिवर्ष खरीफ अभियान शिविरों का आयोजन किया जाकर 23 हजार 144 किसानों को बीज मिनिकिट्स का निःशुल्क वितरण किया गया। इस अवधि में रबी अभियान के तहत शिविरों का आयोजन किया जाकर 24 हजार 359 बीज मिनिकिट्स किसानों को निःशुल्क वितरित किये गये। इसके साथ ही 10 हजार 233चारा मिनिकिट्स भी निःशुल्क वितरित किये। इसी प्रकार हजार 862 किसानों को मृदा स्वास्थ्य कार्ड वितरित किये गये एवं 4325 मृदा स्वास्थ्य के नमूनों का संग्रहण किया गया।
शिविरों मेंं हजार 807 मृदा स्वास्थ्य कार्ड किसानों को वितरित किये गये वहीं 875 किसानों के खेतों से मृदा स्वास्थ्य के नमूने संग्रहीत किये गये। शिविरों में किसानों को मांग के अनुसार रबी व खरीफ फसलों के लिये उन्नत किस्म के बीज उपलब्ध कराये गये। इन चार वर्षों में खेती-बाड़ी के लिहाज से जिले में विभिन्न योजनाओं के अन्तर्गत खूब काम हुए हैं और व्यापक उपलब्धियां हासिल की गई हैं।

अटल बिहारी वाजपेयी का 88वां जन्मदिन, PM पहुंचे उनके घर


अटल बिहारी वाजपेयी का 88वां जन्मदिन, PM पहुंचे उनके घर


पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के 88 वें जन्मदिवस पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सहित अनेक लोगों ने मंगलवार को उनके निवास पर जाकर उन्हें बधाई दी और उनके स्वस्थ जीवन की कामना की.

मनमोहन सिंह वाजपेयी के निवास, 6-ए कृष्णा मेनन मार्ग पर गए और बीजेपी के वरिष्ठ नेता के साथ तकरीबन 15 मिनट बिताए. राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने वाजपेयी को इस अवसर पर गुलदस्ता भेजा.

वाजपेयी को बधाई देने उनके निवास पर सुबह पंहुचने वालों में बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, नितिन गडकरी और लोकसभा उपाध्यक्ष करिया मुंडा शामिल हैं.

प्रधानमंत्री के रूप में छह साल के दौरान वाजपेयी ने मई 1998 में पोखरण परमाणु विस्फोट परीक्षण करने का निर्भीक कदम उठाया. उन्हें गठबंधन सरकार चलाने का भी ‘गुरू’ माना जाता है जिन्होंने 24 राजनीतिक दलों के साथ मिल कर राजग सरकार चलाई.

उन्हें बधाई देने पंहुचने वालों में राजनाथ सिंह, शाहनवाज हुसैन, कलराज मिश्र, राजीव प्रताप रूडी, विजय गोयल और अनंत कुमार शामिल हैं. अपने प्रिय नेता के जन्मदिवस के अवसर पर बीजेपी के कुछ नेताओं ने गरीबों को कंबल भी बांटे.

वाजपेयी का जन्म 25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में हुआ था. एक कवि और पत्रकार के रूप में उन्होंने अपने जीवन की शुरुआत की और बाद में देश के राजनेता के रूप में उभरे.


आईपीएस के घर घुसे चोर

आईपीएस के घर घुसे चोर
जयपुर। राजधानी में चोरों के हौसले इतने बुलंद हो गए हैं कि अब वे दिनदहाड़े पुलिस के घर में चोरी करने से भी नहीं डर रहे हैं। सोमवार को मालवीय नगर निवासी भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी विपुल चतुर्वेदी के घर दिन दहाड़े तीन चोर घुस गए। हालांकि नौकर की मुस्तैदी से एक बाल अपचारी मौके पर ही पकड़ा गया,लेकिन उसके दो साथी भागने में सफल हो गए। बाद में पुलिस ने पकड़े गए बाल अपचारी से पूछताछ के आधार पर उसके साथियों को भी धर-दबोचा।

