गुरुवार, 23 जनवरी 2014

जिन्दगी से बेवफाई, अपनों की रूसवाई?

बाड़मेर।मौत किसी भी समस्या का समाधान नहीं है, हर समस्या का समाधान जीवन है। यही सच है। इसके बावजूद कुछ लोग जीवन से मुंह मोड़कर मौत को गले लगाते हैं और अपनों को रूसवा कर जाते हैं। बाड़मेर जिले में बीते वर्ष 116 जने अपनों को रूसवा कर गए। पुलिस की भाषा में कहें तो वर्ष 2013 में 116 जनों ने आत्महत्या कर ली। अजीब संयोग है कि वर्ष 2012 में भी इतने ही लोगों ने आत्महत्या की थी।



कई दशकों से अकाल व अभाव का दंश भोगते रहे बाड़मेर जिले में पिछले एक दशक में बदलाव व समृद्धि की बयार चली है, लेकिन इस मोटी परत के तलछट में नजर न आने वाली तनाव की महीन रेखा मोटी होती गई है।


यही वजह हैकि जिले में हर तीन दिन में एक जने ने जिंदगी से हार मान ली। आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2012 में पुरूषों की तुलना में महिलाओं की आत्महत्या की संख्या ज्यादा थी, लेकिन वर्ष 2013 में यह आंकड़ा उल्टा हो गया। वर्ष 2012 में 6 4 महिलाओं व 52 पुरूषों तथा वर्ष 2013 में 41 महिलाओं तथा 75 पुरूषों ने आत्महत्या की।


जिंदगी से रूठने की वजह क्या?

कोई आत्महत्या क्यों करता है? मनोवैज्ञानिकों के अनुसार इस सवाल का सीधा जवाब यह है कि अत्यधिक तनाव इंसान को बेरूखा कर देता है। निरंतर तनाव, अकेलापन व उससे उपजने वाला क्षणिक आक्रोश व्यक्ति को मौत के मुंह में धकेल देता है।


भावात्मक आक्रोश पर शाब्दिक प्रहार भी कई बार मौत की वजह बन जाता है। एकल परिवार व एकाकी जीवनवृत्ति की कठिनाइयां भी कभी कभार मौत का कारण बन जाती हैं। रिश्तों की अनबन, अविश्वास की भावना, गहराई तक जुड़ाव न होने से जिंदगी से लगाव खत्म हो जाता है, जो आत्महत्या के रूप में परिणित हो जाता है।

पानी के टांके, रस्सी से फंदा


आत्महत्या का दुस्साहस करने वाले पानी के टांकों में कूदते हैं अथवा पेड़ व पंखे से फंदा लगा देते हैं। आत्महत्या के अधिकांश मामलों की यही कहानी है। आत्महत्या करने वाली अधिकांश महिलाओं ने पानी के टांके में कूदकर इहलीला समाप्त की। वहीं अधिकांश पुरूषों ने रस्सी से पेड़ व अथवा पंखे से फंदा लगा जिंदगी से मुंह मोड़ लिया। कुछ पुरूषों ने ट्रेन के आगे आकर आत्महत्या की।

प्रतिवर्ष 50 टांके नाकारा


जिस टांके में कूदकर आत्महत्या होती है, वह टांका हमेशा के लिए बंद कर दिया जाता है। बाड़मेर जिले में प्रतिवर्ष औसतन पचास टांके इस वजह से नाकारा हो जाते हैं। उन टांकों का कोईउपयोग नहीं होता। कुछ लोगो का सुझाव है कि टांकों में सीढियां होनी चाहिए। क्षणिक आवेश के साथ जो टांके में कूद जाता है, उसे यदि सीढियों का सहारा मिल जाए तो जिंदगी बच सकती है। इससे प्रतिवर्ष नाकारा होने वाले टांकों की संख्या भी कम हो जाएगी।

निराशा...कुण्ठा...मौत


परिवार व कार्यस्थल पर असंतोष उत्पन्न होने के कारण निराशा होती है, जो धीरे-धीरे कुण्ठा बन जाती है। दीर्घकाल तक कुण्ठा रहने पर सकारात्मक विचार रूक जाते हैं और आत्महत्या जैसी स्थिति बन जाती है। जहां तक असंतोष का प्रश्न है तो उसकी कई वजहें होती हैं। पति-पत्नी के बीच ईगो, अविश्वास, आर्थिक तंगी जैसे कईकारण हैं। इस स्थिति से बचने का तरीका यही है कि हमेशा सकारात्मक रहें, भरोसा करें, भरोसा दें। इससे सहनशक्ति पैदा होगी, जिससे जिन्दगी व परिवार से लगाव रहेगा। फिर आत्महत्या की नौबत नहीं आएगी। -नीता जैन, मनोवैज्ञानिक, जेएनवीयू जोधपुर

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