शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

विश्व पृथ्वी दिवस


विश्व पृथ्वी दिवस
आज विश्व पृथ्वी दिवस है। इसे पहली बार अप्रैल 1970 में इस उद्देश्य से मनाया गया था कि लोगों को पर्यावरण के प्रति
संवेदनशील बनाया जा सके। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति अल गोर की पुस्तक 'इनकन्वीनिएंट ट्रुथ' और 2007 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र के आईपीसीसी के साथ संयुक्त रूप से मिले नोबेल पुरस्कार ने इस ओर जागरूकता बढ़ाने में मदद की है।
इसके बावजूद मसले का समाधान अभी बहुत दूर है, जैसा कि ब्रिटेन के पूर्व ऊर्जा मंत्री और हाउस ऑफ लार्ड्स की जलवायु परिवर्तन पर रिपोर्ट देने वाली समिति के सदस्य निगेल लॉसन की हाल में आई एक पुस्तक में कहा गया है। इस बार का पृथ्वी दिवस हम उस वैश्विक खाद्य संकट की पृष्ठभूमि में मना रहे हैं जिसने जलवायु परिवर्तन से जुड़े कुछ नए सवाल खड़े किए हैं।
पर्यावरण का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा, तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया। अब जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन पर पड़ रहा है- किसान यह तय नहीं कर पा रहे कि कब बुवाई करें और कब फसल काटें। ऐसे में कुछ ही देश इस खतरे की अनदेखी करने का साहस कर सकते हैं। 

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

Kabhi Kitabon Mein Phool Rakhna - Ghulam Ali Version with Lyrics

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लाखों पेड़ों की रक्षा को उठेंगे हजारों हाथ




लाखों पेड़ों की रक्षा को उठेंगे हजारों हाथ 
ओरण की सुरक्षा का बीड़ा 22 दिन में 24 लाख गायत्री मंत्रों का उच्चारण
बाड़मेर। एक ओर जहां अतिक्रमण और सरकारी स्तर पर आबंटन के कारण ओरण गोचर जमीन खतरे में है, वहीं सीमावर्ती क्षेत्र के चालीस गांवो लोगों ने ओरण की सुरक्षा का बीड़ा उठाया है। इसके लिए 22 दिन में 24 लाख गायत्री मंत्रों का उच्चारण किया जाएगा। 27 गांवों के चारों ओर अखण्ड ज्योत के साथ परिक्रमा की जाएगी और हजारों लोग एक साथ संकल्प लेंगे कि वे न तो ओरण की जमीन पर अतिक्रमण करेंगे न करने देंगे। ओरण के वृक्षों पर कुल्हाड़ी चलाना भी महापाप होगा। पर्यावरण शुद्धता को लेकर हो रहे स्वप्रेरित आंदोलन के लिए चालीस गांवों के लोगों ने करीब तीस लाख रूपए एकत्रित किए हैं।
 पर्यावरण की शुद्धता, वृक्षों के बचाव, चारागाह की जमीन के संरक्षण और सामाजिक भाईचारे की मिसाल का उदाहरण बनेंगे सीमावर्ती हरसाणी क्षेत्र के 40 गांव। बाड़मेर एवं जैसलमेर जिले में जमीनों के दाम बढ़ने के बाद सरकारी जमीन पर अतिक्रमण सबसे बड़ी समस्या हो गई है। लोगों ने ओरण की जमीन को भी नहीं बख्शा, जिसे यहां सदियों से देवी देवताओं की जमीन माना जाता है। इस जमीन को बचाने के कई नियम हैं, लेकिन पालना नहीं हो रही है।
हरसाणी क्षेत्र के रोहिड़ाला गांव में मालण देवी(लोकदेवी) के नाम ओरण की जमीन संरक्षित है। वहीं निकटवर्ती गांवों में नागणेच्या माता के नाम से ओरण है। हजारों बीघा इस ओरण की जमीन के भरोसे ही सीमावर्ती क्षेत्र का पशुधन जिंदा है। इसकी सुरक्षा को लेकर ग्रामीणों ने ग्रामीणों ने महापुरश्चरण यज्ञ करवाने का निर्णय किया है। इस यज्ञ में गायत्री मंत्र की 24 लाख आहूतियां दी जाएगी। 18 मई से 22 दिन तक चलने वाले इस आयोजन के दौरान 27 गांवों की परिक्रमा, ओरण के चारों तरफ दूध की कार, ओरण बचाव का संकल्प, संत महात्माओं के प्रवचन, नई पीढ़ी को ओरण के बारे में साहित्य प्रदान किया जाएगा। 
छत्तीस कौम की भागीदारी
ओरण बचाने के इस आयोजन में छत्तीस कौम की भागीदारी है। करीब तीस लाख रूपए ग्रामीणों ने एकत्रित किए हैं। आयोजन में सभी की भागीदारी सुनिश्चत करने के लिए गांव के अनुसार व्यवस्थाएं और कार्यक्रम तय किए गए हैं।
भावना से जुड़े हैं लोग
ओरण के प्रति लोगों में आस्था है। सदियों से ओरण में लाखों पशु पले हैं। लाखों पेड़ लगे हैं। पुरखों की इस परंपरा को जीवंत किया जा रहा है। - भूरसिंह, नखतसिंह गोरडिया, आयोजन समिति सदस्य

