मूक प्राणियों को अभयदान देती है होली
... जहाँ अबोले जीव भी मनाते हैं होली का जश्न
- डॉ. दीपक आचार्य
वागड़ अंचल में होली के कई-कई रंग देखे जा सकते हैं। एक ओर जहां होली आम आदमी के लिए रंगों और मौज-मस्ती का दरिया उमड़ाने वाला पर्व है वहीं एक स्थान ऐसा भी है जहाँ होली मूक प्राणियों के लिए अभयदान का पैगाम लेकर आती है।
डूंगरपुर से 60 किलोमीटर दूर माही के किनारे कड़ाणा बैक वाटर क्षेत्र में अवस्थित और किसी समय वागड़ की राजधानी के रूप में मशहूर गलियाकोट कस्बा बोहराओं की आस्था स्थली पीर फखरुद्दीन की विश्वविख्यात दरगाह और शक्ति साधना के प्राचीन तीर्थ शीतला माता मन्दिर के लिए जग विख्यात है।
गलियाकोट के शीतला माता मन्दिर पर यों तो साल भर श्रद्धालुओं का जमघट लगा रहता है और मेले-पर्वों पर जन ज्वार उमड़ता है जो शक्ति पूजा की सनातन परम्पराओं का उद्घोष करता है। लेकिन यहां हर साल होली का पर्व मूक प्राणियों के लिए त्योहार का दिन होता है। इस दिन यहां होने वाला परम्परागत जीव रक्षा अनुष्ठान अपने आप में अनूठा है।
शीतला मैया के प्रति लोगों में अपार श्रद्धा है और मान्यता है कि इस तीर्थ पर आकर दर्शन एवं पूजा-अर्चना करने से शारीरिक व्याधियों से मुक्ति प्राप्त होती है। कई बार मरणासन्न व्यक्तियों को भला-चंगा करने की प्रार्थना के साथ देवी के चरणों में किसी न किसी प्रकार के जानवर हो समर्पित किया जाता है।
किसी जमाने में इन जानवरों की बलि चढ़ाने की प्रथा थी। इस आदिवासी अंचल में पुराने जमाने से यह मान्यता रही है कि जीव के बदले किसी जीव को चढ़ा देने से व्याधिग्रस्त प्राणी के रोग समाप्त हो जाते हैं व वह फिर से सामान्य जीवन जीने लगता है। लेकिन कुछ दशक से बलि प्रथा पर रोक लगी और अब देवी मैया को बिना बलि दिए जानवर समर्पित कर दिए जाते हैंे।
प्रायःतर गूंगापन दूर करने, मनुष्य की शारीरिक व्याधियों के शमन के लिए यहां देवी के चरणों में जीव चढ़ाने की प्रथा सदियों से चली आ रही है। महीने में कम से कम से दस-पन्द्रह जानवर ऐसे होते हैं जो यहां शीतला मैया के चरणों में भेंट किये जाते हैं। इससे साल भर में जानवरों की काफी संख्या इकट्ठा हो जाती है। श्रद्धालुओं के चढ़ावे और खाद्यान्न आदि की निरन्तर आवक के चलते इन जानवरों को यहां किसी प्रकार की दिक्कत महसूस नहीं होती बल्कि ये हृष्ट-पुष्ट होते रहते हैं।
हर साल आने वाली होली इन जानवरों के लिए उत्सव से कम नहीं होती। इस दिन मन्दिर परिसर में साल भर से जमा होते रहने वाले जानवरों को ‘अमरिया’ (स्वतन्त्र जीवनयापन के लिए मुक्त) कर दिया जाता है। इसके अन्तर्गत मन्दिर परिसर में इन जानवरों की पूजा के बाद इनके कान आंशिक रूप से काट कर तथा मूर्गे की अंगुली काट कर अमरिया कर देने का रिवाज चला आ रहा है।
साल भर में जितनी भेड़ें, बकरे, मूर्गे चढ़ते हैं पुजारी उनके कान काट कर अमरिया कर देते हैं। ताकि न इसे कोई बेच सके, न काट सके। अमरियों को किसी तरह का कोई नुकसान नहीं पहुंच सकता। क्योंकि इन पशुओं को भगवान का माना जाता है।
ये जानवर पूरी तरह देवी मैया के जानवर माने जाते हैं व इन्हें तंग करना वर्जित माना गया है। अमरिया किए गए जानवरों को न कोई मार सकता है, न ही इन्हें बेचा जा सकता है। ये जानवर ताज़िन्दगी पूरी तरह स्वच्छन्द विचरण करते रहते हैं।
कुछ दशक पहले तक इस मन्दिर पर मनोकामनाएं पूरी होने की मन्नत को लेकर जानवरों की बलि चढ़ती थी पर पचास साल पूर्व इसे बन्द कर दिया गया। अब इन जानवरों को अमरिये करने का रिवाज है।
इन जानवरों को पवित्र माना जाता है। अमरिया किया गया कोई जानवर मर जाए तो विधि-विधान के साथ उसे जमीन में गड़ढ़ा खोद कर वस्त्रा में लपेट कर दफनाया जाता है और उसकी आत्मा की शांति के लिए अन्य पशुओं को दाना-पानी भेंट किया जाता है।
शीतला माता मन्दिर के प्रति लोगों में अपार जनास्था है। लोग मनौतियां मानते हैं और ठीक हो जाने पर चान्दी का वही अंग बनवाकर देवी को भेंट चढ़ाते हैं जिसे ठीक होने के लिए मन्नतें मानी होती हैं। जैसे आंख के रोगी ठीक हो जाने पर चान्दी की आंख, कान ठीक हो जाने पर चान्दी का कर्ण, बच्चा होने पर चान्दी/काष्ठ का पालना, हाथ-पांव ठीक हो जाने पर चान्दी या लकड़ी का हाथ-पांव चढ़ाते हैं।
शीतला सप्तमी को मन्दिर में विशेष आयोजन होते हैं और मेला भरता है जबकि साल भर यहां दूर-दूर से श्रद्धालु आते रहते हैं। हर साल होली पर यहां कई बकरे, मूर्गे और भेड़ें आदि जानवर अमरिया कर मुक्त कर दिए जाते हैं। हर साल अमरिये होने वाले जानवरों की वजह से तीर्थ परिसर में इनका जमघट लगा रहता है।
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