पुलिस ने बताया कि मौजी कॉलोनी निवासी आईपीएस अधिकारी विपुल चतुर्वेदी वर्तमान में विदेश में संयुक्त राष्ट्र के मिशन पर कार्य कर रहे हैं। उनके घर पर सोमवार दोपहर करीब साढ़े 12 बजे तीन बाल अपचारी चोरी के इरादे से घुसे। चोरों ने घर के पीछे के दरवाजे का कुंदा सरिये से तोड़कर घर में प्रवेश किया। एक आरोपी घर के ऊपरी हिस्से में चला गया और दो बाहर ही रूक गए।

घर में घुसे चोर ने अलमारियों को खंगालना शुरू किया। खटपट की आवाज सुन नौकर मिश्रीलाल कमरे में गया और एक बाल अपचारी को पकड़ लिया। नौकर ने ही पुलिस को बुलाया और आरोपी को उनके हवाले कर मामला दर्ज करवाया।

पहले भी पकड़े गए हैं आरोपी
पुलिस के अनुसार पकड़े गए तीनों बाल अपचारी मॉडल टाउन में चोरी के मामले में पहले भी पकड़े गए थे। मौके से पकड़ा गया 14 वर्षीय बाल अपचारी खो नागोरिया का रहने वाला है। उससे पूछताछ के बाद मंगलवार सुबह जगतपुरा कच्ची बस्ती निवासी 11 वर्षीय और मनोहरपुरा कच्ची बस्ती निवासी नौ वर्षीय दोनों बाल अपचारियों को भी धर-दबोचा।

पूरी तैयारी में आए थे
पुलिस ने बताया कि आरोपियों के पास चोरी के लिए उपयोगी सारा सामान मिला है। तीनों चोरी के इरादे से ही घर में घूसे थे। उनके पास एक लोहे की छड़,नकब और बोरी मिली है। पूछताछ में बालअपचारियों ने बताया कि कई दिनों से उनकी निगाह इस मकान पर थी। हालांकि उन्हें नहीं पता था कि इसमें नौकर व अधिकारी की बुजुर्ग मां होगी।

एक्ट्रेस सुलक्षणा पंडित की बहन लापता

एक्ट्रेस सुलक्षणा पंडित की बहन लापता

मुंबई। सुलक्षणा,विजेता,जतिन और ललित पंडित.. ये चार नाम ऎसे हैं,जिन्हें बॉलीवुड में पहचान मिली है। लेकिन संगीतकारों और कलाकारों के इस परिवार की पांचवीं सदस्य संध्या सिंह के बारे में ज्यादा लोग नहीं जानते। अब संध्या इस वजह से चर्चा में हैं कि वे पिछले दो सप्ताह से मुंबई से लापता हैं।

इंदौर के सीनियर कस्टम और एक्साइज कमिश्नर जयप्रकाश सिंह की पत्नी संध्या (50) पिछले 13 दिसम्बर से लापता हैं। पुलिस की जानकारी के अनुसार वे बैंक में 20 लाख रूपए की ज्वैलरी जमा करवाने के लिए घर से निकली थीं, लेकिन उसके बाद उनका कुछ पता नहीं चला। संध्या नवी मुंबई के सीवुड्स में अपने दो बच्चों के साथ रह रही थीं,जबकि उनके पति की पोस्टिंग ग्वालियर में है। जयप्रकाश ने संदेह जताया है कि उनकी पत्नी किसी लूट की घटना का शिकार हो सकती हैं। उन्होंने बताया कि घर पर हाल ही हुई लूट की घटना की वजह से वे ज्वैलरी को बैंक लॉकर में जमा करवाने जा रही थीं।