कुलधरा,खाभा अवशेषों के साथ ही गुम हो जाएंगे




































कुलधरा,खाभा अवशेषों के साथ ही गुम हो जाएंगे


पशिचमी सरहदी जेसलमेर जिले का वैभवाली इतिहास इसकी कहानी खुद कहता हैं।जैसलमैर जिले के प्राचीन ,समृद्धाली,विकसित और वैभवाली इतिहास के साथ पालीवालों कें 84 गांवों की दर्दनाक किंदवन्तिया भी जुडी हैं।जैसलमेर जिला मुख्यालय सें 18 से 35 किलो मीटर के दायरे में पालीवालों कें वीरान और उजडे 84 गांवों की दास्तान आम आदमी कें रोंगटे खडे कर देता हैं।कुलधरा में हनुमान और खाभा में श्री कृश्णा मन्दिर आज भी वीरानी के साक्षी हैं।मेरा पुतैनी गांव खाभा जहॉ किलें की तलहटी पर मेरें परदादा पूज्य श्री शोभ सिंह जी की मूर्ति आज भी विद्यमान हैें।

कुलधरा पालीवालों का गांव था और पता नहीं क्‍या हुआ कि एक दिन अचानक यहां फल-फूल रहे पालीवाल अपनी इस सरज़मीं को छोड़कर अन्‍यत्र चले गये । उसके बाद से कुलधरा,खाभा,नभिया,धनाव सहित 84 गांवों  पर कोई बस नहीं सका । कोशिशें हुईं पर नाकाम हो गयीं । कुलधरा के अवशेष आज भी विशेषज्ञों और पुरातत्‍वविदों के अध्‍ययन का केंद्र हैं । कई मायनों में पालीवालों ने कुलधरा को वैज्ञानिक आधार पर विकसित किया था 
कुलधरा जैसलमेर से तकरीबन अठारह किलोमीटर की दूरी पर स्थिति है । पालीवाल समुदाय के इस इलाक़े में चौरासी गांव थे और ये उनमें से एक था । मेहनती और रईस पालीवाल ब्राम्‍हणों की कुलधार शाखा ने सन 1291 में तकरीबन छह सौ घरों वाले इस गांव को बसाया था । पालीवालों का नाम दरअसल इसलिए पड़ा क्‍योंकि वो राजस्‍थान के पाली इलाक़े के रहने वाले  थे । पालीवाल ब्राम्‍हण होते हुए भी बहुत ही उद्यमी समुदाय था । अपनी बुद्धिमत्‍ता, अपने कौशल और अटूट परिश्रम के रहते पालीवालों ने धरती पर सोना उगाया था । हैरत की बात ये है कि पाली से कुलधरा आने के बाद पालीवालों ने रेगिस्‍तानी सरज़मीं के बीचोंबीच इस गांव को बसाते हुए खेती पर केंद्रित समाज की परिकल्‍पना की थी । रेगिस्‍तान में खेती । पालीवालों के समृद्धि का रहस्‍य था जिप्‍सम की परत वाली ज़मीन को पहचानना और वहां पर बस जाना । पालीवाल अपनी वैज्ञानिक सोच, प्रयोगों और आधुनिकता की वजह से उस समय में भी इतनी तरक्‍की कर पाए थे ।
पालीवाल समुदाय आमतौर पर खेती और मवेशी पालने पर निर्भर रहता था । और बड़ी शान से जीता था ।
 पालीवाल खेती और मवेशियों पर निर्भर रहते थे और इन्‍हीं से समृद्धि अर्जित करते थे । दिलचस्‍प बात ये है कि रेगिस्‍तान में पालीवालों ने सतह पर बहने वाली पान या ज़मीन पर मौजूदपानी का सहारा नहीं लिया । बल्कि रेत में मौजूद पानी का इस्‍तेमाल किया । पालीवाल ऐसी जगह पर गांव बसाते थे जहां धरती के भीतर जिप्‍सम की परत हो । जिप्‍सम की परत बारिश के पानी को ज़मीन में अवशोषित होने से रोकती और इसी पानी से पालीवाल खेती करते । और ऐसी वैसी नहीं बल्कि जबर्दस्‍त फसल पैदा करते । पालीवालों के जल-प्रबंधन की इसी तकनीक ने थार रेगिस्‍तान को इंसानों और मवेशियों की आबादी या तादाद के हिसाब से दुनिया का सबसे सघन रेगिस्‍तान बनाया । पालीवालों ने ऐसी तकनीक विकसित की थी कि बारिश का पानी रेत में गुम नहीं होता था बल्कि एक खास गहराई पर जमा हो जाता था ।
कुलधरा की वास्‍तुकला के बारे में कुछ दिलचस्‍प तथ्‍य कि कुलधरा में दरवाज़ों पर ताला नहीं लगता था । गांव का मुख्‍य-द्वार और गांव के घरों के बीच बहुत लंबा फ़ासला था । लेकिन ध्‍वनि-प्रणाली ऐसी थी कि मुख्‍य-द्वार से ही क़दमों की आवाज़ गांव तक पहुंच जाती थी । दूसरी बात उन्‍होंने ये बताई कि गांव के तमाम घर झरोखों के ज़रिए आपस में जुड़े थे इसलिए एक सिरे वाले घर से दूसरे सिरे तक अपनी बात आसानी से पहुंचाई जा सकती थी । घरों के भीतर पानी के कुंड, ताक और सीढि़यां कमाल के हैं । कहते हैं कि इस कोण में घर बनाए गये थे कि हवाएं सीधे घर के भीतर होकर गुज़रती थीं । कुलधरा के ये घर रेगिस्‍तान में भी वातानुकूलन का अहसास देते थे । 


ऐसा उन्नत और विकसित 84 गांव एक दिन अचानक खाली कैसे हो गया । ये एक रहस्‍य ही है ।

कहते हैं कि जैसलमेर की राजा सालम सिंह को कुलधरा की समृद्धि बर्दाश्‍त नहीं हो रही थी । उसने कुलधरा के बाशिंदों पर भारी कर/टैक्‍स लगा दिये थे । पालीवालों का तर्क था कि चूंकि वो ब्राम्‍हण हैं इसलिए वो ये कर नहीं देंगे । जिसे राजा ने ठुकरा दिया । ये बात स्‍वाभिमानी पालीवालों को हज़म नहीं हुई और मुखियाओं के विमर्श के बाद उन्‍होंने इस सरज़मीं से जाने का फैसला कर लिया । इस संबंध में एक कथा और है । कहते हैं कि जैसलमेर के दिलफेंक दीवान को कुलधरा की एक लड़की पसंद आ गयी थी । ये बात पालीवालों को बर्दाश्‍त नहीं हुई और रातों रात वो यहां से हमेशा हमेशा के लिए चले गये । अब सच क्‍या है ये जानना वाक़ई बेहद मुश्किल है । लेकिन कुलधरा के इस वीरान खंडहर में घूमकर मुझे बहुत अजीब- सा लगा । इन घरों, चबूतरों, अटारियों को देखकर पता नहीं क्‍यों ऐसा लग रहा था कि अभी कोई महिला सिर पर गगरी रखे निकल पड़ेगी या कोई बूढ़-बुजुर्ग चबूतरे पर हुक्‍का गुड़गुड़ाता दिखेगा । बच्‍चे धूल मिट्टी में लिपटे खेलते नज़र आएंगे । पगड़ी लगाए पालीवाल अपने खेतों पर निकल रहे होंगे । पर सच ये है कि सदियों से पालीवालों का ये गांव पूरी तरह से वीरान है ।
अफ़सोस के पालीवालों के वैज्ञानिक रहस्‍य कुलधरा के अवशेषों के साथ ही गुम हो जाएंगे ।