जयप्रकाश को घटना की जानकारी उस वक्त मिली,जब उनके 22 वर्षीय पुत्र ने उन्हें फोन पर बताया कि मां घर नहीं लौटी। सभी दोस्तों और रिश्तेदारों के यहां पूछताछ के बाद पुलिस में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाई गई। पड़ताल में पता चला कि संध्या बैंक नहीं पहुंची और रास्ते में उन्होंने पानी की बोतल खरीदी थी। उनके पास मौजूद फोन भी स्विच्ड ऑफ हैं।

जांच में पता चला है कि संध्या डिप्रेशन की शिकार हैं और वे इसके लिए गोलियां भी ले रही थीं। इससे पहले वे घर से बिना बताए जा चुकी हैं, लेकिन हर बार वे किसी दोस्त या रिश्तेदार के पास मिल जाती थीं। यह पहली बार है कि दो सप्ताह से उनकी किसी तरह की जानकारी नहीं है। पुलिस घटना की जांच कर रही है।

पार्क में लड़के-लड़की की बीच हो रहा था ऐसा गंदा खेल, पुलिस भी देख रह गई दंग

इंदौर। दिल्ली गैंगरेप की घटना के बाद पुलिस ने सोमवार से शहर में ऑपरेशन सुरक्षा शुरू किया। टीमों ने स्कूलों व कॉलेजों के आसपास मंडराने वाले मनचलों को सबक सिखाया। साथ ही एक गार्डन में युवती के साथ बैठे गुंडे को पकड़ा। पहले दिन तो पुलिस ने छात्राओं को समझाइश देकर छोड़ दिया। अभियान में अब तक 37 से ज्यादा मनचलों पर कार्रवाई की गई। एसपी डॉ. आशीष ने बताया सभी थाना प्रभारियों को मनचलों पर कार्रवाई करने के निर्देश दिए हैं।
PIX: पार्क में लड़के-लड़की की बीच हो रहा था ऐसा गंदा खेल, पुलिस भी देख रह गई दंग 
दरअसल दिल्ली में गैंगरेप की घटना के बाद पूरे मध्यप्रदेश में पुलिस को ऐसे वारदात रोकने के लिए आदेश दिया गया है। इसी मद्देनजर पार्क में
 दोपहर में कोतवाली पुलिस ने गुजराती कॉलेज के बाहर खड़े दो युवकों को पकड़ा। उन्होंने ने अपने नाम महेंद्र पिता फूलचंद वर्मा निवासी रुस्तम का बगीचा व राहुल पिता राधेश्याम नि. पंचमूर्तिनगर बताए। विजयनगर व एमआईजी पुलिस मेघदूत गार्डन पहुंची।
PIX: पार्क में लड़के-लड़की की बीच हो रहा था ऐसा गंदा खेल, पुलिस भी देख रह गई दंग

पुलिस देख बाहर खड़े युवक भाग गए। पुलिस अंदर पहुंची तो एक युवक भागने लगा जिसे पकड़ लिया गया। वह एमआईजी थाना क्षेत्र का बदमाश कपिल पिता खुशालराव रंगारी है। वसीम पिता असलम भी पकड़ा गया।
PIX: पार्क में लड़के-लड़की की बीच हो रहा था ऐसा गंदा खेल, पुलिस भी देख रह गई दंग


पुलिस को देख कई प्रेमी युगल मुंह छिपाते रहे। एक युवती ने पुलिस को बताया वह यहां फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही है और रीवा की रहने वाली है। प्रेमी से मिलने गार्डन में आई थी। सीएसपी ने समझाइश देकर छोड़ दिया। इसके बाद पुलिस प्रेस्टीज कॉलेज, सत्यसांई स्कूल पहुंची। यहां से तीन युवकों को पकड़ा। पुलिस को देख युवती भागी, युवक धराया- जूनी इंदौर पुलिस ने ओल्ड जीडीसी के गेट के बाहर मनचलों की धरपकड़ के लिए अभियान चलाया। यहां एक युवक और युवती खड़ी दिखी।